एक बार यह संसार ऐसे राजाओं की अनावश्यक सैनिक शक्ति से बोझिल हो गया, जो वास्तव में असुर थे, किन्तु अपने आपको राजा मान रहे थे । तब सारा संसार विक्षुब्ध हो उठा और पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी, जिसे भूमि कहते हैं, इन आसुरी राजाओं से उत्पन्न अपनी विपदाओं को बताने के लिए ब्रह्माजी के पास गई । भूमि ने गऊ का रूप धारण किया और वह आँखों में आँसू भर कर ब्रह्माके समक्ष प्रकट हुई । वह शोकार्त थी और भगवान् की करुणा जगाने के लिए रो रही थी । उसने पृथ्वी की विपदाग्रस्त स्थिति का वर्णन किया । इस वृतान्त को सुनकर ब्रह्माअत्यन्त दुखित हुए । वे तुरन्त क्षीर-सागर के लिए चल पड़े जहाँ भगवान् विष्णु निवास करते हैं । ब्रह्माजी के साथ शिवजी इत्यादि सारे देवता थे और भूमि भी उनके साथ हो ली । क्षीर-सागर के तट पर आकर ब्रह्माजी भगवान् विष्णु को, जिन्होंने पहले वराह का दिव्य रूप धारण करके पृथ्वी लोक की रक्षा की थी, प्रसन्न करने का उपाय करने लगे । वैदिक मंत्रों में पुरुष-सूक्त नामक एक विशेष प्रकार की प्रार्थना है । सामान्य रूप से देवतागण इसी पुरुष-सूक्त का उच्चारण करके श्रीभगवान् विष्णु को नमस्कार करते हैं । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जब भी किसी लोक में कोई उपद्रव होता है, उस लोक का अधिष्ठाता देव इस ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्माके पास जा सकता है और ब्रह्माजी भी परमेश्वर विष्णु के पास जा सकते हैं, किन्तु वे वहीं प्रत्यक्ष दर्शन नहीं, अपितु क्षीर-सागर के तट पर खड़े होकर उनका प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं । इस ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत श्वेतद्वीप नामक एक लोक है, जिसमें क्षीर-सागर है । विविध वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि जिस प्रकार इस लोक में लवण- सागर है, उसी प्रकार अन्य लोकों में भी अनेक प्रकार के तरल सागर हैं । कहीं क्षीर-सागर है, तो कहीं तेल-सागर और कहीं सुरा-सागर तथा अन्य प्रकार के सागर हैं । पुरुष-सूक्त ही वह आदर्श प्रार्थना (स्तुति) है, जिसे देवतागण क्षीरोदकशायी श्रीभगवान् को प्रसन्न करने के लिए पढ़ते हैं । क्षीर-सागर में शयन करने के कारण वे क्षीरोदकशायी विष्णु कहलाते हैं । वे ही श्रीभगवान् हैं जिनसे इस ब्रह्माण्ड के समस्त अवतार प्रकट होते है।
जब सभी देवताओं ने श्रीभगवान् की स्तुति पुरुष-सूक्त द्वारा कर ली, तो उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला । अतः ब्रह्माजी स्वयं ध्यान करने में लग गए और तब भगवान विष्णु ने उन्हें एक सन्देश भेजा । ब्रह्माने इस सन्देश को देवताओं तक प्रेषित कर दिया । वैदिक ज्ञान प्राप्त करने की यही विधि है । यह वैदिक ज्ञान सर्वप्रथम श्रीभगवान् से ब्रह्माको हृदय के माध्यम से प्राप्त होता है । जैसा कि श्रीमद्-भागवत के प्रारम्भ में कहा गया है - तेने ब्रह्म हृदा य आदि कवये- वेदों का दिव्य ज्ञान हृदय के द्वारा ब्रह्मातक प्रेषित हुआ । उसी प्रकार यहाँ भी केवल ब्रह्माही भगवान् विष्णु द्वारा प्रेषित सन्देश को समझ पाये और उन्होंने तुरन्त कार्यवाही के लिए देवताओं को प्रसारित कर दिया । यह सन्देश इस प्रकार था ।
