ध्यायमान:—ध्यान किये जाते हुए; सुर—देवताओं को; असुर—असुर; उरग—सर्प; सिद्ध—सिद्धलोक के वासी; गन्धर्व— गंधर्वलोक के वासी; विद्याधर—विद्याधर; मुनि—मुनि; गणै:—समूहों द्वारा; अनवरत—लगातार; मद-मुदित—मद से प्रसन्न; विकृत—चञ्चल; विह्वल—इधर-उधर घूमते हुए; लोचन:—जिनके नेत्र; सु-ललित—सुललित; मुखरिक—वाणी के; अमृतेन—अमृत से; आप्यायमान:—अच्छे लगने वाले; स्व-पार्षद—अपने सहयोगी; विबुध-यूथ-पतीन्—देवताओं के विभिन्न समूहों के प्रमुख; अपरिम्लान—कभी न म्लान होने वाले; राग—जिसकी कांति; नव—नवीन; तुलसिका—तुलसी की मंजरियों की; आमोद—सुगंधि से; मधु-आसवेन—तथा मधु (शहद) से; माद्यन्—मद से युक्त होकर; मधुकर-व्रात—मधुमक्खियों का; मधुर-गीत—मीठे गानों से; श्रीयम्—अधिक सुन्दर बनकर; वैजयन्तीम्—वैजयन्ती नामक माला; स्वाम्—अपना; वनमालाम्— माला; नील-वासा:—नीले अम्बर से आवृत; एक-कुण्डल:—केवल एक कुण्डल धारण किये हुए; हल-ककुदि—हल की मुठिया पर; कृत—रखा हुआ; सुभग—शुभ; सुन्दर—सुन्दर; भुज:—हाथ; भगवान्—श्रीभगवान्; महा-इन्द्र:—स्वर्ग के राजा; वारण-इन्द्र:—हाथी; इव—सदृश; काञ्चनीम्—स्वर्णिम; कक्षाम्—मेखला; उदार-लील:—दिव्य लीलाओं में संलग्न; बिभर्ति—पहनते हैं ।.
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी आगे बोले—देवता, असुर, उरग (सर्पदेव), सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर तथा अनेक सिद्ध सन्तजन भगवान् की निरन्तर प्रार्थना करते रहते हैं। मद के कारण भगवान् विह्वल प्रतीत होते हैं और उनके नेत्रपूर्ण पुष्पित फूलों की भाँति इधर-उधर गति करते हैं। वे अपने मुख से निकली मधुर वाणी से अपने पार्षदों, देवताओं के प्रमुखों को प्रसन्न करते हैं। नीलाम्बर और कान में एक कुण्डल धारण किये हुए वे अपनी पीठ पर हल को अपने दो सुघड़ हाथों से पकड़े हुए हैं। वे इन्द्र के समान श्वेत लगते हैं, वे अपनी कटि में स्वर्णिम मेखला और गले में चिर नवीन तुलसी दलों की वैजयन्तीमाला धारण किये हैं। तुलसी दलों की मधु जैसी गन्ध से आकर्षित होकर मधुमक्खियाँ माला के चारों ओर मँडराती रहती हैं, जिससे माला और भी सुन्दर लगने लगती है। इस प्रकार भगवान् दिव्य लीलाओं में संलग्न रहते हैं।
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