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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 36: श्रीकृष्ण को लाने के लिए कंस का अक्रूर को भेजना  » 
 
 
 
 
 
वृन्दावन सदैव श्रीकृष्ण के चिन्तन में मग्न रहता था। सभी उनकी लीलाओं का स्मरण करते थे और सदैव दिव्य आनन्द के सागर में डूबे रहते थे। किन्तु यह भौतिक जगत इतना दूषित है कि असुर वृन्दावन में भी वहाँ की शान्ति भंग करने का प्रयास करते रहते थे।
एक बार अरिष्टासुर नामक एक असुर ने साँड के रूप में वृन्दावन में प्रवेश किया। उसका शरीर और सींग अत्यन्त विशाल थे। अपने खुरों से धरती को खोदता हुआ वह वृन्दावन में प्रविष्ट हुआ। जब उस राक्षस ने वृन्दावन में प्रवेश किया, तो सारी धरती ऐसे हिलने लगी जैसे भूकम्प आया हो। उसने भयंकर गर्जना की और नदी के तट की भूमि को खोद डाला। तत्पश्चात् उसने गाँव के मुख्य भाग में प्रवेश किया। उस साँड की तीव्र, भयानक गर्जना के कारण कुछ गर्भवती गायों और स्त्रियों के गर्भ गिर गए। उसका शरीर अत्यन्त विशाल, सुदृढ़ और इतना बलशाली था कि उसके शरीर पर एक मेघ ऐसे मँडराने लगा जैसे मेघ पर्वत पर मँडराते हैं। अरिष्टासुर ने इतने भयानक रूप में वृन्दावन में प्रवेश किया कि उसे देखने मात्र से सब नर-नारी भयभीत हो गए और गायें व अन्य पशु ग्राम छोड़ कर भाग गए।
स्थिति अत्यन्त भयंकर हो गई और वृन्दावन के सब निवासी आर्तनाद करार "कृष्ण! कृष्ण! हमारी रक्षा करो।" श्रीकृष्ण ने गायों को भागते हुए देखा और तत्काल उत्तर दिया, "डरो मत, डरो मत।" फिर उन्होंने अरिष्टासुर के साथ उपस्थित होकर कहा, “तुम जीवात्माओं में निकृष्टतम हो। तुम गोकुल के निवासियों को क्यों भयभीत कर रहे हो? तुम्हें इस कार्य से क्या प्राप्त होगा? यदि तम मेरी सत्ता को चुनौती देने के लिए आए हो, तो मैं तुमसे युद्ध करने को तत्पर हूँ।" इस प्रकार श्रीकृष्ण ने उस असुर को चुनौती दी। उनके इन शब्दों को सुन कर वह असर अत्यन्त क्रोधित हो उठा। श्रीकृष्ण अपने एक सखा के कंधे पर हाथ रख कर उस साँड के सामने खड़े थे। क्रोधित साँड़ श्रीकृष्ण की ओर बढ़ने लगा। अपने खुरों से धरती खोदते हुए अरिष्टासुर ने अपनी पूँछ ऊपर उठाई। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेघ उसकी पूँछ पर मँडरा रहे हों। उसके नेत्र लाल थे और क्रोध में इधर-उधर घूम रहे थे। अपने सींगो को श्रीकृष्ण की ओर करके उसने इन्द्र के वज्र की भाँति उन पर आक्रमण कर दिया। किन्तु श्रीकृष्ण ने तत्काल ही उसके सींग पकड़ कर उसे उठाकर दूर फेंक दिया जैसे एक विशालकाय हाथी ने एक लघु विरोधी हाथी को दूर फेंक देता है। यद्यपि असुर अत्यन्त थका प्रतीत होता था और पसीने से लतपत था फिर भी वह साहस करके उठा। उसने अत्यधिक क्रुद्ध हो कर पुनः श्रीकृष्ण पर अत्यन्त वेग से आक्रमण किया। श्रीकृष्ण की ओर दौड़ते हुए वह दीर्घ श्वासें ले रहा था। श्रीकृष्ण ने पुन: उसके सींगों को पकड़ लिया और तत्काल उसे धरती पर पटक दिया जिस से उसके सींग टूट गए। तदुपरान्त श्रीकृष्ण उसके शरीर पर इस प्रकार पदाघात करने लगे जैसे कोई गीले वस्त्र को धरती पर निचोड़े। इस प्रकार श्रीकृष्ण के पदाघात करने से अरिष्टासुर उलट गया और तीव्रता से अपने पैर चलाने लगा। उसके नेत्र पथरा गए। रक्तस्राव करता हुआ तथा मलमूत्र का त्याग करता हुआ वह यमलोक को सिधार गया।