भगवान् शीघ्र ही अपनी परम शक्तियों सहित पृथ्वी पर प्रकट होंगे और जब तक वे पृथ्वी लोक में असुरों के संहार तथा भक्तों के संस्थापन का उद्देश्य पूरा करने के लिए रहेंगे, तब तक देवताओं को भी उनकी सहायता के लिए वहीं रहना होगा । उन्हें तुरन्त उस यदुवंश में जन्म ग्रहण करना होगा जिसमें यथासमय भगवान् भी प्रकट होंगे ।
भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट होंगे । उनके प्रकट होने के पूर्व सारे देवताओं को अपनी-अपनी पत्नियों सहित संसार-भर के विभिन्न पवित्र परिवारों में भगवान् को उनके कार्य में सहायता पहुँचाने के लिए प्रकट होना चाहिए । यहाँ पर तत्प्रियार्थम् शब्द अत्यन्त उपयुक्त है, जिसका अर्थ है कि देवताओं को चाहिए कि भगवान् को प्रसन्न करने के लिए इस पृथ्वी पर प्रकट हों । दूसरे शब्दों में, कोई भी जीव, जो भगवान् को प्रसन्न करने के लिए ही जीवित रहता है, वह देवता है । देवताओं को यह जानकारी भी दी गई कि भगवान् कृष्ण के अवतार के पूर्व पृथ्वी पर भगवान् कृष्ण का पूर्ण अंश, अनन्त, प्रकट होगा, जो अपने लाखों फनों से ब्रह्माण्डों को धारण किए हुए है । उन्हें यह भी सूचित किया गया कि विष्णु की बहिरंगा शक्ति (माया) भी, जिससे समस्त बद्धजीव आकृष्ट होते हैं, परमेश्वर के आदेश के अन्तर्गत उनकी प्रयोजन-सिद्धि के लिए प्रकट होगी ।
समस्त देवताओं तथा भूमि को भी मधुर वचनों से आदेश तथा सान्त्वना देने के पश्चात् समस्त प्रजापतियों के पिता ब्रह्माजी अपने धाम, सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक, को चले गए ।
यदुवंश का नायक राजा शूरसेन माथुर प्रदेश (जिसमें मथुरा नगर आता है) तथा साथ ही शूरसेन नामक जनपद पर जिसका नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया था, शासन कर रहा था । राजा शूरसेन के शासन के कारण मथुरा नगरी समस्त यदु राजाओं की राजधानी बन गयी । मथुरा इसीलिए भी राजधानी बनी क्योंकि यदुओं का परिवार अत्यन्त पवित्र था और वे जानते थे कि मथुरा ही ऐसा स्थान है जहाँ द्वारका के ही समान श्रीकृष्ण का नित्य वास रहता है ।
एक बार शूरसेन के पुत्र वसुदेव देवकी को ब्याह कर अपनी नवपरिणीता पत्नी के साथ रथ पर चढ़कर अपने घर जा रहे थे । देवकी के पिता, देवक, ने प्रचुर दहेज दिया था, क्योंकि वह अपनी पुत्री को अत्यधिक चाहता था । उसने सैकड़ों रथ दिये थे, जो पूर्णतया स्वर्णमण्डित थे । उस समय उग्रसेन का पुत्र कंस अपनी बहन देवकी को प्रसन्न करने के लिए वसुदेव के रथ के घोड़ों की रास स्वेच्छा से अपने हाथ में लेकर हाँकने लगा था । वैदिक सभ्यता की प्रथानुसार जब कन्या का ब्याह होता है, तो उसका भाई अपनी बहन तथा अपने बहनोई को उनके घर ले जाता है । नवविवाहिता कन्या को अपने पिता के परिवार का विछोह न खले, इसलिए भाई उसके साथ तब तक जाता है जब तक वह अपनी ससुराल न पहुँच जाये ।
देवक ने जो पूरा दहेज दिया था वह इस प्रकार था : स्वर्ण हारों से मण्डित 400 हाथी, 15,000 सुसज्जित घोड़े तथा 1,800 रथ । उसने अपनी पुत्री के साथ जाने के लिए 200 सुन्दर बालिकाएँ भी भेजने की व्यवस्था की थी । क्षत्रियों की विवाह-प्रणाली, जो भारत में अब भी प्रचलित है, बताती है कि जब क्षत्रिय का विवाह हो, तो दुल्हन के अतिरिक्त उस की कुछ दर्जन तरुण सहेलियाँ भी राजा के घर जाये । रानी की अनुचरियाँ दासी कहलाती हैं, किन्तु वास्तव में वे रानी की सहेलियों की तरह कार्य करती हैं । यह प्रथा अनादि काल से प्रचलित है और कम से कम 5,000 वर्ष पूर्व भगवान् कृष्ण के अवतार के भी पहले से खोजी जा सकती है । इस प्रकार वसुदेव अपनी पत्नी देवकी के साथ दो सौ सुन्दर कन्याएँ भी लेते आए ।
