जब कृष्ण सहसा गोपियों की टोली से अदृश्य हो गये, तो वे उन्हें प्रत्येक जस्थान में ढूँढने लगीं। किन्तु कहीं भी उन्हें न पाकर वे भयभीत हो गईं और उनके पीछे पागल सी हो उठीं। वे अत्यन्त प्रेम तथा स्नेह से कृष्ण की लीलाओं का ही चिन्तन करने लगीं। उनके ध्यान मग्न होने के कारण उनकी स्मृति जाती रही और अश्रुपूरित नेत्रों से वे कृष्ण की सारी लीलाएँ-उनके साथ हुए सुंदर वार्तालाप, उनके आलिंगन, चुम्बन तथा अन्य कार्यकलाप-देखने लगीं। कृष्ण के प्रति अत्यधिक आकृष्ट होने से वे उनके नाचने, चलने, हँसने का इस तरह अनुकरण करने लगीं मानो वे स्वयं कृष्ण हों। कृष्ण के न होने से वे सब पागल हो उठीं, वे एक दूसरे से कहने लगी कि वे ही स्वयं कृष्ण हैं । वे सब शीघ्र ही एकत्र हो गईं और जोर-जोर से कृष्ण नाम का उच्चारण (कीर्तन) करने लगीं, वे उन्हें ढूँढते-ढूँढते जंगल के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँच गईं।
वस्तुतः कृष्ण सर्वव्यापी हैं, वे आकाश में हैं, वन में हैं; हृदय के भीतर हैं और सर्वत्र विराजमान हैं। अत: गोपियाँ वृक्षों तथा पौधों से कृष्ण के विषय में पूछने लगीं। जंगल में अनेक प्रकार के बड़े तथा छोटे वृक्ष थे। गोपियाँ इन वृक्षों को सम्बोधित करने लगीं, "हे वटवृक्ष! क्या तुमने नन्द महाराज के पुत्र को इधर से कृष्ण का गोपियों से छिपना जाते, हँसते तथा वंशी बजाते देखा है ? वह हमारे चित्त चुरा कर चला गया है। यदि तुमने उसे देखा है, तो हमें बताएँ कि वह किधर गया है ? हे प्रिय अशोक वृक्ष! हे नागपुष्प के वृक्ष! हे चम्पक वृक्ष! तुम ही बता दो कि क्या बलराम के छोटे भाई को इधर से जाते देखा है? वे हमारे गर्व के कारण अन्तर्धान हो गये हैं।" गोपियों को कृष्ण के अन्तर्धान होने का कारण ज्ञात था। वे जानती थीं कि जब वे कृष्ण के साथ आनन्दमग्न थीं, तो वे अपने को ब्रह्माण्ड की सर्वाधिक भाग्यशालिनी स्त्रियाँ समझ रही थीं और चूँकि अपने को गर्वित अनुभव कर रही थीं, अत: श्रीकृष्ण उनके गर्व का दमन करने के लिए तुरन्त अन्तर्धान हो गये हैं। कृष्ण नहीं चाहते कि उनके प्रति की गई सेवा के लिए उनके भक्त गर्वित हों। वे हर एक की सेवा स्वीकार करते हैं, किन्तु वे यह नहीं चाहते कि एक भक्त अपने को दूसरे से अधिक गर्वीला अनुभव करे। यदि कभी ऐसी भावना उत्पन्न हो जाती है, तो श्रीकृष्ण उसके प्रति अपना भाव बदल कर उस भावना को समाप्त कर देते हैं।
तब गोपियाँ तुलसी के वृक्षों को सम्बोधित करने लगीं, “हे तुलसी ! तुम कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हो क्योंकि तुम्हारे पत्ते (दल) उनके चरणकमलों पर चढ़ते हैं।" "हे मालती! हे मल्लिका! हे चमेली ! हमें दिव्य आनन्द प्रदान करने के बाद इधर से जाते हुए श्रीकृष्ण ने तुम सबका अवश्य स्पर्श किया होगा। क्या तुमने माधव को इस ओर से जाते देखा है ? हे आम्र वृक्ष, हे कटहल, हे नाशपाति तथा असन वृक्षो! हे जामुन, बेल वृक्षो तथा कदम्ब पुष्प के वृक्ष! तुम सब यमुना के तट पर रहने के कारण अत्यन्त पवित्र हो। इधर से कृष्ण अवश्य गए होंगे। क्या तुम सब बता सकोगे कि वे किस ओर गये हैं ?"
