जठर-देवकूटौ—जठर तथा देवकूट नामक दो पर्वत; मेरुम्—सुमेरु पर्वत; पूर्वेण—पूर्व दिशा में; अष्टादश-योजन-सहस्रम्— अठारह हजार योजन; उदगायतौ—उत्तर से दक्षिण को फैला हुआ; द्वि-सहस्रम्—दो हजार योजन; पृथु-तुङ्गौ—चौड़ाई तथा ऊँचाई में; भवत:—हैं; एवम्—इसी तरह; अपरेण—पश्चिम दिशा में; पवन-पारियात्रौ—पवन तथा पारियात्र नामक दो पर्वत; दक्षिणेन—दक्षिण दिशा में; कैलास-करवीरौ—कैलास तथा करवीर नामक दो पर्वत; प्राक्-आयतौ—पूर्व तथा पश्चिम दिशा में विस्तृत; एवम्—इसी तरह; उत्तरत:—उत्तर दिशा में; त्रिशृङ्ग-मकरौ—त्रिशृंग तथा मकर ये दो पर्वत; अष्टभि: एतै:—इन आठ पर्वतों के द्वारा; परिसृत:—घिरा हुआ; अग्नि: इव—अग्नि के सदृश; परित:—सर्वत्र; चकास्ति—तेजी से चमकता है; काञ्चन गिरि:—सुमेरु या मेरु नामक सोने का पर्वत ।.
अनुवाद
सुमेरु पर्वत के पूर्व में जठर तथा देवकूट नामक दो पर्वत हैं, जो उत्तर तथा दक्षिण की ओर १८,००० योजन (१,४४,००० मील) तक फैले हुए हैं। इसी प्रकार सुमेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में पवन तथा पारियात्र नामक दो पर्वत हैं, जो उतनी ही दूरी तक उत्तर तथा दक्षिण में भी फैले हैं। सुमेरु के दक्षिण में कैलास तथा करवीर पर्वत हैं, जो पूर्व और पश्चिम में १८,००० योजन तक फैले हुए हैं और सुमेरु की उत्तरी दिशा में त्रिशृंग तथा मकर नामक दो पर्वत पूर्व और पश्चिम में इतनी ही दूरी में विस्तृत हैं। इन समस्त पर्वतों की चौड़ाई २,००० योजन (१६,००० मील) है। इन आठों पर्वतों से घिरा हुआ स्वर्णनिर्मित सुमेरु पर्वत अग्नि की तरह जाज्वल्यमान है।
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