जब दूल्हा तथा दुलहन रथ में जा रहे थे । शंख, बिगुल, ढोल तथा मृदंग एकसाथ मिलकर मधुर संगीत (समूह वादन) की ध्वनि उत्पन्न कर रहे थे । जुलूस अत्यन्त मनोहर ढंग से निकल रहा था और कंस रथ को हाँक रहा था । तभी आकाश से अचानक एक आश्चर्यजनक ध्वनि गूँजी जिसने विशेष रूप से कंस को उद्बोधित किया, “हे कंस ! तुम कितने मूर्ख हो ! तुम अपनी बहन तथा बहनोई का रथ हाँक रहे हो, किन्तु तुम यह नहीं जान रहे कि तुम्हारी इसी बहन की आठवीं सन्तान तुम्हारा वध करेगी ।” कंस भोजबंशी उग्रसेन का पुत्र था । कहा जाता है कि कंस समस्त भोजबंशी राजाओं में से सर्वाधिक आसुरी था । आकाशवाणी सुनते ही उसने देवकी के केश पकड़ लिए और उसे अपनी तलवार से मारना चाहा । वसुदेव को कंस के इस दुर्व्यवहार पर आश्चर्य हुआ, अतः वे अपने इस क्रूर, निर्लज्ज साले को शान्त करने के उद्देश्य से अत्यन्त तर्क तथा प्रमाण सहित इस प्रकार बोले, हे मेरे प्रिय साले, कंस ! तुम भोजवंश के सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा हो और लोग तुम्हें महान्तम योद्धा तथा पराक्रमी के रूप में जानते हैं । आखिर, तुम इतने क्रुद्ध क्यों हो गए कि अपनी बहन को उसके विवाह के शुभ अवसर पर मारने के लिए उद्यत हो गए हो ? तुम अपनी मृत्यु से इतने भयभीत क्यों हो ? मृत्यु तुम्हारे जन्म के साथ ही उत्पन्न हो चुकी है । जिस दिन तुमने जन्म ग्रहण किया, उसी दिन से तुम्हारी मृत्यु से इतना क्यों ड़र रहे हो ? अन्ततः मृत्यु अवश्यम्भावी है । तुम चाहे आज मरो या 100 वर्ष बाद; तुम मृत्यु से बच नहीं सकते । तो फिर मृत्यु से इतना क्यों ड़रते हो ? वस्तुतः मृत्यु का अर्थ है इस वर्तमान शरीर का विनाश । जैसे ही यह वर्तमान शरीर कार्य करना बन्द कर देता है और भौतिक प्रकृति के पंच तत्त्वों में मिल जाता है, तो शरीर के भीतर की आत्मा शरीर के वर्तमान कर्मों तथा उनके फल के अनुसार दूसरा शरीर ग्रहण करता है । यह मनुष्य के सड़क पर चलने के समान है- मनुष्य अपना पाँव आगे बढ़ाता है और ज्योंही उसे विश्वास हो जाता है कि उसका पाँव ठोस भूमि पर पड़ा है, तो वह दूसरा पाँव उठाता है । इसी प्रकार यह शरीर भी एक के बाद दूसरे शरीर में बदलता रहता है और आत्मा देहान्तर करता रहता है । देखो न ! कितनी सतर्कता से पौधे का कीड़ा एक टहनी से दूसरे में जाता है । इसी प्रकार जब उच्च अधिकारी यह निर्णय लेते है कि अगला शरीर कैसा हो, तो जीव अपना शरीर बदल देता है । जब तक जीव इस भौतिक संसार में बद्ध रहता है, तब तक उसे एक के बाद दूसरा भौतिक शरीर ग्रहण करना होगा । उसे अगला शरीर उसके इस जीवन के कर्मों तथा उनके फलों के अनुसार प्रकृति के नियमों द्वारा प्रदत्त होता है ।
