जब कृष्ण तथा बलराम वैदिक यज्ञों को सम्पन्न करने वाले ब्राह्मणों से बातें करने में व्यस्त थे, तो उन्होंने यह भी देखा कि स्वर्ग के राजा तथा वर्षा के लिए उत्तरदायी इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए सारे ग्वाले एक वैसे ही यज्ञ की तैयारी कर रहे हैं । जैसाकि चैतन्य चरितामृत में कहा गया है कि कृष्ण-भक्त का यह दृढ़ विश्वास है कि यदि वह केवल कृष्णभावनामृत तथा कृष्ण की दिव्य प्रेमा-भक्ति में लगा रहे, तो वह अन्य समस्त ॠणों से मुक्त हो जाता है । कृष्ण के विशुद्ध भक्त को वेदों द्वारा बताये गए किसी अनुष्ठान को नहीं करना होता, न ही उसे किसी देवता की पूजा करनी होती है । कृष्ण-भक्त होने से यह मान लिया जाता है कि उसने सारे वैदिक अनुष्ठान या देवताओं की पूजा सम्पन्न कर ली है । वैदिक अनुष्ठान करने से या देवताओं की पूजा करने से ही कृष्णभक्ति उत्पन्न नहीं हो जाती । बल्कि यह समझ लेना चाहिए कि जो भगवान् की सेवा में पूर्णरूपेण लगा रहता है । वह पहले से सारे वैदिक आदेशों को पूरा किए रहता है । कृष्ण अपने भक्तों द्वारा ऐसे कार्य बन्द करवाने के लिए अपनी उपस्थिति में वृन्दावन में अनन्य भक्ति स्थापित कर देना चाहते थे । सर्वज्ञ कृष्ण को ज्ञात था कि सारे ग्वाले इन्द्र-यज्ञ की तैयारी कर रहे हैं, किन्तु शिष्टाचारवश उन्होंने अत्यन्त विनय से तथा आदरपूर्वक नन्द महाराज तथा अन्य गुरुजनों से इसके सम्बन्ध में पूछना प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने अपने पिता से पूछा, “हे पिताजी ! विशाल यज्ञ के लिए यह सारा प्रबन्ध क्यों हो रहा है ? इस यज्ञ का क्या फल है और यह किसके निमित्त है ? यह किस तरह सम्पन्न होता है ? कृपा करके मुझे बताएँ क्योंकि मैं इसका उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ ।” उनकी इस पूछताछ पर उनके पिता नन्द महाराज यह सोचकर मौन बने रहे कि यह तरुण बालक यज्ञ सम्पन्न करने की मुत्थियों को नहीं समझ सकेगा । किन्तु कृष्ण ने हठ कियाः “हे पिता ! उदार तथा सन्त पुरुषों के लिए कुछ भी गोपनीय नहीं होता । वे किसी को भी न तो मित्र मानते हैं और न शत्रु और न ही तटस्थ क्योंकि वे सब के प्रति सदैव उदार होते हैं । यहाँ तक कि जो लोग इतने उदार नहीं होते वे भी अपने परिवार के सदस्यों तथा मित्रों से कुछ नहीं छिपाते । हाँ, जो लोग शत्रुता रखते हैं उनसे गोपनीयता बरती जा सकती है । अतः आप मुझसे कुछ भी गोपनीय न रखें । सारे के सारे मनुष्य सकाम कर्म में लगे रहते हैं । इनमें से कुछ जानते रहते हैं कि ये कर्म क्या हैं और उन्हें फल का भी पता रहता है । कुछ लोग ऐसे हैं, जो उद्देश्य या फल को जाने बिना कर्म करते हैं । जो व्यक्ति पूरी समझ में कर्म करता है उसे पूरा फल मिलता है और जो बिना जाने ऐसा करता है उसे पूरा फल नहीं मिलता । अतः आप मुझे इस यज्ञ का प्रयोजन बता दें, जिसे आप करने जा रहे हैं । क्या यह वैदिक आदेशानुसार है ? या यह केवल लौकिक उत्सव है ? कृपा करके मुझे इस यज्ञ के विषय में विस्तार से बताएँ । कृष्ण से यह प्रश्न सुनकर महाराज नन्द ने उत्तर दिया, “मेरे बेटे ! यह उत्सव न्यूनाधिक परम्परागत है । चूँकि वर्षा राजा इन्द्र की कृपा से होती है और