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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 25: वृन्दावन में प्रलयंकारी वर्षा  » 
 
 
 
 
 
जब इन्द्र को ज्ञात हुआ कि वृन्दावन में ग्वालों द्वारा सम्पन्न होने वाला यज्ञ कृष्ण द्वारा रोक दिया गया है, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और नन्द महाराज आदि वृन्दावनवासियों के ऊपर अपना गुस्सा उतारने लगा, यद्यपि उसे यह पूर्णतः ज्ञात था कि साक्षात् कृष्ण उनकी रक्षा कर रहे हैं । विविध प्रकार के बादलों के निदेशक के रूप में इन्द्र ने सांवर्तक नामक बादल का आह्वान किया । इसका आह्वान समस्त दृश्य जगत् के संहार के लिए किया जाता है । इन्द्र ने सांवर्तक को आदेश दिया कि वह वृन्दावन जाकर सारे क्षेत्र को व्यापक बाढ़ से आप्लावित कर दे । इन्द्र अपने को असुरों की तरह सर्वशक्तिमान परम पुरुष मानता था । जब असुर प्रबल हो उठते हैं, तो वे परम नियन्ता श्रीभगवान् की अवव्हेलना करते । यद्यपि इन्द्र असुर न था, किन्तु अपने भौतिक वैभव से गर्वित था और वह परम नियन्ता को ललकारना चाह रहा था । वह उस समय अपने-आपको कृष्ण के ही समान शक्तिशाली मान बैठा । उसने कहा, “जरा वृन्दावनवासियों की धृष्टता तो देखो ! वे जंगल के रहने वाले हैं, किन्तु अपने मित्र कृष्ण के बहकावे में आकर, जो एक सामान्य मनुष्य से अधिक कुछ नहीं है, देवताओं की अवव्हेलना का दुस्साहस कर रहे हैं ।” भगवद्-गीता में कृष्ण ने घोषित किया है कि देवताओं की पूजा करने वाले अधिक बुद्धिमान नहीं होते । उन्होंने यह भी घोषित किया है कि मनुष्य को चाहिए कि सब तरह की पूजा छोड़कर केवल कृष्णभावनामृत में मन को केन्द्रित करें । कृष्ण का पहले इन्द्र पर कुपित होना और बाद में उसे दण्डित करना भक्तों के लिए स्पष्ट संकेत हैं कि जो लोग कृष्णभावनामृत में लगे हैं उन्हें किसी देवता की पूजा करने की आवश्यकता नहीं है, भले ही वह देवता क्रुद्ध क्यों न हो जाए । कृष्ण अपने भक्तों को संरक्षण प्रदान करते हैं, अतः उन्हें उनकी कृपा पर पूर्णतः निर्भर रहना चाहिए । इन्द्र ने वृन्दावनवासियों के इस कृत्य की आलोचना की और कहा, “तुम लोग देवताओं की सत्ता को चुनौती देकर इस संसार में कष्ट भोगोगे । देवताओं को बलि न देने के कारण तुम भवसागर के अवरोधों को पार नहीं कर सकोगे ।” वृन्दावन के ग्वालों ने इस वाचाल बालक कृष्ण के कहने पर मेरी सत्ता की उपेक्षा की है । यह तो निरा बालक है किन्तु इस बालक पर विश्वास करके इन्होंने मुझे कुपित किया है । इस प्रकार उसने सांवर्तक को आदेश दिया कि वह जाए और वृन्दावन का सारा वैभव नष्ट कर दें । इन्द्र ने कहा, ये वृन्दावनवासी अपने भौतिक ऐश्वर्य तथा अपने नन्हें मित्र पर विश्वास करने के कारण अत्यन्त गर्वित हो उठे हैं । वह केवल वाचाल, क्षुद्र तथा सांसारिक परिस्थिति से अनजान हैं, किन्तु वह अपने को ज्ञान में बढ़ा-चढ़ा के कहने को गंभीरता से लेते हैं । चूँकि वे कृष्ण को मानते हैं, अतः उन्हें दण्ड मिलना चाहिए और उन्हें उनकी गायों समेत नष्ट कर देना चाहिए । इस प्रकार इन्द्र ने सांवर्तक को आदेश दिया कि वह वहाँ जाकर उस स्थान को जल से आप्लावित कर दें ।

