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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 27: स्वर्ग के राजा इन्द्र द्वारा स्तुति  » 
 
 
 
 
 
जब कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर इन्द्र के कोप से वृन्दावनवासियों को बचा लिया, तो उनके समक्ष गोलोक वृन्दावन से सुरभी गाय तथा स्वर्ग से राजा इन्द्र प्रकट हुए । स्वर्ग के राजा इन्द्र को कृष्ण के प्रति किए गए अपने अपराध का ज्ञान था, अतः वह चुपके से एक निर्जन स्थान में उनके समक्ष प्रकट हुआ । वह तुरन्त ही कृष्ण के चरणकमलों पर गिर पड़ा, यद्यपि उसका अपना मुकुट सूर्य के समान दीप्तिमान था । इन्द्र को कृष्ण के महान् पद का ज्ञान था, क्योंकि वे इन्द्र के स्वामी हैं, किन्तु उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि कृष्ण अवतार लेकर वृन्दावन के ग्वालों के बीच रह सकते हैं । जब कृष्ण ने उनकी सत्ता को चुनौती दी, तो इन्द्र क्रुद्ध हो गया क्योंकि वह सोचता था कि इस ब्रह्माण्ड का सर्वेसर्वा मैं ही हूँ और मेरे समान कोई भी बलशाली नहीं है । किन्तु इस घटना के बाद उसका झूठा अहंकार नष्ट हो गया । अतः अपनी अधीन अवस्था समझकर वह हाथ जोड़कर कृष्ण के समक्ष प्रकट हुआ और इस प्रकार स्तुति करने लगाः हे प्रभु ! मैंने झूठे अहंकार के वश में होकर सोचा कि आपने ग्वालों को इन्द्र-यज्ञ करने से रोक कर मेरा अपमान किया है और आप स्वयं यज्ञ की सारी सामग्री का भोग करना चाहते हैं । मैंने सोचा कि आप गोवर्धन-पूजा के नाम पर मेरा भाग ग्रहण कर रहे हैं, अतः मैंने आपके पद को गलत समझा । अब आपकी कृपा से मैं समझ पाया हूँ कि आप परमेश्वर, श्रीभगवान् हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे हैं । आपकी दिव्य स्थिति विशुद्ध सत्त्व की है, जो सतोगुण के पद से ऊपर है और आपका दिव्य धाम भौतिक गुणों के उत्पात से परे है । आपके नाम, यश, रूप, गुण, साज सामग्री तथा लीला सभी इस प्रकृति से परे हैं और तीनों गुणों का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । आपका धाम उसी को प्राप्त होता है, जो कठिन तपस्या करता है और रजो तथा तमो गुणों के प्रभाव से मुक्त रहता है । यदि कोई यह सोचता है कि जब आप इस जगत् में अवतरित होते हैं तब आप प्रकृति के गुणों को स्वीकार करते हैं, तो वह भ्रम में है । भौतिक गुणों की तरंगे आपको स्पर्श भी नहीं कर पातीं और न ही आप उन्हें स्वीकार करते हैं । आप प्रकृति के नियमों द्वारा कभी बद्ध नहीं होते ।

“हे स्वामी ! आप इस दृश्य जगत् के आदि पिता हैं । आपही इसके परम गुरु हैं और सभी वस्तुओं के आदि स्वामी हैं । आप शाश्वत काल के रूप में अपराधियों को दण्डित करने के अधिकारी हैं । इस संसार में मेरे समान अनेक मूर्ख हैं, जो अपने आपको परमेश्वर या इस ब्रह्माण्ड का सर्वेसर्वा मानते हैं । आप इतने दयालु हैं कि आप उनके अपराधों को स्वीकार न करके ऐसा उपाय निकाल लेते हैं कि उनका अहंकार दमित हो जाये और वे जान लें कि आप ही एकमात्र श्रीभगवान् हैं और कोई नहीं ।

हे नाथ ! आप परम पिता, परम गुरु तथा परम राजा है । अतः जब भी जीवात्माओं के आचरण में कोई त्रुटि आए, तो उन्हें दण्डित करने का आपको अधिकार है । पिता, गुरु तथा राज्य का परम कार्यकारी अधिकारी सदैव क्रमशः अपने पुत्र, शिष्य तथा प्रजा के शुभचिन्तक होते हैं, अतः शुभचिन्तक होने के नाते उन्हें अपने आश्रितों को दण्डित करने का अधिकार है । आप स्वेच्छा से इस धरा पर विविध शाश्वत शुभ रूपों में अवतरित होते हैं, आप इस धरा-लोक को महिमामण्डित करने तथा विशेषतः अपने को झूठे ही ईश्वर घोषित करने वाले व्यक्तियों को दण्डित करने के लिए आते हैं । इस भौतिक जगत् में समाज का सर्वोच्च नायक बनने के लिए विभिन्न प्रकार के जीवों में निरन्तर स्पर्धा चलती रहती है और नायकत्व का उच्च स्थान न प्राप्त करने के कारण वे मूर्ख हताश होकर अपने को ईश्वर या भगवान् मान लेते हैं । इस संसार में मेरे जैसे मूर्ख हैं, किन्तु कालान्तर में जब उन्हें ज्ञान होता है, तो वे आपकी शरण ग्रहण करते हैं और पुनः आपकी सेवा में अपने को लगा देते हैं । आपसे ईर्ष्या करने वाले व्यक्तियों को आपके दण्डित करने का यही कारण है ।

