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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 22: गोपियाँ का चीर हरण  » 
 
 
 
 
 
वैदिक सभ्यता के अनुसार दस से चौदह वर्ष तक की कुमारियों को अच्छे पति की प्राप्ति के लिए या तो शिव की या फिर देवी दुर्गा की पूजा करनी होती है । किन्तु वृन्दावन की कुमारियाँ तो पहले से ही कृष्ण के सौन्दर्य के प्रति आकृष्ट थीं । वे हेमन्त ॠतु (शीत ॠतु के पूर्व) के प्रारम्भ में देवी दुर्गा का पूजन किया करती थीं । हेमन्त का पहला मास अग्रहायण (अक्टूबर-नवम्बर) है और इस मास में वृन्दावन की सारी कुमारी गोपिकाएँ व्रत रखकर देवी दुर्गा की पूजा करने लगीं । सर्वप्रथम उन्होंने (हविष्यान्न) ग्रहण किया, जिसे मूँग की दाल तथा चावल में कोई मसाला या हल्दी डाले बिना उबाल कर तैयार किया जाता है । वैदिक आदेश के अनुसार कोई भी अनुष्ठान करने के पूर्व शरीर को शुद्ध करने के लिए ऐसे भोजन की संस्तुति की जाती है । वृन्दावन की सारी कुमारी गोपियाँ यमुना नदी में नित्य प्रातः स्नान करके देवी कात्यायनी की पूजा करती थीं । कात्यायनी देवी दुर्गा का ही दूसरा नाम है । इस देवी की पूजा यमुना की बालू से प्रतिमा बनाकर की जाती है । वैदिक शास्त्रों में संस्तुति की गई है कि अर्चाविग्रह की रचना विभिन्न प्रकार के पदार्थों से की जा सकती है । इसे रँगा जा सकता है, इसे धातु, रत्न, काष्ठ, मिट्टी या पत्थर से बनाया जा सकता है या फिर पूजने वाला अपने हृदय के भीतर उसका चिन्तन कर सकता है । मायावादी चिन्तकों के अनुसार ये सारे अर्चाविग्रह काल्पनिक हैं, किन्तु वैदिक साहित्य में इन्हें वास्तव में परमेश्वर या विभिन्न देवताओं के समरूप माना जाता है । सारी कुमारी गोपिकाएँ देवी दुर्गा का अर्चाविग्रह तैयार करके चन्दन लेप, माला, धूप, दीप तथा फल, अन्न तथा पौधों की शाखाओं जैसी भेंटें चढ़ाकर पूजा करतीं थीं । पूजा के बाद वरदान माँगने की प्रथा है । ये कुमारिकाएँ देवी कात्यायनी की पूजा अत्यन्त भक्तिपूर्वक करतीं और उन्हें इस प्रकार सम्बोधित करती हे भगवान् की परम बहिरंगा शक्ति ! हे परम योगशक्ति ! हे जगत् की परम नियन्ता ! हे देवी ! आप हम पर दयालु हों और नन्द महाराज के पुत्र कृष्ण से हमारा विवाह कराने की व्यवस्था करें । सामान्यतः वैष्णवजन किसी देवता को नहीं पूजते । श्रील नरोत्तमदास ठाकुर ने उन लोगों को, जो विशुद्ध भक्ति में अग्रसर होना चाहते हैं, देवताओं की पूजा करने से नितान्त मना किया है । फिर भी गोपियाँ, जिनका कृष्ण-प्रेम अद्वितीय हैं, दुर्गा की पूजा करती थीं । देवताओं की पूजा करने वाले कभी-कभी उल्लेख करते हैं कि गोपियाँ भी देवी दुर्गा की पूजा करती थी, किन्तु हमें गोपियों का मन्तव्य समझना चाहिए । सामान्य रूप से लोग किसी भौतिक वरदान के लिए देवी दुर्गा की पूजा करते हैं, किन्तु यहाँ तो गोपियाँ देवी से भगवान् कृष्ण की पत्नियाँ बनने का वरदान माँगती थीं । कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हमारे कर्म का केन्द्रबिन्दु कृष्ण हो, तो अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए भक्त किसी भी साधन को अपना सकता है । गोपियाँ कृष्ण की सेवा करने या उन्हें प्रसन्न करने के लिए कोई भी साधन अपना सकती थीं । यह गोपियों की सर्वोत्कृष्ट विशेषता थीं । उन्होंने कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पूरे एक मास तक देवी दुर्गा की पूजा की । वे प्रतिदिन नन्द महाराज के पुत्र कृष्ण को अपना पति बनाने के लिए प्रार्थना करतीं ।

