एक गोपी बोली, "हे कृष्ण! जब से आपने इस व्रजभूमि में जन्म लिया तब से एप्रत्येक वस्तु धन्य लगती है। वृन्दावन की भूमि धन्य हो गई है और ऐसा प्रतीत होता है मानो यहाँ स्वयं लक्ष्मीजी निवास कर रही हों। किन्तु यदि कोई दुखी है, तो वह हमीं हैं, क्योंकि हम आपको निरन्तर खोजती रहती हैं, फिर भी आपके दर्शन नहीं पा रहीं। हमारा जीवन आप पर ही आश्रित हैं, अत: हमारी प्रार्थना है कि आप पुनः हमारे पास आ जाँय।"
एक अन्य गोपी बोली, "हे प्रिय कृष्ण! आप उस कमल फूल के भी प्राण हैं, जो शरद् ऋतु की स्वच्छ वर्षा के कारण पारदर्शी बने सरोवर के जल में उगता है। यद्यपि कमल फूल देखने में इतने सुन्दर हैं, किन्तु आपके देखे के बिना वे मुरझा जाते हैं। इसी प्रकार आपके बिना हम भी मरणासन्न हैं । वस्तुतः हम आपकी पत्नियाँ नहीं हैं किन्तु आपकी दासियाँ हैं । आप हम पर एक छदाम भी नहीं खर्चते, फिर भी हम आपकी चितवन मात्र के प्रति आकृष्ट हैं। अब यदि हम आपकी चितवन पाये बिना मर जाती हैं, तो आप ही हमारी मृत्यु के लिए उत्तरदायी होंगे। स्त्रियों का वध महान् पाप है और यदि आप हमें देखने नहीं आते और हम मर जाती हैं, तो आपको इस पाप का फल भोगना पड़ेगा। अतः कृपा करके हमें देखने आ जाइये। आप यह न सोचें कि केवल अस्त्र-शस्त्र से ही कोई मारा जा सकता है। हम तो आपके अभाव में मरी जा रही हैं। आपको सोचना चाहिए कि आप स्त्रियों के वध के लिए किस प्रकार उत्तरदायी हैं । हम आपके प्रति सतत कृतज्ञ हैं, क्योंकि आपने हमारी कई बार रक्षा की है-आपने यमुना के विषैले जल से, कालिय सर्प से, बकासुर से, इन्द्र की मसलाधार वर्षा तथा उसके कोप से, दावाग्नि से तथा अन्य अनेक दुर्घटनाओं से हमें बचाया है। आप सबसे महान् तथा सर्वशक्तिमान हैं। यह आश्चर्य की बात है कि आपने हमें अनेक संकटों से बचाया है, किन्तु हमें आश्चर्य हो रहा है कि इस अवसर पर आप हमारी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं।
हे सखा! हे कृष्ण! हमें भलीभाँति ज्ञात है कि आप माता यशोदा अथवा नन्द महाराज के पुत्र नहीं हैं। आप तो श्रीभगवान् तथा समस्त जीवों के परमात्मा हैं। आप अपनी अहैतुकी कृपा से इस संसार की रक्षा करने के लिए ब्रह्माजी की प्रार्थना पर अवतरित हुए हैं। यह तो आपकी कृपा ही है कि आप यदुवंश में प्रकट हुए हैं। हे यदुकुल श्रेष्ठ ! यदि कोई इस भौतिक जगत से डर कर आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है, तो आप कभी उसकी रक्षा करने से इनकार नहीं करते। आपकी चाल रमणीक है तथा आप स्वतंत्र हैं। आप एक हाथ से देवी लक्ष्मी का स्पर्श करते हैं और दूसरे में कमल का फूल लिये रहते हैं। यह आपका अलौकिक स्वरूप है। अतः आप कृपा करके हम सबके समक्ष आइये और हाथ में कमलपुष्प धारण करके आशीर्वाद दीजिये।
"हे कृष्ण! आप वृन्दावनवासियों के समस्त भयों के हर्ता हैं। आप परम शक्तिमान वीर हैं और हम जानती हैं कि आप अपनी सुन्दर मुस्कान से ही अपने भक्तों के वृथा गर्व को तथा हम जैसी स्त्रियों के गर्व को भी खण्डित कर सकते हैं। हम मात्र आपकी दासियाँ हैं, अत: कृपा करके अपना कमल सरीखा सुन्दर मुखड़ा दिखाकर हमें अंगीकार कीजिये।
