नारद मुनि ने श्रीकृष्ण द्वारा व्योमासुर के उद्धार का उल्लेख नहीं किया था, | जिसका तात्पर्य यह है कि उसका उद्धार उसी दिन हुआ था जिस दिन असुर केशी का। असुर केशी का उद्धार प्रात:काल हुआ था, और तदुपरान्त सभी बालक गोवर्धन पर्वत पर गौएँ चराने हेतु गए एवं व्योमासुर का उद्धार वहीं पर हुआ। दोनों ही असुरों का उद्धार प्रात:काल हुआ था। कंस ने अक्रूर जी से संध्याकाल तक वृन्दावन पहुँचने की प्रार्थना की थी। कंस का निर्देश प्राप्त करने के उपरान्त दूसरे दिन प्रात:काल अक्रूर जी ने रथ द्वारा वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया। वृन्दावन जाते हुए अक्रूर जी श्रीभगवान् का यशोगान करने लगे, क्योंकि वे स्वयं भी श्रीभगवान् के महान् भक्त थे। भक्तगण सदैव श्रीकृष्ण के चिन्तन में निमग्न रहते हैं, एवं अक्रूर जी निरन्तर श्रीकृष्ण के कमलनयनों का चिन्तन कर रहे थे।
उन्हें ज्ञात नहीं था कि किन पुण्यकर्मों के फलस्वरूप उन्हें उस दिन श्रीकृष्ण तथा बलराम के दर्शनार्थ वृन्दावन जाने का सुअवसर प्राप्त हो रहा था। शुद्र भक्त कृष्ण के सेवा के लिए अपने आप को सदा अयोग्य समझता है। अत: अक्रूर जी में सोचने लगे कि वे भगवान् के दर्शन का दिव्य अवसर पाने के योग्य नहीं है ऐसा वे इसलिए सोच रहे थे जैसे एक भौतिकतावादी मनुष्य भगवद् ज्ञान समझने में था अनर्थ श्रेणी का व्यक्ति (शुद्र) वेदाध्ययन के लिए अयोग्य होता है। किन्तु फिर अकर जी सोचने लगे, “कृष्ण की कृपा से सबकुछ सम्भव है; अत: यदि उनकी इच्छा होगी तो मैं उनके दर्शन कर सकूँगा। जिस प्रकार नदी की लहरों पर तैरता घास का तिनका तट पर आकर संरक्षण पाने का सुअवसर प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार कोई भौतिकतावादी व्यक्ति कभी कभी कृष्ण-कृपा से बचाया जा सकता है। "अक्रूर जी ने विचार किया कि यदि श्रीकृष्ण की इच्छा होगी, तो वे उनके दर्शन करने में सफल होंगे। जिनके दर्शनों के हेतु महान् योगीगण लालायित रहते हैं, उन श्रीकृष्ण का वे दर्शन करेंगे, यह सोच कर अक्रूर जी ने स्वयं को परम भाग्यवान् समझा। उन्हें विश्वास था कि उस दिन श्रीकृष्ण के दर्शन मात्र से उनके गत जीवन के सभी पापों के फल नष्ट हो जाएँगे एवं भाग्य से प्राप्त उनकी मानव योनि कृतार्थ हो जाएगी। कंस उन्हें श्रीकृष्ण एवं बलराम जी को लाने के लिए भेज कर उन्हें भगवद् दर्शन का अवसर दे रहा था, इसे भी वह स्वयं के प्रति कंस का विशेष पक्षपात समझ रहे थे। अक्रूर जी विचार कर रहे थे कि प्राचीन काल में साधुगणों एवं सन्तजनों ने श्रीकृष्ण के पादपद्मों के प्रभापूर्ण नखों के दर्शन-मात्र से भौतिक जगत से मुक्ति प्राप्त कर ली थी।