यह शरीर स्वप्नों में देखे जाने वाले शरीरों में से किसी एक के ही समान होता है । सोते समय स्वप्न में हम अपनी मानसिक सृष्टि के अनुसार अनेक शरीरों की रचना करते रहते हैं । हम पहले से स्वर्ण देखे रहते हैं और पर्वत भी, अतः स्वप्न में हम इन दोनों विचारों को मिलाकर स्वर्णिम पर्वत देख सकते हैं । कभी-कभी सपने में हम अपने शरीर को उड़ता हुआ देखते हैं और उस समय हम अपने वर्तमान शरीर को बिल्कुल भूल जाते हैं । इसी प्रकार ये शरीर बदलते रहते हैं । जब तुम्हें कोई शरीर मिलता है, तो तुम विगत शरीर को भूल जाते हो । स्वप्न में हम न जाने कितने नये प्रकार के शरीरों के साथ सम्पर्क कर सकते हैं, किन्तु जगने पर हम उन सबको भूल जाते हैं । ये भौतिक शरीर वास्तव में हमारी मानसिक क्रियाशीलता की रचनाएँ हैं । किन्तु इस समय हम अपने विगत शरीरों का स्मरण नहीं कर पाते ।
मन बड़ा ही चंचल है । कभी यह कुछ स्वीकार करता है और तुरन्त उसी वस्तु को अस्वीकार कर देता है । इन्द्रिय-तृप्ति के पाँच विषयों-रूप, रस, गंध, शब्द तथा स्पर्श- के सम्पर्क से ही मन स्वीकार और अस्वीकार करता रहता है । चिन्तनशील विधि द्वारा मन इन्द्रियतृप्ति के विषयों के सम्पर्क में आता है और जीव इच्छानुसार विशेष प्रकार का शरीर प्राप्त करता हैं । इस प्रकार शरीर भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा प्रदत्त एक उपहार है । जीव शरीर ग्रहण करके अपने शरीर की रचना के अनुसार इस जगत् में सुख भोगने या दुःख सहने के लिए फिर से आता है । किसी विशेष शरीर के बिना हम विगत जीवन से प्राप्त मानसिक दशा के अनुसार सुख या दुःख का अनुभव नहीं कर सकते । हमें विशेष प्रकार का जो शरीर मिलता है, वह मृत्यु के समय हमारी मानसिक दशा के अनुसार ही मिलता है ।
सूर्य, चन्द्र या नक्षत्र जैसे प्रकाशमान लोकों का प्रतिबिम्ब जल, तेल या घी जैसे विभिन्न प्रकार के आगारों में पड़ता है । यह प्रतिबिम्ब पात्र की गति के ही अनुसार हिलता-डुलता है । चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जल पर पड़ता है और जब के हिलने से चन्द्रमा भी हिलता प्रतीत होता हैं । लेकिन वास्तव में चन्द्रमा हिलता नहीं ।
इसी प्रकार मानसिक कल्पना (मनोधर्म) से जीव विभिन्न प्रकार के शरीर ग्रहण करता है, यद्यपि उसका इन शरीरों से कोई सम्बन्ध नहीं होता । किन्तु माया के प्रभाव से मोहित होने के कारण जीव सोचता है कि उसका सम्बन्ध एक विशेष प्रकार के शरीर से है । बद्ध जीवों की यही जीवन-शैली है । मान लो कि कोई जीव इस समय मनुष्य-शरीर को प्राप्त है । वह सोचता है कि वह किसी मानव-समुदाय या किसी विशेष देश या विशिष्ट स्थान से सम्बन्धित है । वह अपनी पहचान उसी रूप में करता है और व्यर्थ ही दूसरे शरीर की तैयारी में जुट जाता है, जिसकी आवश्यकता नहीं रहती । ऐसी इच्छाएँ तथा मानसिक कल्पनाएँ विभिन्न प्रकार के शरीर के कारण हैं । भौतिक प्रकृति का आच्छादक प्रभाव इतना प्रबल होता है कि जीव को जैसा भी शरीर मिलता है, वह उसी में प्रसन्न रहता है और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उस शरीर से अपनी पहचान करने लगता है । अतः मेरी प्रार्थना है कि तुम अपने मन तथा शरीर के आदेशों से अभिभूत न हो ।