यहाँ यह इंगित हुआ है कि गाँवों में या नगरों के बाहर, निवासियों को अपने वैभव के लिए गायों पर निर्भर रहना चाहिए । यदि गाएँ नष्ट कर दी जाती है, तो लोग सभी प्रकार के वैभव से विहीन हो जाते हैं । जब इन्द्र ने सांवर्तक तथा अन्य संगी बादलों को वृन्दावन जाने का आदेश दिया, तो बादल इस दुष्कृत्य को करने से भयभीत थे । किन्तु राजा इन्द्र ने उन्हें आश्वस्त किया, तुम आगे-आगे चलो, मैं भी पीछे-पीछे हाथी पर सवार होकर और अंधड़ को साथ लेकर आऊँगा । मैं वृन्दावनवासियों को दण्डित करने में अपनी सारी शक्ति लगा दूँगा । राजा इन्द्र का आदेश पाकर समस्त घातक बादल वृन्दावन के ऊपर प्रकट हुए और अपनी सारी शक्ति से निरन्तर वर्षा करने लगे । वहाँ निरन्तर बिजली तथा गर्जन प्रबल झंझा तथा अनवरत वर्षा होने लगी । वर्षा तीखे बाणों के समान बेधने लगी । मोटे-मोटे स्तम्भों के समान अविराम वर्षा करते हुए बादलों ने धीरे-धीरे वृन्दावन की भूमि को जलमग्न कर दिया जिससे ऊँची तथा नीची भूमि में कोई अन्तर न रह गया । इससे पशुओं के लिए स्थिति भयानक हो गई । वर्षा के साथ प्रबल वायु चल रही थी जिससे वृन्दावन का प्रत्येक प्राणी शीत से थरथराने लगा । गायें विशेष रूप से भारी वर्षा के कारण दुःखी होकर अपना सिर नीचे किए और बछड़ो को अपने नीचे छिपाये भगवान् के पास आईं और उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने लगीं । उस समय समस्त वृन्दावनवासी भगवान् कृष्ण से प्रार्थना करने लगे, “हे कृष्ण ! आप सर्वशक्तिमान हैं और अपने भक्तों के प्रति अत्यधिक वत्सल हैं । कुपित इन्द्र ने हम सबको बहुत सता रखा है, अतः हमारी रक्षा करें ।” इस प्रार्थना को सुनकर कृष्ण को भी पता लग गया कि इन्द्र यज्ञ-सम्मान न पाने के कारण मूसलाधार वर्षा कर रहा है, जिसके साथ असमय में बड़े-बड़े ओले पड़ रहे हैं और प्रबल झंझा चल रहा है । कृष्ण समझ गए कि इन्द्र जानबूझ कर अपने कोप का प्रदर्शन कर रहा है । अतः उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला, अपने को परम शक्तिशाली समझने वाले इस देवता ने अपने महान् पराक्रम को दिखा दिया, किन्तु मैं अपने पद के अनुसार इसका उत्तर दूँगा और उसे दिखा दॅूंगा कि ब्रह्माण्ड के कार्यों के संचालन में वह स्वतंत्र नहीं है । मैं सबका परमेश्वर हूँ, अतः मैं इसकी उस झूठी प्रतिष्ठा को समाप्त कर दॅूंगा, जिसे उसने अपनी शक्ति से प्राप्त किया है । सारे देवता मेरे भक्त हैं, अतः वे मेरी श्रेष्ठता को कभी भूल नहीं सकते, किन्तु यह न जाने कैसे भौतिक शक्ति से गर्व से फूल गया है और मदान्ध हो गया है । मैं इसके झूठे गर्व को चूर-चूर कर दूँगा । मैं वृन्दावन के अपने सारे भक्तों को शरण दूँगा, जो पूर्णतः मेरी कृपा पर निर्भर हैं और जिन्हें मैंने शरण दे रखी है । मैं अपनी योगशक्ति से उन्हें बचाऊँगा ।

