श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि शरद् ऋतु की पूर्णिमा की रात में रासलीला सम्पन्न हुई। पिछले अध्यायों के वर्णन से यह प्रतीत होता है कि गोवर्धन-पूजा कार्तिक के कृष्ण पक्ष के तुरन्त बाद हुई थी; तत्पश्चात् भ्रातृद्वितीया (भइयादूज) सम्पन्न हुई, तब इन्द्र का कोप प्रदर्शित हुआ जिसमें मूसलाधार वर्षा तथा उपल वृष्टि हुई एवं कृष्ण ने सात दिन तक (नवमी तक) गोवर्धन पर्वत धारण किये रखा। फिर दशमी को वृन्दावनवासी आपस में कृष्ण के अद्भुत गुणों का वर्णन कर रहे थे और अगले दिन नन्द महाराज ने एकादशी व्रत रखा। अगले दिन द्वादशी को वे गंगास्नान करने गये जहाँ वरुण के एकदास ने उन्हें बन्दी बना लिया और फिर कृष्ण ने उन्हें मुक्त कराया। तब ग्वालों सहित नन्द महाराज को आध्यात्मिक आकाश का दर्शन कराया गया।
इस प्रकार शरद ऋतु की पूर्णिमा बीत गई। आश्विन मास की पूर्णिमा शरद पूर्णिमा कहलाती है। श्रीमद्भागवत के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि गोपियों के साथ रासलीला का आनन्द भोगने के लिये श्रीकृष्ण को एक वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। चूँकि उन्होंने सात वर्ष की आयु में गोवर्धन धारण किया था, अतः यह रासलीला आठवें वर्ष में हुई।
वैदिक साहित्य से ऐसा प्रतीत होता है कि जब रंगमंच का अभिनेता अनेक नर्तकी-बालाओं के साथ नाचता है, तो इस समूह-नृत्य को रास-नृत्य या रासलीला कहते हैं। जब कृष्ण ने देखा कि शरद् ऋतु की पूर्णिमा की रात्रि आ गई, और शरद् ऋतु अनेक मौसमी फूलों से, विशेषतया मल्लिका फूलों से सजी हुई है, जो अत्यधिक सुगंधित होते हैं तो उन्हें देवी कात्यायनी के प्रति गोपियों द्वारा की गई प्रार्थनाएँ स्मरण हो आईं जिनमें उन्होंने कृष्ण को अपने पति रूप में प्राप्त करने की प्रार्थना की थी। उन्होंने सोचा कि शरद पूर्णिमा की रात्रि ऐसे सुन्दर नृत्य के लिए सर्वथा उपयुक्त रहेगी। फलतः पतिरूप में कृष्ण को प्राप्त करने की गोपियों की कामना फलवती हो सकेगी।
इस प्रसंग में श्रीमद्भागवत में भगवान् अपि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि यद्यपि कृष्ण श्रीभगवान् हैं, उनकी कोई ऐसी कामना नहीं, जिसे पूरा करना आवश्यक होगा क्योंकि वे सदा छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। फिर भी वे रासलीला में गोपियों की संगति का आनन्द उठाना चाहते थे। भगवान् अपि यह बताता है कि यह रासलीला युवकों तथा युवतियों का सामान्य नृत्य न थी। इसके लिए श्रीमद्भागवत में योगमायामुपाश्रितः विशिष्ट शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है कि गोपियों के साथ यह नृत्य महामाया स्तर पर नहीं, अपितु योगमाया स्तर पर, हुआ। इस संसार में युवकों तथा युवतियों का नृत्य महामाया के स्तर पर होता है किन्तु कृष्ण और गोपियों की रासलीला योगमाया के स्तर पर होती है। योगमाया तथा महामाया स्तरों के मध्य अन्तर की तुलना चैतन्य-चरितामृत में सोने तथा लोहे के अन्तर से की गई है। धातुकर्म की दृष्टि से सोना तथा लोहा दोनों ही धातुएँ हैं, किन्तु उनके गुण सर्वथा भिन्न होते हैं। इसी प्रकार यद्यपि गोपियों के साथ कृष्ण का रासनृत्य सामान्य तरुणों एवं तरुणियों के नृत्य जैसा प्रतीत होता है, किन्तु उनके गुण में भेद है। इस भेद को परम वैष्णवजन समझते हैं क्योंकि वे कृष्णप्रेम तथा काम में अन्तर समझ सकते हैं।
महामाया स्तर पर नृत्य इन्द्रियतृप्ति के आधार पर होते हैं। किन्तु जब कृष्ण ने गोपियों को अपनी वंशी की ध्वनि से बुलाया, तो गोपियाँ तुरन्त ही कृष्ण को प्रसन्न करने की दिव्य कामना से रासनृत्य के स्थान की ओर दौड़ पड़ीं। चैतन्य-चरितामृत के लेखक कृष्णदास कविराज गोस्वमी ने बताया है कि काम का अर्थ इन्द्रियतृप्ति है और प्रेम का भी अर्थ इन्द्रियतृप्ति है-किन्तु कृष्ण के प्रति। दूसरे शब्दों में, जब व्यक्तिगत इन्द्रियतृप्ति के स्तर पर कर्म किये जाते हैं, तो वे भौतिक कर्म कहलाते हैं, किन्तु जब वे कृष्ण की तुष्टि के लिए किये जाते हैं, तो वे आध्यात्मिक कर्म पर जाते हैं। कर्म के किसी भी स्तर पर इन्द्रियतृप्ति का सिद्धान्त तो रहता ही है। किन आध्यात्मिक स्तर पर इन्द्रियतृप्ति भगवान् श्रीकृष्ण के लिए होती है, जबकि भौतिक स्तर पर यह कर्ता के लिए की जाती है। उदाहरणार्थ, भौतिक स्तर पर जब कोई नौकर (दास) अपने स्वामी की सेवा करता है, तो वह स्वामी की इन्द्रियों को ताल करने का प्रयत्न न करके अपनी निजी इन्द्रियों की तृप्ति करने का प्रयास करता है। यदि नौकर का वेतन बन्द हो जाये, तो वह स्वामी की सेवा करना बन्द कर देगा। इसका अर्थ यह हुआ कि नौकर स्वामी की सेवा में इसीलिए लगा रहता है क्योंकि उसकी अपनी इन्द्रियों की तुष्टि होती है। किन्तु आध्यात्मिक स्तर पर श्रीभगवान् का दास उनकी सेवा किसी वेतन के बिना करता है और समस्त परिस्थितियों में सेवा जारी रखता है। कृष्णचेतना तथा भौतिक चेतना में यही अन्तर है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जब श्रीकृष्ण आठ वर्ष के थे, तो उन्होंने गोपियों के साथ रास-नृत्य का आस्वादन लिया। उस समय अनेक गोपियाँ विवाहिता थीं क्योंकि प्राचीनकाल में विशेषत: भारत में लड़कियों का विवाह कम आयु में कर दिया जाता था। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ बारह वर्ष की कन्या ने बालक को जन्म दिया। ऐसी दशा में, वे सारी गोपियाँ जो कृष्ण को पति-रूप में चाहती थीं, पहले से विवाहिता थीं। फिर भी वे यह आशा बनाये रही कि कृष्ण उनके पति बनेंगे। कृष्ण के प्रति उनका झुकाव उपस्त्री (परकीया) प्रेम जैसा था, अत: कृष्ण तथा गोपियों के प्रेम-व्यापार को परकीया-रस कहा गया है। एक विवाहित पुरुष या स्त्री जो अन्य स्त्री या पुरुष की कामना करते हैं वह भाव परकीया-रस कहलाता है।