तत्पश्चात् गोपियों ने जिस पृथ्वी पर वे चल रही थी उसे सम्बोधित करना प्रारम्भ किया, “हे पृथ्वी! हमें ज्ञात नहीं कि आपने कृष्ण के चरण-चिह्नों को अपने ऊपर धारण करने के लिए कितना तप किया होगा। आप बड़ी प्रसन्नचित्त हैं। ये प्रमुदित वृक्ष तथा पौधे ही आपकी रोमावलियाँ हैं। श्रीकृष्ण अवश्य ही आप पर अत्यधिक प्रसन्न रहे होंगे अन्यथा वराह रूप में उन्होंने आपका आलिंगन क्यों किया होता? जब आप जलमग्न थीं, तो उन्होंने आपका सारा भार अपने दाँतों पर उठाकर आपका उद्धार किया था।
अनेक वृक्षों, पौधों और पृथ्वी को सम्बोधित करने के पश्चात् उन्होंने अपना मुँह उन सुन्दर हरिणों की ओर फेरा जो उनकी ओर प्रसन्नतापूर्वक देख रहे थे। उनको सम्बोधित करते हुए गोपियों ने कहा, “ऐसा लगता है कि साक्षात् परम नारायण कृष्ण अपनी संगिनी लक्ष्मी समेत अवश्य इस रास्ते से होकर गुजरे होंगे अन्यथा यह कैसे सम्भव है कि यहाँ समीर में उनके पुष्पहार की सुगन्ध लक्ष्मीजी के वक्षस्थल में लेप किये गये कुंकुम की सुगंध से युक्त अनुभव की जा रही हो? ऐसा लगता है कि वे यहाँ से अवश्य गुजरे होंगे और उन्होंने तुम्हारे शरीरों का स्पर्श किया होगा जिससे तुम सब इतने प्रसन्न लग रहे हो और हमारी ओर करुण-दृष्टि से देख रहे हो। अत. कृपा करके क्या हमें बता सकोगे कि कृष्ण किधर गये हैं ? कृष्ण वृन्दावन के शुभचिन्तक हैं, वे तुम पर उतने ही दयालु हैं जितने हम पर; अत: हमें त्यागने के बाद वे अवश्य ही तुम लोगों के संग रहे होंगे। हे भाग्यशाली वृक्षो! हम बलराम के छोटे भाई कृष्ण का चिन्तन कर रहीं हैं। वे अपना एक हाथ लक्ष्मी देवी के कन्धे पर रखे और दूसरे हाथ में कमल का पुष्प घुमाते हुए इधर से गए होंगे और तुम लोगों के नमस्कार करने पर प्रसन्न हुए होंगे और तुम सबको प्रसन्नतापूर्वक निहारा होगा।"
तब कुछ गोपियाँ अपनी अन्य गोपी सखियों को सम्बोधित करने लगीं, "सखियो! तुम इन लताओं से क्यों नहीं पूछ रही, जो इन विशाल वृक्षों का प्रसन्नतापूर्वक आलिंगन कर रही हैं मानों वे इनके पति हों? ऐसा लगता है कि इन लताओं के फूलों को कृष्ण ने अपने नखों से अवश्य ही स्पर्श किया होगा, अन्यथा वे इतनी प्रसन्न क्यों हैं?"
जब गोपियाँ श्रीकृष्ण को इधर-उधर खोज कर थक गईं, तो वे प्रमत्ताओं की तरह बातें करने लगीं। वे कृष्ण की विविध लीलाओं का अनुकरण करके अपने आपको संतुष्ट करने लगीं। एक ने पूतना राक्षसी का अनुकरण किया और दूसरी ने कृष्ण बनकर उसका स्तन-पान किया। एक गोपी छकड़ा बन गई और दूसरी इस छकड़े के नीचे लेटकर अपनी टाँगे हिलाने लगी, जिससे वे छकड़े के पहियों को छू जाँय, जिस प्रकार कृष्ण ने शकटासुर का वध करने के लिए किया था। एक गोपी बालक कृष्ण का अनुकरण करते हुए भूमि पर लेट गई और एक गोपी तृणावर्त बन कर उस नन्हें बालक कृष्ण को बलपूर्वक आकाश में उठा ले गईं; एक गोपी ने कृष्ण का अनुकरण घुटनों के बल चलते तथा अपनी क्षुद्र घंटिका बजाते हुए किया। दो गोपियाँ कृष्ण तथा बलराम बनीं और अन्य अनेक गोपियाँ ग्वाल-बाल बन गईं। एक गोपी ने बकासुर का रूप धरा और दूसरी ने उसे बलपूर्वक पृथ्वी पर गिरा दिया, जैसे बकासुर गिरा था जब उस का वध हुआ था। इसी प्रकार एक अन्य गोपी ने वत्सासुर को