अक्रूर जी ने विचार किया, "श्रीभगवान् अब एक साधारण मानव के रूप में अवतरित हुए हैं और यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैं उनका प्रत्यक्ष दर्शन करने में समर्थ होऊँगा।" शिवजी, नारद जी, ब्रह्माजी आदि महान् देवता जिनकी वन्दना करते हैं, गोपिकाओं के कुमकुममण्डित स्तनों का स्पर्श करने वाले एवं वृन्दावन की भूमि पर विचरण करने वाले श्रीकृष्ण के उन चरणकमलों के दर्शन की आशा-मात्र से अक्रूर जी अत्यन्त रोमाञ्चित हो उठे। उन्होंने सोचा, "मैं इतना भाग्यवान् हूँ कि आज उन्हीं चरणारविन्दों का दर्शन कर सकूँगा। तिलक से विभूषित ललाट एवं नासिका वाले श्रीकृष्ण के सुन्दर मुख का दर्शन भी मैं निश्चित रूप से कर सकूँगा। आज मैं उनके हास्य एवं काली अलकों के भी दर्शन करूँगा। यह सुअवसर प्राप्त होने का मुझे पूर्ण विश्वास है, क्योंकि मृग आज मेरे दाहिनी ओर से जा रहे हैं और यह एक मांगलिक लक्षण है। आज मेरे लिए विष्णु लोक के दिव्य धाम की शोभा का वास्तव में अवलोकन करना सम्भव होगा, क्योंकि श्रीकृष्ण परम विष्णु हैं और उन्होंने अपनी ही सदिच्छा से अवतार लिया है। वे सौन्दर्य-सिन्धु हैं; अतएव आज मेरे नयन तृप्त हो जाएँगे।"
अक्रूर जी को निस्सन्देह रूप से ज्ञात था कि श्रीकृष्ण परम विष्णु हैं। भगवान् विष्णु प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं और इस प्रकार भौतिक सृष्टि का जन्म होता की यद्यपि भगवान् विष्णु इस भौतिक जगत के स्रष्टा हैं तथापि अपनी स्वयं की शक्ति के द्वारा वे प्रकृति के प्रभाव से मुक्त हैं। अपनी अन्तरंगा शक्ति से वे प्रकृति के अंधकार को भेद सकते हैं। आदि विष्णु श्रीकृष्ण ने उसी प्रकार से अपनी अन्तरंगा शक्ति के विस्तार से वृन्दावन के निवासियों की सृष्टि की। ब्रह्म-संहिता में यह भी पुष्ट किया गया है कि श्रीकृष्ण का धाम एवं वैशिष्ट्य उनकी अन्तरंगा शक्ति के विस्तार हैं। वही अन्तरंगा शक्ति जो वे गोकुल वृन्दावन में प्रदर्शित करते है। पृथ्वी पर वृन्दावन के रूप में प्रदर्शित हुई, जहाँ वे अपने माता-पिता, अपने सखाओं, ग्वालबालों एवं गोपिकाओं के सान्निध्य में आनन्द भोग करते हैं । अक्रूर जी के कथन से स्पष्ट है कि चूँकि श्रीकृष्ण प्रकृति के गुणों से परे, दिव्य हैं, अतः श्रीभगवान् की प्रेमपूर्ण सेवा में संलग्न वृन्दावनवासी भी दिव्य हैं।
अक्रूर जी ने श्रीभगवान् की दिव्य लीलाओं की आवश्यकता के विषय पर भी विचार किया। उन्होंने विचार किया कि श्रीकृष्ण के दिव्य कार्यकलाप, निर्देश, गुण, एवं लीलाएँ समस्त जनसाधारण के सौभाग्य के लिए हैं। श्रीभगवान् के दिव्य रूप, गुणों, लीलाओं एवं वैशिष्ट्य की चर्चा के द्वारा मानव निरन्तर कृष्णभावनामृत में अवस्थित रह सकते हैं। ऐसा करने से अखिल ब्रह्माण्ड वस्तुतः मंगलपूर्वक रह सकता है एवं शान्तिपूर्वक प्रगति कर सकता है। किन्तु कृष्णभावनामृत के अभाव में सभ्यता एक मृत शरीर का अंलकारमात्र है। एक मृत शरीर का अलंकार-शृंगार किया जा सकता है, किन्तु चेतना के अभाव में यह साज-सज्जा व्यर्थ है। कृष्णभावनामृत के अभाव में मानव समाज व्यर्थ एवं प्राणहीन है।
