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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 15: धेनुकासुर का वध  » 
 
 
 
 
 
इस प्रकार श्रीकृष्ण अपने अग्रज बलराम के साथ अपनी कौमारवस्था बिताकर पौगण्ड अवस्था में प्रविष्ट हुए । यह अवस्था छठवें वर्ष से दसवें वर्ष तक थी । तब सभी ग्वालों ने परस्पर मंत्रणा की और वे इसके लिए राजी हो गए कि जो जो बालक पाँच वर्ष के हो गए हैं, उन्हें चरागाह में गायें ले जाने का उत्तरदायित्व दिया जाए । गायों का उत्तरदायित्व प्राप्त हो जाने पर कृष्ण तथा बलराम ने अपने कमल जैसे चरण-चिह्नो से वृन्दावन की भूमि पवित्र की । ग्वालों तथा बलराम के साथ कृष्ण अब गायों को आगे किए हुए फूलों, साग-सब्जियों तथा घास से पूर्ण वृन्दावन के जंगल में प्रविष्ट होने पर अपनी बंशी बजाने लगे । वृन्दावन का जंगल भक्त के विमल मन के समान स्वच्छ था और मधुमक्खियों, फूलों तथा फलों से लदा था । उसमें पक्षी चहक रहे थे और स्वच्छ जल वाले सरोवर समस्त श्रम को हरने वाले थे । वहाँ सदा मधुर सुगंधित वायु बहती रहती थी जिससे मन तथा शरीर प्रफुल्लित हो जाते । कृष्ण अपने सखाओं तथा बलराम सहित जंगल में प्रविष्ट हुए और अनुकूल वातावरण देखकर उन्होंने जी-भर कर आनन्द लूटने की इच्छा की । कृष्ण ने देखा कि सारे वृक्ष फलों से लदे हैं और नई-नई टहनियाँ नीचे आकर पृथ्वी का स्पर्श कर रही हैं, मानो वे उनके चरणकमलों का स्पर्श करके उनका स्वागत कर रही हों

। वे वृक्षों, फूलों तथा फलों के इस तरह के भाव से अत्यन्त प्रसन्न थे और उनकी इच्छाएँ जानकर हँसने लगे । तब कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम से इस प्रकार बोलेः हे भ्राता ! आप हम सबसे श्रेष्ठ हैं और देवता आपके चरणकमलों की पूजा करते हैं । आप देखते नहीं कि ये फलों तथा फूलों से लदे वृक्ष आपके चरणकमलों की पूजा करने के लिए नीचे झुके हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि वृक्षों का रूप धारण करने के कारण ये अंधकार से निकलने का प्रयास कर रहे हैं । वस्तुतः वृन्दावन की भूमि में उत्पन्न वृक्ष सामान्य जीव नहीं हैं । अपने पूर्वजन्मों में निर्गुण दृष्टिकोण रखने के कारण इन्हें इस जड़ जीवन में रहना पड़ रहा है, किन्तु अब इन्हें वृन्दावन में आपके दर्शन का अवसर प्राप्त हुआ है और वे आपके सान्निध्य के द्वारा आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं । सामान्यतया तमोगुणी जीव वृक्ष का शरीर ग्रहण करते हैं । निर्विशेषवादी चिन्तक उसी तमस (अधंकार) में रहते हैं, किन्तु आपकी उपस्थिति का पूरा-पूरा लाभ उठाकर वे उसे समूल नष्ट कर देते हैं । मेरे विचार से जो भौंरे आपके चारों ओर भनभना रहे हैं, वे पूर्वजन्म में आपके भक्त रहे होंगे । वे आपका साथ नहीं छोड़ना चाहते, क्योंकि आपसे बेहतर तथा वत्सल अधिक स्वामी और कौन हो सकता है ? आप परम तथा आदि भगवान् हैं और ये भौंरे हर क्षण मनमना कर आपके यश को फैलाने का प्रयत्न कर रहे हैं । मेरे विचार से इनमें से कुछ अवश्य ही महान् ॠषि तथा आपके भक्त होंगे, और उन्होनें भौंरो के रूप में अपना वेश छुपा रखा है, क्योंकि वे एक क्षण भी आपका साथ छोड़ने को तैयार नहीं है । हे भ्राता ! आप परम पूज्य ईश्वर है ।