हराया। जिस प्रकार कृष्ण अपनी गायों को उनके नाम ले लेकर पुकारते थे उसी प्रकार गोपियाँ उनका अनुकरण करने लगी और गौओं को उनका नाम ले लेकर पुकारने लगी। एक गोपी बाँसुरी बजाने लगी और दूसरी उसकी वैसी ही प्रशंसा करने लगी और, जिस प्रकार ग्वाले कृष्ण की वंशी बजाते समय करते थे। एक गोपी दूसरी गोपी को अपने कंधों पर उसी प्रकार चढ़ाने लगी जिस प्रकार कृष्ण अपने ग्वाल मित्रों को करते थे। जो गोपी अपनी सखी को इस तरह कन्धों पर चढ़ाये थी वह शेखी मारने लगी कि, "मैं कृष्ण हूँ, तुम सब मेरी चाल क्यों नहीं देखती!" एक गोपी ने अपने वस्त्र और हाथ उठाते हुए कहा, “अब मूसलाधार वर्षा तथा प्रबल चक्रवात से मत डरो, मैं तुम सबको बचाऊँगी।" इस प्रकार उसने गोवर्धन-धारण का अनुकरण किया। एक गोपी अपना पैर दूसरी गोपी के सिर पर बलपूर्वक रखते हुए बोली, "अरे दुष्ट कालिय! मैं तुम्हें कठोर दण्ड दूंगी। तुम इस स्थान को छोड़ दो। इस पृथ्वी पर मेरा अवतार सभी तरह के दुष्टों को दण्ड देने के लिए हुआ है।" दूसरी गोपी अपनी सखियों से बोली, "देखो न ! दावाग्नि की लपटें हमें लीलने आ रही हैं। अपनी आँखें बन्द करो, मैं तुम्हें इस आसन्न सकंट से तुरन्त बचा लूँगी।"
इस प्रकार सारी गोपिकाएँ कृष्ण की अनुपस्थिति से उन्मत्त हो रही थीं। उन्होंने कृष्ण के विषय में वृक्षों तथा पौधों से पूछा । कई स्थानों में उन्हें उनके चरण-चिह्न दिखाई पड़े जिनमें ध्वजा, कमल, त्रिशूल, वज्र आदि अंकित थे। इन चरण-चिह्नों को देखकर वे फूट-फूट कर रो पड़ीं-"अरे ! ये तो कृष्ण के पैरों के चिह्न हैं। सारे लक्षण-ध्वजा, कमल पुष्प, त्रिशूल तथा वज्र-बिल्कुल स्पष्ट दिख रहे हैं।" वे उन पादचिह्नों का अनुकरण करने लगीं तभी उन्हें पास ही दूसरे चरणचिह्न दिखाई पड़े। वे तुरन्त अत्यन्त दुखी हुईं, और बोल उठी "प्यारी सखियो ! जरा देखो न ! ये दूसरे चरणचिह्न किसके हैं? ये महाराज नन्द के पुत्र के चरणचिह्नों के पास-पास हैं। निश्चय ही कृष्ण किसी अन्य गोपी पर अपना हाथ टेके इधर से उसी प्रकार गये हैं जिस तरह हाथी अपनी प्रिया के साथ-साथ चलता है। अत: हमें यह जान लेना चाहिए कि इस विशिष्ट गोपी ने कृष्ण की सेवा हम सबों से अधिक प्रेम तथा स्नेह से की है। इसीलिए वे हमें त्याग कर भी उसका संग नहीं छोड़ पाये। वे उसे अपने साथ लेते गये हैं। सखियो! जरा विचारो तो कि इस स्थान की दिव्य धूलि कितनी धन्य है। कृष्ण की चरणधूलि की पूजा ब्रह्मा, शिव तथा देवी लक्ष्मी तक करती हैं। किन्तु हमें इसका दुख है कि यह विशिष्ट गोपी कृष्ण के साथ गईं है और वह हमें विलाप करती छोड़ने के लिए कृष्ण के चुम्बनों का अमृत पान कर रही है। हे सखियो! जरा देखो तो! इस स्थान पर हमें उस गोपी के चरणचिह्न नहीं दिख रहे। ऐसा लगता है कि यहाँ पर सूखी घास के काँटे थे इसलिए कृष्ण ने राधारानी को अपने कन्धे पर उठा लिया होगा। ओह ! वह उन्हें इतनी प्यारी है ! कृष्ण ने राधारानी के प्रसन्न करने के लिए यहाँ कुछ फूल तोड़े होंगे। यहाँ पर वे ऊँची डालों से फल तोड़ने के लिए सीधे खड़े हुए होंगे अतः हमें उनके अधूरे चरणचिह्न दिख रहे हैं। सखियो, देखो न ! यहाँ पर राधारानी के साथ बैठकर किस तरह कृष्ण ने उनके बालों में फूल सजाए होंगे। तुम इतना निश्चय जानो कि यहाँ पर वे दोनों बैठे थे। कृष्ण आत्माराम हैं, उन्हें किसी अन्य स्रोत से किसी आनन्द को भोगने की आवश्यकता नहीं। फिर भी अपने भक्त को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने राधारानी के साथ वैसा ही व्यवहार किया जिस प्रकार एक कामी तरुण अपनी तरुणी प्रेमिका के साथ करता है। कृष्ण इतने दयालु हैं कि वे अपनी सखियों द्वारा उत्पन्न समस्त उत्पातों को सहन करते हैं।
