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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 37: असुर केशी एवं व्योमासुर का उद्धार  » 
 
 
 
 
 
कंस का निर्देश पाकर असुर केशी ने एक भयंकर अश्व का रूप धारण कर कलिया। उसने वृन्दावन के क्षेत्र में मन की गति से प्रवेश किया। उसकी बड़ी सी अयाल उड़ रही थी एवं उसके खुर धरती को कुरेद रहे थे। वह हिनहिनाने लगा एवं सम्पूर्ण जगत को भयभीत करने लगा। श्रीकृष्ण ने देखा कि वह असुर अपनी पूँछ को एक विशाल मेघ की भाँति हवा में घुमा कर एवं अपनी हिनहिनाहट से सभी वृन्दावन निवासियों को भयभीत कर रहा है। श्रीकृष्ण समझ गए कि वह अश्व उन्हें युद्ध के लिए चुनौती दे रहा है। भगवान् ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली और असुर केशी के सम्मुख खड़े हो गए। जब उन्होंने उसे युद्ध के लिए ललकारा, तो वह अश्व सिंह गर्जना के समान भयंकर शब्द करता हुआ श्रीकृष्ण की ओर अग्रसर हुआ। केशी भगवान् की ओर वेग से दौड़ा। उसके जबड़े पूरी तरह खुले थे मानो वह सारे आकाश को निगल जाएगा। अपने शक्तिशाली, उग्र एवं शिला की भाँति कठोर पैरों से उसने श्रीकृष्ण को कुचलने का प्रयास किया। किन्तु श्रीकृष्ण ने तत्क्षण उसके पैरों को पकड़ लिया और इस प्रकार उसे व्यग्र कर दिया। कुछ क्रोधित होकर श्रीकृष्ण निपुणता से उस अश्व को चारों ओर घुमाने लगे। कुछ प्रदक्षिणाओं के पश्चात् उन्होंने उसे इस प्रकार सौ गज दूर फेंक दिया जैसे गरुड़ एक विशाल सर्प को फेंकता है। श्रीकृष्ण द्वारा फेंके जाने पर वह अश्व तत्काल चेतना हो गया। किन्तु कुछ काल पश्चात् उसकी चेतना लौटी और अत्यन्त क्रोध एवं से वह फिर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। इस बार उसका मुख खुला हुआ था। जैसे ही केशी उनके निकट आया, उन्होंने अपना बायाँ हाथ अश्व के मुख में डाल दिया। ऐसा लगता था जैसे एक बड़ा सर्प किसी खेत के निह में घुस गया हो। अश्व को इससे अत्यन्त कष्ट हुआ, क्योंकि उसे श्रीकृष्ण का हाथ तप्त लौह शलाका के समान प्रतीत हुआ। तत्क्षण उसके दाँत बाहर गिर पड़े। श्रीकृष्ण का हाथ उस अश्व के मुख में विस्तार पाने लगा और केशी का कंठ अवरुद्ध होने लगा। जैसे-जैसे उस विशाल अश्व की सांस अवरुद्ध होने लगी उसके शरीर में पसीना आने लगा, वह अपने पैर इधर-उधर फेंकने लगा। उसकी अन्तिम सांस घुटने के साथ ही उसके नेत्र पथरा गए एवं उसने एकसाथ मल-मूत्र त्याग दिया। इस प्रकार उसकी प्राणशक्ति समाप्त हो गई। अश्व के मरने पर उसका मुख शिथिल हो गया एवं श्रीकृष्ण ने अत्यन्त सरलता से अपना हाथ बाहर निकाल लिया। उन्हें इतनी सरलता से असुर के प्राणान्त होने पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ, किन्तु आकाश में देवगण चकित हो गए और अपना अत्यन्त आभार व्यक्त करने के लिए उन्होंने पुष्पवर्षा के द्वारा श्रीकृष्ण का अभिनन्दन किया।
इस घटना के पश्चात् भक्तशिरोमणि नारदमुनि श्रीकृष्ण से एकान्त स्थान पर भेंट करने आए और उनसे वार्तालाप करने लगे। उन्होंने कहा, "मेरे प्रिय भगवान् श्रीकृष्ण! आप अनन्त परमात्मा हैं; आप समस्त योगिक शक्तियों के परम नियंत्रक, अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी एवं सर्वव्यापी श्रीभगवान् हैं। समस्त भौतिक सृष्टि आप ही में लय हो जाती है; आप सब भक्तों के स्वामी एवं सबके प्रभु हैं। मेरे प्रिय भगवान् ! समस्त जीवात्माओं के परमात्मा के रूप में आप उनके हृदय में उसी भाँति छुपे रहते हैं जैसे