न वा एतेषु वसतां दिव्यौषधिरसरसायनान्नपानस्नानादिभिराधयो व्याधयो वलीपलितजरादयश्च देहवैवर्ण्यदौर्गन्ध्यस्वेदक्लमग्लानिरिति वयोऽवस्थाश्च भवन्ति ॥ १३ ॥
शब्दार्थ
न—नहीं; वा—या; एतेषु—इन लोकों में; वसताम्—बसने वालों का; दिव्य—विस्मयकारी; औषधि—जड़ी बूटियों का; रस—रस; रसायन—तथा अमृत; अन्न—खाने से; पान—पीने से; स्नान-आदिभि:—स्नान आदि करने से; आधय:—मानसिक क्लेश; व्याधय:—रोग, व्याधियाँ; वली—झुर्रियाँ; पलित—पके केश; जरा—वृद्धावस्था; आदय:—आदि; च—तथा; देह वैवर्ण्य—शारीरिक कान्ति का म्लान पडऩा; दौर्गन्ध्य—दुर्गन्ध; स्वेद—पसीना; क्लम—थकान; ग्लानि:—शक्ति-क्षय; इति— इस प्रकार; वय: अवस्था:—आयु के बढऩे के कारण उत्पन्न शोचनीय दशाएँ; च—भी; भवन्ति—हैं ।.
अनुवाद
चूँकि इन लोकों के निवासी जड़ी-बूटियों से बने रस तथा रसायन का पान करते हैं और उनमें स्नान करते हैं, अत: वे सभी प्रकार की चिन्ताओं और व्याधियों से मुक्त रहते हैं। न तो उनके केश सफेद होते हैं, न झुर्रियाँ पड़ती हैं, न वे अशक्य होते हैं। उनकी शारीरिक कान्ति कभी मलिन नहीं पड़ती, उनके पसीने से दुर्गन्ध नहीं आती और न तो उन्हें थकान, न ही शक्ति का अथवा वृद्धावस्थाजन्य उत्साह का अभाव सताता है।
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