तत: अधस्तात्—रसातल के नीचे; पाताले—पाताल लोक में; नाग-लोक-पतय:—नागलोकों के स्वामी; वासुकि—वासुकि; प्रमुखा:—प्रमुख; शङ्ख—शंख; कुलिक—कुलिक; महा-शङ्ख—महाशंख; श्वेत—श्वेत; धनञ्जय—धनञ्जय; धृतराष्ट्र—धृतराष्ट्र; शङ्ख-चूड—शंखचूड़; कम्बल—कम्बल; अश्वतर—अश्वतर; देव-दत्त—देवदत्त; आदय:—इत्यादि; महा-भोगिन:—अत्यन्त भोगी; महा-अमर्षा:—प्रकृति से अत्यन्त ईर्षालु; निवसन्ति—रहते हैं; येषाम्—जिनका; उ ह—निश्चय ही; वै—निस्सन्देह; पञ्च—पाँच; सप्त—सात; दश—दस; शत—एक सौ; सहस्र—एक हजार; शीर्षाणाम्—फणों वालों का; फणासु—उन फणों पर; विरचिता:—जडि़त; महा-मणय:—अत्यन्त मूल्यवान मणि; रोचिष्णव:—तेज से पूर्ण; पाताल-विवर—पाताल लोक की गुफाएँ; तिमिर-निकरम्—अंधकार-राशि; स्व-रोचिषा—उनके फणों के तेज से; विधमन्ति—भागते हैं ।.
अनुवाद
रसातल के नीचे पाताल अथवा नागलोक नामक एक अन्य लोक है जहाँ अनेक आसुरी सर्प तथा नागलोक के स्वामी रहते हैं, यथा शंख, कुलिक, महाशंख, श्वेत, धनञ्जय, धृतराष्ट्र, शंखचूड़, कम्बल, अश्वतर तथा देवदत्त। इसमें से वासुकि प्रमुख है। वे अत्यन्त क्रुद्ध रहते हैं और उनमें से कुछ के पाँच, कुछ के सात, कुछ के दस, कुछ के सौ और अन्यों के हजार फण होते हैं। इन फणों में बहुमूल्य मणियां सुशोभित हैं और इन मणियों से निकला प्रकाश बिल-स्वर्ग के सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध के अन्तर्गत “नीचे के स्वर्गीय लोकों का वर्णन” नामक चौबीसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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