एतावती:—इतने प्रकार की; हि—ही; राजन्—हे राजन्; पुंस:—मानव प्राणियों की; प्रवृत्ति-लक्षणस्य—प्रवृत्तियों द्वारा लक्षणीभूत; धर्मस्य—कार्य सम्पादन का; विपाक-गतय:—परिणामी गन्तव्य; उच्च-अवचा:—उच्च तथा निम्न; विसदृशा:— विभिन्न; यथा-प्रश्नम्—आपके प्रश्न के अनुसार; व्याचख्ये—मैंने वर्णन किया है; किम् अन्यत्—और क्या; कथयाम—कहूँ; इति—इस प्रकार ।.
अनुवाद
हे राजन्, इस प्रकार मैंने आपको बताया है कि प्राय: मनुष्य किस प्रकार अपनी-अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं और उसी के अनुसार उच्च या निम्न लोकों में भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं। आपने ये बातें मुझसे पूछीं थी और मैंने जो अधिकारियों से सुना है उसे आपसे बता दिया। अब आगे क्या सुनाऊँ?
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध के अन्तर्गत “भगवान् अनन्त की महिमा” नामक पचीसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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