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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 24: नीचे के स्वर्गीय लोकों का वर्णन  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  5.24.20 
यस्य ह वाव क्षुतपतनप्रस्खलनादिषु विवश: सकृन्नामाभिगृणन् पुरुष: कर्मबन्धनमञ्जसा विधुनोति यस्य हैव प्रतिबाधनं मुमुक्षवोऽन्यथैवोपलभन्ते ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
यस्य—जिसका; ह वाव—निस्सन्देह; क्षुत—भूखे होने पर; पतन—गिरना; प्रस्खलन-आदिषु—लडख़ड़ाना आदि; विवश:— असहाय होकर; सकृत्—एक बार; नाम अभिगृणन्—भगवान् के पवित्र नाम का जप करते हुए; पुरुष:—व्यक्ति; कर्म बन्धनम्—कर्मों का बन्धन; अञ्जसा—पूर्णतया; विधुनोति—धो देते हैं; यस्य—जिसका; —निश्चय ही; एव—इस प्रकार; प्रतिबाधनम्—विकर्षण; मुमुक्षव:—मुक्ति के इच्छुक प्राणी; अन्यथा—अन्यथा; एव—निश्चय ही; उपलभन्ते—अनुभव करने का प्रयत्न करते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 यदि भूख से व्याकुल होने, गिरने अथवा ठोकर खाने पर कोई इच्छा अथवा अनिच्छा से एक बार भी भगवान् का पवित्र नाम लेता है, तो वह सहसा अपने पूर्वकर्मों के प्रभावों से मुक्त हो जाता है। कर्मी लोग भौतिक कार्यों में फँस कर योग-साधना में अनेक कष्ट उठाते हैं और अन्य लोग भी वैसी ही स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
 
तात्पर्य
 यह आवश्यक नहीं है कि श्रीभगवान् की भक्ति करने के पूर्व मनुष्य को अपनी सारी सम्पत्ति उन्हें अर्पित की जाये और बन्धनमुक्त हो लिया जाये। भक्त को किसी प्रकार के प्रयत्न के बिना ही स्वत: मुक्ति प्राप्त होती है। बलि महाराज को उनकी सारी सम्पत्ति इसलिए नहीं वापस मिली कि उन्होंने श्रीभगवान् को दान दिया था। जो भी समस्त भौतिक कामनाओं एवं प्रयोजनों से मुक्त होकर प्रत्येक सुअवसर को चाहे वह भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक भगवान् का वरदान समझता है उसकी भगवत्सेवा में कभी बाधा नहीं पहुँचती। मुक्ति तथा भुक्ति तो भक्ति के आनुषंगिक फल मात्र हैं। भक्त को मुक्ति के लिए अलग से कुछ नहीं करना होता। श्रील बिल्वमंगल ठाकुर का कथन है कि मुक्ति: स्वयं मुकुलितांजलि: सेवतेऽस्मान्—भगवान् के भक्त को मुक्ति के लिए अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता, क्योंकि मुक्ति सदैव उनकी सेवा के लिए उद्यत रहती है।

इस प्रसंग में चैतन्य-चरितामृत (अन्त्य ३.१७७-१८८) में भगवन्नाम जप के प्रभाव की पुष्टि हरिदास ठाकुर द्वारा वर्णित है—

केह बले,—‘नाम हैते हय पापक्षय’।

केह बले,—‘नाम हैते जीवेर मोक्ष हय’ ॥

कुछ लोगों का कहना है कि भगवान् का पवित्र नाम लेने से पापमय जीवन के समस्त प्रभावों से मुक्त हुआ जा सकता है और कुछ का कहना है कि भगवन्नाम जप से भौतिक बन्धन से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

हरिदास कहेन,—“नामेर एइ दुइ फल नय।

नामेर फले कृष्णपदे प्रेम उपजय ॥

किन्तु हरिदास ठाकुर ने कहा है कि भगवन्नाम जप का मनोवांछित फल भौतिक बन्धन से मुक्ति प्राप्त करना या पापमय जीवन के फलों से मुक्त होना नहीं है। भगवन्नाम के जप का वास्तविक परिणाम सुप्त कृष्णभावनामृत को जाग्रत करना है।

आनुषंगिक फल नामेर—‘मुक्ति’, ‘पापनाश’।

ताहार दृष्टान्त यैछे सूर्येर प्रकाश ॥

हरिदास ठाकुर ने कहा है कि पाप-कर्मों के फलों से मुक्ति तथा स्वतंत्रता तो भगवन्नाम जप के आनुषांगिक फल हैं। यदि कोई शुद्धभाव से भगवन्नाम जप करता है, तो उसे श्रीभगवान् की प्रिय सेवा का पद प्राप्त होता है। इस प्रसंग में हरिदास ने नाम-शक्ति की तुलना सूर्यप्रकाश से की है।

एइ श्लोकेर अर्थ कर पंडितेर गण।”

सबे कहे,—‘तुमि कह अर्थ-विवरण’ ॥

उन्होंने समस्त विद्वानों के समक्ष एक श्लोक रखा, किन्तु उन सबों ने उन्हीं से उस श्लोक का भावार्थ पूछा—

हरिदास कहेन,—“यैछे सूर्येर उदय।

उदय ना हैते आरम्भे तमेर हय क्षय ॥

हरिदास ने कहा ज्योंही सूर्य उदय होने लगता है त्योंही रात्रि का अंधकार सूर्य-प्रकाश दिखने के पहले ही भागने लगता है।

चौर-प्रेत-राक्षसादिर भय हय नाश।

उदय हैले धर्म-कर्म आदि परकाश ॥

सूर्योदय के पहले ही प्रात:कालीन प्रकाश के भय से रात्रि के समय होने वाले संकल अर्थात् चोरों, भूतों तथा राक्षसों के उत्पात विनष्ट हो जाते हैं और जब वास्तव में धूप निकल आती है, तो मनुष्य अपने कार्यों में लग जाता है।

ऐछे नामोदयारम्भे पाप-आदिर क्षय।

उदय कैले कृष्णपदे हय प्रेमोदय ॥

इसी प्रकार पवित्र नाम का शुद्ध रूप में जप करने के पूर्व ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और शुद्ध रीति से जप करने पर वह श्रीकृष्ण का प्रेमी बन जाता है।

‘मुक्ति’ तुच्छ-फल हय नामाभास हैते।

येमुक्ति भक्त ना लय, से कृष्ण चाहे दिते ॥ ”

यदि श्रीकृष्ण मुक्ति प्रदान करें तो भी भक्त उसे कभी स्वीकार नहीं करता। मुक्ति तो नामाभास अर्थात् पूर्ण प्रकाश दृष्टिगोचर होने के पूर्व ही पवित्र नाम के प्रकाश की झलक से प्राप्त हो सकती है। नामाभास नाम अपराध अर्थात् अपराध करते हुए नाम जप करने तथा शुद्ध जप के मध्य की अवस्था है। भगवान् के नाम-जप की तीन अवस्थाएँ हैं। प्रथम अवस्था में नाम जप करते हुए प्राणी दस प्रकार के अपराध करता है। दूसरी अवस्था नामाभास है, जिसमें अपराध लगभग बन्द हो जाते हैं और प्राणी विशुद्ध जप की दशा की ओर अग्रसर होता है। तृतीय अवस्था में जब प्राणी अपराध मुक्त होकर हरे कृष्ण मंत्र का जप करता है, तो कृष्ण के प्रति उसका सुप्त प्रेम तत्क्षण जाग्रत हो उठता है। यही सिद्धि है।

 
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