ईंधन के प्रत्येक टुकड़े में अग्नि छिपी रहती है। आप जीवात्माओं के सब कर्मों के साक्षी हैं और उनके हृदयों में स्थित आप उनके परम नियंत्रक हैं। आप आत्म-निर्भर हैं, सृष्टि के पूर्व भी आप स्थित थे और आपने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण भौतिक जगत की सृष्टि की है। आपकी पूर्ण योजना के अनुसार, प्रकृति के गुणों की क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा इस भौतिक जगत की सृष्टि हुई है। आप ही के द्वारा इसका पालन होता है और आप ही के द्वारा नाश होता है। यद्यपि आप इन सब गतिविधियों से अप्रभावित रहते हैं तथापि आप ही शाश्वत रूप से परम नियंत्रक है। मेरे प्रिय भगवान् ! आपने इस विश्व में केवल उन तथाकथित राजाओं को मारने के लिए अवतार लिया है, जो वास्तव में असुर हैं । ये राक्षस राजकुमारों के वेश में लोगों असुर केशी एवं व्योमासुर का उद्धार २८५ मोल रहे हैं। आपने अपना यह वचन पूर्ण करने के लिए इस धरती पर अवतार लिया है कि आप केवल धर्म की रक्षा एवं अवाञ्छित दुष्कर्मियों के संहार के लिए ही इस भौतिक जगत में आते हैं। अतएव मेरे प्रिय भगवान् ! मुझे विश्वास है कि चाणूर, मुष्टिक जैसे असुरों, अन्य मल्लयोद्धाओं, हाथियों एवं स्वयं कंस को आपके द्वारा मारे जाते हुए परसों मैं देखूंगा। यह दर्शन मैं अपने नेत्रों से करूँगा। इसके पश्चात् मैं शंख, यवन, मुर एवं नरकासुर जैसे अन्य असुरों का मारा जाना भी देखने में समर्थ होऊँगा। आप स्वर्ग की राजधानी से पारिजात पुष्प कैसे ले जाते हैं एवं स्वयं स्वर्ग लोक के राजा इन्द्र को आप कैसे पराजित करते हैं, यह दर्शन भी मैं करूँगा।"
नारद मुनि ने आगे कहा, "मेरे प्रिय भगवान् ! तदनन्तर आप किस प्रकार शूरवीर भूपालों की कन्याओं अर्थात् राजकुमारियों से क्षत्रिय शौर्य का मूल्य चुका कर विवाह करते हैं, यह दर्शन करने में भी मैं समर्थ होऊँगा।" जब कभी कोई क्षत्रिय एक सम्राट की अनिंद्य सुन्दरी एवं गुणवती कन्या से विवाह की अभिलाषा करता है, तो उसे अपने प्रतियोगियों से युद्ध करके विजयी होना पड़ता है। तभी उसे राजकन्या का हाथ दान में प्राप्त होता है।
नारद मुनि ने कहा "मैं यह भी देखूंगा कि आप किस प्रकार राजा नृग को नारकीय स्थिति से मुक्ति दिलाते हैं; यह कार्य आप द्वारका में सम्पादित करेंगे। आप अपनी पत्नी एवं स्यमंतक मणि को किस प्रकार प्राप्त करते हैं इस दृश्य का दर्शन करने में भी मैं समर्थ होऊँगा। किस प्रकार आप परलोक चले जाने के पश्चात् भी एक ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु से रक्षा करते हैं, यह भी मैं देखूंगा। तदनन्तर पौण्ड्रक असुर के मारे जाने एवं काशी की राजधानी को जलाकर भस्मसात् किए जाने के समय भी आपके दर्शन मैं करूँगा। महाराज युधिष्ठिर के महान् यज्ञ के समय चेदि राजा एवं दन्तवक्र का वध करते हुए आपके दर्शन मैं करूँगा। इनके अतिरिक्त भी आपके द्वारकावास के काल में आपके अनेक शौर्यपूर्ण कार्यों के दर्शन करना मेरे लिए सम्भव होगा। आपके अनुग्रह से सम्पादित इन सब लीलाओं का सारे विश्व में महान् कवियों द्वारा गान किया जाएगा। कुरुक्षेत्र के युद्ध में आप अपने मित्र अर्जुन के सारथी के रूप में भाग लेंगे एवं अजेय मृत्यु के अवतार, शाश्वत महाकाल के रूप में, आप वहाँ एकत्र समस्त योद्धाओं का नाश कर देंगे। मैं अत्यन्त विशाल सेनाओं को रणभूमि में मारे जाते हुए देलूँगा। मेरे भगवान् ! मैं आपके चरणकमलों में सादर प्रणाम अर्पित करता हूँ। आप पूर्ण रूप से पूर्ण ज्ञान एवं आनन्द की दिव्य स्थिति में अवस्थित हैं । आप सब इच्छाओं को पूरा करने में पूर्ण हैं । अपनी अन्तरंगा शक्ति के प्रदर्शन के द्वारा आपने माया का प्रभाव स्थापित कर दिया है। आपकी अनन्त अपार है। उसका कोई पार नहीं पा सकता। मेरे प्रिय भगवान् ! आप परम निक हैं। आप अपनी ही अन्तरंगा शक्ति के अधीन हैं, एवं यह सोचना कि आप अपनी किसी सृष्टि पर निर्भर हैं, एकदम व्यर्थ है।
