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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 28: वरुणपाश से नन्द महाराज की मुक्ति  » 
 
 
 
 
 
गोवर्धन-उत्सव प्रतिपदा के दिन सम्पन्न हुआ । तत्पश्चात् सात दिनों तक इन्द्र द्वारा मूसलाधार वर्षा तथा उपल वृष्टि होती रही । शुक्ल पक्ष की नवमी बीत जाने पर दशमी को इन्द्र ने कृष्ण की पूजा की और सारा मामला संतोषपूर्वक तय हो गया । फिर एकादशी आई । महाराज नन्द ने दिन भर एकादशी व्रत रखाा और अगले दिन द्वादशी को बड़े प्रातः वे यमुना नदी में स्नान करने गए । वे नदी के गहरे जल में घुस गए; जहाँ वरुणदेव के एक दास ने उन्हें तुरन्त बन्दी बना लिया । वह दास उन्हें लेकर वरुण के पास पहॅुंचा और उनपर गलत समय में नदी में स्नान करने का आरोप लगाया । ज्योतिष गणना के अनुसार जिस समय नन्द ने जल में प्रवेश किया था, वह आसुरी समय था । बात यह थी कि नन्द महाराज सूर्योदय के पूर्व स्नान कर लेना चाहते थे, किन्तु वे न जाने कैसे कुछ जल्दी चले गए जिससे अशुभ समय में स्नान हुआ । अतः वे बन्दी बना लिए गए । जब वरुण का दास नन्द महाराज को पकड़ कर चला गया, तो उनके साथी चिल्ला-चिल्लाकर कृष्ण-बलराम को पुकारने लगे । कृष्ण तथा बलराम तुरन्त समझ गए कि नन्द महाराज वरुण के दास द्वारा ले जाए गए हैं, अतः वे वरुण के धाम पहुँचे । जो भगवान् के शुद्ध भक्त हैं और श्रीभगवान् ही जिनके आश्रय हैं क्योंकि व उन वृन्दावनवासियों की रक्षा प्रदान करने के लिए दृढ़ संकल्प थे । बच् चों की तरह रक्षा के लिए कृष्ण को पुकारते हैं ठीक उसी प्रकार जैसे बच्चे माता-पिता द्वारा रक्षा किए जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते । वरुणदेव ने कृष्ण तथा बलराम का स्वागत करते हुए कहा, “हे भगवन् ! आपकी उपस्थिति से मेरा वरुण देवता का जीवन इसी क्षण सफल हो गया है । यद्यपि मैं जल के सारे कोष का स्वामी हूँ, किन्तु मैं जानता हूँ कि इनके होने से जीवन सार्थक नहीं होता । किन्तु इस क्षण आपका दर्शन करने से मेरा जीवन धन्य हो गया क्योंकि मुझे अब आगे भौतिक शरीर धारण नहीं करना पडेगा । अतः हे स्वामी, हे भगवान्, हे परब्रह्म तथा जन-जन के परमात्मा ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ । आप परम दिव्य पुरुष हैं, अतः आप पर प्रकृति का प्रभाव पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है । मुझे खेद हैं कि मूर्खतावश यह न जानने के कारण कि क्या करणीय है और क्या नहीं, मेरे दास ने भूल से आपके पिता नन्द महाराज को बन्दी बना लिया है । अतः मैं अपने दास के अपराध के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ । मैं सोच रहा हूँ कि मुझे दर्शन देने की यह आपकी योजना थी । हे कृष्ण, हे गोविन्द ! मुझ पर कृपा करें-यह रहे आपके पिता ! आप इन्हें तुरन्त वापस ले जा सकते हैं ।” इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने पिता को छुड़ाया और उन्हें उनके मित्रों के समक्ष लाकर परम हर्षोल्लास सहित प्रस्तुत किया । नन्द महाराज विस्मित थे कि परम ऐश्वर्यवान होते हुए भी उस देवता ने कृष्ण का इतना सम्मान किया । यह नन्द के लिए विस्मयजनक था और वे अत्यन्त आश्चर्यपूर्वक अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से इस घटना का वर्णन करने लगे ।