इस प्रकार सारी गोपियाँ उस विशिष्ट गोपी के दोषों का वर्णन करने लगी, जिसे कृष्ण अकेले ले गये थे। वे कहने लगी कि प्रमुख गोपी राधारानी अपने को सर्वश्रेष्ठ गोपी समझ कर अपने पद पर गर्वित होगी। "तो भी कृष्ण हम सबको एक ओर छोड़कर उसे ही अकेले कैसे ले गये, जब तक वह अद्वितीय सुन्दरी न हो? वह कृष्ण को घने जंगल में ले जाकर बोली होगी, "हे प्रिय कृष्ण ! मैं अब बहुत थक गई हूँ, मैं अब और नहीं चल सकती । अब आप मुझे चाहे जहाँ ले जायें लेकिन उठा कर ले जाओ।" जब कृष्ण से उसने इस तरह कहा होगा, तो उन्होंने भी राधारानी से कहा होगा, "अच्छा! तुम मेरे कंधे पर चढ़ जाओ।" किन्तु कृष्ण तुरन्त अदृश्य हो गये होंगे और अब राधारानी उनके लिये विलाप कर रही होगी, "मेरे प्रेमी, मेरे प्रियतम! आप इतने अच्छे और शक्तिशाली हैं। आप कहाँ गये? मैं आपकी परम आज्ञाकारिणी दासी हूँ। मैं अत्यधिक दुखी हूँ। कृपया आइये और पुन: मेरे साथ हो लीजिए।" किन्तु कृष्ण उसके पास नहीं आ रहे होंगे। वे उसे दूर से देख-देखकर उसके शोक से आनन्दित हो रहे होंगे।"
तदनन्तर सभी गोपियाँ कृष्ण की खोज में जंगल के भीतर दूर तक चली गईं, किन्तु जब उन्हें पता चला कि सचमुच ही कृष्ण ने राधारानी को अकेले छोड़ दिया है, तो वे अत्यन्त दुखी हुईं। यही कृष्णभावनामृत की परीक्षा है। प्रारम्भ में उन्हें कुछ-कुछ ईर्ष्या थी कि कृष्ण हम सब गोपियों को छोड़कर राधारानी को ही क्यों लेते गये, किन्तु जैसे ही उन्हें पता लगा कि कृष्ण ने राधारानी को भी छोड़ दिया है और वह अकेले उनके लिए विलाप कर रही है, तो वे उसके प्रति दयार्द्र हो उठीं। गोपियों को राधारानी मिल गईं और उससे उन्होंने सब कुछ सुना कि किस तरह कृष्ण का गोपियों से छिपना उसने कृष्ण के साथ दुर्व्यवहार किया और किस प्रकार उसे गर्व हुआ और फिर अपने गर्व के लिए अपमानित होना पड़ा। यह सब सुनकर गोपियाँ सचमुच उसके प्रति दयार्द्र हो उठीं। तब राधारानी समेत सारी गोपियाँ जंगल में तब तक आगे बढ़ती गईं जब तक उन्हें चाँदनी दिखनी बन्द हो गई।
जब उन्होंने देखा कि क्रमश: अंधकार होता जा रहा है, तो वे रुक गईं। उनके मन तथा बुद्धि कृष्ण के विचारों में मग्न हो गये; वे सब कृष्ण के कार्यकलापों तथा उनकी बातों का अनुकरण करने लगीं। अपना हृदय तथा अपनी आत्मा कृष्ण पर न्यौछावर करने के कारण वे अपने परिवार को भूलकर उनकी महिमा का गान करने लगीं। इस प्रकार सारी गोपियाँ यमुना तट पर लौटकर वहाँ एकत्र हो गईं और यह सोच-सोच कर कि कृष्ण उनके पास लौटकर आएँगे, श्रीकृष्ण की महिमा का कीर्तन करने लगीं :
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "कृष्ण का गोपियों से छिपना" नामक तीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
|