हिंदी में पढ़े और सुनें
श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 17: दावाग्नि का शमन  » 
 
 
 
 
 
कालिय दमन की कथा सुनने के बाद राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा कि कालिय ने अपना सुन्दर स्थान क्यों त्यागा था ? और गरुड़ उनके प्रति विरोध क्यों रखता था ? शुकदेव गोस्वामी ने राजा को बताया कि नागालय नामक द्वीप सर्पों से बसा था और कालिय विहँ का प्रमुख सर्प था । उस द्वीप में सर्प खने का आदि होने के कारण , गरुड़ सर्प खाने को आता था और इच्छानुसार अनेक सर्पों को मारता था । उनमें से वह कुछ को खा जाता, किन्तु अन्यों का वृथा ही वध करता रहता । इससे सर्प-समाज इतना भयभीत हो उठा था कि उनके मुखिया वासुकि ने ब्रह्माजी से रक्षा करने की प्रार्थना की । ब्रह्माजी ने ऐसी अमावस्या को सर्प-समाज गरुड़ को एक सर्प की भेंट दिया करे । यह सर्प वृक्ष के नीचे गरुड़ को बलि रूप में रख दिया जाता । गरुड़ इस भेंट से प्रसन्न था, अतः वह अन्य सप विहँ का प्रमुख सर्प था । उस द्वीप में सर्प खने का आदि होने के कारण, गरुड़ सर्प खाने को आता था और इच्छानुसार अनेक सर्पों को मारता था । उनमें से वह कुछ को खा जाता, किन्तु अन्यों का वृथा ही वध करता रहता । इससे सर्प-समाज इतना भयभीत हो उठा था कि उनके मुखिया वासुकि ने ब्रह्माजी से रक्षा करने की प्रार्थना की । ब्रह्माजी ने ऐसी व्यवस्था कर दी कि गरुड़ उपद्रव न मचा सके-इस व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक अमावस्या को सर्प-समाज गरुड़ को एक सर्प की भेंट दिया करे । यह सर्प वृक्ष के नीचे गरुड़ को बलि रूप में रख दिया जाता । गरुड़ इस भेंट से प्रसन्न था, अतः वह अन्य सर्पो को तंग नहीं करता था । किन्तु धीरे-धीरे कालिय ने इस स्थिति का लाभ उठाया । उसे वृथा ही अपने एकत्र विष की मात्रा का तथा अपनी भौतिक शक्ति का गर्व हो उठा, अतः उसने सोचा, गरुड़ को यह भेंट क्यों दी जाये ? अतः उसने भेंट देना बन्द कर दिया और गरुड़ को जाने वाली भेंट स्वयं खाने लगा । जब विष्णु के वाहन भक्त गरुड़ को पता चला कि कालिय ऐसा करता है, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और इस आक्रामक सर्प को मारने के लिए द्वीप की ओर बढ़ा । कालिय ने अपने अनेक फनों तथा विषैले तीक्ष्ण दाँतो द्वारा गरुड़ से लड़ने का प्रयत्न किया । उसने गरुड़ को काटना चाहा, किन्तु तार्क्ष्य के पुत्र ने अत्यन्त क्रोध तथा वेग के साथ अपने तेजमय स्वर्णिम पंखों से कालिय के शरीर पर प्रहार किया । कालिय, जो कद्रु के पुत्र अर्थात् कद्रुसुत के नाम से भी विख्यात है, तुरन्त भागकर कालियझील पहुँचा जो यमुना नदी के भीतर है, क्योंकि गरुड़ वहाँ नहीं पहुँच सकता था ।

कालिय ने निम्नलिखित कारण से यमुना के जल के भीतर निवास किया । जिस तरह गरुड़ कालिय सर्प के द्वीप में जाता था उसी प्रकार वह यमुना से भी मछली पकड़कर उन्हें खाने के लिए जाता था । किन्तु वहाँ सौभरि मुनि नाम के एक महान् योगी रहते थे, जो जल के भीतर ध्यान धरते थे । और मछलियों के प्रति सहानुभूति दिखाते थे । उन्होंने गरुड़ को कहा कि वह मछलियों को तंग करने वहाँ न आए । यद्यपि वह भगवान् विष्णु का वाहन होने के कारण किसी की आज्ञा के अधीन न था, किन्तु उसने इस महान् योगी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया । उसने बहुत सारी मछलियाँ खाने की बजाये एक बहुत बडी मछली पकड़ ली जो मछलियों की सरदार थी । सौभरि मुनि अत्यन्त दुखी हुए कि गरुड़ मछलियों के सरदार को ले गया । उनकी सुरक्षा के विषय में सोचते हुए उन्होंने गरुड़ को शाप दिया, यदि आज से तुम यहाँ मछलियाँ पकड़ने आओगे, तो मैं यह बलपूर्वक कहता हूँ कि तुम तुरन्त मारे जाओगे ।

