श्रीभगवान् की व्यवस्था के फलस्वरूप कुछ लोकों की नदियों के तटों पर स्वर्ण उत्पन्न होता है। इस पृथ्वी के बेचारे निवासी अपने अल्पज्ञान के कारण “तथाकथित भगवान्” के वशीभूत हो जाते हैं, जो केवल मुट्ठी भर ही स्वर्ण बना पाते हैं। किन्तु ऐसा माना जाता है कि इस भौतिक जगत के उच्चतर लोकों में, जम्बू नदी के तटों का कीचड़ जामुन के रस के साथ मिलकर, सूर्यप्रकाश एवं वायु की प्रक्रिया के कारण प्रचुर मात्रा में स्वर्ण उत्पन्न करता है। इस प्रकार वहाँ के स्त्री-पुरुष विविध स्वर्णाभूषणों से अलकृंत होकर अत्यन्त मनोहर लगते हैं। दुर्भाग्यवश, पृथ्वी पर सोने की इतनी कमी है कि विश्व की सरकारें इसे अपने कोष में रखकर कागजी मुद्रा चलाती हैं। चूँकि यह मुद्रा स्वर्ण पर आश्रित नहीं रहती, इसलिए कागजी नोटों के रूप में वितरित धन व्यर्थ होता है। तो भी सांसारिक प्राणी भौतिक उन्नति पर इतना इतराते हैं। आज के युग में, कन्याएँ तथा स्त्रियाँ सोने के बजाय प्लास्टिक के आभूषण धारण करती हैं, सोने के पात्रों के बजाय प्लास्टिक के बने पात्र काम में लाये जाते हैं, किन्तु फिर भी मनुष्यों को अपनी सम्पत्ति पर अत्यधिक गर्व है। इसीलिए इस युग के मनुष्यों को मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुता: (भागवत में १.१.१०) कहा गया है। तात्पर्य यह है कि वे श्रीभगवान् के ऐश्वर्य को न समझ पाने के कारण अत्यन्त मन्द एवं नीच हैं। उन्हें सुमन्दमतय: कहा गया है, क्योंकि वे इतने मूर्ख हैं कि मुट्ठी भर सोना बनाने वाले धूर्त को ईश्वर मान बैठते हैं। पास में सोना न होने से वे अत्यन्त दरिद्र होते हैं, इसीलिए उन्हें अभागा माना जाता है। कभी-कभी ये अभागे पुरुष भाग्यशाली स्थान प्राप्त करने के लिए स्वर्गलोक जाना चाहते हैं, जैसाकि इस श्लोक में कहा गया है, किन्तु भगवान् के शुद्ध भक्तों की रुचि ऐसे ऐश्वर्य के प्रति रंच भर भी नहीं होती। दरअसल कभी-कभी भक्तजन तो स्वर्ण के रंग की उपमा चमकीली सुनहली विष्ठा से देते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्तों को स्वर्ण आभूषणों एवं मनोहारी रूप से अलंकृत स्त्रियों के द्वारा आकृष्ट न होने का उपदेश दिया है। न धनं न जनं न सुन्दरीम्—भक्त को चाहिए कि वह न तो स्वर्ण से, न सुन्दर स्त्रियों से तथा न ही अनेक अनुगामियों के होने से आकृष्ट हो। अत: श्री चैतन्य महाप्रभु ने गुप्त रूप से प्रार्थना की—मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि—“मेरे प्रभो, मुझे अपनी अहैतुकी भक्ति प्रदान करें। मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए।” भक्त इस भौतिक जगत से छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना कर सकता है। यही उसकी एकमात्र कामना है।
अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकजस्थितधूलीसदृशं विचिन्तय ॥
विनीत भक्त भगवान् से यही प्रार्थना करता है, “कृपा करके अनेकानेक भौतिक ऐश्वर्यों से पूर्ण इस भौतिक जगत से मुझे उबार कर अपने चरणारविन्द की शरण में रख लें।”
श्रीनरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं—
हा हा प्रभु नन्दसुत, वृषभानु-सुता-युत करुणा करह एइ बार नरोत्तमदास कय, ना ठेलिह रांगापाय, तोमा विने के आछे आमार “हे प्रभो, हे नन्द महाराज के पुत्र, आप मेरे समक्ष वृषभानु की पुत्री श्रीमती राधा-रानी सहित खड़े हैं। मुझे अपने चरणकमल की धूलि के रूप में स्वीकार करें। मुझे ठुकरावें नहीं, क्योंकि मेरा अन्य कोई आश्रय नहीं है।”
इसी प्रकार से प्रबोधानन्द सरस्वती बताते हैं कि स्वर्णमुकट तथा अन्य आभूषणों से अलंकृत देवताओं की स्थिति आकाशकुसुम से अधिक नहीं है (त्रिदशपूर आकाश-पुष्पायते )। भक्त कभी भी ऐसे ऐश्वर्य से लालायित नहीं होता। वह तो मात्र भगवान् के चरणकमल की धूलि बनने की आकांक्षा रखता है।