वास्तव में कृष्ण सबों के पति हैं, क्योंकि वे ही परम भोक्ता हैं । गोपियाँ उन्हें अपने पति रूप में चाहती थीं, किन्तु तथ्य तो यह है कि उनके लिए समस्त गोपियों के साथ विवाह कर सकना असम्भव था। किन्तु चूँकि गोपियों में कृष्ण को अपने परम पति के रूप में स्वीकार करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति थी, अतः कृष्ण तथा गोपियों का सम्बन्ध परकीया-रस कहलाता है। यह परकीया-रस गोलोक वृन्दावन के आध्यत्मिक आकाश में सदा विद्यमान रहता है जहाँ उस मादकता के लिए कोई स्थान नहीं है, जो भौतिक जगत के परकीया-रस का प्रमुख लक्षण है । भौतिक जगत में परकीया-रस अत्यन्त गर्हित है, किन्तु आध्यात्मिक जगत (वैकुण्ठलोक) में यह कृष्ण तथा गोपियों के परमोच्च सम्बन्ध के रूप में पाया जाता है। कृष्ण के साथ अनेक सम्बन्ध (रस) हैं-स्वामी तथा दास, मित्र-मित्र, पिता-पुत्र, प्रेमी तथा प्रेमिका। किन्तु इन समस्त रसों में परकीया-रस सर्वोपरि माना जाता है।
यह भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का उल्टा प्रतिबिम्ब है। यह किसी जलाशय के तट पर खड़े हुए वृक्ष के प्रतिबिम्ब के समान है, जिसमें वृक्ष का शीर्ष भाग सबसे नीचे दिखता है। इसी प्रकार जब परकीया-रस उल्टा प्रतिबिम्बित होता है, तो वह अत्यन्त घृणित बन जाता है । अत: जब लोग कृष्ण तथा गोपियों के रास नृत्य का अनुकरण करते हैं, तो वे दिव्य परकीया-रस के उल्टे घृणित प्रतिबिम्ब को ही भोगते हैं। भौतिक जगत में इस दिव्य परकीया-रस को भोग पाना असम्भव है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि स्वप्न या कल्पना में भी इस परकीया-रस का अनुकरण नहीं करना चाहिए। जो ऐसा करते है वे घोर हलाहल पान करते हैं।
जब परम भोक्ता कृष्ण ने शरद् ऋतु की उस पूर्णिमा की रात में गोपियों के संग का आनन्द उठाना चाहा, उसी क्षण आकाश में नक्षत्रपति चन्द्रमा अपना सुन्दरतम रूप लेकर उदित हुआ। शरद पूर्णिमा की रात वर्ष-भर की सर्वोत्कृष्ट रात होती है। भारतवर्ष में उत्तर प्रदेश के आगरा नामक स्थान में ताजमहल नाम का एक विशाल मकबरा है, जो उत्तमोत्तम संगमरमर पत्थर का बना हुआ है। शरद् ऋतु की पूर्णिमा की रात में अनेक विदेशी पर्यटक इस मकबरे पर चाँद का प्रतिबिम्ब देखने आते हैं। इस प्रकार पूर्णिमा की यह रात आज भी अपने सौन्दर्य के लिए विख्यात है।
जब पूर्व में चन्द्रमा उदय हुआ, तो सारी वस्तुएँ लालिमा से रँग गईं। चन्द्रमा के उदय होते ही सारा आकाश लाल कुंकुम से पुता हुआ लगने लगा। जब कोई पति अपनी पत्नी से बहुत दिन दूर रह कर घर लौटता है, तो वह अपनी पत्नी के मुख को लाल कुंकुम से सजाता है। शरद् ऋतु का यह चिर-प्रतीक्षित चन्द्रोदय पूर्वी आकाश को रंजित कर रहा था।
चन्द्रोदय के कारण गोपियों के साथ नृत्य करने की श्रीकृष्ण की इच्छा बलवती हो उठी। सारे जंगल सुगन्धित पुष्पों से लदे थे। वातावरण शान्तिदायक तथा आनन्दप्रद था। जब कृष्ण अपनी बाँसुरी बजाने लगे, तो सारे वृन्दावन की गोपियाँ मोहित हो गईं। पूर्ण चन्द्रोदय, लाल क्षितिज, शान्त वातावरण तथा खिलते हुए पुष्पों के कारण वंशी-ध्वनि के प्रति उनका आकषर्ण (सम्मोहन) हजार गुना बढ़ गया। समस्त गोपियाँ स्वभाव से ही कृष्ण सौन्दर्य के प्रति अत्यधिक आकृष्ट थीं, अतः जब उन्होंने वंशी की ध्वनि सुनी, तो वे कृष्ण की इन्द्रियों की तुष्टि के लिए अधीर हो उठीं।
वंशी की ध्वनि सुनते ही उन सबों ने अपने काम-काज बन्द कर दिये और उस स्थान की ओर चल दी जहाँ कृष्ण खड़े थे। जब वे अत्यन्त तेजी से दौड रही थी तो उनके कान के झुमके हिलडुल रहे थे। वे सब वंशीवट नामक स्थान की ओर लपकीं। उनमें से कुछ दूध दुह रही थीं, किन्तु वे आधे में ही दुहना छोड़कर तरन्त ही कृष्ण के पास गईं। एक तुरन्त ही दूध दुह कर उसे दोहनी में रख कर गरम करने जा रही थी, किन्तु उसने इसकी परवाह नहीं की कि दूध उबलकर गिर जाएगा-वह तुरन्त ही कृष्ण का दर्शन करने चल पड़ी। उनमें से कुछ गोपियाँ अपने बच्चों को स्तन पान करा रही थीं और कुछ अपने पारिवारिक सदस्यों को भोजन परोस रही थीं, किन्तु उन सबों ने सारे काम-छोड़ दिये और वे तुरन्त उस स्थान की ओर दौड पड़ी जहाँ कृष्ण वंशी बजा रहे थे। कुछ गोपियाँ अपने पतियों को भोजन परोस रही थीं और कुछ स्वयं भोजन करने बैठी थीं, किन्तु उनमें से किसी ने न तो अपने पति की, न ही अपने खाने की परवाह की और वे तुरन्त वहाँ से चल पड़ीं। कुछ कृष्ण के पास जाने के पूर्व अपने-अपने मुखों में अंगराग लगाकर सुन्दर वस्त्र पहनना चाहती थीं, किन्तु कृष्ण से मिलने की बेचैनी के कारण वे न तो मुख में अंगरंग लगा पाईं और न ठीक से वस्त्र पहन पाईं। उनके मुखमण्डल जल्दबाजी में सजाये गये थे। कुछ गोपियों ने तो अपने वस्त्रों को उल्टे ही पहन लिया जिससे निम्न भाग का वस्त्र ऊपर की ओर और ऊपर का भाग नीचे हो गया था।
इस प्रकार से जब गोपियाँ अपने-अपने घरों को हड़बड़ी में छोड़ रही थीं, तो उनके पति, भाई तथा पिता सभी ठगे के ठगे रह गये और सोचने लगे कि वे सब की सब कहाँ जा रही हैं ? तरुणी होने के कारण उनकी रक्षा का भार या तो उनके पतियों या फिर बड़े भाइयों या पिताओं पर था। उन सबके संरक्षकों ने उन्हें कृष्ण के पास जाने से मना किया, किन्तु उन्होंने परवाह नहीं की। जब मनुष्य कृष्ण के प्रति आकृष्ट होता है और पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहता है, तो वह किसी सांसारिक कार्य की परवाह नहीं करता, चाहे वह कार्य कितना ही आवश्यक क्यों न हो। कृष्णभावनामृत इतना बलवान् होता है कि यह प्रत्येक व्यक्ति को भौतिक कार्यों से छुटकारा दिलाता है। श्रील रूप गोस्वामी ने एक सुन्दर पद्य लिखा है, जिसमें एक गोपी दूसरे को उपदेश देती है, "हे सखी! यदि तुम भौतिक समाज, मित्रता तथा प्रेम को भोगना चाहती हो, तो तुम इस हँसीले गोविन्द का दर्शन करने मत जाओ जो यमुना के तट पर खड़ा होकर अपनी वंशी बजा रहा है और जिसके अधर पूर्ण चन्द्रमा की किरणों से चमक रहे हैं।" श्रील रूप गोस्वामी यह बताना चाहते हैं कि जो कृष्ण के सुन्दर स्मित आनन से मोहित हो गया है उसके लिए सारे भौतिक भोग व्यर्थ हैं। कृष्णभावनामृत में प्रगति की यही कसौटी है कि जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में अग्रसर हो रहा है, उसे भौतिक कार्यों तथा व्यक्तिगत इन्द्रियतृप्ति से मुख मोड़ लेना होगा।