इस आशचर्यजनक उपलब्धि के लिए देवगण स्वर्गलोक से श्रीकृष्ण पर पुष्पवर्षा करने लगे। श्रीकृष्ण पहले से ही वृन्दावन-निवासियों के सर्वस्व थे। साँड रूपी इस असुर का उद्धार करने के पश्चात् वे सबकी आँखों का तारा बन गए। विजय पाने के बाद उन्होंने बलराम सहित ग्राम में प्रवेश किया। ग्रामवासियों ने अत्यन्त आनन्दपूर्वक उनका और बलरामजी का यशगान किया। किसी के द्वारा कोई आश्चर्यजनक कार्य सम्पादित करने पर उसके बन्धु-बान्धव, सम्बन्धी और मित्र श्रीकृष्ण को लाने के लिए कंस का अक्रूर को भेजना स्वाभाविक रूप से अत्यन्त हर्षित हो उठते हैं।
इस घटना के पश्चात् ही नारद मुनि ने कंस को श्रीकृष्ण का रहस्योद्घाटन कर दिया। नारद मुनि को साधारणतया देवदर्शन कहा जाता है। इसका अर्थ है कि देवगण अथवा उनके स्तर के व्यक्ति ही नारद मुनि का दर्शन कर सकते हैं। किन्तु नारद मुनि कंस के पास गए, जिसे देवताओं के स्तर का न होते हुए भी नारद मुनि ने दर्शन दिए । निस्सन्देह कंस ने तो श्रीकृष्ण के भी दर्शन किए, फिर नारद मुनि का कहना ही क्या? साधारणतया भगवान् एवं उनके भक्तों का दर्शन करने के लिए शुद्ध दृष्टि होनी आवश्यक है अन्यथा वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता। किन्तु यह भी सत्य है कि किसी शुद्ध भक्त से सम्पर्क होने पर एक इन्द्रियातीत लाभ होता है, जिसे अज्ञातसुकृति कहते हैं। जिसे यह लाभ होता है, वह यह नहीं समझ पाता है कि उसकी प्रगति किस प्रकार हो रही है, फिर भी वह प्रभु के भक्त के दर्शन-मात्र से प्रगति करता है। नारद मुनि का ध्येय कार्य को शीघ्रातिशीघ्र समाप्त करना था। श्रीकृष्ण असुरों का उद्धार करने के लिए प्रकट हुए थे और कंस असुरों में प्रमुख था। नारद मुनि घटनाओं की गति में तीव्रता लाना चाहते थे। इसी उद्देश्य से वे समस्त वास्तविक वृतान्त के साथ कंस के पास गए। नारद जी ने कंस को बताया, “वसुदेव जी का आठवाँ पुत्र तुम्हें मारेगा और वह आठवाँ पुत्र श्रीकृष्ण हैं। वसुदेवजी ने अपनी आठवीं सन्तान को लड़की बताकर तुम्हें भ्रमित किया है। वास्तव में वह कन्या नन्द महाराज की पत्नी यशोदा की पुत्री थी। वसुदेव जी ने उस कन्या को श्रीकृष्ण से बदल दिया था जिससे तुम्हें भ्रान्त किया गया। बलराम जी की भाँति श्रीकृष्ण भी वसुदेव जी के ही पुत्र हैं। वसुदेव जी तुम्हारे दुष्ट स्वभाव से भयभीत थे। अतः उन्होंने चतुराई से अपने पुत्रों को तुम्हारी दृष्टि से दूर वृन्दावन में छुपा दिया है। श्रीकृष्ण और बलराम जी अज्ञात रूप से नन्द महाराज की छत्र-छाया में रह रहे हैं। तुम्हारे साथी सभी असुर, जिनको तुमने विभिन्न बालकों को मारने के लिए वृन्दावन भेजा था, श्रीकृष्ण और बलराम जी के द्वारा मारे गए हैं।"