जरा देखो तो किस तरह ये मोर आनन्द-विभोर होकर आपके समक्ष नाच रहे है । सारे मृग, जिनका आचरण गोपियों के समान है, आपका उसी प्यार के साथ स्वागत कर रहे हैं । और इस जंगल में रहने वाली कोयलें आपका अत्यन्त हर्ष तथा मधुर ध्वनि के साथ स्वागत कर रही है, क्योंकि वे सोचती हैं कि उनके घरों में आपका प्राकट्य अत्यन्त मंगलकारी है । यद्यपि वे सब पशु तथा वृक्ष हैं, तो भी ये वृन्दावनवासी आपका गुणगान कर रहे है । वे आपका स्वागत अपने सामर्थ्य-भर करने को तैयार है जिस प्रकार महात्मागण अपने घर पर अन्य महापुरुष का स्वागत करते है । जहाँ तक यहाँ की भूमि का प्रश्न है, वह अत्यन्त पवित्र तथा भाग्यशाली है, क्योंकि इस के शरीर पर आपके चरणकमलों के पद चिह्न बने हुए है । “इन वृन्दावनवासियों के लिए स्वाभाविक ही है कि आप जैसे महापुरुष का इस प्रकार स्वागत करें । जड़ी-बूटियाँ, लताएँ तथा वृक्ष भी आपके पादपद्यों का स्पर्श पाकर धन्य हैं और ये छोटे-छोटे पौधे अपनी टहनियों से आपकी अंगुलियों के नाखूनो द्वारा छुए जाने के कारण कृतकृत्य हो गए हैं । पर्वत तथा नदियाँ भी अपने को धन्य मानती हैं, क्योंकि आप उनकी ओर देख रहे हैं । इन सबसे ऊपर ये व्रजांगनाएँ या गोपियाँ हैं, जिनके सौन्दर्य से मोहित होकर आप अपनी विशाल भुजाओं से उनका आंलिगन करते हैं ।” इस प्रकार कृष्ण तथा बलराम दोनों ही यमुनातट पर अपने बछड़ों तथा गायों को चराते हुए व्रजवासियों को पूर्णरूपेण आनन्दित करने लगे । कुछ स्थानों में कृष्ण तथा बलराम के साथ उनके सखा भी होते । ये बालक गाते, भौंरो के गुन-गुन की नकल उतारते और पुष्पहारों से विभूषित कृष्ण तथा बलराम के साथ-साथ चलते । घूमते हुए ये बालक कभी-कभी सरोवरों में तैरते हंसों की बोलियाँ बोलते या जब वे किसी मोर को नाचते देखते, तो वे श्रीकृष्ण के समक्ष उसका अनुकरण करते । कृष्ण भी अपनी गरदन हिलाते और नाचने का स्वांग भरते हुए अपने मित्रों को हँसा देते ।