ऐसा सोचते हुए भगवान् कृष्ण ने तुरन्त ही एक हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा लिया ठीक उस तरह जिस प्रकार कोई बालक धरती से छत्रक (कुकुरमुत्ता) उखाड़ लेता है । इस प्रकार उन्होंने अपनी दिव्य गोवर्धन-धारण-लीला का प्रदर्शन किया । फिर उन्होंने अपने भक्तों को सम्बोधित किया, हे भाइयों, हे पिता, हे वृन्दावनवासियों ! अब आप मेरे द्वारा उठाये गए इस गोवर्धन पर्वत के छत्र के नीचे कुशल-पूर्वक प्रवेश करें । इस पर्वत से ड़रे नहीं और यह भी न सोचें कि यह मेरे हाथ से गिर जाएगा । आप लोग मूसलाधार वर्षा तथा प्रचंड़ वायु से अत्यधिक पीड़ित हुए हैं, अतः मैंने इसे उठा लिया है और यह बहुत बडे छाते के समान आपकी रक्षा करेगा । मेरे विचार से आप लोगों को आसन्न संकट से बचाने का यह उचित प्रबंध है । इस विशाल छाते के नीचे अपने पशुओं समेत सुख से रहें । भगवान् कृष्ण द्वारा आश्वस्त किए जाने पर सारे वृन्दावनवासी अपनी-अपनी सम्पत्ति तथा अपने पशुओं समेत गोवर्धन पर्वत के नीचे आ गए और वहाँ पर अपने को सुरक्षित अनुभव करने लगे ।

वृन्दावन के वासी अपने पशुओं समेत भूख-प्यास अथवा किसी और असुविधा से पीडित हुए बिना एक सप्ताह तक वहाँ रहे । उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि कृष्ण किस तरह बाएँ हाथ की तर्जनी से पर्वत को धारण किए हुए है । कृष्ण की इस असाधारण योगशक्ति को देखकर स्वर्ग के राजा इन्द्र पर मानो वज्रपात हो गया और उसका संकल्प डिगने लगा । उसने तुरन्त बादलों को बुलाया और वर्षा बन्द करने के लिए कहा । जब आकाश निरभ्र हो गया और फिर से सूर्य निकल आया, तो प्रचंड़ वायु का बहना रुक गया । उस समय गोवर्धनधारी भगवान् कृष्ण ने कहा, “हे ग्वालो ! अब तुम लोग अपनी पत्नियों, गायों तथा धन सहित यहाँ से जा सकते हों, क्योंकि सारा उत्पात समाप्त हो चुका है । नदी की बाढ़ तथा यह जल-प्लावन समाप्त हो गया है ।” तब सारे लोगों ने अपना सामान गाडियों में लादा और वे अपनी गायों तथा अन्य सामग्री सहित वहाँ से धीरे-धीरे रवाना होने लगे । जब सब लोग चले गए, तो कृष्ण ने शनैः शनैः गोवर्धन पर्वत को फिर उसी स्थिति में रख दिया । जब सब कुछ समाप्त हो गया, तो सारे वृन्दावन के निवासी कृष्ण के पास आए और आनन्दविभोर होकर वे उनका आलिंगन करने लगे । गोपियाँ जो स्वभावतः कृष्ण से प्रेम करती थीं, उन्हें अपने अश्रुओं से मिश्रित दही देने लगीं और उन्होंने उन्हें अनेक आशीष दिए । माता यशोदा, माता रोहिणी, नन्द तथा सर्व-बलशाली बलराम ने स्नेहवश एक-एक करके कृष्ण का आलिंगन किया और बारम्बार आशीष दिया । सिद्धलोक, गन्धर्वलोक तथा चारणलोक के विभिन्न देवों ने भी परम प्रसन्नता प्रदर्शित की । उन्होंने पृथ्वी पर फूलों की वर्षा की और शंखध्वनि की ढोल बजने लगे और दैवी भावनाओं से पूरित होकर गन्धर्वलोक के वासी भगवान् को प्रसन्न करने के लिए अपने-अपने तम्बूरे बजाने लगे । इस घटना के पश्चात् भगवान् अपने प्रिय मित्रों तथा पशुओं समेत अपने घर वापस आए । सदा की भाँति गोपियों ने अत्यन्त श्रद्धाभाव से भगवान् कृष्ण की पुण्य लीलाओं का कीर्तन किया ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “वृन्दावन में प्रलयंकारी वर्षा” नामक पच्चीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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