कुछ गोपियों को उनके पतियों ने कृष्ण के पास जाने से रोका और उन्हें कमरे में बन्द करके ताला लगा दिया। कृष्ण के पास जाने में असमर्थ होने के कारण वे आँखें बन्द करके कृष्ण के दिव्य रूप का ध्यान करने लगीं। उनके मनों में पहले से कृष्ण का रूप समाया था। वे सर्वोच्च योगी सिद्ध हुईं। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है कि जो व्यक्ति श्रद्धा तथा प्रेम से अपने हृदय में कृष्ण का निरन्तर चिन्तन करता रहता है, वह योगियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। वास्तव में योगी अपने मन को विष्णु के स्वरूप पर केन्द्रित करता है । यही असली योग है। कृष्ण समस्त विष्णु तत्त्वों के आदि रूप हैं । गोपियाँ कृष्ण के पास स्वयं नहीं जा सकीं, अत: वे सिद्ध योगी की भाँति उनका ध्यान करने लगीं।
जीवों की बद्ध अवस्था में दो प्रकार के कर्मफल होते हैं जो बद्धजीव पापकर्म में लगा रहता है, वह दुख पाता है और जो पुण्य कर्म में लगा रहता है उसे भौतिक सुख प्राप्त होता है। प्रत्येक दशा में वह दुख या सुख की भौतिक प्रकृति द्वारा बँधा हुआ है।
कृष्ण की संगिनी गोपियाँ, जो कृष्ण के अवतार लेने वाले स्थान में एकत्र हुई थीं, विभिन्न समूहों में आई थीं। अधिकांश गोपियाँ कृष्ण की शाश्वत संगिनियाँ थीं। ब्रह्म-संहिता में कहा गया है-आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि:-वैकुण्ठलोक में कृष्ण के सहयोगी, विशेषरूप से गोपियाँ, भगवान् कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति की अभिव्यक्ति हैं। वे श्रीमती राधारानी की विस्तार (अंश) हैं। किन्तु जब श्रीकृष्ण इस भौतिक जगत के कुछ ब्रह्माण्डों में अपनी दिव्य लीलाओं को प्रकट करते हैं, तो उनके साथ न केवल उनके शाश्वत संगी रहते हैं, अपितु वे भी जो इस भौतिक जगत में उस पद तक ऊपर उठ रहे होते हैं। जिन गोपियों ने इस भौतिक जगत में श्रीकृष्ण की लीलाओं में भाग लिया वे सामान्य मानवी थीं। यदि वे कर्म से बँधी होती, तो कृष्ण का निरन्तर ध्यान करने के कारण वे कर्म-फल से पूरी तरह मुक्त होतीं । कृष्ण को न देख पाने के कारण उत्पन्न तीव्र वेदना के कारण वे समस्त पापों से मुक्त हो गईं और कृष्ण की अनुपस्थिति में उनके दिव्य प्रेम की अनुभूति उनके समस्त भौतिक पुण्यकर्मों के फल से बढ़कर हो गई। बद्धजीव अपने पुण्य या पाप कर्मों के कारण बारम्बार जन्म-मृत्यु से प्रभावित होता है, किन्तु वे गोपियाँ, जिन्होंने कृष्ण का चिन्तन प्रारम्भ किया, इन दोनों स्थितियों को पार करके शुद्ध हो गईं और उन गोपियों के पद को प्राप्त हुईं जो कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति के कारण प्रकट हई थीं। सारी गोपियाँ, जो परकीया प्रेम भाव में कृष्ण पर अपना मन केन्द्रित करती थीं. इस प्रकृति के समस्त कर्मफलों से निष्कलुषित हो गईं और कुछ ने तो अपने त्रिगुणात्मक शरीर को वहीं त्याग दिया।
महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से रास नृत्य के लिए कृष्ण के साथ समवेत गोपियों की दशा का वर्णन सुना। जब उन्होंने यह सुना कि कुछ गोपियाँ उप-पति के रूप में कृष्ण का केवल ध्यान करती हुईं भौतिक जन्म तथा मृत्यु के सारे कल्मष से मुक्त हो गईं, तो उन्होंने कहा, "गोपियाँ यह नहीं जानती थीं कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं। वे उन्हें एक सुन्दर बालक के रूप में अपना उप-पति मानती थीं। अत: उप-पति के तौर पर चिन्तन करती हुईं वे किस तरह भौतिक अवस्था से मुक्त हो सकीं?" यहाँ पर यह विचार करना होगा कि कृष्ण तथा सामान्य जीव गुणात्मक दृष्टि से एक हैं। सामान्य जीव भी कृष्ण के अंश होने के कारण ब्रह्म हैं, किन्तु कृष्ण परब्रह्म हैं। अत: प्रश्न यह उठता है कि यदि कोई भक्त केवल कृष्ण के चिन्तन से भौतिक कल्मषग्रस्त अवस्था से मुक्त हो सकता है, तो अन्य लोग जो किसी अन्य का चिन्तन करते हैं क्यों नहीं मुक्त हो जाते? यदि कोई पति या पुत्र के विषय में सोचता है या कोई किसी अन्य जीव के विषय में सोचता है और चूँकि सारे जीव भी ब्रह्म हैं, तो वे सारे के सारे जो दूसरों के बारे में सोचते हैं, इस प्रकृति की कल्मषग्रस्त अवस्था से क्यों मुक्त नहीं हो जाते? यह एक अत्यन्त बुद्धिमानी का प्रश्न है क्योंकि नास्तिक सदा ही कृष्ण का अनुकरण करते हैं। कलियुग के इस काल में ऐसे अनेक पाखंडी (धूर्त) हैं, जो अपने को कृष्ण के समान महान् मानते हैं और उन लोगों को ठगते हैं, और उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि इनके विषय में सोचना कृष्ण-विषय में सोचने के ही तुल्य है। अतः परीक्षित महाराज ने आसुरी नक्कालों के अन्ध अनुयायियों की घातक स्थिति को ध्यान में रखकर यह प्रश्न किया और सौभाग्यवश यह प्रश्न श्रीमद्भागवत में अबोध लोगों को यह चेतावनी देने के लिए अंकित है कि सामान्य व्यक्ति तथा कृष्ण के विषय में सोचना (चिन्तन) एक सा नहीं है।
