इस प्रसंग में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का गीत है— अनादिकरम-फले, पडि’ भवार्णव-जले, तरिबारे ना देखि उपाय।
“हे प्रभो, मैं यह नहीं जानता कि मेरा भौतिक जीवन कब प्रारम्भ हुआ, किन्तु मुझे इसका पूरा अनुभव होता है कि मैं अज्ञान के इस भवसागर में गिर गया हूँ। अब मैं यह भी देख सकता हूँ कि आपके चरणकमलों की शरण के अतिरिक्त उसमें से निकलने का कोई दूसरा उपाय नहीं हैं।” इसी प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु प्रार्थना करते हैं—
अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकजस्थितधूलीसदृशं विचिन्तय ॥
“हे भगवन्, नन्द महाराज के पुत्र! मैं आपका चिरन्तन दास हूँ। न जाने मैं कैसे अज्ञान के इस भवसागर में गिर गया हूँ। अत: कृपा करके भौतिक जीवन की विषम स्थिति से मेरा उद्धार कीजिए।”