कृष्ण जिन गायों को चराते थे उनके अलग-अलग नाम थे और वे उन्हें दुलारवश पुकारते । कृष्ण को पुकारते सुनकर ये गायें रँभाती हुई तुरन्त दौड़तीं और ग्वालबाल इस प्रेम के आदान-प्रदान का भरपेट मजा लेते । वे विभिन्न प्रकार के पक्षियों की ध्वनि-तरंगो का अनुकरण करते जिनमें से चकोर, मोर, कोयल तथा भारद्वाज प्रमुख थे । कभी-कभी दुर्बल पशुओं को सिंह तथा चीते की आवाज सुनकर ड़र जाने के कारण दौड़ते देखकर कृष्ण तथा बलराम सहित सारे बालक भी उन पशुओं के पीछें-पीछें दौड़ पड़ते । जब वे कुछ थक जाते, तो बैठ जाते और बलराम कुछ आराम करने के लिए अपना सिर किसी बालक की गोद में रख देते और कृष्ण तुरन्त आ जाते और बलराम के पाँव दबाने लगते और कभी-कभी ताड़ का पंखा लेकर बलराम के ऊपर झलते जिससे सुखद हवा निकलने पर उन्हें थकान से कुछ राहत मिलती । कभी-कभी बलराम के विश्राम करते समय बालक नाचते या गाते और कभी-कभी वे आपस में कुश्ती लड़ते या फिर कूदते-फाँदते । जब बालक इस प्रकार व्यस्त होते, तो कृष्ण भी उनके साथ हो लेते और उनके हाथ पकड़ कर उनकी संगति का लाभ उठाते या उनके कार्यों की प्रशंसा करके हँसते । जब कृष्ण थक जाते, तो वे किसी बड़े वृक्ष के नीचे या किसी ग्वालबाल की गोद को तकिया बना कर लेट जाते । तब कुछ बालक आकर उनके पाँव दबाते और कुछ पत्तियों से बनाये गए पंखे से हवा झलते । कुछ अधिक प्रतिभाशाली बालक उन्हें प्रसन्न करने के लिए मीठी तान में गाना गाते । इस तरह शीघ्र ही उनकी थकान दूर हो जाती ।भगवान् कृष्ण, जिनके पाँव लक्ष्मी जी दबाती हैं, अपनी अन्तरंगा शक्ति का विस्तार करके एक ग्रामीण बालक के रूप में प्रकट होकर ग्वालबालों के साथ मिलकर उनका साथ देते । किन्तु एक ग्रामीण बालक की भाँति प्रकट होने के बावजूद ऐसे अवसर आते रहते जब वे अपने को श्रीभगवान् सिद्ध कर देते । कभी-कभी लोग अपने को भगवान् बताकर अबोध लोगों को ठगते हैं । वे केवल ठग सकते हैं । ईश्वर की शक्ति का प्रदर्शन नहीं कर सकते ।

जब श्रीकृष्ण इस प्रकार अपने परम सौभाग्यशाली ग्वालबालों के साथ अपनी अन्तरंगा शक्ति का प्रदर्शन करते हुए अपनी दिव्य लीलाओं में व्यस्त थे, तो उन्हें अपनी ईश्वरीय अतिमानवी शक्ति को प्रकट करने का एक अन्य अवसर प्राप्त हुआ । उनके परम मित्र सुदामा, सुबल तथा स्तोक कृष्ण ने उन्हें तथा बलराम को अत्यन्त स्नेहवश इस प्रकार सम्बोधित किया, “हे बलराम ! तुम अत्यन्त बलवान् हो, तुम्हारी भुजाएँ अत्यन्त सुदृढ़ हैं । हे कृष्ण ! तुम सभी प्रकार के उपद्रवकारी असुरों का वध करने में अत्यन्त पटु हो । क्या तुम दोनों को पता है कि इस स्थान के निकट ही तालवन नामक एक बड़ा जंगल हैं ? यह वन ताड़ के वृक्षों से पूर्ण है और सारे वृक्ष फलों से लदे हैं । इन फलों में से कुछ गिर चुके हैं और कुछ वृक्षों पर ही फल पक कर लगे हुए हैं । वह अत्यन्त रमणीक स्थान हैं, किन्तु महान् असुर धेनुकासुर के कारण वहाँ जाना अत्यन्त कठिन है । कोई भी जाकर वृक्षों के फल नहीं

ला सकता । हे कृष्ण तथा बलराम ! यह असुर एक गधे के रूप में वहाँ रहता हैं और उसके साथ वैसा ही रूप धारण करके अन्य असुर रहते हैं । वे सबके सब अत्यन्त बलशाली हैं, अतः उस स्थान तक पहुँचना बहुत कठिन है । प्रिय भाइयों ! तुम्हीं दोनों एकमात्र ऐसे पुरुष हो, जो इन राक्षसों को मार सकते हो । प्राण-भय से वहाँ आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं जाता । यहाँ तक कि पशु भी नहीं जाते और वहाँ एक भी पक्षी निवास नहीं करता । सब ने बसेरा छोड़ दिया है । केवल उस स्थान से आने वाली सुगन्ध का ही आनन्द लूटा जा सकता है । ऐसा प्रतीत होता है कि अभी तक उन मधुर फलों का किसी ने भी स्वाद नहीं चखा है । हे कृष्ण ! हम तुमसे स्पष्ट कहे देते हैं कि हम इस मधुर सुगन्ध से अत्यधिक आकर्षित हैं । हे बलराम ! यदि तुम चाहो तो, चलकर इन फलों का आनन्द लिया जाये । इन फलों की सुगन्ध चारों ओर फैल रही है । क्या तुम्हें यहाँ उनकी सुगन्ध नहीं आ रही ?