वस्तुत: देवताओं का चिन्तन भी कृष्ण-चिन्तन की तुलना नहीं कर सकता। वैष्णव तंत्र में यह चेतावनी दी गई है कि जो व्यक्ति विष्णु, नारायण या कृष्ण को देवताओं के समकक्ष मानता है, वह पाखण्डी या धूर्त है। महाराज परीक्षित के इस प्रश्न को सुनकर शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया: "हे राजन्! आपके प्रश्न का उत्तर इस घटना के पूर्व ही दिया जा चुका है।" चूँकि परीक्षित महाराज स्थिति को स्पष्ट कर लेना चाहते थे, अत: उनके गुरु ने अत्यन्त बुद्धिमानी से इसका उत्तर दिया, "तुम उसी विषय को फिर क्यों पूछ रहे हो जिसका उत्तर पहले ही दिया जा चुका है। तुम इतने भुलक्कड़ क्यों हो?" गुरु का पद सदैव शिष्य से ऊँचा होता है। अत: वह अपने शिष्य को इस प्रकार दण्ड दे सकता है। शुकदेव गोस्वामी जानते थे कि महाराज परीक्षित ने यह प्रश्न अपने लिए नहीं अपितु उन भावी अबोध व्यक्तियों को सचेत करने के लिए पूछा है, जो अन्यों को कृष्ण के तुल्य मान सकते हैं।
तब शुकदेव गोस्वामी ने परीक्षित महाराज को शिशुपाल की मुक्ति का स्मरण कराया। शिशुपाल सदैव कृष्ण से ईर्ष्या करता था और अपनी ईर्ष्या के कारण ही वह कृष्ण द्वारा मारा गया। चूँकि कृष्ण श्रीभगवान् हैं, अत: उनके दर्शन-मात्र से ही शिशुपाल को मोक्ष प्राप्त हुआ। यदि कोई ईर्ष्यालु व्यक्ति केवल कृष्ण पर ध्यान केन्द्रित करने से मोक्ष पा सकता है, तो फिर गोपियों के लिए क्या कहा जाये, जो कृष्ण को इतनी प्रिय थीं? प्रेमवश वे उन्हीं का चिन्तन करती रहती थीं। शत्रु तथा मित्र में कुछ अन्तर अवश्य होना चाहिए। यदि कृष्ण के शत्रु भी भौतिक कल्मष से मुक्त होकर परमेश्वर से तदाकार हो गये, तो निश्चय ही उनके अभिन्न मित्र, जैसे कि गोपियाँ, भगवान् के साथ रहकर मुक्त हो सकती थीं।
इसके अतिरिक्त भगवद्गीता में कृष्ण को हृषीकेश कहा गया है। शुकदेव गोस्वामी ने भी कृष्ण को हृषीकेश अर्थात् परमात्मा कहा जबकि सामान्य व्यक्ति भौतिक शरीर से आवृत बद्धजीव है, कृष्ण तथा कृष्ण का शरीर दोनों एक हैं क्योंकि कृष्ण हृषीकेश हैं। जो कोई कृष्ण तथा उनके शरीर में भेद-भाव करता है. वह पहले दर्जे का मूर्ख है। कृष्ण हृषीकेश तथा अधोक्षज हैं । इस प्रसंग में शुकदेव गोस्वामी ने इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। हृषीकेश का अर्थ परमात्मा है और अधोक्षज का अर्थ परम पुरुषोत्तम श्रीभगवान् जो भौतिक प्रकृति से परे हैं । सामान्य जीवों पर कृपा करने के लिए अपनी अहैतुकी कृपा से वे जैसे हैं उसी रूप में प्रकट होते हैं। दुर्भाग्यवश मूर्ख व्यक्ति उन्हें एक सामान्य व्यक्ति मानने की भूल करते हैं जिससे वे नरक जाने के भागी होते हैं।
श्रील शुकदेव गोस्वानी ने महाराज परीक्षित को आगे बताया कि कृष्ण सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। वे समस्त आध्यात्मिक गुणों से युक्त श्रीभगवान् हैं अपरिमेय, विनाशी तथा भौतिक कल्मष से रहित । वे अपनी अहैतुकी कृपा से इस जगत में अवतरित होने से और वह भी बिना परिवर्तन के। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में कृष्ण के कथन से ही होती है कि वे अपनी आध्यात्मिक शक्ति से प्रकट होते हैं। वे भौतिक शक्ति के अधीन प्रकट नहीं होते। भौतिक शक्ति उनके अधीन है। भगवद्गीता में बताया गया है कि भौतिक शक्ति उनकी अध्यक्षता में कार्य करती है। इसकी पुष्टि ब्रह्म-संहिता में भी हुई है कि दुर्गा नाम से अभिहित भौतिक शक्ति छाया की भाँति कार्य कर रही है. जो वस्तुओं की गति के साथ गति करती है। निष्कर्ष यह है कि यदि कोई किसी तरह, चाहे उनके सौन्दर्य, गुण, ऐश्वर्य, यश, शक्ति, त्याग या ज्ञान अथवा काम, क्रोध, भय, प्यार या मैत्री के कारण, कृष्ण के प्रति आसक्त हो जाता है, तब भौतिक कल्मष से उसका मोक्ष तथा उसकी मुक्ति निश्चित है।
भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय में भगवान् का भी कथन है कि, जो कोई कृष्णभावनामृत का उपदेश करता है, वह उन्हें परम प्रिय है। उपदेशक को शुद्ध कृष्णभावनामृत का उपदेश करते समय अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी तो उसे शारीरिक प्रहार सहने होते हैं और कभी-कभी तो मृत्यु भी चूमनी पड़ती है। कृष्ण इसे परम तपस्या मानते हैं। इसीलिए कृष्ण ने कहा है कि ऐसा उपदेशक उनको अतिशय प्रिय है। यदि कृष्ण के शत्रु उन पर अपना ध्यान केन्द्रित करने से ही मोक्ष की आशा कर सकते हैं, तो जो लोग कृष्ण को परम प्रिय हैं उनके लिए क्या कहा जाये? निष्कर्ष यह निकला कि जो लोग संसार-भर में कृष्णभावनामृत का उपदेश करने में लगे हुए हैं उनका मोक्ष तो ध्रुव है। किन्तु ऐसे उपदेशक मोक्ष की कभी परवाह नहीं करते क्योंकि जो कृष्णभावनामृत में लगा है उसे पहले से मोक्ष प्राप्त रहता है। इसीलिए शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को आश्वस्त किया कि वे निश्चिन्त रहें क्योंकि जो कृष्ण के प्रति आकृष्ट है उसे भौतिक बन्धन से मुक्ति मिल जाती है क्योंकि कृष्ण योगेश्वर हैं।
जब सारी गोपियाँ कृष्ण के समक्ष एकत्र हो गईं, तो कृष्ण ने बातों-बातों में ही उनका स्वागत किया और शब्द-चातुरी से उन्हें निरुत्साहित भी किया। कृष्ण परम वक्ता हैं; वे भगवद्गीता के वक्ता हैं। वे दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र जैसे प्रत्येक उच्चस्तरीय विषय पर बोल सकते हैं और अपनी सर्वाधिक प्रिय गोपियों के समक्ष भी वे बोले। उन्होंने शब्दचातुरी से उन्हें मोहित करना चाहा, अतः वे इस प्रकार बोलने लगे
"हे वृन्दावन की बालाओ! तुम अत्यन्त भाग्यशालिनी हो और मुझे अत्यन्त प्रिय हो। मैं परम प्रसन्न हूँ कि तुम सब यहाँ आई हो और मैं आशा करता हूँ कि वृन्दावन में कुशल-मंगल है। अब मुझे आज्ञा दो। मैं तुम लोगों के लिए क्या करूँ? अर्धरात्रि में यहाँ आने का तुम्हारा क्या प्रयोजन है? कृपा करके बैठ जाओ और मुझसे कहो कि मैं तुम लोगों के लिए क्या करूँ?"