नारद मुनि से यह वृत्तान्त प्राप्त होते ही कंस ने अपनी धारदार तलवार निकाल ली और इस कपट के लिए वह वसुदेव जी को मारने के लिए तत्पर हो गया। किन्तु नारद मुनि ने उसे शान्त किया, "तुम्हें मारने वाले वसुदेव जी नहीं हैं, फिर उन्हें मारने को आतुर क्यों हो? अच्छा यह होगा कि तुम श्रीकृष्ण और बलराम जी की हत्या करने का प्रयास करो।" किन्तु अपने क्रोध को शान्त करने के लिए कंस ने वसुदेव जी और उनकी पत्नी को बन्दी बना लिया। और उन्हें लोहे की जंजीरों से बाँध दिया। नारदमुनि द्वारा प्राप्त ताज़ा जानकारी पर कार्य करते हुए कंस ने तत्काल की नामक असुर को बुलाया और श्रीकृष्ण और बलराम जी को मारने के लिए वृन्दावन भेज दिया। वास्तव में कंस ने केशी को वृन्दावन इसलिए भेजा था कि श्रीकृष्ण और बलराम के हाथों उसका उद्धार हो और इस प्रकार वह मोक्ष प्राप्त कर ले। तदुपरान्त कंस ने अपने कुशल महावतों को एवं चाणूर, मुष्टिक, शल और तोशल आदि मल्लयोद्धाओं को बुलाया। उसने उनसे कहा, "प्रिय मित्रो! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो। वृन्दावन में नन्द महाराज के भवन में दो भाई रहते हैं। उनके नाम कृष्ण और बलराम हैं। वे दोनों वास्तव में वसुदेव जी के पुत्र हैं। जैसाकि तुम्हें ज्ञात है, एक भविष्यवाणी के अनुसार मेरी मृत्यु कृष्ण के हाथों होने वाली है। अब मैं तुमसे निवेदन करता हूँ कि तुम एक मल्लयुद्ध का आयोजन करो। देश के विभिन्न भागों से लोग यह उत्सव देखने आयेंगे। मैं उन दोनों बालकों को यहाँ बुलवाने का प्रबन्ध कर दूंगा। तुम लोग मल्लयुद्ध की रंगभूमि में उनका वध करने का प्रयास करना।"
उत्तर भारत में मल्लयुद्ध अभी भी लोकप्रिय है। श्रीमद्भागवत के अनुसार आज के पाँच हजार वर्ष पूर्व भी मल्लयुद्ध लोकप्रिय था। कंस ने भी मल्लयुद्ध का आयोजन किया तथा लोगों को उसमें आमंत्रित करने की योजना बनाई। उसने महावतों से भी कहा, "कुवलयापीड़ नामक हाथी को अवश्य लाओ और उसे रंगभूमि के द्वार पर रखो। कृष्ण और बलराम के आते ही उन्हें बन्दी बनाने का प्रयास करो और हाथी द्वारा उनका वध करवा दो।"
कंस ने अपने मित्रों को पशुबलि द्वारा शिवजी की पूजा एवं धनुर्यज्ञ का आयोजन करने का भी परामर्श दिया। उसने उन्हें चतुर्दशी का यज्ञ सम्पन्न करने को कहा। यह तिथि एकादशी के तीन दिन पश्चात् आती है और शिवजी की आराधना के लिए उपयुक्त मानी गई है। शिवजी का एक अंश कालभैरव के नाम से भी प्रसिद्ध है। असुरगण शिवजी के इसी रूप की उपासना करते हैं और उनके समक्ष पशुबलि देते हैं। वैद्यनाथधाम नामक स्थान पर यह प्रथा अभी भी प्रचलित है। असुर लोग वहाँ कालभैरव की मूर्ति के समक्ष पशुबलि देते हैं। कंस भी इसी असुर समूह में से एक था। वह एक चतुर कूटनीतिज्ञ भी था। अत: उसने अपने असुर मित्रों के द्वारा कृष्ण और बलराम के वध का शीघ्र ही प्रबन्ध कर लिया।
तत्पश्चात् उसने अक्रूर को बुलाया। जो उसी यदुवंश के वंशज थे जिसमें श्रीकृष्ण को लाने के लिए कंस का अक्रूर को भेजना २८१ श्रीकृष्ण ने वसुदेव-पुत्र के रूप में जन्म लिया था। जब अक्रूर जी कंस से भेंट करने आए, कंस ने उनका विनयपूर्वक स्वागत किया। कंस ने उनसे कहा, “प्रिय अक्रूर जी! भोज और यदु राजवंशों में आपसे श्रेष्ठ मेरा अन्य कोई मित्र नहीं है। आप अत्यन्त उदार व्यक्ति हैं। अत: एक मित्र के रूप में मैं आपसे दान की भिक्षा माँगता हूँ। जिस प्रकार राजा इन्द्र भगवान् श्रीविष्णु की शरण में जाते हैं, उसी प्रकार मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैं आपसे तत्काल वृन्दावन जाने का निवेदन करता हूँ। वहाँ जाकर आप कृष्ण और बलराम नामक दो बालकों के विषय में जानकारी प्राप्त कीजिए। वे नन्द महाराज के पुत्र