अक्रूर जी ने विचार किया, "वे श्रीभगवान्, श्रीकृष्ण अब यदुवंश के एक वंशज के रूप में आविर्भूत हुए हैं। धार्मिक सिद्धान्त उनके द्वारा व्यवस्थापित नियम हैं । जो इन नियमों का पालन करते हैं, वे देवता हैं और जो इनका पालन नहीं करते हैं, वे असुर हैं। परमेश्वर के नियमों के प्रति अत्यन्त कर्तव्यपरायण देवताओं के रक्षण हेतु ही उन्होंने स्वयं को आविर्भूत किया है। देवता एवं प्रभु के भक्तगण श्रीकृष्ण के नियमों का पालन करने में सुख अनुभव करते हैं एवं श्रीकृष्ण उन्हें सर्व प्रकार की सुरक्षा प्रदान करने में सुख अनुभव करते हैं। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्ट किया गया है, भक्तों के रक्षण एवं असुरों के संहार के श्रीकृष्ण के इन कार्यकलापों का श्रवण एवं कथन सदैव ही मानव का कल्याण करते हैं। भक्तों एवं देवताओं के द्वारा भगवान् की इन तेजस्वी गतिविधियों के संकीर्तन में सदैव अभिवृद्धि होती रहेगी।"
"श्रीकृष्ण, श्रीभगवान्, सर्व गुरुओं के गुरु हैं। वे सभी पतितात्माओं को मोक्ष न करने वाले है एवं तीनों लोकों के स्वामी हैं। भगवत्प्रेम का अञ्जन लगा कर कोई भी उनका दर्शन कर सकता है। आज मैं श्रीभगवान् के दर्शन कर सकूँगा जिन्होंने अपने दिव्य सौन्दर्य से सौभाग्य की देवी श्रीलक्ष्मी जी को सतत अपने सान्निध्य में रहने को आकर्षित कर लिया है। सम्पूर्ण सृष्टि एवं जीवात्माओं के स्वामी परमेश्वर को प्रणामाञ्जलि अर्पित करने के लिए मैं वृन्दावन पहुँचते ही रथ से उतर जाऊँगा एवं भूमि पर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करूँगा। महान् योगीगण सदैव श्रीकृष्ण के पदारविन्दों की पूजा करते हैं, अतएव मैं भी उनके पदारविन्दों की वन्दना करूँगा एवं वृन्दावन में ग्वालबालों के समान उनके सखाओं में से एक बन जाऊँगा । जब मैं इस रीति से श्रीकृष्ण के समक्ष नमन करूँगा तब निश्चित रूप से वे अपना अभय हस्त-कमल मेरे मस्तक पर रख देंगे। उनके पदारविन्दों में शरण लेने वाली सभी बद्धात्माओं को उनका अभय हस्त प्राप्त होता है। भौतिक अस्तित्व से भयभीत सभी प्राणियों के लिए श्रीकृष्ण ही जीवन के चरम लक्ष्य हैं। जब मैं उनके दर्शन करूँगा तब निश्चित रूप से वे मुझे अपने चरणकमलों में शरण दे देंगे। मैं अपने मस्तक पर उनके करकमलों के स्पर्श का आकांक्षी हूँ।" जब उनके उस करकमल ने राजा इन्द्र और बलि को स्पर्श किया, वे ब्रह्माण्ड के स्वामी होने के योग्य बन गए और जब उसी कर-कमल ने गोपियों का स्पर्श किया जब वे रासलीला में कृष्ण के साथ नृत्य कर रही थी, तब उनकी सारी थकान दूर हो गई।