इस तरह वसुदेव ने कंस से प्रार्थना की कि वह अपनी नवविवाहिता बहन से द्वेष न करे । किसी को दूसरे से द्वेष ही इस लोक में तथा परलोक में, जब वह यमराज (मृत्यु के पश्चात दण्ड देने वाला राजा) के समक्ष होगा, भय का कारण बनता है । वसुदेव ने देवकी की ओर से कंस से अनुनय-विनय की कि वह उसकी छोटी बहन है । उन्होंने विवाह की शुभ घड़ी का स्मरण करा कर भी अनुरोध किया । छोटी बहन या भाई की रक्षा अपनी सन्तान की ही तरह की जानी चाहिए । वसुदेव ने तर्क किया, कुल मिलाकर स्थिति अत्यन्त गम्भीर है कि यदि तुम उसे मारते हो, तो इससे तुम्हारे यश की हानि होगी ।
इस प्रकार वसुदेव ने सदुपदेश द्वारा तथा दार्शनिक तर्क-वितर्क द्वारा कंस को शान्त करने का प्रयास किया, किन्तु वह शान्त नहीं हुआ क्योंकि उसकी संगति असुरों से थी । अपनी आसुरी संगति के कारण राजसी उच्च कुल में जन्म लेकर भी वह असुर बना रहा । असुर कभी किसी सदुपदेश की परवाह नहीं करता । वह प्रतिबद्ध चोर की तरह होता है । भले ही कोई कितना ही नैतिक उपदेश क्यों न दे, उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । इस प्रकार जो लोग स्वभाव से आसुरी या नास्तिक होते हैं, वे मुश्किल से किसी सदुपदेश को ग्रहण करते हैं, चाहे उपदेश कितना ही प्रामाणिक क्यों न हो । देवता में तथा असुर में यही अन्तर है । जो लोग सदुपदेश ग्रहण करके उसके अनुसार जीवन बिताने का प्रयास करते हैं, वे देवता कहलाते है, और जो ऐसे सदुपदेश को ग्रहण करने में अक्षम होते हैं, वे असुर कहलाते हैं ।
जब वसुदेव कंस को शांत करने में असफल रहे, तो वे असमंजस में पड़ गए कि वे अपनी पत्नी देवकी की किस तरह रक्षा करें । संकट आसन्न होने पर बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि यथा सम्भव इस संकटमय स्थिति से बचने का प्रयास करे, किन्तु यदि सारी बुद्धि लगाने पर भी वह विकट स्थिति को टालने में असफल रहे, तो यह उसका दोष नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि जहाँ तक हो सके अपना कर्तव्य निभाए, किन्तु यदि उसका प्रयास विफल रहे, तो इसमें उसका दोष नहीं है ।
वसुदेव अपनी पत्नी के विषय में इस तरह सोचने लगे, इस समय तो मैं देवकी के प्राणों की रक्षा करूँगा; तत्पश्चात यदि हमारे सन्तानें हुई, तो उन्हें बचाने का उपाय सोचूँगा । उन्होंने आगे सोचा, यदि भविष्य में मेरे कोई सन्तान होती है, जो कंस को मार सके-जैसाकि कंस सोचता है- तो देवकी तथा वह सन्तान दोनों ही बच जाएँगे, क्योंकि विधि का विधान अचिन्त्य है । किन्तु इस समय तो किसी तरह मुझे देवकी के प्राणों की रक्षा करनी ही है ।
इसका कोई भरोसा नहीं कि जीव किसी तरह किसी विशेष प्रकार के शरीर से सम्पर्क करे, ठीक वैसे ही जैसे कि दहकती अग्नि का कोई भरोसा नहीं कि जंगल में वह किस प्रकार एक विशेष के काष्ठ के सम्पर्क में आती है । जब जंगल में अग्नि (दावाग्नि) लगती हैं, तो यह देखा जाता है कि दहकती अग्नि वायु के प्रभाव से एक वृक्ष को फलाँग कर दूसरे को चपेट में ले लेती है । इसी तरह जीव अपने कर्तव्यों का पालन करने में चाहे कितना ही सतर्क क्यों न रहे, तो भी उसके लिए यह जान पाना अत्यन्त कठिन होता है कि अगले जीवन में उसके कैसा शरीर प्राप्त होने वाला है । महाराज भरत आत्म-साक्षात्कार सम्बन्धी अपना कर्तव्य अत्यन्त श्रद्धापूर्वक निभा रहे थे, किन्तु संयोगवश उन्हें एक मृग के प्रति क्षणिक अनुराग उत्पन्न हो गया, जिससे उन्हें अगले जन्म में मृग का शरीर धारण करना पड़ा ।