बादल उसके प्रतिनिधि हैं और चूँकि हमारे जीवन के लिए जल इतना महत्त्वपूर्ण है, अतः हमें वर्षा के नियामक महाराज इन्द्र के प्रति कुछ कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए । अतः हम राजा इन्द्र को प्रसन्न करने का प्रबन्ध कर रहे हैं क्योंकि उसने कृषिकर्मों को सफल बनाने के लिए ही बादलों को प्रचुर वर्षा करने के लिए भेजा है । जल अत्यन्त आवश्यक है, जब के बिना न तो हम जोत-बो सकते हैं, न अन्न उत्पन्न कर सकते हैं । यदि वर्षा न हो, तो हम जीवित नहीं रह सकते । यह वर्षा धर्म, अर्थ तथा मोक्ष के लिए आवश्यक है । अतः हमें परम्परागत उत्सवों को छोड़ना नहीं चाहिए; यदि कोई काम, लोभ या भय के कारण इनका परित्याग करता है, तो यह उसे शोभा नहीं देता ।” इसे सुनकर भगवान् कृष्ण अपने पिता तथा वृन्दावन के समस्त प्रौढ़ ग्वालों के समक्ष इस प्रकार बोले जिससे स्वर्ग का राजा इन्द्र अत्यन्त कुपित हो जाएँ । उन्होंने सुझाया कि यह यज्ञ बन्द कर दिया जाऐं । इन्द्र को प्रसन्न करने वाले इस यज्ञ का निषेध करने के दो कारण थे । पहला-जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है किसी भौतिक उन्नति के लिए देवताओं की पूजा करना व्यर्थ है, देवताओं की पूजा से प्राप्त होने वाले सारे फल क्षणिक होते हैं और केवल अल्पज्ञ ही ऐसे; क्षणिक फलों में रुचि रखते हैं । दूसरा-देवताओं की पूजा से जो भी क्षणिक फल प्राप्त होता है, वह वस्तुतः भगवान् की कृपा से होता है । भगवद्-गीता में स्पष्ट कथन है-मायैव विहितान् हि तान् । देवताओं से जो भी लाभ मिलता है, वह वास्तव में भगवान् द्वारा प्रदत्त है । भगवान् की अनुमति के बिना कोई किसी को लाभ नहीं पहुँचा सकता । किन्तु कभी-कभी देवता भौतिक प्रकृति के वशीभूत होकर गर्वित हो उठते हैं और अपने को सर्वस्व समझ कर भगवान् की सर्वोच्चता भूल जाते हैं । श्रीमद्-भागवत में स्पष्ट उल्लेख है कि इस प्रसंग में तो कृष्ण राजा इन्द्र को कुपित करना चाहते थे । कृष्ण का अवतार असुरों के विनाश तथा भक्तों की रक्षा के लिए हुआ था । इन्द्र निश्चित रूप से भक्त था, असुर नहीं, किन्तु चूँकि वह गर्वित था, इसलिए कृष्ण उसे पाठ पढ़ाना (शिक्षा देना) चाहते थे । सर्वप्रथम उन्होंने इन्द्र को कुपित करने के लिए वृन्दावन में ग्वालों द्वारा की जाने वाली इन्द्रपूजा बन्द करा दी ।
इस उद्देश्य से कृष्ण इस प्रकार बातें करने लगे मानो वे नास्तिक हों और “कर्म-मीमांसा” दर्शन के समर्थक हों । इस दर्शन के समर्थक भगवान् की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं करते । वे यह तर्क प्रस्तुत करते है कि यदि कोई अच्छा कार्य करता है, तो उसका फल अवश्य प्राप्त होगा । उनके मत से यदि मनुष्य को उसके कर्मों का फल देने वाला ईश्वर विद्यमान भी हो, तो उसके पूजन की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि जब तक मनुष्य कर्म नहीं करता तब तक वह कोई फल नहीं दे सकता । उनका कहना है कि देवता या ईश्वर की पूजा करने के बजाय मनुष्यों को चाहिए कि अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान दें और इस प्रकार अवश्य ही अच्छा फल प्राप्त होगा । भगवान् कृष्ण अपने पिता से कर्म-मीमांसा दर्शन के