गोपियाँ तो कृष्ण की संगति का आनन्द उठाने, उनके साथ नाचने, उनका आलिंगन करने और चुम्बन लेने आई थीं और जब कृष्ण उनके साथ औपचारिकता एवं शिष्टाचार बरतने लगे, तो वे आश्चर्यचकित हुईं। वे उन्हें समाज की सामान्य महिलाएँ मान रहे थे। अत: वे परस्पर हँसने लगीं और कृष्ण को उस तरह उत्सुकतापूर्वक बातें करते सुनती रहीं। तब कृष्ण बोले, 'सखियो! तुम जान लो कि अब अर्धरात्रि है और यह जंगल अत्यन्त डरावना है। इस समय जंगल के सारे हिंसक पशु-बाघ, भालू, सियार तथा भेड़िये-इधर-उधर शिकार के लिए घूम रहे हैं अत: तुम लोगों के लिए ये अत्यन्त घातक हैं। अब तुम्हें कोई सुरक्षित स्थान नहीं मिल सकता। तुम जहाँ भी जाओगी वहीं ये पशु शिकार की खोज में घूमते मिलेंगे। अत: मेरे विचार से तुम लोग अर्धरात्रि में यहाँ आकर बड़ा खतरा मोल ले रही हो। अतः कृपा करके तुरन्त वापस चली जाओ।"
जब कृष्ण ने देखा कि वे हँसती चली जा रही हैं, तो वे बोले, "मुझे तुम लोगों के शरीर के अंग-प्रत्यंग अच्छे लगते हैं। तुम सबकी कमरें अत्यन्त पतली तथा सुन्दर हैं।" वहाँ की सारी गोपियाँ अतीव सुन्दर थीं। उनका वर्णन सुमध्यमा शब्द से किया जाता है। जब स्त्री के शरीर का मध्य भाग पतला हो, तो स्त्री की सुन्दरता का मानदण्ड सुमध्यमा कहलाता है।
श्री कृष्ण उनको यह जताना चाह रहे थे कि अभी वे इतनी प्रौढ़ नहीं हैं कि अपनी रखवाली स्वयं कर सकें । वस्तुतः उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता थी। इस अर्धरात्रि में कृष्ण के पास आना उनके हित में न था। कृष्ण ने यह भी इंगित किया कि वे तरुण हैं और गोपियाँ भी तरुण हैं। "अर्धरात्रि में तरुणियों तथा तरुणों को एकसाथ रहना शोभा नहीं देता।" यह उपदेश सुनकर गोपियाँ प्रसन्न नहीं हुईं, अत: कृष्ण ने इस बात को दूसरे ढंग से कहना शुरू किया।
"हे सखियो ! मैं समझ सकता हूँ कि तुम लोगों ने अपने संरक्षकों की अनुमति के बिना अपना-अपना घर छोड़ा है; अत: तुम्हारी माताएँ, तुम्हारे पिता, तुम्हारे बड़े भाई, यहाँ तक कि तुम्हारे पुत्र तुम्हें ढूँढ़ लाने के लिए अत्यन्त उत्सुक होंगे, तुम्हारे पतियों का तो कहना ही क्या? जब तक तुम लोग यहाँ हो तब तक वे विभिन्न स्थानों में तुम्हें खोजते रहेंगे और उनके मन अशान्त रहेंगे। अतः अब विलम्ब न करो। करके जाओ और उन्हें शान्त करो।"
जब गोपियाँ कृष्ण की इस सहज सलाह से कुछ विचलित तथा ऋद्ध प्रतीत हुईं, तो उन्होंने अपना ध्यान वन की शोभा निहारने की ओर लगा दिया। उस समय सारा वन तेज़ चमकते चन्द्रमा से प्रकाशित हो रहा था और वायु चुपके से खिलने फूलों के ऊपर से बह रही थी और वृक्षों की हरी-हरी पत्तियाँ मन्द समीर से हिल डुल रही थीं। कृष्ण ने उनके वन निहारने के इस अवसर का लाभ उन्हें उपदेश देने में उठाया, "मुझे लगता है कि तुम लोग इस रात्रि में सुन्दर वृन्दावन का जंगल देखने आई हो। किन्तु अब तक तुम संतुष्ट हो चुकी होगी। अतः तुम लोग बिना विलम्ब किये अपने-अपने घर लौट जाओ। मैं जानता हूँ कि तुम सब अत्यन्त पतिव्रता स्त्रियाँ हो और चूँकि तुम अब वृन्दावन के जंगलों का सुन्दर वातावरण देख चुकी हो, अतः तुम लोग घर लौट जाओ और जाकर अपने अपने पतियों की निष्ठापूर्ण सेवा करो। यद्यपि तुम अल्पवयस वाली हो, किन्तु कुछ के इस समय तक बच्चे भी होंगे और तुम लोग उन्हें घर पर छोड़ कर आई होगी; वे बेचारे रो रहे होंगे। अतः तुम लोग कृपा करके उन बच्चों को स्तन-पान कराने के लिए शीघ्र लौट जाओ। मैं यह भी जानता हूँ कि तुम लोगों के मन में मेरे प्रति अत्यधिक स्नेह है और तुम मेरी मुरली का बजाना सुनकर दिव्य स्नेहवश यहाँ आई हो। मेरे प्रति तुम लोगों के स्नेह तथा प्रेम की भावनाएँ अत्यन्त उचित हैं क्योंकि मैं भगवान् हूँ। सारे जीव मेरे अंश हैं, अतः स्वाभाविक है कि वे मुझे अत्यन्त चाहते हैं। अत: तुम्हारे स्नेह का स्वागत है और इसके लिए मैं तुम सबको बधाई देता हूँ। अब तुम अपने घर वापस जा सकती हो। एक अन्य बात जो मैं तुम लोगों को बताना चाहता हूँ वह यह है कि पतिव्रता स्त्री के लिए बिना किसी द्वैतभाव के पति की सेवा सर्वश्रेष्ठ धर्म है। एक स्त्री को न केवल अपने पति के प्रति आज्ञाकारी होना चाहिए अपितु अपने पति मित्रों, उसके माता पिता और देवरों के प्रति वत्सल होना चाहिए, अपितु सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि उसे अपनी सन्तानों का पालन-पोषण करना चाहिए।"