अपनी पत्नी की रक्षा का उपाय सोचकर वसुदेव अत्यन्त पापी कंस से ससम्मान बोले । कभी-कभी ऐसा होता है कि वसुदेव जैसे पुरुष को कंस जैसे परम पापी व्यक्ति की चाटुकारिता करनी पड़ती है । कूटनीतिक व्यापार ऐसे ही चलता है । यद्यपि वसुदेव अत्यधिक खिन्न थे, किन्तु ऊपर से वे मुसकराने लगे । कंस अति निर्दय था इसलिए उन्होंने इस निर्लज्ज को इस प्रकार सम्बोधित किया: “हे मेरे प्रिय कंस ! तुम यह मान लो कि तुम्हें अपनी बहन से कोई खतरा नहीं है । तुम्हें खतरे की आशंका इसलिए है, क्योंकि तुमने आकाशवाणी सुनी है । किन्तु यह खतरा तो तुम्हारी बहन के पुत्रों से आना हैं, जो इस समय यहाँ उपस्थित नहीं है और कौन जानता है कि भविष्य में पुत्र हों या नहीं ? इस विचार से तुम अभी सुरक्षित हो । न ही तुम्हें अपनी बहन से ड़रने का कोई कारण है । यदि उसके पुत्र उत्पन्न होते हैं, तो मैं वचन देता हूँ कि मैं उन सब को लाकर आवश्यक कार्यवाही के लिए तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत करता रहूँगा ।” कंस वसुदेव के वचनों के महत्त्व को जानता था, और वह उनके तर्क से आश्वस्त हो गया । फलतः उस समय वह अपनी बहन के जघन्य वध से विरत हो गया । इस प्रकार वसुदेव प्रसन्न हुए और उन्होंने कंस के निर्णय की प्रशंसा की तथा अपने घर लौट आए ।
तत्पश्चात् देवकी के प्रति वर्ष एक संतान हुई । समय आने पर वसुदेव तथा देवकी ने आठ पुत्रों तथा एक कन्या को जन्म दिया । जब पहला पुत्र उत्पन्न हुआ, तो वसुदेव अपने वचन के अनुसार उसे कंस के पास तुरन्त ले आए । कहा जात है कि वसुदेव अपने वचन के लिए अत्यन्त विख्यात थे, और वे अपना यश बनाये रखना चाहते थे । यद्यपि नवजात पुत्र को कंस के हाथों में सौंपना वसुदेव के लिए अत्यन्त कष्टप्रद था, किन्तु इससे कंस अत्यन्त प्रसन्न हुआ । वह वसुदेव के आचरण से कुछ-कुछ दयार्द्र हो उठा । यह अत्यन्त आदर्श घटना है । वसुदेव-जैसे महात्मा के लिए अपना कर्तव्य-पालन करते हुए कुछ भी कष्ट नहीं होता । वसुदेव-जैसा विद्वान पुरुष बिना हिचक के अपना कर्तव्य-पालन करता है, जबकि कंस-जैसा असुर कोई भी घृणित कर्म करने में कभी हिचकता नहीं । इसीलिए कहा गया है कि साधु पुरुष सभी प्रकार का कष्टमय जीवन सहन कर सकता है, विद्वान पुरुष अनुकूल परिस्थितियों की प्रतीक्षा किए बिना अपना कार्य कर सकता है, कंस जैसा नृशंस व्यक्ति कोई भी पाप कर सकता है और एक भक्त भगवान् को प्रसन्न करने के लिए सब कुछ न्यौछावर कर सकता है ।
वसुदेव के व्यवहार से कंस संतुष्ट हो गया । वह यह देखकर आश्चर्यचकित था कि वसुदेव के अपने वचन का पालन किया, अतः
उन पर दयालु तथा प्रसन्न होकर इस प्रकार बोलने लगा, हे वसुदेव ! इस पुत्र को मुझे भेंट करने की कोई आवश्यकता नहीं है । मुझे इस पुत्र से कोई खतरा नहीं है । मैंने सुना है कि तुम्हारा तथा देवकी का आठवाँ पुत्र मुझे मारेगा । तो फिर मैं इस पुत्र को व्यर्थ ही क्यों स्वीकार करूँ ? तुम इसे वापस ले जा सकते हो ।
जब वसुदेव अपने प्रथम पुत्र को लेकर घर लौट रहे थे, तो यद्यपि वे कंस के व्यवहार से प्रसन्न थे, तथापि उन्हें उस पर विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि वे जानते थे कि कंस किसी के वश में नहीं है । एक नास्तिक पुरुष कभी भी अपने वचन का पक्का नहीं हो सकता । जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकता वह अपने संकल्प में किस प्रकार दृढ़ हो सकता है ? महान् राजनीतिज्ञ चाणक्य पंडित ने कहा है, “कभी-भी किसी कूटनीतिज्ञ या स्त्री पर विश्वास न करना ।” जो लोग अनियंत्रित इन्द्रियतृप्ति में आसक्त हैं, वे कभी-भी सत्यनिष्ठ नहीं हो सकते, न कभी उन पर विश्वास किया जा सकता है ।