इन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार बातें करने लगे । उन्होंने कहा, “हे पिता ! मेरे विचार से अपने कृषिकार्यों की सफलता के लिए आपको किसी भी देवता के पूजने की आवश्यकता नहीं है । प्रत्येक जीव अपने पूर्वकर्म के अनुसार उत्पन्न होता है और वर्तमान कर्म के फल को साथ लेकर इस जीवन को त्याग देता है । प्रत्येक जीव अपने पूर्वकर्मों के अनुसार विविध योनियों में जन्म ग्रहण करता है और इस जीवन में जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार अगला जन्म पाता है । विभिन्न प्रकार के भौतिक सुख तथा दुःख, लाभ तथा हानि भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मों के प्रतिफल हैं, जो पूर्वजन्म में या इस जन्म में किए जा चुके हैं ।
महाराज नन्द तथा अन्य गुरुजनों ने तर्क दिया कि प्रमुख देवता को प्रसन्न किए बिना केवल भौतिक कर्मों द्वारा कोई शुभ फल की प्राप्ति नहीं कर सकता । यही तथ्य है । उदाहरणार्थ, कभी-कभी देखा जाता है । कि उत्तम डाक्टर द्वारा उत्तमोत्तम चिकित्सा तथा उपचार करने पर भी रोगी की मृत्यु हो जाती है । अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि उत्तम उपचार या उत्तम डॉक्टर द्वारा किया गया प्रयास ही रोगी के अच्छा होने के कारण नहीं है; इसमें भगवान् का हाथ अवश्य होना चाहिए । इसी प्रकार माता-पिता द्वारा अपनी सन्तानों का लालन-पालन ही बच्चों के सुख का कारण नहीं होता । कभी-कभी देखा जाता है कि माता-पिता द्वारा समस्त सावधानी बरतने के बावजूद बच्चे बिगड़ जाते हैं या मर जाते हैं । अतः फल के लिए भौतिक कारण पर्याप्त नहीं हैं । इसमें भगवान् की स्वीकृति (प्रसाद) आवश्यक है । अतः नन्द महाराज ने दलील दी कि कृषिकर्म में अच्छा फल पाने के लिए हमें वर्षा के अधिष्ठाता देव इन्द्र को प्रसन्न करना चाहिए । भगवान् कृष्ण ने इस तर्क को काटते हुए कहा कि देवता केवल उन व्यक्तियों को फल देते हैं, जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं । देवता ऐसे व्यक्ति को कभी कोई फल नहीं दे सकते जिसने अपना नियत कर्म पूरा न किया हो । अतः देवता कर्म सम्पन्नता (कर्मपरायणता) पर आश्रित है और उन्हें किसी को अच्छा फल देने की पूरी छूट नहीं है । अतः किसी को उनकी परवाह क्यों करनी चाहिए ? भगवान् कृष्ण ने कहा, “हे पिताजी ! इन्द्रदेव की पूजा करने की कोई आवश्यकता नहीं है प्रत्येक जीव को अपने कर्म का फल प्राप्त होता है । हम देखते हैं कि अपने कर्म की स्वाभाविक प्रवृति के अनुसार हर व्यक्ति कार्यरत हो जाता है और सारे जीव-चाहे मनुष्य हों या देवता-इसी प्रवृति के द्वारा अपना-अपना फल प्राप्त करते हैं । सारे जीवन अपने-अपने कर्म के अनुसार उच्च या निम्न शरीर प्राप्त करते हैं और शत्रु या मित्र बनाते हैं । मनुष्य को अपनी सहज प्रवृति के अनुसार ही कर्म करना चाहिए और विविध देवताओं की पूजा में ध्यान नहीं मोड़ना चाहिए । सारे देवता समस्त कर्मों के सही कार्यान्वयन से प्रसन्न होंगे, अतः उनकी पूजा की कोई आवश्यकता नहीं है । अच्छा यही है कि हम अपना कर्तव्य सुचारु रीति से करें । वस्तुतः कोई भी व्यक्ति निर्दिष्ट कर्म किए बिना सुखी नहीं हो सकता । अतः जो ढ़ंग से निर्दिष्ट