इस रीति से अक्रूर जी श्रीकृष्ण के हाथों से आशीर्वाद पाने की आशा करते थे। उन्हें ज्ञात था कि उच्चतर, मध्यम एवं निम्नतर तीनों लोकों के स्वामी एवं स्वर्गाधिपति इन्द्र ने श्रीकृष्ण को केवल जल अर्पित किया था, जिसे स्वीकर करके भगवान् ने उन्हें आशीर्वाद दिया था। उसी प्रकार बलि महाराज ने वामनदेव जी को केवल तीन पग भूमि एवं थोड़ा जल दान दिया था, जिसे वामनदेव जी ने स्वीकार कर लिया। उसी के फलस्वरूप बलि महाराज ने इन्द्र का स्थान प्राप्त किया। जब गोपियाँ श्रीकृष्ण के साथ रासनृत्य करते करते श्रमित हो गईं तब उनके मुख पर आए मुक्ता सदृश श्रमबिन्दुओं पर श्रीकृष्ण ने मानस सरोवर में उगे सुगन्धित कमल पुष्प की भाँति अपना हाथ फिराया और वे तत्क्षण विगतश्रम हो गईं। इस प्रकार अक्रूर जी श्रीकृष्ण के वरदहस्त से आशीर्वाद की आशा कर रहे थे। यदि वे कृष्णभावनामृत को अंगीकार कर लें, तो श्रीकृष्ण का वरदहस्त सभी प्रकार के मनुष्यों को आशीर्वाद देने में सक्षम है। यदि कोई इन्द्र की भाँति भौतिक सुखों की कामना करता है, तो श्रीकृष्ण के वरदहस्त से उसे वही वरदान उपलब्ध हो सकता है। यदि कोई एवं दिव्य कृष्ण-प्रेम में उनसे वैयक्तिक सम्पर्क एवं उनकी दिव्य देह के स्पर्श कामना करता है, तो उसे भी उनके वरदहस्त से वरदान प्राप्त हो सकता है।
इतने पर भी, अक्रूर जी श्रीकृष्ण के शत्रु कंस का प्रतिनिधि नियुक्त होने से भयभीत थे। उन्होंने विचार किया, "मैं श्रीकृष्ण का दर्शन उनके शत्रु के सन्देशवाहक के रूप में करने जा रहा हूँ।" उसी समय उन्होंने यह भी विचार किया कि "परमात्मा के रूप में श्रीकृष्ण प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करते हैं, अत: उन्हें अवश्य ही मेरी हृदयगत भावना का ज्ञान होगा।" यद्यपि अक्रूर जी को श्रीकृष्ण के शत्रु का विश्वास प्राप्त था, किन्तु उनका हृदय निर्मल था। वे श्रीकृष्ण के एक शुद्ध भक्त थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से भेंट करने के लिए ही कंस के संदेश वाहक बनने का खतरा उठाया था। उन्हें विश्वास था कि यद्यपि वे कंस के प्रतिनिधि के रूप में जा रहे थे, तथापि श्रीकृष्ण उन्हें एक शत्रु रूप में नहीं स्वीकारेंगे। "यद्यपि कंस के द्वारा प्रतिनिधि नियुक्त हो कर मैं एक पापपूर्ण दूतकर्म करने के हेतु जा रहा हूँ, परन्तु जब मैं श्रीभगवान् के सन्निकट जाऊँगा तब उनके सम्मुख पूर्ण विनम्रता से करबद्ध खड़ा होऊँगा। निश्चय ही मेरी भक्तिपूर्ण भावभंगिमा से वे प्रसन्न हो जाएँगे और सम्भवत: वे प्रेमपूर्ण मुसकान दें एवं मुझ पर एक दृष्टिपात कर दें और इस प्रकार मुझे सर्वप्रकार के पापों के फल से मुक्त कर दें। तब मैं दिव्य आनन्द एवं ज्ञान के मंच पर पहुँच जाऊँगा। चूँकि श्रीकृष्ण मेरे हृदय को जानते हैं, अत: जब मैं उनके निकट जाऊँगा, वे मेरा आलिंगन कर लेंगे। मैं न केवल यदुवंश का एक सदस्य हूँ, अपितु उनका सम्बन्ध और एक निष्कलंक विशुद्ध भक्त भी हूँ। उनके दयापूर्ण आलिंगन से मेरा शरीर, मेरा हृदय एवं आत्मा शुद्ध हो जाएँगे और मेरे विगत जीवन के कर्म एवं उसके फल पूर्ण रूप से धुल जाएँगे। जब वे मेरे शरीर को स्पर्श करेंगे तब मैं तत्क्षण विनयपूर्वक हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाऊँगा। तब श्रीकृष्ण एवं बलराम जी निश्चित रूप से मुझे 'अक्रूर चाचा' कह कर पुकारेंगे और उस समय मेरा समस्त जीवन धन्य हो जाएगा। जब तक श्रीभगवान् किसी को मान्यता न दें, उसका जीवन सफल नहीं होता है।"