उस समय कंस के पास महर्षि नारद आए । उनको जानकारी मिली कि कंस ने वसुदेव पर दयार्द्र होकर पहले नवजात शिशु को लौटा दिया है । नारद अत्यधिक उत्सुक थे कि जितनी जल्दी हो सके भगवान् कृष्ण अवतार लें । अतः उन्होंने कंस को सूचित किया कि एक ओर वृन्दावन में नन्द महाराज जैसे महापुरुष तथा ग्वाले, एवं उनकी पत्नियाँ और दूसरी ओर वसुदेव, उनके पिता शूरसेन तथा यदुबंशी वृष्णिकुल में उत्पन्न उनके सारे सम्बन्धी तथा उनके मित्र एवं शुभचिन्तक सभी वास्तव में देवता हैं । नारद ने कंस को आगाह किया कि वह उन सब से सावधान रहे क्योंकि कंस तथा उनके सारे मित्र एवं सलाह देने वाले सभी असुर थे । असुरगण सदैव देवताओं से भयभीत रहते हैं । इस प्रकार नारद से विभिन्न परिवारों में देवताओं के प्रकट होने की जानकारी प्राप्त करके कंस तुरन्त चौकन्ना हो गया । वह समझ गया कि चूँकि देवता अब प्रकट हो चुके हैं, अतः भगवान् विष्णु का भी शीघ्र ही आगमन होगा । उसने तुरन्त अपने बहनोई वसुदेव तथा बहन देवकी को बन्दी बना लिया और उन्हें कारागार में डाल दिया ।
वसुदेव तथा देवकी लोहे की जंजीरें पहने कारागार में प्रतिवर्ष एक पुत्र को जन्म देते रहे और कंस प्रत्येक बालक को विष्णु का अवतार समझ कर एक-एक करके मारता रहा । वह आठवें पुत्र से विशेष रूप से भयभीत था, किन्तु नारद के आने के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कोई भी बालक कृष्ण हो सकता है अतः वसुदेव तथा देवकी से उत्पन्न सभी सन्तानों को मारना ही श्रेयस्कर होगा ।
कंस के इस व्यवहार को समझ पाना बहुत कठिन नहीं है । संसार के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हैं जब राज-परिवार के लोगों ने अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिए अपने पिता, भाई या सारे परिवार तथा मित्रों का वध किया है । इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक न था, क्योंकि आसुरी वृत्ति वाले राज परिवार के लोभी लोग अपनी निंद्य अभिलाषाओं के लिए किसी का भी वध कर सकते हैं ।
नारद की कृपा से कंस अपने पूर्व- जन्म से अवगत हुआ । उसे पता चला कि वह पूर्व-जन्म में कालनेमि नामक असुर था, जिसका वध विष्णु द्वारा हुआ था । उसने भोज परिवार में जन्म लेकर यह निश्चय किया था कि वह यदुवंश का घोर शत्रु बनेगा । चूँकि कृष्ण उसी परिवार में जन्म लेने जा रहे थे, अतः कंस अत्यधिक भयभीत था कि वह पूर्वजन्म की ही भाँति कृष्ण के हाथों मारा जाएगा ।
सर्वप्रथम उसने अपने पिता उग्रसेन को बन्दी बना लिया, क्योंकि वह यदु, भोज तथा अंधक वंशों का प्रमुख राजा था । उसने वसुदेव के पिता शूरसेन से राज्य पर भी अधिकार जमा लिया और अपने आपको इन समस्त देशों का राजा घोषित कर दिया ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भगवान् श्रीकृष्ण का अवतरण” नामक प्रथम अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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