कर्म नहीं करता वह व्यभिचारिणी स्त्री के समान है । ब्राह्मण का उचित निर्दिष्ट कर्तव्य वेदों का अध्ययन है, प्रशासक वर्ग अर्थात् क्षत्रियो का कर्तव्य नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना है, वैश्यों का कर्तव्य कृषि, व्यापार तथा गायों की सुरक्षा करना है और शूद्रों का कर्तव्य है उच्च वर्गों अर्थात् ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों की सेवा करना । हम वैश्य जाति के हैं और हमारा वास्तविक कर्तव्य खेती करना, कृषि उत्पादनों का व्यापार, गायों की रक्षा या बैंक में लेन-देन का कार्य करना है ।
कृष्ण ने अपना सम्बन्ध वैश्य जाति से जोड़ा क्योंकि नन्द महाराज अनेक गायों की रक्षा कर रहे थे और कृष्ण उनकी देखरेख करते थे । उन्होंने वैश्य जाति के चार प्रकार के कार्य गिनाये हैं- कृषि, व्यापार, गोरक्षा तथा बैंक की व्यवस्था । यद्यपि वैश्यगण इनमें से कोई भी कार्य कर सकते हैं, किन्तु वृन्दावनवासी मुख्यतः गोरक्षा में ही लगे हुए थे ।
कृष्ण ने अपने पिताजी को आगे भी बताया, यह दृश्य जगत् प्रकृति के तीन गुणों-सतो, रजो तथा तमो-के अधीन चल रहा है । ये तीन गुण उत्पत्ति, पालन तथा संहार के कारणस्वरुप है । बादल की उत्पत्ति रजोगुण के प्रभाव से होती है, अतः वर्षा का कारण यही रजोगुण है । इस वर्षा के बाद ही जीवों को फल अर्थात् कृषि कार्य में सफलता मिलती है । तो फिर इन्द्र को इस कार्य से क्या प्रयोजन है ? यदि आप इन्द्र को प्रसन्न न भी करें, तो वह क्या कर सकता है ? हमें इन्द्र से कोई विशेष लाभ नहीं मिलता । यदि वह हो भी तो वह समुद्र के ऊपर भी तो जल बरसाता है जहाँ उसकी कोई आवश्यकता नहीं है । अतः हम पूजा करें या न करें, वह समुद्र तथा पृथ्वी पर जल की वर्षा करता है । जहाँ तक हमारी बात है, हमें किसी अन्य नगर या गाँव या विदेश जाने की आवश्यकता नहीं है । नगरों में बड़े-बड़े महल हैं, किन्तु हम तो वृन्दावन के इसी जंगल में रहने से ही संतुष्ट हैं । हमारा सम्बन्ध गोवर्धन पर्वत तथा वृन्दावन के जंगल से हैं, अन्य कहीं से नहीं । अतः हे पिता ! मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप ऐसा यज्ञ करें जिससे स्थानीय ब्राह्मण तथा गोवर्धन पर्वत सन्तुष्ट हो सकें । हमें इन्द्र से कोई सरोकार नहीं है । कृष्ण के इस कथन को सुनकर नन्द महाराज ने उत्तर दिया, “मेरे बेटे ! चूँकि तुम कह रहे हो इसलिए मैं स्थानीय ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत के लिए एक पृथक् यज्ञ का आयोजन किए देता हूँ । किन्तु इस समय मुझे यह इन्द्र-यज्ञ करने दो ।” किन्तु कृष्ण का प्रत्युत्तर था, पिताजी ! आप विलम्ब न करें । आप गोवर्धन पर्वत तथा स्थानीय ब्राह्मणों के लिए जिस यज्ञ का प्रस्ताव रख रहे हैं उसमें काफी समय लगेगा । अतः अच्छा हो यदि इन्द्र-यज्ञ के लिए आपने जितनी तैयारियाँ की हैं, उनसे तुरन्त गोवर्धन पर्वत तथा स्थानीय ब्राह्मणों को संतुष्ट कर दिया जायें ।