ये गोपियाँ बड़े-सवेरे यमुना के तट पर स्नान करने जातीं । ये वहाँ एकत्र होतीं और एक दूसरे का हाथ पकड़ कर कृष्ण की विचित्र लीलाओं का उच्च स्वर में गान करतीं । भारत की युवतियों तथा स्त्रियों में यह पुरानी प्रथा है कि जब वे नदी में स्नान करती हैं, तो वे अपने सारे वस्त्र किनारे पर रख देती हैं और तब पूर्णतया नग्न होकर जल में डुबकी लगाती हैं, अतः नदी के जिस भाग में वे स्नान करती हैं वहाँ पुरुषों के आने पर कड़ा प्रतिबन्ध रहता है और यह प्रथा आज तक चालू है । भगवान् कृष्ण इन कुमारी तरुण गोपियों के मन की बात जानते थे, अतः उन्होंने उनकी मनोकामना पूरी की । उन्होंने कृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने की प्रार्थना की थी और कृष्ण उनकी इस मनोकामना को पूरा करना चाह रहे थे ।

महीना पूरा होने पर कृष्ण अपने साथियों समेत वहाँ पर प्रकट हुए । कृष्ण का दूसरा नाम योगेश्वर है । ध्यान का अभ्यास करके योगी अन्य पुरुषों की मानसिक स्थिति का पता लगा सकता है, अतः कृष्ण गोपियों के समस्त वस्त्र उठाकर पास के वृक्ष पर चढ़ गए और मुस्कुराते हुए उनसे बोलेः “हे युवतियो ! तुम एक-एक करके यहाँ आओ और मुझसे प्रार्थना करके अपने-अपने वस्त्र ले जाओ । मैं तुम लोगों से कोई हँसी नहीं कर रहा । मैं तुमसे सच-सच कह रहा हूँ । तुम लोगों से हँसी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, क्योंकि तुम देवी कात्यायनी की पूजा करते हुए एक मास तक अनुष्ठान करके थक गई हैं । हाँ, तुम सब एक साथ यहाँ मत आओ, तुम अकेले-अकेले आओ, मैं तुम में से प्रत्येक को तुम्हारे पूर्ण सौन्दर्य के साथ देखना चाहता हूँ, क्योंकि तुम सभी क्षीण कटि वाली हो । मैंने तुम सब से एक-एक करके आने के लिए कहा है, अतः मेरी आज्ञा का पालन करो ।

जब जल के भीतर स्थित कुमारिकाओं ने कृष्ण के ऐसे परिहास भरे शब्द सुने, तो वे एक दूसरे की ओर देख-देख कर हँसने लगीं । वे कृष्ण के इस निवेदन को सुनकर परम प्रसन्न हुईं, क्योंकि वे पहले से उन्हें प्यार करती थीं । वे लज्जावश एक दूसरे की ओर देखती रहीं, किन्तु जल से निकल कर बाहर न आईं, क्योंकि वे नग्न थीं । उन्हें अधिक काल तक जल के भीतर रहने से ठंड़ सताने लगी जिससे वे थरथराने लगीं । फिर भी गोविन्द के मोहक तथा परिहासपूर्ण वचन सुनकर उनके मन परम प्रसन्नता से अशान्त होने लगे । वे कृष्ण से कहने लगीं “हे नन्दलाल ! हमसे इस प्रकार की हँसी न करो । यह हमारे साथ घोर अन्याय है । तुम नन्द महाराज के पुत्र होने के कारण अत्यन्त प्रतिष्ठित हो और हमें अत्यन्त प्रिय हो, किन्तु तुमको इस समय हमारे साथ ऐसा परिहास नहीं करना चाहिए, क्योंकि हम ठंडे जल के कारण ठिठुर रही हैं । कृपा करके हमें तुरन्त हमारे वस्त्र दे दो, अन्यथा हमें कष्ट होगा । वे पुनः कृष्ण से अत्यन्त विनीत भाव से कहने लगीं हे श्यामसुन्दर ! हम तुम्हारी शाश्वत दासी हैं । तुम हमें जो भी आज्ञा दोगे उसे हम बिना हिचक के करने के लिए बाध्य हैं, क्योंकि हम उसे अपना पुनीत कर्तव्य समझती हैं । किन्तु यदि तुम हमारे समक्ष ऐसा प्रस्ताव रखोगे, जिसे सम्पन्न करना असम्भव हो, तो यह समझ लो कि हमें नन्द महाराज से तुम्हारी शिकायत करनी पड़ेगी । यदि नन्द महाराज उस पर कोई कार्यवाही नहीं करेंगे, तो हम तुम्हारे इस दुर्व्यवहार को राजा कंस से कहेंगी ।