यद्यपि कृष्ण सचमुच इतनी आश्चर्यजनक रीति से कार्य कर रहे थे, तो भी महाराज नन्द तथा माता यशोदा यह न सोच पाए कि वे श्रीभगवान् हैं । इसके विपरीत वे उन्हें सदैव अपना लाड़ला पुत्र समझते रहें । अतः नन्द महाराज ने इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि वरुण ने कृष्ण की इसलिए पूजा की क्योंकि वे श्रीभगवान् थे । वे तो यह मान रहे थे कि इतना आश्चर्यजनक बालक होने के कारण वरुण तक ने कृष्ण का सम्मान किया । नन्द महाराज के सारे ग्वालमित्र यह जानने के लिए उत्सुक थे कि क्या सचमुच कृष्ण श्रीभगवान् हैं और क्या वे उन्हें मोक्ष दे देंगे ? जब वे इस प्रकार परस्पर मंत्रणा कर रहे थे, तो कृष्ण उनके मन की बात समझ गए, और उन्हाने उन सबको आध्यात्मिक जगत् में उनके भाग्यों के प्रति आश्वस्त करने के उद्देश्य से उन्हें आध्यात्मिक आकाश (चिदाकाश) का दर्शन कराया । साधारणतः सामान्य व्यक्ति इस जगत् में कठोर श्रम करने में लगे रहते हैं और उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं रहतीं कि इस लोक के परे भी कोई अन्य लोक हैं, जिसे चिदाकाश कहते हैं, जहाँ जीवन शाश्वत, आनन्दमय तथा ज्ञान के पूर्ण रहता है । जैसाकि भगवद्-गीता में वर्णित हैं, जो व्यक्ति चिदाकाश (वैकुण्ठ) को जाता है, वह फिर इस जन्म-मृत्यु वाले जगत् में लौट कर कभी नहीं आता ।

भगवान् कृष्ण बद्धजीव को यह सूचित करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं कि इस भौतिक आकाश के परे तथा समूची भौतिक शक्ति के भीतर इन असंख्य ब्रहमाण्डों के परे अत्यन्त दूरी पर चिदाकाश (दिव्याकाश) लोक है । निस्सन्देह कृष्ण प्रत्येक बद्धजीव पर अत्यन्त दयालु हैं, किन्तु जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है, वे शुद्ध भक्तों के प्रति विशेष कृपा करते है । इन प्रश्नों को सुनकर कृष्ण ने सोचा कि उनके वृन्दावन के भक्तों को आध्यात्मिक आकाश तथा उसके भीतर वैकुण्ठलोकों के विषय में जानकारी दे दी जाए । इस संसार में प्रत्येक बद्धजीव अज्ञान के अंधकार में है । इसका अर्थ यह हुआ कि सारे बद्धजीव देहात्मबुद्धि से ग्रस्त है ।

प्रत्येक जीव की यही धारणा है कि वह इसी भौतिक जगत् से सम्बद्ध है और इस जीवन-बोध के कारण प्रत्येक जीव विभिन्न रूपों में अज्ञानवश कार्य कर रहा है । किसी विशेष प्रकार के जीव के कार्य कर्म कहलाते हैं । सारे बद्धजीव देहात्मबुद्धि के कारण अपने-अपने शरीर के अनुसार कार्य कर रहे है । ये कार्य भावी बद्ध जीवन का निर्माण करते है । चूँकि उन्हें आध्यात्मिक कार्य नहीं करते, जिन्हें भक्तियोग कहते हैं । जो सफलतापूर्वक भक्तियोग का अभ्यास करते हैं, वे इस वर्तमान शरीर को त्यागकर सीधे आध्यात्मिक जगत् को जाते हैं, जहाँ वे किसी एक वैकुण्ठलोक में स्थिर हो जाते हैं । वृन्दावन के सारे निवासी शुद्ध भक्त हैं । इस शरीर को त्यागने पर उनका गन्तव्य कृष्णलोक है । वे वैकुण्ठलोक से भी आगे चले जाते है । तथ्य यह है कि जो लोग कृष्णभावनामृत तथा प्रौढ़ शुद्ध भक्ति में लगे हुए हैं उन्हें मृत्यु के बाद इसी भौतिक जगत् में विभिन्न ब्रहमाण्डों में से किसी में कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया जाता है । कृष्ण की लीलाएँ इस ब्रह्माण्ड में या अन्य ब्रह्माण्ड में निरन्तर चलती रहती हैं । जिस प्रकार इस पृथ्वीलोक में सूर्य कई स्थानों से होकर गुजरता रहता है, उसी प्रकार कृष्ण-लीला भी इस ब्रह्माण्ड में सतत या अन्य ब्रह्माण्ड में चलती रहती है । वे प्रौढ़ भक्त जिन्होंने कृष्णभावनामृत को पूर्ण रूप से सम्पन्न किया है, तुरन्त उस ब्रह्माण्ड को भेज दिए जाते है जहाँ कृष्ण प्रकट होने वाले होते हैं । उस ब्रह्माण्ड में भक्तों को कृष्ण के सान्निध्य का प्रथम प्रत्यक्ष अवसर प्राप्त होता है । यह अभ्यास चलता रहता है जैसाकि इस लोक में हम कृष्ण की वृन्दावनलीला में देखते हैं । इसीलिए कृष्ण ने वैकुण्ठलोकों की सही-सही जानकारी उद्धाटित कर दी जिससे वृन्दावनवासी अपने-अपने गन्तव्य को समझ सकें ।