“हे भगवान् ! मैने आपकी असीम शक्ति को जाने बिना अपने भौतिक ऐश्वर्य के अहंकार के कारण आपके चरणकमलों के प्रति महान् अपराध किया है । अतः हे भगवान् ! मुझे क्षमा कर दें, क्योंकि मैं परले दर्जे का मूर्ख हॅूँ । कृपया मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं पुनः ऐसा मूर्खतापूर्ण कार्य न करूँ । यदि आप सोचें कि मेरा अपराध इतना बड़ा है । कि क्षमा नहीं किया जा सकता, तो मेरी प्रार्थना है कि मैं आपका शाश्वत दास बना रहूँ । इस जगत् में आपका अवतरण आपके शाश्वत दासों की रक्षा करने तथा उन शत्रुओं का विनाश करने के लिए होता है, जो महान् सैन्य-शक्ति रखकर पृथ्वी को अपने भार से बोझिल बनाते हैं । मैं आपका शाश्वत दास हूँ, अतः मुझे क्षमा कर दें ।

“हे नाथ ! आप भगवान् हैं । मैं आपकों सादर नमस्कार करता हूँ क्योंकि आाप परम पुरुष तथा परमात्मा है । आप वसुदेव के पुत्र तथा शुद्ध भक्तों के स्वामी परमेश्वर कृष्ण हैं । कृपया मेरा दण्डवत प्रणाम स्वीकार करें । आप साक्षात् परम ज्ञान हैं आप स्वेच्छा से कहीं भी अपने किसी एक नित्य रूप में अवतार लेस कते हैं । आप सृष्टि के मूल कारण तथा समस्त जीवों के परमात्मा है । मैंने अपनी निपट मूर्खता के कारण मूसलाधार वृष्टि तथा उपल वृष्टि कराकर वृन्दावन में उपद्रव मचवाया । मैंने आपके द्वारा मेरी तुष्टि के लिए होने वाला यज्ञ रोके जाने से उत्पन्न परम क्रोध के कारण ही ऐसा उपद्रव मचवाया । किन्तु हे स्वामी ! आप मुझ पर इतने दयालु हैं कि आपने मेरा झूठा अहंकार खण्डित करके मेरे ऊपर कृपा की है । अतः मैं आपके चरणों की शरण ग्रहण करता हॅूँ । आप न केवल परम नियन्ता, अपितु समस्त जीवों के गुरु भी है ।

इस प्रकार भगवान् कृष्ण इन्द्र द्वारा प्रशंसित होने के बाद मुस्कुराते हुए गड़गड़ाहट मेघ की भाँति गम्भीर वाणी में बोले, “हे इन्द्र ! मैंने तुम्हारा यह यज्ञ तुम पर अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने और तुमकों यह स्मरण दिलाने के लिए कि मैं तुम्हारा शाश्वत स्वामी हूँ, रोक दिया है । मैं न केवल तुम्हारा अपितु अन्य सारे देवताओं का भी स्वामी हूँ । तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि तुम्हारा सारा भौतिक ऐश्वर्य मेरी कृपा के कारण है । कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र रूप से ऐश्वर्यवान् नहीं बन सकता; उस मेरी कृपा होनी चाहिए । हर व्यक्ति को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मैं परमेश्वर हूँ । मैं किसी पर भी कृपा कर सकता हूँ और किसी को भी प्रताडित कर सकता हूँ, क्योंकि मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है । यदि मैं देखता हूँ कि कोई अहंकार के वशीभूत हो चुका है, तो उस पर अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के लिए मैं उसका सारा वैभव हर लेता हूँ ।” यह ध्यान देने योग्य है कि कृष्ण “कभी-कभी धनी व्यक्ति को अपनी शरण ग्रहण कराने के लिए उसका सारा ऐश्वर्य हर लेते हैं यह भगवान् की विशेष अनुकम्पा है । कभी-कभी यह देखा जाता है कि अत्यन्त ऐश्वर्यशाली व्यक्ति अपनी भक्ति के कारण दरिद्रता को प्राप्त हो जाता है । किन्तु किसी को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि उसने परमेश्वर की पूजा की इसिलए वह निर्धन हो गया । कहने का वास्तविक तात्पर्य यह है कि जब कोई शुद्ध भक्त होता हैं, किन्तु गलत गणना से वह प्रकृति पर अपना प्रभुत्व जताना चाहता हैं, तो भगवान् उसका सारा ऐश्वर्य हर कर उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करते हैं, जिससे अन्ततः वह परमेश्वर की शरण ग्रहण कर ले ।

