येषु महाराज मयेन मायाविना विनिर्मिता: पुरो नानामणिप्रवरप्रवेकविरचितविचित्रभवनप्राकारगोपुरसभाचैत्यचत्वरायतनादिभिर्नागासुरमिथुनपारावतशुकसारिकाकीर्णकृत्रिमभूमिभिर्विवरेश्वरगृहोत्तमै: समलङ्कृताश्चकासति ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
येषु—उन अधोलोकों में; महा-राज—हे राजन्; मयेन—मय दानव के द्वारा; माया-विना—वास्तुकला में दक्ष; विनिर्मिता:— निर्मित किया हुआ; पुर:—पुरियाँ; नाना-मणि-प्रवर—बहुमूल्य मणियों का; प्रवेक—श्रेष्ठतम; विरचित—निर्मित; विचित्र— आश्चर्यजनक; भवन—घर; प्राकार—भित्तियाँ; गोपुर—द्वार; सभा—सभागार; चैत्य—मन्दिर; चत्वर—पाठशालाएँ; आयतन- आदिभि:—होटलों या मनोरंजन-शालाओं आदि से युक्त; नाग—सर्प के सदृश शरीर वाले जीवों का; असुर—असुरों या अनीश्वरवादी व्यक्तियों का; मिथुन—युग्मों द्वारा; पारावत—कबूतर; शुक—तोता; सारिका—मैना; आकीर्ण—समूहित; कृत्रिम—बनावटी; भूमिभि:—भूमि से; विवर-ईश्वर—लोकों के अधिपतियों के; गृह-उत्तमै:—उत्तम घरों से; समलङ्कृता:— अलंकृत; चकासति—चमचमाते रहते हैं ।.
अनुवाद
हे राजन्, कृत्रिम स्वर्ग में, जिन्हें बिल-स्वर्ग कहते हैं, मय नामक एक महादानव है जो अत्यन्त कुशल वास्तुशिल्पी है। उसने अनेक अलंकृत पुरियों का निर्माण किया है जहाँ अनेक विचित्र भवन, प्राचीर, द्वार, सभाभवन, मन्दिर, आँगन तथा मन्दिर-प्राचार एवं विदेशियों के रहने के होटल तथा आवास हैं। इन ग्रहों के अधिपतियों के भवनों को अत्यन्त मूल्यवान रत्नों से निर्मित किया गया है। ये भवन नागों तथा असुरों के अतिरिक्त अनेक कबूतरों, तोतों तथा अन्य पक्षियों से परिपूर्ण हैं। कुल मिलाकर ये कृत्रिम स्वर्गिक पुरियाँ अत्यन्त आकर्षक ढंग से अलंकृत की गई हैं।
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