यह शाप केवल कालिय को ज्ञात था, अतः वह आश्वस्त था कि गरुड़ यहाँ नही आ सकेगा । इसीलिए उसने यमुना दह में शरण लेने की ठानी । किन्तु कालिय द्वारा सौभरि मुनि की शरण में जाना सफल नही हुआ; उसे गरुड़ के स्वामी कृष्ण ने यमुना से मार भगाया । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि गरुड़ का सीधा सम्बन्ध श्रीभगवान् से है और वह इतना बलशाली है कि उसे न कोई आदेश दे सकता है, न शाप । वस्तुतः गरुड़ को जिन्हें श्रीमद्-भागवत में भगवान् के स्तर के समकक्ष बताया गया है सौभरि मुनि द्वारा शाप दिया जाना अपराध था । यद्यपि गरुड़ ने प्रतिशोध लेने का यत्न नहीं किया, किन्तु एक वैष्णव पुरुष के प्रति किया गया मुनि का यह अपराध क्षम्य नहीं था । इस अपराध के कारण मुनि को अपने योगी पद से नीचे गिरना पड़ा और बाद में

भौतिक संसार में इन्द्रिय का भोक्ता एक गृहस्थ बनना पड़ा । इस प्रकार ध्यान के द्वारा आध्यात्मिक आनन्द में लीन रहने वाले सौभरि मुनि का पतन वैष्णवों के प्रति अपराध करने वालों को शिक्षा देता है ।

जब अन्ततः कृष्ण कालियदह से बाहर आ गए, तो उनके सारे मित्रों तथा सम्बन्धियों ने उन्हें यमुना-तट पर देखा । वे उन लोगों के समक्ष अत्यन्त विभूषित रूप में, सारे शरीर में चन्दन चर्चित किए, अमूल्य रत्नों से तथा मणियों से सुशोभित एवं लगभग पूर्णतया स्वर्ण से आच्छादित प्रकट हुए । वृन्दावन के वासियों, ग्वालों, गोपियों, माता यशोदा, महाराज नन्द तथा समस्त गायों एवं बछड़ों ने कृष्ण को यमुना से आते देखा और उन्हें ऐसा लगा उनके प्राण वापस आ गए हो । जब किसी को जीवन का पुनः लाभ होता है, तो वह स्वभावतः आनन्द तथा प्रसन्नता में लीन हो जाता हैं । उन सब ने एक-एक करके कृष्ण को कण्ठ से लगाया और अत्यन्त शान्ति का अनुभव किया । माता यशोदा, रोहिणी, महाराज नन्द तथा ग्वाले इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने जब कृष्ण का आंलिगन किया, तो सोचा कि उन्हें जीवन का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो गया है ।

बलराम ने भी कृष्ण का आंलिगन किया, किन्तु वे हँस रहे थे, क्योंकि उन्हें पता था कि जब सारे लोग चिन्तामग्न होंगे, तो कृष्ण क्या करेंगे । वहाँ पर कृष्ण के प्रकट होने के कारण यमुना-तट के सारे वृक्ष, सारी गौंवे, बैल तथा बछड़े अत्यन्त प्रसन्न थे । वृन्दावन के सभी ब्राह्मण तथा उनकी पत्नियाँ कृष्ण तथा उनके पारिवारिक जनों को तुरन्त बधाई देने आये। चूँकि ब्राह्मणों को समाज का गुरु माना जाता है, अतः उन्होंने कृष्ण तथा उनके परिवार को कृष्ण के छूटने पर आशीर्वाद दिये ।

उन्होंने इस अवसर पर नन्द महाराज से दान देने के लिए भी कहा । महाराज नन्द कृष्ण की वापसी से प्रसन्न होकर ब्राह्मणों को अनेक गायें तथा प्रभूत सोना दान में देने लगे । जब नन्द महाराज इस तरह व्यस्त थे, तो माता यशोदा कृष्ण का आलिंगन मात्र करके उन्हें अपनी गोद में बैठाकर निरन्तर अश्रुपात करती रहीं । चूँकि रात्रि हो चुकी थी और गौवों तथा बछड़ो समेत वृन्दावन के समस्त वासी अत्यधिक थके थे, अतः उन्होंने नदी-तट पर ही विश्राम करने का निर्णय लिया । अर्द्धरात्रि में, जब सारे लोग सोये हुए थे, तो सहसा एक विशाल दावाग्नि लग गई और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो यह शीघ्र ही सारे वृन्दावनवासियों को निगल जाएगी । उन्हें ज्योंही अग्नि की तपन का अनुभव हुआ त्योंही उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली, यद्यपि वे उनके शिशु की भाँति खेल में मग्न थे । वे सब कहने लगे हे कृष्ण ! हे भगवान् ! हे बल के आगार प्रिय बलराम ! हमें इस सर्वभक्षी तथा विनाशक अग्नि से बचाएँ । हमारे पास तुम्हारे अतिरिक्त कोई अन्य शरण नहीं है । यह विनाशकारी अग्नि हम सबको लील जाएगी । इस तरह उन्होंने यह कहते हुए उनसे प्रार्थना की कि वे उनके चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य किसी की शरण ग्रहण नहीं करेंगे । भगवान् कृष्ण ने अपने ग्रामवासियों पर कृपालु बन कर तुरन्त ही सम्पूर्ण दावाग्नि को निगल लिया और उन्हें बचा लिया । यह कृष्ण के लिए असम्भव न था, क्योंकि वे इच्छानुसार कुछ भी कर सकने की असीम शक्ति से युक्त हैं ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “दावाग्नि का शमन” नामक सत्रहवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