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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 24: नीचे के स्वर्गीय लोकों का वर्णन  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  5.24.19 
नो एवैतत्साक्षात्कारो भूमिदानस्य यत्तद्भ‍गवत्यशेषजीवनिकायानां जीवभूतात्मभूते परमात्मनि वासुदेवे तीर्थतमे पात्र उपपन्ने परया श्रद्धया परमादरसमाहितमनसा सम्प्रतिपादितस्य साक्षादपवर्गद्वारस्य यद्ब‍िलनिलयैश्वर्यम् ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
नो—न; एव—निश्चित ही; एतत्—यह; साक्षात्कार:—प्रत्यक्ष फल; भूमि-दानस्य—भूमि दान का; यत्—जो; तत्—वह; भगवति—श्रीभगवान् के प्रति; अशेष-जीव-निकायानाम्—असंख्य जीवात्माओं का; जीव-भूत-आत्म-भूते—जो जीवन एवं परम-आत्मा है; परम-आत्मनि—परम नियन्ता; वासुदेवे—भगवान् वासुदेव (श्रीकृष्ण) में; तीर्थ-तमे—तीर्थों में श्रेष्ठ; पात्रे— सबसे योग्य ग्राहक; उपपन्ने—पहुँचने के बाद; परया—परमश्रेष्ठ के द्वारा; श्रद्धया—श्रद्धा द्वारा; परम-आदर—अतीव सम्मान सहित; समाहित-मनसा—अत्यन्त मनोयोग से; सम्प्रतिपादितस्य—प्रदान किया गया; साक्षात्—प्रत्यक्षत:; अपवर्ग-द्वारस्य— मुक्ति का द्वार; यत्—जो; बिल-निलय—बिल स्वर्ग का, कृत्रिम स्वर्गलोकों का; ऐश्वर्यम्—ऐश्वर्य ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, बलि महाराज ने श्रीभगवान् वामनदेव को अपना सर्वस्व दान कर दिया, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि अपने दान के कारण उन्हें बिल-स्वर्ग में इतना भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त हुआ। समस्त जीवात्माओं के जीवनमूल श्रीभगवान् प्रत्येक व्यक्ति के अन्तस्थल में मित्र परमात्मा के रूप में निवास करते हैं और उन्हीं के आदेश से इस भौतिक संसार में आनंद उठाते हैं या कष्ट भोगते हैं। भगवान् के दिव्य गुणों पर रीझ कर बलि महाराज ने अपना सर्वस्व उनके चरणकमलों में अर्पित कर दिया। किन्तु उनका लक्ष्य भौतिक लाभ प्राप्त करना नहीं था, वे तो शुद्ध भक्त बनना चाहते थे। शुद्ध भक्त के लिए मुक्ति के द्वार स्वत: खुले जाते हैं। किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि केवल अपने दान के कारण बलि महाराज को इतना ऐश्वर्य प्राप्त हो सका। जब कोई प्रेमवश शुद्ध भक्त बन जाता है, तो उसे भी भगवदिच्छा से अच्छा भौतिक स्थान प्राप्त होता है। किन्तु कभी गलती से यह नहीं समझना चाहिए कि भक्ति के परिणामस्वरूप किसी भक्त को सांसारिक ऐश्वर्य प्राप्त होता है। भक्ति का असली फल तो श्रीभगवान् के प्रति शुद्ध प्रेम जागृत होना है जो समस्त परिस्थितियों में बना रहता है।
 
 
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