"हे कृष्ण! वास्तव में हम सब आपके चरणकमलों का स्पर्श पाकर अत्यन्त कामुक हो उठी हैं। आपके चरणकमल उन भक्तों के सभी पापों को ध्वंस कर देते हैं, जो आपकी शरण में आये हैं। आप इतने दयालु हैं कि साधारण पशु तक आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं। आपके चरणकमल लक्ष्मीजी के भी निवास स्थान हैं फिर भी आप ने उनसे कालिय नाग के फनों पर नृत्य किया। अब हम प्रार्थना करती हैं कि आप हमारे वक्षस्थलों पर अपने चरणकमल रखें जिससे आपका स्पर्श पाने की हमारी काम-इच्छा शान्त हो।।
"हे प्रभु! आपके कमल जैसे नेत्र कितने सुन्दर तथा आकर्षक हैं ! आपके मीठे वचन इतने मोहक हैं कि बड़े से बड़े विद्वान भी आकर्षित होकर आप पर प्रसन्न हो जाते हैं। हम भी आपकी वाणी तथा आपके मुख एवं नेत्रों की सुन्दरता से आकल हैं। अतः आप हमें अपने अमृत सदृश चुम्बन से संतुष्ट कीजिये। आपके द्वारा बोले गये शब्द अथवा आपके कार्यकलापों का वर्णन करने वाले शब्द अमृत से यक्त है और आपके शब्दों के श्रवणमात्र से मनुष्य इस संसार की प्रज्वलित अग्नि से बच सकता है। ब्रह्मा तथा शिव जैसे महान् देवता सदा आपकी वाणी की महिमा का गुणगान करते रहते हैं । वे ऐसा इस भौतिक जगत के जीवों के पापकर्मों के उच्छेदन के लिए ही करते हैं। आपके दिव्य शब्दों के श्रवण मात्र से मनुष्य पुण्यकर्म करने के स्तर तक उठ जाता है। वैष्णवों के लिए तो आपके शब्द दिव्य आनन्द देने वाले हैं और जो साधु पुरुष आपके दिव्यं संदेश को सारे संसार में वितरित करने में लगे हैं, वे उत्तम कोटि के दानी व्यक्ति हैं।" (इसकी पुष्टि रूप गोस्वामी द्वारा होती है जब उन्होंने भगवान् चैतन्य को अत्यन्त दानी अवतार बताया, क्योंकि वे सारे संसार में कृष्ण के शब्दों तथा कृष्ण के प्रेम का निःशुल्क वितरण कर रहे थे।)
गोपियाँ कहती रहीं, "हे कृष्ण! आप बड़े चतुर हैं। आप कल्पना करें कि हम सब आपकी चातुरीपूर्ण हँसी, आपकी मोहक चितवन, वृन्दावन में अपने साथ आपका विचरण तथा आपके शुभ ध्यान को स्मरण कर करके कितनी दुखी हैं। आपकी एकान्त वार्ता हृदय को गुदगुदाने वाली होती थी। अब हम आपके व्यवहार को स्मरण करके संतप्त हैं। कृपया हमारी रक्षा करें। हे कृष्ण! आपको भलीभाँति ज्ञात है कि जब आप वृन्दावन गाँव से गौवें चराने के लिए जंगल में जाते थे, तो हम कितनी उदास हो जाती थीं। हम यह सोचकर कितनी दुखी हैं कि आपके कोमल चरणकमलों में शुष्क कुश तथा जंगल के कंकड़ गड़ रहे होंगे। हम आपके प्रति इतनी आसक्त हैं कि निरन्तर आपके चरणकमलों का ही चिन्तन करती रहती हैं।
"हे कृष्ण! जब आप पशुओं सहित चरागाह से लौटते हैं, तो हम आपके मुखमंडल को धुंघराले बालों से ढका तथा गोरज से सना देखती हैं । हम आपके मन्द मुसकान-युक्त चेहरे को देखती हैं, तो आपके समागम से आनन्द प्राप्त करने की हमारी इच्छा बढ़ जाती है। हे कृष्ण! आप परम प्रेमी हैं और शरणागतों को सदा आश्रय देने वाले हैं। आप सबों की इच्छापूर्ति करने वाले हैं, आपके चरणकमलों की पूजा ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्माजी भी करते हैं। जो भी आपके चरणकमलों की पूजा करता हैं, उसे आप वरदान देते हैं। अतः आप हम पर प्रसन्न हों और हमारे वक्षस्थलों पर अपने चरण रखकर इस दुख से हमें उबारें । हे कृष्ण ! हम उस चुम्बन की याचना कर रहीं हैं, जो आप अपनी बाँसुरी को भी प्रदान करते हैं। आपकी बाँसरी की ध्वनि सारे संसार को और हमारे हृदय को भी मोह लेती है। अत: आप कपा करके लौट आएँ और अपने अमृत-मुख से हमारा चुम्बन लें।"
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "गोपी गीत" नामक इकतीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ। |