कुमारी गोपिकाओं की यह विनती सुनकर कृष्ण ने कहा, हे बालिकाओं ! यदि तुम अपने को मेरी शाश्वत सेविकाएँ मानती हो और मेरी आज्ञा का पालन करने के लिए सदैव तैयार रहती हो, तो मेरी यह विनती हैं कि तुम प्रसन्न मुख एक-एक करके यहाँ आओ और अपने-अपने वस्त्र ले जाओं । यदि तुम नहीं आतीं और मेरे पिता से शिकायत करोगी, तो मैं कोई परवाह नहीं करूँगा, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मेरे पिता वृद्ध हैं और मेरे विरुद्ध वे कुछ भी नहीं कर सकते ।

जब गोपियों ने देखा कि कृष्ण दृढ़संकल्प हैं, तो उनके पास आज्ञा-पालन के अतिरिक्त अन्य कोई चारा न था । वे एक-एक करके जल से निकल कर बाहर आईं, किन्तु पूर्ण नग्न होने के कारण अपनी नग्नता छिपाने के लिए वे अपने गुप्तांगों पर अपना बायाँ हाथ रखे थीं । ऐसी मुद्रा में वे थराथरा रही थीं । उनके इस सरल स्वभाव के कारण कृष्ण उन पर प्रसन्न हो गए । इस प्रकार जिन कुमारी गोपियों ने कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए कात्यायनी से प्रार्थना की थी वे सब प्रसन्न हो गईं । कोई भी स्त्री अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष के समक्ष नंगी नहीं हो सकती । ये अविवाहित गोपिकाएँ कृष्ण को पतिरूप में चाहती थीं और कृष्ण ने उनकी इच्छा इस तरह पूरी की । वे उनसे प्रसन्न होकर उनके वस्त्रों को अपने कंधे में डालकर इस प्रकार बोलेः हे बालिकाओ ! तुमने यमुना नदी के भीतर नग्न होकर बहुत बडा अपराध किया है । इस कारण यमुना के अधिष्ठाता वरुणदेव तुम लोगों से अप्रसन्न हो गए हैं, अतः तुम सब हाथ जोड़कर वरुणदेव के समक्ष झुक कर प्रणाम करों जिससे वे तुम्हारे इस अपराध-कार्य को क्षमा कर दें । गोपियाँ अत्यन्त सरल जीवात्माएँ थीं और कृष्ण जो भी कहते उसे वे सत्य मान लेतीं, अतः वरुणदेव के कोप से मुक्त होने तथा अपनी मनोकामना की पूर्ति करने एवं अन्ततः आराध्यदेव कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने तुरन्त उनकी आज्ञा मान ली । इस तरह वे कृष्ण की सर्वोच्च प्रेमिकाएँ तथा उनकी परम आज्ञाकारिणी दासियाँ बन गईं ।

गोपियों की कृष्णभक्ति की कोई बराबरी नहीं कर सकता । वास्तव में गोपियों को वरुण या किसी अन्य देवता की कोई परवाह न थी; वे तो केवल कृष्ण को प्रसन्न करना चाहती थीं । कृष्ण गोपियों के सरल आचरण से अत्यधिक प्रभावित तथा प्रसन्न थे, अतः उन्होंने तुरन्त ही उनके वस्त्र वापस कर दिये । यद्यपि कृष्ण ने इन तरुण गोपिकाओं

को ठगा था और उन्हें अपने समक्ष नग्न खड़ा रखा था तथा उनसे परिहास का आनन्द लूटा था और यद्यपि उन्होंने उन सबको पुत्तलिकाएँ समझकर उनके वस्त्र चुरा लिए थे, तो भी वे सब उनसे प्रसन्न थीं और उन्होंने कभी भी उनकी शिकायत नहीं की । गोपियों के इस मनोभाव का वर्णन चैतन्य महाप्रभु की इस प्रार्थना में मिलता है , “हे भगवान् कृष्ण ! आप चाहे मुझे प्यार करें या पैरों के नीचे रौंद दें या मेरे समक्ष प्रकट न होकर मुझे भग्नहृदय कर दें । आपको जो भाए सो करें, क्योंकि आपको पूरी छूट हैं । किन्तु तो भी आप मेरे स्वामी हैं; मेरा कोई अन्य आराध्य नहीं हैं । कृष्ण के प्रति गोपियों का ऐसा था मनोभाव !