अन्ततोगत्वा महाराज नन्द को पसीजना पड़ा । तब ग्वालों ने कृष्ण से पूछा कि वे यज्ञ को किस तरह करना चाहते हैं । तो कृष्ण ने उन्हें ये आदेश दिए, “यज्ञ के पकौड़ी, पूड़ी तथा दूध के व्यजंन-यथा खीर, रबडी, रसगुल्ला, सन्देश एवं लड्डू बनाए जायँ और फिर विद्वान ब्राह्मणों को बुलवा कर वैदिक मंत्रों के उच्चारणसहित अग्नि को आहुति प्रदान की जाए । ब्राह्मणों को दान में सभी प्रकार के अन्न दिये जाएँ । सारी गौवो को सजाकर उन्हें अच्छा चारा दिया जाए । इसके बाद ब्राह्मणों को दान में धन दिया जायें । जहाँ तक निम्न स्तर के पशुओं या लोगों का प्रश्न है, कुत्तों और चण्डालों और अछूत समझे जाने वाले पंचम श्रेणी के लोगों को भी पेट भर कर प्रसाद दिया जाए । गायों को उत्तम घास खिलाकर तुरन्त ही गोवर्धन पूजा प्रारम्भ की जायें । इस यज्ञ से मैं परम सन्तुष्ट रहूँगा ।” कृष्ण के इस कथन में वैश्य जाति की समस्त अर्थव्यवस्था का वर्णन हुआ है । मानव-समाज की सभी जातियों में तथा पशु-जगत् में गायों, कुत्तों, बकरियों आदि में, प्रत्येक जीव को अपनी-अपनी भूमिका अदा करनी होती है । हर एक सदस्य को सम्पूर्ण समाज के लाभ के लिए सहयोग से काम करना होता है । इसमें न केवल सजीव पदार्थ, अपितु पर्वत तथा भूमि जैसे निर्जीव पदार्थ भी सम्मिलित हैं । वैश्य जाति का विशेष दायित्व रहता है कि समाज के आर्थिक विकास के लिए वह अन्न उत्पन्न करें, गायों की रक्षा करें, आवश्यकता पड़ने पर खाद्य पदार्थों का यातायात करें तथा बैंकिंग और अर्थ को सँभाले ।
इस कथन से हमें यह भी ज्ञात होता है कि यद्यपि कुत्ते तथा बिल्लियाँ अब इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई हैं कि इनकी भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए । किन्तु गायों की रक्षा कुत्तों-बिल्लियों की सुरक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण है । इस कथन से हमें एक अन्य संकेत यह मिलता है कि उच्चवर्गो को चण्डाल या अस्पृश्य की उपेक्षा नहीं करना चाहिए और उन्हें आवश्यक रक्षा प्रदान की जानी चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति का अपना महत्व है, किन्तु इनमें से कुछ मानव-समाज की प्रगति के लिए प्रत्यक्ष उत्तरदायी है और कुछ अप्रत्यक्ष रूप से । किन्तु कृष्णभावनामृत होने पर हर एक के लाभ का ध्यान रखा जाता है ।
कृष्णभावनामृत-आन्दोलन गोवर्धन पूजा नामक यज्ञ को मान्यता देता है । भगवान् चैतन्य की संस्तुति है कि चूँकि कृष्ण पूजनीय हैं, अतः उनकी भूमि वृन्दावन तथा गोवर्धन पर्वत भी पूजनीय हैं । इस कथन की पुष्टि के लिए कृष्ण ने कहा कि गोवर्धन की पूजा उनकी पूजा के ही समान है । तब से आजतक गोवर्धन पूजा की जाती है, जो अन्नकूट नाम से विख्यात है । इस उत्सव पर वृन्दावन तथा वृन्दावन के बाहर के मन्दिरों में भी प्रचुर मात्रा में भोजन तैयार किया जाता है और जनता में खुले दिल से बाँट दिया जाता है । कभी-कभी यह भोजन भीड़ में फेंक दिया जाता है और लोग उसे जमीन से भी उठाकर खानें में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं । इस से हम समझ सकते हैं कि कृष्ण को अर्पित प्रसाद कभी-भी दूषित नहीं होता, भले ही वह भूमि पर क्यों न फेंका गया हो । अतः लोग इसे एकत्र करके परम प्रसन्नतापूर्वक खाते हैं ।