जब बलराम तथा कृष्ण से उनके घनिष्ठ मित्रों ने इस तरह प्रार्थना की तो वे उन्हें प्रसन्न करने के उदे्श्य से अपने मित्रों के साथ हँसते हुए उस वन की ओर चल पड़े । तालवन में प्रवेश करते ही बलराम अपनी हाथी-जैसी शक्ति को दिखाते हुए वृक्षों को हिलाने लगे । इस झटके से सारे पके फल पृथ्वी पर आ गिरें । फल गिरने की आवाज सुनकर, वहाँ पर गधे के वेश में वास कर रहा धेनुकासुर उस ओर तेजी से बढ़ने लगा । इससे सारी धरती और सारे वृक्ष हिलने लगे मानो भूकम्प आया हो । सर्वप्रथम यह असुर बलराम के समक्ष प्रकट हुआ और उनकी छाती पर अपनी पिछली टांगों से दुलत्ती मारी । बलराम पहले कुछ नहीं बोले, किन्तु वह असुर पुनः अधिक बलपूर्वक तेजी से दुलत्ती मारने लगा ।

इस बार बलराम ने तुरन्त ही अपने एक हाथ से उस गधे के पैर पकड़ कर उसे चारों ओर घुमाकर वृक्ष की चोटी पर फेंक दिया । जब बलराम उसे घुमा रहे थे तभी असुर के प्राण निकल गए । बलराम ने उसे सबसे ऊँचे ताड़ वृक्ष के ऊपर फेंका । इस असुर का शरीर इतना भारी था कि वह वृक्ष टूटकर अन्य वृक्षों पर गिरा जिससे अन्य अनेक वृक्ष धराशायी हो गए । ऐसा प्रतीत हुआ मानो इस वन में भारी अंधड़ आया हो और सारे वृक्ष एक-एक करके गिर रहे हों । इस तरह के असामान्य बल का प्रदर्शन विस्मयकारी नहीं हैं, क्योंकि बलराम अनन्त शेषनाग के रूप में श्रीभगवान् हैं, जो अपने सहस्त्रों फनों पर समस्त लोकों को धारण किए हैं । यह सम्पूर्ण विराट जगत् उनके द्वारा उसी प्रकार पालित है, जिस प्रकार समस्त एवं सीधे खड़े धागे कपड़े की बुनाई को धारण किए रहते हैं ।

जब यह असुर वृक्षों के ऊपर फेंक दिया गया, तो धेनुकासुर के सारे मित्र तथा सहयोगी एकत्र हो गए और उन्होनें अत्यन्त वेग से बलराम तथा कृष्ण पर आक्रमण कर दिया । वे अपने मित्र की मृत्यु का प्रतिशोध लेने पर तुले थे ।किन्तु कृष्ण तथा बलराम हर गधे की पिछली टाँगे पकड़ कर उसी प्रकार चारों ओर घुमा देते । इस प्रकार उन सब को मार कर वृक्षों के ऊपर फेंक दिया । गधों के शवों के कारण अत्यन्त अद्भुत दृश्य हो गया । ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो विविध रंगों के बादल वृक्षों के ऊपर एकत्र हो रहे हों । इस महान् घटना को सुनकर देवतागण स्वर्गलोक से कृष्ण तथा बलराम पर पुष्पों की वर्षा करने लगे और दुन्दुभियाँ बजाकर स्तुतियाँ करने लगे ।

धेनुकासुर के वध के कुछ दिनों बाद लोग तालवन जा-जाकर फल एकत्र करने लगे और पशु भी निर्भय हो वहाँ उगी सुन्दर घास चरने के लिए आने लगे । कृष्ण तथा बलराम के इन दिव्य कार्यों तथा लीलाओं को मात्र सुनकर या उनका कीर्तन करके मनुष्य पुण्य अर्जित कर सकता है ।