हैं। उन बालकों के लिए ही विशेष रूप से निर्मित यह रथ ले जाइए और उन्हें तुरन्त यहाँ ले आइए। मेरी आपसे यही विनती है। मेरी योजना इन दोनों बालकों का वध करने की है। जैसे ही वे मुख्य द्वार से अन्दर प्रविष्ट होंगे, कुवलयापीड़ नामक विशालकाय हाथी उनकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। वह सभ्भवतः उनकी हत्या करने में समर्थ होगा। किन्तु यदि वे किसी प्रकार सुरक्षित निकल आए तो फिर उनकी भेंट मल्लयोद्धाओं से होगी। वे योद्धा अवश्य ही उनकी हत्या कर देंगे। यही मेरी योजना है। इन दो बालकों का वध करने के पश्चात् मैं नन्द और वसुदेव जी का भी वध कर दूंगा, क्योंकि वे वृष्णि और भोज राजवंशों के पक्ष में हैं। मैं अपने पिता उग्रसेन और उनके भाई देवक का भी वध कर दूंगा, क्योंकि वास्तव में वे मेरे शत्रु हैं एवं मेरी कूटनीति और राजनीति के मार्ग में बाधक हैं। इस रीति से मैं अपने सब शत्रुओं से मुक्ति पा लूँगा। जरासन्ध मेरे श्वसुर हैं और द्विविद नामक विशाल वानर मेरा मित्र है। उनकी सहायता से मैं देवताओं के समर्थक पृथ्वी के सभी राजाओं की सरलता से हत्या कर दूंगा। यही मेरी योजना है। इस प्रकार मैं सभी विरोधियों से मुक्ति पा लूँगा। तत्पश्चात् पृथ्वी पर निर्विघ्न रूप से आनन्दपूर्वक राज्य करने में अत्यन्त आनन्द आएगा। आपको यह भी ज्ञात होगा कि शंबर, नरकासुर एवं बाणासुर मेरे घनिष्ठ मित्र हैं। जब मैं देवताओं के समर्थक राजाओं से युद्ध प्रारम्भ करूँगा तब वे मेरी अभीष्ट सहायता करेंगे। निश्चय ही मुझे तब शत्रुओं से मुक्ति मिल जाएगी। कृपया आप तत्काल वृन्दावन जाइए और बालकों को यहाँ ले आइए। उन्हें मथुरा के सौन्दर्य एवं मल्लयुद्ध प्रतियोगिता का आनन्द लेने के लिए यहाँ आने के लिए उत्साहित कीजिए।
कंस की इस योजना को सुन कर अक्रूरजी ने उत्तर दिया, "प्रिय राजन्! कूटनीतिक गतिविधियों के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर विजय पाने के लिए आपने अत्यन्त कुशलता से योजना बनाई है। किन्तु आपको विवेक भी बनाए रखना चाहिए, क्योंकि आपकी योजना फलदायी हो भी सकती है और नहीं भी। योजना बनाता है, किन्तु अन्ततः उसकी पूर्ति ईश्वराधीन है। हम बड़ी-बडी यो बना सकते हैं, किन्तु जब तक श्रीभगवान् (परमसत्ता) उसकी अनुमति नहीं देने की वे सब असफल हो जाएँगी। इस भौतिक जगत में सबको पता है कि अलौकि शक्ति ही परम कर्ता-धर्ता है। अपने उर्वर मस्तिष्क से कोई कितनी ही भी विशाल योजना क्यों न बनाए है, किन्तु उसे यह भी ज्ञात होना चाहिए कि सकाम कर्म के फलस्वरूप दुख या सुख का भागी भी उसे होना पड़ेगा। किन्तु मुझे आपके प्रस्ताव के विरोध में कुछ नहीं कहना है। एक मित्र के रूप में मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा और आपकी इच्छा के अनुरूप मैं श्रीकृष्ण और बलराम जी को यहाँ ले आऊँगा!"
अपने मित्रों को विविध प्रकार से निर्देश देने के पश्चात् कंस ने विश्राम ग्रहण किया और अक्रूर जी वृन्दावन चले गए।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "श्रीकृष्ण को लाने के लिए कंस का अक्रूर को भेजना" नामक छत्तीसवां अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
 
 
 
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