"आपने यदुवंश में अथवा वृष्णि वंश में जन्म लिया है। मूल सच्चिदानन्द के रूप में भूतल पर आपका अविर्भाव आपकी स्वयं की ही लीला है। आप स्वयं के अतिरिक्त अन्य किसी पर निर्भर नहीं हैं; अतएव आपके पादपद्मों में मैं आदरपर्वक प्रणामांजलि अर्पित करता हूँ।" भगवान् कृष्ण को सादर प्रणाम करने के बाद नारद मुनि आज्ञा ले कर वहाँ से विदा हो गए।
नारद मुनि जनसाधारण को यह प्रतीति करा देना चाहते थे कि श्रीकृष्ण पूर्णत: स्वतंत्र हैं। यदुवंश में उनका अविर्भाव अथवा अर्जुन से उनकी मैत्री आदि उनके कर्म उन्हें आवश्यक रूप से उन कर्मों का फल भोगने को बाध्य नहीं करते हैं। वे सब उनकी क्रीड़ाएँ हैं और यह सब उनके लिए खेल है। किन्तु हमारे लिए, वे वास्तविक एवं प्रामाणिक तथ्य हैं।
असुर केशी का उद्धार करने के पश्चात् श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ वन में गाएँ चराने के लिए इस प्रकार चले गए जैसे कोई नूतन घटना ही घटी न हो। श्रीकृष्ण अपने सखाओं, ग्वालबालों एवं गोपियों के साथ शाश्वत रूप से दिव्य गतिविधियों में रत रहते हैं। परन्तु कभी-कभी विभिन्न प्रकार के असुरों के वध के द्वारा वे श्रीभगवान् की असाधारण शक्ति का प्रदर्शन करते हैं।
उस दिन प्रात:काल, से कुछ समय बाद श्रीकृष्ण अपने ग्वाल बालसखाओं के साथ गोवर्धन पर्वत पर क्रीड़ा करने गए। वे चोर एवं सिपाही का अभिनय करने का खेल खेल रहे थे। कुछ बालक सिपाही बन गए, कुछ चोर एवं कुछ बालक भेड़ें बन गए। जब वे इस प्रकार अपनी बाल-लीलाओं का आनन्द ले रहे थे तभी “आकाश में उड़ने वाला" व्योमासुर नामक एक असुर वहाँ आया। वह एक दूसरे महान् दैत्य मय का पुत्र था। ऐसे असुर अद्भुत जादू कर सकते हैं। व्योमासुर ने चोर का अभिनय करने वाले एक बालक का रूप धारण कर लिया एवं भेड़ बने हुए अनेक बालकों को उठा ले गया। एक के पश्चात् एक वह लगभग सभी बालकों को उठा ले गया और उन्हें पर्वत की कन्दराओं में रख कर कन्दराओं का मुख शिलाओं से बन्द कर दिया। श्रीकृष्ण उस असुर के छल को समझ गए; अतएव उन्होंने उसे उसी प्रकार धर लिया जैसे कोई सिंह भेंड़ को दबोच लेता है। असुर ने अपने को पर्वत की भाँति विस्तृत करके बन्धन से बचने का प्रयास किया, किन्तु श्रीकृष्ण ने उसे अपने बन्धन से निकलने नहीं दिया। श्रीकृष्ण ने उसे तत्काल अत्यन्त उग्रता से धरती पर पटक दिया जिससे उसके प्राण-पखेरू उसी प्रकार उड़ गए जैसे वधशाला में किसी पशु का प्राणान्त हो जाता है। व्योमासुर को मारने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने अपने सभी सखाओं को गिरिकन्दराओं में से मुक्त किया। तत्पश्चात् उनके सखाओं एवं देवताओं ने इन आश्चर्यजनक कर्मों के लिए उनकी स्तुति की। तदनन्तर वे अपने सखाओं एवं गौवों के साथ पुनः वृन्दावन लौट गए।
इस प्रकार लीला पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "असुर केशी एवं व्योमासुर का उद्धार" नामक सैंतीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
 
 
 
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