जब कृष्ण, बलराम तथा उनके साथियों ने वृन्दावन ग्राम में प्रवेश किया, तो उन्होंने बाँसुरी बजाई और बालकों ने वन में उनके असाधारण कार्यों की प्रशंसा की । उनके मुखमंड़ल तिलक से सुशोभित थे और गाँवों की चरण-रज से धूसरित थे । कृष्ण के सिर पर मोरपंख शोभायमान थे । बलराम तथा कृष्ण दोनों ने बंशी बजाई और तरुण गोपिकाएँ कृष्ण को घर लौटते देखकर लालायित हो उठीं । वे कृष्ण की अनुपस्थिति के कारण अत्यन्त खिन्न रहती थी । सारे दिन वन में रहते या चरागाह में गायें चराते कृष्ण का वे चिन्तन करती रहती । अतः जब उन्होंने कृष्ण को लौटते देखा, तो उनकी चिन्ताएँ तुरन्त समाप्त हो गई और वे उनके मुख की ओर उसी तरह देखने लगी जिस प्रकार भौंरे कमलपुष्प के मधु पर मँड़राते रहते हैं । जब कृष्ण गाँव में घुसे, तो तरुण गोपियाँ मुस्कुराई और हँसीं । कृष्ण ने बाँसुरी बजाते हुए गोपियों के सुन्दर हास्यमय मुखड़ों का आनन्द लिया ।

तदनन्तर कृष्ण तथा बलराम का स्वागत उनकी माताओं, यशोदा तथा रोहिणी, ने किया और समयानुसार वे अपने लाड़ले पुत्रों की इच्छाओं की पूर्ति करने लगीं । माताओं ने सेवा करने के साथ ही अपने दिव्य पुत्रों को आशीष भी दिया । उन्होंने अपने पुत्रों को नहलाया और वस्त्रों से सज्जित किया । कृष्ण को पीला वस्त्र पहनाया गया और बलराम को नीला और इसके साथ ही उनको सभी प्रकार के आभूषण तथा फूलों की मालाएँ दी गईं । दिन भर चरागाह के श्रम की थकान से मुक्त होकर वे दोनों ताजा तथा सुन्दर लग रहे थे । उनकी माताओं ने उन्हें स्वादिष्ठ भोजन दिया और उन्होंने बड़े चाव से सब व्यंजन खाये । फिर उन्हें स्वच्छ बिस्तर पर बैठा कर माताएँ उनके कार्यकलापों से सम्बन्धित गीत गाने लगीं । ज्योंही वे बिस्तर पर लेटे कि उन्हें प्रगाढ़ निद्रा आ गई इस प्रकार कृष्ण तथा बलराम ग्वालों के रूप में वृन्दावन के जीवन का आनन्द भोगते रहे ।

कभी-कभी कृष्ण अपने बाल सखाओं तथा बलराम के साथ यमुना तट पर गायें चराने जाते और कभी अकेले जाते । धीरे-धीरे ग्रीष्म ॠतु का आगमन हुआ और एक दिन जब सारे बालक तथा खेत में चरती गायें अत्यन्त प्यासी हुईं, तो वे जाकर यमुना जल पीने लगी । किन्तु नदी का जल कालिया नामक विशाल सर्प के विष से जहरीला हो चुका था ।

चूँकि पानी इतना जहरीला था, अतः सारी गायें तथा बालक जल पीते ही तुरन्त प्रभावित हो गए । वे सब अचानक जमीन पर गिर पड़े और मृत जैसे लगने लगे । तब समस्त प्राणों के प्राण कृष्ण ने उन सब पर अपनी कृपा दृष्टि डाली जिससे सारे बालकों तथा गायों में पुनः चेतना आ गई और वे सब एक दूसरे को अत्यन्त विस्मयपूर्वक देखने लगे । वे समझ गए कि यमुना का जल पीने से वे मृत हो गए थे, परन्तु कृष्ण के कृपाकटाक्ष से वे सब जीवित हुए हैं । इस प्रकार उन सभी ने योगेश्वर कृष्ण की योगशक्ति की प्रशंसा की ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “धेनुकासुर का वध” नामक पन्द्रहवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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