ऐसा प्रतीत होता है कि भव तथा भवानी अर्थात् शिवजी तथा उनकी पत्नी के सम्भोग करने पर जो वीर्य निकलता है, उसमें जो रसायन होता है उसे अग्नि में तपाने पर सोना उत्पन्न किया जा सकता है। कहा जाता है कि मध्य युग के कीमयागर निम्न धातु से सोना बनाना जानते थे और श्रील सनातन गोस्वामी का भी कथन है काँसे को पारे से अभिकृत करने पर सोना बन सकता है। श्रील सनातन गोस्वामी का यह उल्लेख निम्न वर्ग के पुरुषों को ब्राह्मण बनाने के प्रसंग में हुआ है। उनका कथन है— यथा कांचनतां याति कांस्यं रसं विधानत:।
तथा दीक्षाविधानेन द्विजत्वम् जायते नृणाम् ॥
“जिस प्रकार कांसे को पारे से अभिकृत करके उसे सोने में बदला जा सकता है उसी प्रकार निम्न कुल में उत्पन्न मनुष्य को वैष्णव कार्यों में लगाकर ब्राह्मण बनाया जा सकता है।” अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ द्वारा म्लेच्छों तथा यवनों को उचित ढंग से दीक्षा दे कर तथा उन्हें मांसाहार, मादक द्रव्य, व्यभिचार तथा द्यूत-क्रीड़ा से विरत करके ब्राह्मणों में परिणत करने का प्रयास किया जा रहा है। जो कोई इन चार पापकर्मों का परित्याग करके हरे कृष्ण महामंत्र का जप करता है, वह प्रामाणिक दीक्षा द्वारा शुद्ध ब्राह्मण बन सकता है। ऐसा श्रील सनातन गोस्वामी का प्रस्ताव है।
इसके अतिरिक्त, यदि कोई इस श्लोक से संकेत पाकर यह सीख ले कि कांसे के साथ पारे को कैसे मिलाते तथा गलाते हैं, तो वह सस्ते में सोना तैयार कर सकता है। यद्यपि मध्ययुग के कीमियागरों ने स्वर्ण बनाने का प्रयास किया, किन्तु वे असफल रहे, क्योंकि शायद उन्होंने सही निर्देशों का पालन नहीं किया।