इस प्रकार कृष्ण ने एक स्त्री के कर्तव्य (धर्म) बताये। उन्होंने पति-सेवा पर बल देते हुए कहा, "भले ही वह चरित्रहीन, निर्धन, वृद्ध, रोग के कारण अशक्त क्यों न हो, स्त्री को चाहिए कि यदि वह वास्तव में मृत्यु के बाद स्वर्गलोक को जाना चाहती है, तो वह अपने पति का त्याग न करे। इसके अतिरिक्त, यदि कोई स्त्री अपने पति के प्रत िनिष्ठाहीन हो और दूसरे पुरुष की तलाश में रहती हो, तो समाज के लिए यह कलंक है। ऐसी आदतें स्त्री के उच्चलोक जाने में बाधक होती हैं और उनका परिणाम अत्यन्त गर्हित होता है। विवाहिता स्त्री को उपपति नहीं बनाना चाहिए क्योंकि जीवन के वैदिक सिद्धान्तों में इसकी मान्यता नहीं है। यदि तुम सोचती हो कि मुझ पर अत्यधिक आसक्त हो और मेरा सान्निध्य चाहती हो, तो मेरी सलाह है कि मेरे साथ आनन्द उठाने का प्रयास न करो। श्रेयस्कर यह होगा कि तुम घर जाओ और मेरे विषय में बातें करो, मेरे विषय में सोचो और इस प्रकार के निरन्तर स्मरण तथा मेरे नाम के कीर्तन से तुम लोग आध्यात्मिक पद को प्राप्त कर सकोगी। मेरे निकट रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। कृपया घर वापस जाओ।"
भगवान् ने गोपियों को जो ये उपदेश दिये हैं, वे रंचमात्र भी व्यंग्यात्मक नहीं हैं। समस्त ईमानदार स्त्रियों को इन उपदेशों को गम्भीरतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। यहाँ पर भगवान् ने स्त्रियों के पातिव्रत्य पर विशेष बल दिया है। अतः जो भी स्त्री उच्चलोक को जाने की कामना करती है उसे इस सिद्धान्त का पालन करना चाहिए। कृष्ण समस्त जीवों के समस्त स्नेह के केन्द्र हैं। जब कोई इस स्नेह को कृष्ण के प्रति बढ़ाता है, तो वह सारे वैदिक आदेशों को पार कर जाता है। गोपियों के लिए यह सम्भव था, क्योंकि वे उन्हें अपने समक्ष देख रही थीं। बद्ध अवस्था में ऐसा कर पाना किसी भी स्त्री के लिए सम्भव नहीं। दुर्भाग्यवश कभी-कभी गोपियों के साथ कृष्ण के व्यवहार का अनुकरण करते हुए कुछ धूर्त कृष्ण का स्थान ग्रहण कर लेते हैं और वे अद्वैतवाद या तादात्म्य के दर्शन का पालन करते हैं । वे इस रासलीला का लाभ भोलीभाली स्त्रियों को फँसाने तथा आत्म-साक्षात्कार के नाम पर उन्हें पथ-भ्रष्ट करने में उठाते हैं। अत: भगवान् कृष्ण ने चेतावनी के रूप में यहाँ यह इंगित किया है कि जो कुछ गोपियों के लिए सुलभ था वह सामान्य स्त्रियों के लिए सम्भव नहीं है। यद्यपि स्त्री बढ़े-चढ़े कृष्णभावनामृत द्वारा वास्तव में ऊपर उठ सकती है, किन्तु उसे उस व्यभिचारी के चुंगल में नहीं आना चाहिए, जो अपने को कृष्ण बताता है। उसे अपने भक्ति कार्यों को कृष्ण के मनन, चिन्तन और कीर्तन में केन्द्रित करना चाहिए। उसे तथाकथित सहजिया भक्तों का अनुकरण नहीं करना चाहिए, जो किसी बात को गम्भीरता से नहीं लेते।
जब कृष्ण ने ऐसे निरुत्साहित ढंग से गोपियों से बातें की तो वे अत्यन्त खिन्न हो उठीं क्योंकि उन्होंने सोचा कि कृष्ण के साथ रास नृत्य करने की उनकी इच्छा विफल हो गई; अत: वे अत्यधिक चिन्तित हो उठीं। अत्यन्त खिन्नता के कारण वे जोर-जोर से साँसें लेने लगीं। उन्होंने कृष्ण का मुख न देखने के बजाये अपना नीचे सिर झुका लिया और पृथ्वी पर तरह-तरह से नख-रेखाएँ बनाने लगीं। वे अशा कर रही थीं जिससे उनके मुखों का सारा अंगराग धुल गया था। उनके आँस उनके वक्षस्थलों पर लेपित कुंकुम से मिलकर पृथ्वी पर गिर रहे थे। वे कृष्ण से कुछ कर न सकीं, केवल मूक बनी खड़ी रहीं। उन्होंने अपने मौन से यह बता दिया कि उनके हृदय क्षत-विक्षत हो चुके हैं।
गोपियाँ सामान्य स्त्रियाँ न थीं। स्पष्ट रूप से वे कृष्ण के समान-स्तर पर थीं। वे उनकी शाश्वत संगिनी हैं। जैसाकि ब्रह्म-संहिता में पुष्टि हुई है, वे कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति की विस्तार हैं और उनकी शक्तिरूपा वे उनसे अभिन्न हैं । यद्यपि वे कृष्ण के वचनों से निराश थीं, किन्तु उन्होंने कृष्ण के विरुद्ध कटु शब्द नहीं कहे। फिर भी वे कृष्ण को निष्ठुर वचनों के लिए फटकारना चाह रही थीं, अत: उन्होंने अवरुद्ध वाणी में बोलना प्रारम्भ किया। वे कृष्ण से कोई कटु वचन नहीं कहना चाह रही थीं क्योंकि वे उन्हें उनकी आत्मा तथा हृदय से अत्यन्त प्रिय थे। गोपियों ने कृष्ण को ही अपने हृदयों में बिठा रखा था। वे कृष्ण के प्रति पूर्णतया समर्पित तथा अनुरक्त थीं। स्वाभाविक है कि जब उन्होंने ऐसे कटु वचन सुने तो कुछ उत्तर देना चाहा, किन्तु ऐसा करने के प्रयास में उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह चली। अन्ततोगत्वा वे किसी तरह यह कह पाईं।
उन्होंने कहा, "हे कृष्ण! तुम अत्यन्त क्रूर हो। तुम्हें इस तरह नहीं कहना चाहिए। हम पूर्णतया शरणागत हैं। कृपा करके हमें अपना लें और इतनी क्रूरता से बातें न करें। निस्सन्देह आप श्रीभगवान् हैं और आप जो चाहें सो कर सकते हैं, किन्तु ऐसी क्रूरता से हमारे साथ व्यवहार करना आपको शोभा नहीं देता। हम अपना सर्वस्व त्याग कर आपके चरणकमलों में शरण लेने आई हैं। हमें ज्ञात है कि आप पूर्णतया स्वतंत्र हैं और जो चाहें सो कर सकते हैं, किन्तु हमारी विनती है कि हमें ठुकराएँ नहीं। हम आपकी भक्त हैं । आप हमें उसी तरह स्वीकार करें जिस प्रकार नारायण अपने भक्तों को करते हैं। भगवान् नारायण के ऐसे अनेक भक्त हैं, जो अपनी मुक्ति के लिए उनकी पूजा करते हैं और वे उन्हें मुक्ति दे देते हैं। तो आप हमें किस प्रकार ठुकरा सकते हैं, जब आपके पाद-पद्मों के अतिरिक्त हमारा अन्य कोई आश्रय नहीं है?