इस प्रकार कृष्ण ने उन्हें नित्य विद्यमान आध्यात्मिक जगत् का दर्शन कराया, जो असीम है और ज्ञान से पूर्ण है । इस भौतिक जगत् में स्वरूपों की विभिन्न श्रेणियाँ हैं और इन्हीं श्रेणियों के अनुपात में उनमें ज्ञान प्रकट होता है । उदाहरणार्थ, एक बालक के शरीर में जितना ज्ञान है, वह वयस्क व्यक्ति के शरीर के ज्ञान से कम पूर्ण है । सर्वत्र जीवों में विभिन्न श्रेणियाँ हैं, चाहे जलचर हों, वृक्ष हों, कीड़े-मकोड़े हों, पक्षी हों या सभ्य तथा असभ्य मनुष्य हों । मनुष्यों के ऊपर ब्रह्मलोक तक जहाँ ब्रह्मारहते हैं, देवता, चारण तथा सिद्ध है । इन देवताओं में ज्ञान की विभिन्न श्रेणियाँ है । किन्तु इस जगत् से आगे आध्यात्मिक आकाश में

प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान से पूर्ण है । सारे जीव वैकुण्ठ लोक में या कृष्णलोक में, भगवान् की भक्ति में, लगे रहते हैं ।

जैसाकि भगवद्-गीता में पुष्टि की गई है पूर्णज्ञान का अर्थ है कृष्ण को श्रीभगवान् के रूप में जानना । वेदों तथा भगवद्-गीता में यह भी उल्लेख है कि ब्रह्मज्योति में धूप, चाँदनी या बिजली की आवश्यकता नहीं रहती । वहाँ सारे लोक स्वतः आलोकित हैं और वे सभी शाश्वत रूप से स्थित है । ब्रह्मज्योति में न तो उत्पत्ति का और न ही संहार का कोई प्रश्न उठता है । भगवद्-गीता से भी इसकी पुष्टि होती है कि भौतिक आकाश से आगे एक अन्य नित्य आध्यात्मिक आकाश होता है, जहाँ हर प्रत्येक वस्तु शाश्वत रूप से विद्यमान रहती है । आध्यात्मिक आकाश की जानकारी केवल ॠषि तथा साधु पुरुषों को ही मिल सकती है ।, जो भक्ति में रहने के कारण त्रिगुणातीत होते हैं । आध्यात्मिक (दिव्य) पद पर स्थित हुए बिना आध्यात्मिक प्रकृति को समझ पाना सम्भव नहीं है ।

अतः यह संस्तुति की जाती है कि मनुष्य भक्तियोग को ग्रहण करें और चौबीसों घण्टे कृष्णभावनामृत में लगा रहे जिससे वह त्रिगुणातीत हो जाए । कृष्णभावनाभावित होने पर वह चिदाकाश तथा वैकुण्ठलोक की प्रकृति को समझ सकता है । अतः वृन्दावन के वासी निरन्तर कृष्णभक्ति में लगे रहने के कारण वैकुण्ठलोकों की दिव्य प्रकृति को सरलता से समझ सकते थे ।

इस प्रकार श्रीकृष्ण नन्द महाराज इत्यादि समस्त ग्वालों को लेकर उस सरोवर में गए जहाँ बाद में अक्रूर को वैकुण्ठलोकों का दर्शन कराया गया । उन सब ने स्नान किया और वैकुण्ठलोक की वास्तविकता के दर्शन किए । चिकाकाश तथा वैकुण्ठलोकों का दर्शन कर लेने के बाद नन्द महाराज आदि ग्वालों को अपूर्ण आनन्द हुआ और सरोवर से बाहर निकलने पर उन सब ने देखा कि कृष्ण की पूजा श्रेष्ठ स्तुतियों द्वारा की जा रही थी ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “वरुणपाश से नन्द महाराज की मुक्ति” नामक अठ्ठाइसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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