तद्भक्तानामात्मवतां सर्वेषामात्मन्यात्मद आत्मतयैव ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
तत्—वह; भक्तानाम्—भक्तों का; आत्म-वताम्—सनक तथा सनातन जैसे आत्मज्ञानी पुरुषों का; सर्वेषाम्—सबों का; आत्मनि—आत्मा रूप श्रीभगवान् तक; आत्म-दे—जो बिना हिचक के अपने आप को दे देता है; आत्मतया—जो परम आत्मा है, परमात्मा; एव—निस्सन्देह ।.
अनुवाद
प्रत्येक प्राणी के हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित श्रीभगवान् नारदमुनि जैसे भक्तों के हाथों बिक जाते हैं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ऐसे ही भक्तों को प्यार करते हैं और जो उन्हें शुद्ध भाव से प्यार करते हैं। वे उनके हाथों अपने आप को सौंप देते हैं। यहाँ तक कि महान् आत्म- साक्षात्कार करने वाले योगी, यथा चारों कुमार भी अपने अन्तर में परमात्मा का साक्षात्कार करके दिव्य आनन्द प्राप्त करते हैं।
तात्पर्य
श्रीभगवान् बलि महाराज के द्वारपाल इसलिए नहीं बने कि उन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया था, वरन् इसलिए कि वे प्रेमी के रूप में उच्चपद सिद्धि प्राप्त कर चुके थे।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.