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भगवद्-गीता  »  अध्याय 5: कर्मयोग—कृष्णभावनाभावित कर्म  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  5.21 
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्न‍ुते ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
बाह्य-स्पर्शेषु—बाह्य इन्द्रिय सुख में; असक्त-आत्मा—अनासक्त पुरुष; विन्दति—भोग करता है; आत्मनि—आत्मा में; यत्—जो; सुखम्—सुख; स:—वह; ब्रह्म-योग—ब्रह्म में एकाग्रता द्वारा; युक्त-आत्मा—आत्म युक्त या समाहित; सुखम्—सुख; अक्षयम्— असीम; अश्नुते—भोगता है ।.
 
अनुवाद
 
 ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अन्तर में आनन्द का अनुभव करता है। इस प्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है।
 
तात्पर्य
 कृष्णभावनामृत के महान भक्त श्री यामुनाचार्य ने कहा है—

यदवधि मम चेत: कृष्णपादारविन्दे नवनवरसधामन्युद्यतं रन्तुमासीत्।

तदवधि बत नारीसंगमे स्मर्यमाने भवति मुखविकार: सुष्ठु निष्ठीवनं च ॥

“जब से मैं कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगकर उनमें नित्य नवीन आनन्द का अनुभव करने लगा हूँ तब से जब भी काम-सुख के बारे में सोचता हूँ तो इस विचार पर ही थूकता हूँ और मेरे होंठ अरुचि से सिमट जाते हैं।” ब्रह्मयोगी अथवा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवान् की प्रेमाभक्ति में इतना अधिक लीन रहता है कि इन्द्रियसुख में उसकी तनिक भी रुचि नहीं रह जाती। भौतिकता की दृष्टि में कामसुख ही सर्वोपरि आनन्द है। सारा संसार उसी के वशीभूत है और भौतिकतावादी लोग तो इस प्रोत्साहन के बिना कोई कार्य ही नहीं कर सकते। किन्तु कृष्णभावनामृत में लीन व्यक्ति कामसुख के बिना ही उत्साहपूर्वक अपना कार्य करता रहता है। यही आत्म-साक्षात्कार की कसौटी है। आत्म-साक्षात्कार तथा कामसुख कभी साथ-साथ नहीं चलते। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जीवन्मुक्त होने के कारण किसी प्रकार के इन्द्रियसुख द्वारा आकर्षित नहीं होता।

 
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