राजोवाच
उक्तस्त्वया भूमण्डलायामविशेषो यावदादित्यस्तपति यत्र चासौ ज्योतिषां गणैश्चन्द्रमा वा सह दृश्यते ॥ १ ॥
शब्दार्थ
राजा उवाच—महाराज परीक्षित् बोले; उक्त:—पहले ही कहा जा चुका है; त्वया—आपके द्वारा; भू-मण्डल—भूमण्डल नामक लोक; आयाम-विशेष:—त्रिज्या की विशेष लम्बाई; यावत्—जब तक; आदित्य:—सूर्य; तपति—तपता है, दीप्तिमान है; यत्र—वहाँ भी; च—भी; असौ—वह; ज्योतिषाम्—ज्योतिपिंडों का; गणै:—समूह के साथ; चन्द्रमा—चन्द्रमा; वा—या; सह—साथ; दृश्यते—देखा जाता है ।.
अनुवाद
राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से कहा—हे ब्राह्मण, आपने मुझे पहले ही बता दिया है कि भूमण्डल की त्रिज्या वहाँ तक विस्तृत है जहाँ तक सूर्य का प्रकाश और उष्मा पहुँचती है तथा चन्द्रमा और अन्य नक्षत्र दृष्टिगोचर होते हैं।
तात्पर्य
इस श्लोक में इसका उल्लेख है कि भूमण्डल नामक लोक वहाँ तक विस्तीर्ण है जहाँ तक सूर्य का प्रकाश पहुँचता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सूर्य का प्रकाश ९,३०,००,००० मील दूरी तय करके पृथ्वी तक पहुँचता है। यदि हम इस आधार पर गणना करें तो भूमण्डल की त्रिज्या ९,३०,००,००० मील हुई। गायत्री मंत्र में हम ॐ भूर् भुव: स्व: का जप करते हैं। इसमें भूर् शब्द भूमण्डल का द्योतक है। तत् सवितुर् वरेण्यम्—सूर्य का प्रकाश भूमण्डल में फैलता है। अत: सूर्य पूजनीय है। तारे, जिनको नक्षत्र कहा जाता है, अन्य प्रकार के सूर्य नहीं हैं, जैसाकि आधुनिक विज्ञानी मानते हैं। भगवद्गीता (१०.२१) से हमें विदित होता कि ये नक्षत्र चन्द्रमा के ही समान हैं (नक्षत्राणां अहं शशी )। चन्द्रमा की ही भाँति नक्षत्र भी सूर्य प्रकाश को परावर्तित करते हैं। ग्रहों की स्थिति के सम्बन्ध में आज जितना भी ज्ञान प्राप्त है उससे भी अधिक हमें श्रीमद्भागवत के सृजन के पहले ही आकाश तथा विभिन्न ग्रहों के विषय में ज्ञात था। शुकदेव गोस्वामी ने ग्रहों की स्थिति के सम्बन्ध में जो व्याख्या की है उससे यही सूचित होता है कि उनसे भी पहले अत्यन्त दीर्घकाल से तत्सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त था। वैदिक काल के ऋषियों को विभिन्न लोकों की स्थिति अज्ञात न थी।
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