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भगवद्-गीता  »  अध्याय 5: कर्मयोग—कृष्णभावनाभावित कर्म  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  5.5 
यत्सां‍ख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं सां‍ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—जो; साङ्ख्यै:—सांख्यदर्शन के द्वारा; प्राप्यते—प्राप्त किया जाता है; स्थानम्— स्थान; तत्—वही; योगै:—भक्ति द्वारा; अपि—भी; गम्यते—प्राप्त कर सकता है; एकम्—एक; साङ्ख्यम्—विश्लेषणात्मक अध्ययन को; —तथा; योगम्— भक्तिमय कर्म को; —तथा; य:—जो; पश्यति—देखता है; स:—वह; पश्यति— वास्तव में देखता है ।.
 
अनुवाद
 
 जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।
 
तात्पर्य
 दार्शनिक शोध (सांख्य) का वास्तविक उद्देश्य जीवन के चरमलक्ष्य की खोज है। चूँकि जीवन का चरमलक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, अत: इन दोनों विधियों से प्राप्त होने वाले परिणामों में कोई अन्तर नहीं है। सांख्य दार्शनिक शोध के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि जीव भौतिक जगत् का नहीं अपितु पूर्ण परमात्मा का अंश है। फलत: जीवात्मा का भौतिक जगत् से कोई सरोकार नहीं होता, उसके सारे कार्य परमेश्वर से सम्बद्ध होने चाहिए। जब वह कृष्णभावनामृतवश कार्य करता है तभी वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में होता है। सांख्य विधि में मनुष्य को पदार्थ से विरक्त होना पड़ता है और भक्तियोग में उसे कृष्णभावनाभावित कर्म में आसक्त होना होता है। वस्तुत: दोनों ही विधियाँ एक हैं, यद्यपि ऊपर से एक विधि में विरक्ति दीखती है और दूसरे में आसक्ति है। जो पदार्थ से विरक्ति और कृष्ण में आसक्ति को एक ही तरह देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।
 
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