"हे कृष्ण! आप परम शिक्षक हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है। आपके ये उपदेश शास्त्र-सम्मत हैं कि स्त्रियाँ अपने पतियों के प्रति निष्ठावान् हों, अपने बच्चों के प्रति दयालु हों, वे अपने गृहकार्यों को सँभालें और परिवार के गुरुजनों के प्रति आज्ञाकारिणी हों। किन्तु हम यह भी जानती हैं कि सारे शास्त्रों के इन उपदेशों का तब भी पूर्णतया पालन हो जाता है जब कोई आपके चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करे। हमारे पति, मित्र, परिजन तथा पुत्र सभी हमें आपकी उपस्थिति के कारण ही प्रिय एवं अच्छे लगते हैं क्योंकि आप ही समस्त जीवों के परमात्मा हैं । आपके बिना सब कुछ व्यर्थ है। जब आप शरीर को छोड़ते हैं, तो वह तुरन्त मर जाता है और शास्त्रों का आदेश है कि मृत शरीर को तुरन्त नदी में प्रवाहित कर दिया जाये या जला दिया जाये। अत: अन्ततोगत्वा आप ही इस संसार में सर्वाधिक प्रिय पुरुष हैं। आप पर अपनी श्रद्धा तथा प्यार स्थापित करने पर हमें अपने पतियों, मित्रों, पुत्रों या पुत्रियों से बिछुड़ने का कोई अवसर नहीं आएगा। यदि कोई स्त्री आपको अपने पति रूप में स्वीकार करती है, तो वह पति से कभी वियुक्त नहीं होगी जिस तरह कि देहात्मबुद्धि होने पर होता है। यदि हम आपको अपना परम पति मान लेती हैं, तो फिर हमें विलग होने, पतिविहीन होने या विधवा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। आप शाश्वत पति, शाश्वत पुत्र, शाश्वत मित्र तथा शाश्वत स्वामी हैं और जो कोई आपसे सम्बन्ध स्थापित करता है, वह सदा सुखी रहता है। चूंकि, आप समस्त धर्मों के शिक्षक हैं, अत: सर्वप्रथम आपके चरणकमलों की पूजा की जानी चाहिये । इसलिये शास्त्रों का कथन है कि आचार्य-उपासना अर्थात् आपके चरणकमलों की पूजा ही मूल सिद्धान्त है। इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि आप ही एकमात्र भोक्ता, स्वामी तथा एकमात्र मित्र हैं। इसलिए हम अपने समस्त तथाकथित मित्र, समाज तथा प्यार को त्याग कर आपके पास आई हैं और अब आप ही हमारे भोक्ता हैं। आप हमारा अनन्त काल तक भोग करें, हमारे स्वामी बनें क्योंकि आपका यह प्राकृतिक अधिकार है। आप हमारे परम मित्र बनें क्योंकि आप स्वभाव से वैसे हैं। हमें अपनी परम प्रेयसी की भाँति अपना आलिंगन करने दें।।
तत्पश्चात् गोपियों ने कमल-नयन कृष्ण से कहा, "हमें आपको पति रूप में प्राप्त करने की चिर-अभिलाषा है। कृपया हमें निरुत्साहित न करें। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति, जो अपने स्वार्थ का ध्यान रखता है अपनी प्रिय आत्मा को आप में आश्रित कर देता है। जो लोग माया द्वारा भ्रमित हैं, जो झूठे विचारों से सन्तुष्ट होना चाहते हैं, वे ही आपसे अलग रह कर भोग करना चाहते हैं । तथाकथित पति, मित्र, पुत्री या माता तथा पिता ये सबके सब दुख के कारण हैं। कोई भी इस जगत में इन सबके कारण सुखी नहीं रहता। यद्यपि मता-पिता से आशा की जाती है कि वे बच्चों का लालन-पालन करेंगे, किन्तु ऐसे अनेक बालक हैं, जो भोजन तथा आश्रय न मिल पाने के कारण कष्ट उठाते हैं। अच्छे चिकित्सकों की कमी नहीं है, किन्त कर रोगी मर जाता है, तो कोई भी चिकित्सक उसे पुनः जीवित नहीं कर सकते। यता सुरक्षा के अनेक साधन हैं, किन्तु जब अन्त आ जाता है, तो कोई साधन काम नहीं करता। आपकी सुरक्षा के बिना सुरक्षा के सारे तथाकथित साधन निरन्तर यातना के साधन बन जाते हैं। अतः हे स्वामी! हमारी प्रार्थना है कि आप को परम पति रूप में पाने की हमारी चिर अभिलाषा को आप इस तरह तोड़ें नहीं।
"हे कृष्ण! इसमें सन्देह नहीं कि जब हम गृहकार्यों में व्यस्त रहती हैं, तो स्त्रियों के रूप में हम परम प्रसन्न रहती हैं, किन्तु हमारे हृदयों को तो आपने पहले ही चुरा लिया है। अब हमारा मन गृहकार्यों में नहीं लगता। और आप हैं कि लगातार हमें घर जाने के लिए कह रहे हैं । यद्यपि यह उचित उपदेश है, किन्तु दुर्भाग्यवश हम लाचार हैं। हमारे पाँवों में शक्ति नहीं रह गई कि आपके चरणकमलों को छोड़कर एक पग भी चल सकें । अत: यदि आपके अनुरोध से हम घर लौट भी जायें, तो वहाँ हम क्या कर सकेंगी। हम आपके बिना कुछ भी करने की शक्ति खो चुकी हैं। अब हम अपना मन महिलाओं के रूप में गृहस्थी के कार्यों में न लगा कर एक भिन्न प्रकार की काम-वासना का अनुभव कर रही हैं जिससे हमारे हृदय जल रहे हैं। अतः हे कृष्ण! हमारी प्रार्थना है कि आप अपनी सुन्दर मुस्कान तथा अपने होठों से निस्सृत दिव्य वाणी से इस अग्नि को बुझा दें। यदि आप ऐसा नहीं करते, तो हम वियोग की अग्नि में जल जाएँगी। उस अवस्था में हम आपका तथा आपके सुन्दर स्वरूप का चिन्तन करती हुई अपना शरीर तुरन्त त्याग देंगी। इस तरह हमारा विचार है कि हम अगले जन्म में आपके चरणकमलों पर निवास कर सकेंगी। हे कृष्ण! यदि आप कहते हैं कि हम घर जाँए और हमारे पति हमारी इस काम-वासना को तुष्ट कर सकेंगे, तो हमारा यही कहना है कि ऐसा अब असम्भव है। आपने हमें अवसर प्रदान किया है कि हम वन में आपके द्वारा भोगी जाँय और भूतकाल में भी आप हमारे स्तनों का स्पर्श कर चुके हैं, जिसे हमने लक्ष्मी के समान वैकुण्ठलोक में ऐसा सुख प्राप्त करते हुए आशीर्वाद मान लिया है। चूँकि हमें इस दिव्य आनन्द का स्वाद मिल चुका है, अत: हम अपनी वासनापूर्ति के लिए आपके अतिरिक्त अन्य किसी के पास जाने में रुचि नहीं रखती हैं। हे कृष्ण! लक्ष्मी के चरणकमल देवताओं द्वारा सदैव आराधित हैं। यद्यपि वे वैकुण्ठलोक में आपके वक्षस्थल पर विराजमान रहती हैं किन्तु उन्होंने तुलसीदल से सदा आच्छादित आपके चरणकमलों की शरण प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया था। आपके चरणकमल आपके सेवकों की उचित शरण हैं और देवी लक्ष्मी आपके वक्षस्थल में न विराजकर नीचे उतर कर आपके चरणकमलों की पूजा करती हैं। अब हमने आपके चरणों की धूलि में अपने को रख लिया है। कृपया हमें ठुकराएँ नहीं क्योंकि हम पूर्णतया शरणागत हैं।