इन्द्र को शिक्षा देने के बाद कृष्ण ने उसे अपने स्वर्गधाम लौट जाने तथा सदैव यह स्मरण रखने के लिए कहा कि कभी अपने को सर्वोच्च न मानना, अपितु परमेश्वर के अधीनस्थ समझना । उन्होंने उसे स्वर्ग का राजा बने रहने किन्तु झूठे अहंकार से बचने के लिए कहा । तत्पश्चात् इन्द्र के साथ कृष्ण का दर्शन करने आई दिव्य सुरभी गाय ने उन्हें सादर नमस्कार किया और उनकी पूजा की । सुरभी ने इस प्रकार स्तुति की, “हे कृष्ण ! आप समस्त योगियों में सर्वाधिक शक्तिशाली हैं क्योंकि आप ब्रह्माण्ड-भर के आत्मा हैं और अपसे ही यह दृश्य जगत् उत्पन्न हुआ हैं । अतः यद्यपि इन्द्र ने वृन्दावन में मेरे-वंशधरों अर्थात् गायों को मारने का यथाशक्ति प्रयास किया, किन्तु वे आपकी शरण में बनी रहीं और आपने उन सब की रक्षा की । हम अन्य किसी को परमेश्वर नहीं जानती, न ही हम अपनी रक्षा के लिए किसी अन्य देवता या देवताओं के पास जाती हैं । अतः आप हमारे इन्द्र हैं, इस दृश्य जगत् के परम पिता हैं और आप गौ, ब्राह्मण, देवता तथा अपने शुद्ध भक्तों के रक्षक तथा उद्धारक हैं । हे ब्रह्माण्ड के परमात्मा ! मैं आपको अपने दूध से स्नान कराना चाहती हूँ क्योंकि आप हमारे इन्द्र हैं । हे भगवन् ! आप इस पृथ्वी पर अशुद्ध कर्मों के भार को कम करने के लिए प्रकट होते हैं ।

इस प्रकार कृष्ण का अभिषेक सुरभी गाय ने अपने दुग्ध से तथा इन्द्र ने अपने हाथी की सूँड़ द्वारा आकाश गंगा के जल से किया । इसके बाद सुरभी गायों तथा अन्य देवों तथा उनकी माताओं ने कृष्ण को गंगाजल तथा सुरभी के दूध के स्नान कराने में इन्द्र का साथदिया और प्रार्थना की । इस प्रकार कृष्ण सब पर प्रसन्न हुए । गन्धर्वलोक, पितृलोक, सिद्धलोक तथा चारणलोक से सारे वासियों ने मिलकर भगवन्नाम का जप करते हुए भगवान् को यशोगान किया । उनकी पत्नियाँ तथा अप्सराएँ अत्यन्त हर्ष के कारण नाचने लगीं । उन्होंने आकाश से निरन्तर पुष्प वर्षा करके भगवान् को प्रसन्न किया । जब सब कुछ हँसी-खुशी से सम्पन्न हो गया, तो गायों ने अपने दुग्ध से सारी पृथ्वी को आप्लालित कर दिया । नदियों का जल उमड़ कर विविध स्वादों से पूरित होकर बहने लगा और वृक्षों को पोषण पहुँचाने लगा, जिससे उनमें विविध स्वादों से पूरित होकर बहने लगा और वृक्षों को पोषण पहुँचाने लगा, जिससे उनमें विविध रंगों तथा स्वाद के फूल तथा फल उत्पन्न होने लगे । वृक्षों से मधु चूने लगा । पर्वत तथा पहाड़ियाँ विविध औषधियाँ एवं बहुमूल्य रत्न उत्पन्न करने लगीं । कृष्ण की उपस्थिति के कारण ये सारी घटनाएँ ढ़ंग से घटती गईं और अधम पशु, जो सामान्यतया ईर्ष्यालु होते हैं, ईर्ष्यारहित हो गए ।

वृन्दावन में समस्त गायों के स्वामी तथा गोविन्द नाम से विख्यात श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के बाद इन्द्र ने स्वर्ग को लौट जाने की अनुमति माँगी । उसके चारों ओर देवता थे, जब इन्द्र आकाश मार्ग से जा रहे थे । यह महान् घटना इसका ज्वलन्त उदाहरण है कि किस प्रकार कृष्णभावनामृत से विश्वकल्याण होता है । यहाँ तक कि अधम पशु भी ईर्ष्याभाव भूल कर देवताओं के गुणों को प्राप्त होते हैं ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “स्वर्ग के राजा इन्द्र द्वारा स्तुति” नामक सत्ताइसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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