अतः भगवान् श्रीकृष्ण ने ग्वालों को सलाह दी कि इन्द्र-यज्ञ बन्द करके इन्द्र को दण्डित करने के लिए गोवर्धन-पूजा प्रारम्भ की जाये क्योंकि इन्द्र स्वर्ग का परम नियन्ता होने के कारण अत्यन्त गर्वीला हो गया था । नन्द महाराज तथा सीधे-सादे ईमानदार ग्वालों ने कृष्ण का प्रस्ताव मानकर उनके द्वारा संस्तुत सब कार्य विस्तार से सम्पन्न किए । उन्होंने गोवर्धन की पूजा तथा उसकी परिक्रमा सम्पन्न की (गोवर्धन-पूजा के उद्धाटन के बाद आज भी वृन्दावनवासी सुन्दर वस्त्र पहन कर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने और गायों को आगे करके परिक्रमा करने के लिए उसके निकट एकत्र होते हैं ।) भगवान् के आदेशानुसार नन्द महाराज तथा ग्वालों ने विद्वान ब्राह्मणों को बुलाया और वैदिक मंत्रोच्चार के प्रसाद समर्पण करके गोवर्धन की पूजा की । वृन्दावनवासी एकत्र हुए, उन्होंने अपनी-अपनी गायें सजाईं और उन्हें हरी-हरी दूब दी । फिर गायों को आगे करके गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने लगे । गोपियों ने भी अपने को अच्छे वस्त्रों से सजाया और वे बैलगाड़ियों में बैठकर कृष्ण की लीलाओं का कीर्तन करने लगीं । यहाँ एकत्रित ब्राह्मणों ने गोवर्धन-पूजा के लिए पुरोहित बनकर ग्वालों
तथा उनकी पत्नियों (गोपियों) को आशीर्वाद किया । जब सब कुछ पूरा हो गया तो कृष्ण ने महान् दिव्य रूप धारण किया और वृन्दावनवासियों के समक्ष घोषित किया कि वे स्वयं गोवर्धन पर्वत हैं जिससे भक्तों को विश्वास हो जाये कि स्वयं कृष्ण तथा गोवर्धन पर्वत अभिन्न हैं । तब वहाँ पर अर्पित सारे व्यंजनों (भोग) को कृष्ण खाने लगे । आज भी कृष्ण तथा गोवर्धन पर्वत की अभिन्नता का सम्मान किया जाता है और परम भक्तगण गोवर्धन पर्वत से शिलाखण्ड़ लेकर उसकी उसी प्रकार पूजा करते हैं जिस प्रकार मन्दिरों में कृष्ण के श्रीविग्रह की हैं । इसीलिए कृष्णभावनामृत अनुयायी गोवर्धन पर्वत से छोटी-छोटी शिलाएँ एकत्र करके अपने घर में उनकी पूजा कर सकते हैं क्योंकि यह पूजा श्रीविग्रह पूजा के ही समान है । जिस रूप में कृष्ण ने भोग लगाया था उसको अलग से बनाकर कृष्ण तथा अन्य वृन्दावनवासियों ने उसे तथा गोवर्धन पर्वत को नमस्कार किया । साक्षात् कृष्ण तथा गोवर्धन पर्वत के विशाल रूप को नमस्कार करते हुए कृष्ण ने उस सभा में घोषित किया, “जरा देखो तो कि गोवर्धन पर्वत किस प्रकार यह विशाल रूप धारण किए है और सारी भेंटे स्वीकार करके हम पर अनुग्रह कर रहा है । मैंने स्वयम् गोवर्धन की पूजा जिस प्रकार से सम्पन्न की है, यदि कोई उस रूप में नहीं करेगा, तो वह सुखी नहीं रहेगा । गोवर्धन पर्वत में अनेक सर्प हैं और जो गोवर्धन पूजा सम्बन्धी निर्धारित कर्तव्य का पालन नहीं करेगा उसे ये साँप काटेंगे और वह मर जावेगा । गायों तथा अपने कल्याण के लिए विश्वस्त होने के लिए गोवर्धन के निकटवर्ती समस्त वृन्दावनवासियों को इस पर्वत की पूजा उसी रूप में करनी चाहिए जैसा मैंने बनाया है ।” इस प्रकार गोवर्धन-पूजा रूपी यज्ञ सम्पन्न करके वृन्दावन के समस्त वासियों ने वसुदेव के पुत्र कृष्ण की आज्ञा का पालन किया और बाद में वे अपने-अपने घरों को चले गए ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “गोवर्धन-पूजा” नामक चौबीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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