"हे कृष्ण! आप हरि कहलाते हैं, आप समस्त जीवों के समस्त दुखों को नष्ट करते हैं, विशेषतया उनके जिन्होंने घर-बार छोड़कर आपकी पूर्ण शरण ग्रहण कर ली है। हमने इसी आशा से अपने घर छोड़े हैं कि हम आपकी सेवा पूर्णरूपेण कर सकें। हमारी एकमात्र यही विनती है कि आप हमें अपनी दासी बना लें। हम आपसे अपनी पत्नी बनाने को नहीं कहतीं। हमें केवल अपनी दासियाँ बना लें। चूँकि आप श्रीभगवान् हैं और परकीया-रस का भोग करना चाहते हैं और आप दिव्य स्त्री आखेटक के रूप में प्रसिद्ध हैं, अत: हम आपकी दिव्य इच्छाएँ पूरी करने आई हैं। हम भी अपनी तुष्टि की तलाश में हैं क्योंकि आपके स्मित मुख को देख-देख कर हम अत्यन्त कामुक हो उठी हैं। हम आपके समक्ष सारे आभूषणों तथा वस्त्रों से सुसज्जित होकर आई हैं, किन्तु जब तक आप हमारा आलिंगन नहीं करते हमारा यह सारा श्रृंगार तथा सौन्दर्य अपूर्ण है। आप परम पुरुष हैं और यदि हमारे शृंगार को पुरुष भूषण के रूप में पूर्ण बना सकें, तो हमारी सारी इच्छाएँ तथा शारीरिक सज्जा पूर्ण हो जाये।
"हे कृष्ण! हम आपके तिलक तथा कुंडल एवं धुंघराली लटों से आवृत मुखमंडल तथा आपकी अलौकिक मुस्कान को देख कर मोहित हो गई हैं । यही नहीं, हम आपकी बाहों से भी आकर्षित हैं, जो शरणागतों को आश्वासन देने वाली हैं । यद्यपि हम आपके वक्षस्थल से भी आकृष्ट हैं, क्योंकि उसका आलिंगन सदा देवी . लक्ष्मी द्वारा किया जाता है, किन्तु हम उनका स्थान ग्रहण करना नहीं चाहतीं । हम तो आपकी दासी बनकर ही सन्तुष्ट रहेंगी। यदि हम पर यह आरोप लगाते हैं कि हम वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने वाली हैं, तो हमें आपसे इतना ही पूछना है कि तीनों लोकों में ऐसी कौन स्त्री होगी, जो आपके सौन्दर्य तथा आपकी दिव्य बाँसुरी की सुरीली ध्वनि से सम्मोहित न हो? इन तीनों लोकों में आपके प्रति स्त्री तथा पुरुष के सम्बन्ध में कोई भेद नहीं है क्योंकि स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आप की तटस्था शक्ति या प्रकृति से सम्बन्धित हैं । वस्तुतः कोई भी भोक्ता या नर नहीं है, हर कोई आपके द्वारा भोग्य है। तीनों लोकों में कोई ऐसी स्त्री नहीं, जो एक बार आपके प्रति आकृष्ट होकर अपने पातिव्रत्य के पथ से डिग न जाये, क्योंकि आपका सौंदर्य इतना दिव्य है कि न केवल स्त्री तथा पुरुष अपितु गौवें, पक्षी, पशु, यहाँ तक कि वृक्ष, फल तथा फूल भी मोहित हो जाते हैं, तो हम लोगों का क्या कहना ? किन्तु इतना तो निमित है कि चूँकि भगवान् विष्णु सदा से असुरों के आक्रमण से देवताओं की रक्षा कर आये हैं, अतः आप भी हमारी सभी प्रकार के कष्टों से रक्षा करने के लिए वन्दावन में अवतरित हुए हैं । हे दुखियों के मित्र! आप अपना हाथ हमारे दग्ध वक्षस्थलों तथा शिरों पर रखिये क्योंकि हमने आपकी नित्य दासी के रूप में अपने आपको समर्पित कर दिया है। यदि आप सोचते हैं कि आपकी कमल जैसी हथेलियाँ हमारे वक्षस्थलों को स्पर्श करते ही दग्ध हो कर राख बन जाएँगी, तो हम विश्वास दिलाती हैं कि आपकी हथेलियाँ पीड़ा के बजाय आनन्द का अनुभव करेंगी जिस प्रकार कमल का फूल अत्यन्त कोमल होते हुए भी सूर्य के प्रखर ताप का आनंद लेता है।"
गोपियों का अनुनय-विनय सुनकर श्रीभगवान् आत्म-निर्भर होने पर भी हँसने लगे और गोपियों के प्रति अत्यधिक दयार्द्र होने के कारण भगवान् उनकी इच्छानुसार उनका आलिंगन-चुम्बन करने लगे। जब कृष्ण ने मुस्कराते हुए गोपियों के मुखडों को देखा, तो उनके मुखों की शोभा सौगुनी बढ़ गई। जब वे उनके मध्य में उनका भोग कर रहे थे, तो असंख्य प्रकाशमान नक्षत्रों के मध्य चन्द्रमा जैसे प्रतीत हो रहे थे। इस तरह नाना रंग के फूलों की मालाओं से अलंकृत सैकड़ों गोपियों से घिरकर श्रीभगवान् वृन्दावन के जंगल में विचरण करने लगे, जहाँ वे कभी स्वयं गाते और कभी गोपियों के साथ-साथ गाते थे। इस प्रकार भगवान् तथा गोपियाँ यमुना के शीतल रेतीले तट पर पहुँच गए जहाँ कमल तथा कुमुदिनियाँ खिली थीं। ऐसे दिव्य वातावरण में गोपियाँ तथा कृष्ण एक दूसरे के साथ आनन्द-विहार करने लगे। यमुना तट पर विचरण करते हुए कभी वे गोपियों के सिर, वक्षस्थल या कमर को अपनी बाहों में भर लेते, तो कभी एक दूसरे को चुटकी काटते और परिहास करते । वे एक दूसरे को देख-देखकर आनन्द लूटने लगे। जब कृष्ण गोपियों के शरीर का स्पर्श करते, तो उनकी आलिंगन की वासना बढ़ जाती। उन सबों ने इन लीलाओं का आनन्द लूटा। इस प्रकार श्रीभगवान् की कृपा पा कर सारी गोपियाँ धन्य हुईं क्योंकि उन्होंने रंचमात्र संसारी यौन जीवन के बिना उनके सान्निध्य का आनन्द उठाया।
किन्तु शीघ्र ही गोपियों को यह सोचकर गर्व होने लगा कि उन्हें कृष्ण के सान्निध्य का सुयोग प्राप्त हुआ है, अत: वे इस ब्रह्माण्ड में सर्वाधिक भाग्यशालिनी हैं। किन्तु भगवान् कृष्ण, जिन्हें केशव कहा जाता है, उनके इस गर्व को तुरन्त पहचान गये और उन्हें अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के उद्देश्य से तथा उनके झूठे गर्व को दमन करने के लिए वे तुरन्त उस स्थान से अन्तर्धान हो गये, जो उनके वैराग्य-ऐश्वर्य का सूचक है। श्रीभगवान् सदैव छह प्रकार के ऐश्वर्यों में पूर्ण हैं और यह उनके वैराग्य-ऐश्वर्य का उदाहरण है। यह वैराग्य कृष्ण की पूर्ण अनासक्ति की पुष्टि करता है। वे सदैव स्वावलम्बी (आत्माराम) हैं और किसी पर निर्भर नहीं रहते। यही मंच है जहाँ उनकी दिव्य लीलाएँ सम्पन्न होती हैं।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के “रासलीला का शुभारम्भ" नामक उन्तीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
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