कृष्ण उनसे प्रसन्न थे और चूँकि वे सभी उन्हें पति-रूप में चाहती थी, अतः उन्होंने उनसे कहा, हे शिष्ट बालिकाओं ! मैं अपने प्रति तुम्हारी इच्छा से परिचित हूँ और यह भी जानता हूँ कि तुम ने कात्यायनी की पूजा क्यों की । मैं तुम्हारे इस कार्य का पूरा अनुमोदन करता हूँ ।जिस किसी की पूर्ण चेतना, भले ही काम-वासना में रहकर ही क्यों न मुझमें तल्लीन रहती हो, वह उच्च पद प्राप्त करता है । जिस प्रकार भुना हुआ बीज नहीं उग सकता उसी प्रकार मेरी प्रेमाभक्ति के प्रसंग में कोई भी इच्छा सकाम फल नहीं देती जैसाकि सामान्य कर्म में होता है ।

ब्रह्म-संहिता का एक कथन है कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्तिभाजाम् । प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों से बँधा है, किन्तु चूँकि भक्त भगवान् को प्रसन्न करने के लिए ही कर्म करते हैं, अतः उन्हें ऐसे कर्म-फल भोगने नहीं पड़ते । इसी प्रकार कृष्ण के प्रति गोपियों का मनोभाव, यद्यपि वासनामय जान पड़ता है, किन्तु उसे सामान्य स्रियों की काम-इच्छाओं के समान नहीं समझना चाहिए । इसका कारण कृष्ण ने स्वयं बताया है । कृष्ण की भक्ति के हेतु किए गए कर्म किसी भी कर्म-फल से परे हैं ।

कृष्ण ने आगे कहा, हे गोपियो ! मुझे पति-रूप में पाने की तुम्हारी इच्छा पूरी होगी, क्योंकि तुम सब ने इसी इच्छा से देवी कात्यायनी की पूजा की है । मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम सबसे अगली शरद् ॠतु में मिलूँगा और तुम अपने पति-रूप में मेरे साथ आनन्द भोग सकोगी ।

थोडे समय बाद कृष्ण अपने सखाओं सहित वृक्षों की छाया में बैठकर अत्यन्त प्रसन्न हो गए । चलते समय उन्होंने वृन्दावन वासियों को सम्बोधित किया, “हे स्तोककृष्ण, हे वरूथप, हे भद्रसेन, हे सुदामा, हे सुबल, हे अर्जुन, हे विशाल, हे ॠषभ ! जरा, वृन्दावन के इन परम भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो ! इन्होंने परोपकार में अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया है । ये अकेले-अकेले अन्धड़, वर्षा की झड़ी, प्रचण्ड आतप तथा बेधने वाली शीत जैसे प्राकृतिक प्रकोपों को सह लेते हैं, किन्तु ये हमारे श्रम को हरने तथा हमें शरण देने में अत्यन्त सतर्क रहते हैं । मेरे विचार से ये वृक्षों के रूप में इस जन्म में धन्य हैं । ये दूसरों को शरण देने में इतने सतर्क रहते हैं कि वे उन सहृदय तथा दानी व्यक्तियों के समान हैं, जो पास आने वाले किसी व्यक्ति को भी दान देने से इनकार नहीं करते । ये वृक्ष किसी को भी छाया देने से इनकार नहीं करते । ये मानव-समाज को विविध प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करते हैं-यथा पत्तियाँ, फूल, फल, छाया, मूल, जड़, सुगंध तथा ईंधन । ये उदात्त जीवन के सर्वोत्तम उदाहरण हैं । ये उन उदार व्यक्तियों के समान हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व-अपना तन, मन, कर्म, बुद्धि तथा वाणी-समस्त प्राणियों की भलाई में अर्पित कर दिया है ।

इस तरह भगवान् श्रीकृष्ण वृक्षों के फलों, पत्तों तथा टहनियों का स्पर्श करते एवं उनके यशस्वी परोपकारी कार्यों की प्रशंसा करते यमुना-तट पर विहार करते रहे । विभिन्न प्रकार के लोग अपनी-अपनी दृष्टियों से मानव-समाज के कल्याण हेतु कुछ कल्याण-कार्य करते हैं, किन्तु सामान्य जनों के शाश्वत लाभ के लिए जो परोपकार किया जा सकता है, वह है कृष्णभावनामृत आन्दोलन का प्रसार । प्रत्येक व्यक्ति को इस आंदोलन के प्रचार के लिए उद्यत रहना चाहिए । जैसाकि भगवान् चैतन्य ने उपदेश दिया है, मनुष्य को भूमि की घास से भी विनम्र तथा वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु होना चाहिए । स्वयं भगवान् कृष्ण ने वृक्षों की सहिष्णुता का वर्णन किया है और जो लोग कृष्णभावनामृत का उपेदश देते हैं उन्हें भगवान् कृष्ण तथा चैतन्य की प्रत्यक्ष गुरु-परम्परा से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।

यमुना-तट स्थित वृन्दावन के जंगल से जाते हुए कृष्ण एक सुन्दर स्थान पर बैठ गए और गायों को यमुना का स्वच्छ शीतल जल पीने दिया । थक जाने के कारण कृष्ण, बलराम तथा ग्वालों ने भी पानी पिया । कृष्ण ने गोपियों को यमुना में स्नान करते देखने के बाद शेष प्रातःकाल लड़कों के साथ बिताया ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “गोपियों का चीर हरण” नामक बाइसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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