यहाँ पर स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सबको अपनी सेवा तथा भक्ति से ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि श्रीभगवान् उन्हें मान्यता दें, क्योंकि इस मान्यता के अभाव में मानव योनि में जन्म निन्दित होता है। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, परमेश्वर श्रीभगवान् का प्राणी-मात्र के प्रति समभाव होता है। कोई उनका शत्रु है, २९३ मित्र। किन्तु भक्तिपूर्वक प्रेम से अपनी सेवा करने वाले भक्त की ओर उनकी रुचि होती है। भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि परमेश्वर भक्त के द्वारा की गई भक्ति-सेवा के प्रति सहानुभूति रखते हैं। अक्रूर जी ने विचार किया कि श्रीकृष्ण देवलोक के कल्पवृक्ष की भाँति हैं, जो पूजक के इच्छानुसार फल देता है। श्रीभगवान् सभी वस्तुओं के उद्गम भी हैं। एक भक्त को यह ज्ञात होना चाहिए कि किस प्रकार की सेवा करने से उसे प्रभु से मान्यता प्राप्त होगी। एतदर्थ चैतन्य चरितामृत में बताया गया है कि श्रीकृष्ण और गुरु की सेवा साथ-साथ करनी चाहिए और इस रीति से कृष्णभावनामृत में प्रगति करनी चाहिए। गुरु के निर्देश में की गई श्रीकृष्ण की सेवा ही प्रामाणिक सेवा है, क्योंकि गुरु श्रीकृष्ण के अभिव्यक्त प्रतिनिधि होते हैं । श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं कि जब कोई गुरु को सन्तुष्ट कर लेता है, तब वह परमेश्वर को सन्तुष्ट कर लेता है। यह ठीक किसी शासकीय कार्यालय में कार्य करने जैसा है। हमें विभागीय अध्यक्ष के निरीक्षण में कार्य करना होता है। यदि विभाग का निरीक्षक किसी व्यक्ति-विशेष के कार्य से सन्तुष्ट हो, तो उसकी पदोन्नति एवं वेतन-वृद्धि स्वयमेव हो जाती है।
तदनन्तर अक्रूर जी ने विचार किया, “जब श्रीकृष्ण एवं बलराम जी मेरे व्यवहार से प्रसन्न हो जाएँगे, तो निश्चिय ही वे मेरा हाथ पकड़ लेंगे, मुझे अपने घर के अन्दर ले जाएँगे और आदरपूर्वक मेरा अनेक प्रकार से आतिथ्य करेंगे। मुझसे कंस एवं उसके मित्रों की गतिविधियों के विषय में अवश्य ही प्रश्न करेंगे।"
इस प्रकार श्वफल्क के पुत्र अक्रूर जी ने मथुरा से यात्रा करते समय श्रीकृष्ण का ध्यान किया। दिवसावसान तक वे वृन्दावन पहुँच गए। श्रीकृष्ण के चिन्तन में लीन अक्रूर जी की समस्त यात्रा समय की गति का अनुभव किए बिना ही व्यतीत हो गई। जब वे वृन्दावन पहुँचे, सूर्यास्त हो रहा था। ज्योंही उन्होंने वृन्दावन की सीमा में प्रवेश किया उन्हें गोपद चिह्न एवं श्रीकृष्ण के पगचिह्नों के दर्शन हुए। श्रीकृष्ण के चरणचिह्न ध्वजा, त्रिशूल, वज्र एवं कमल पुष्पादि उनके पगतल के लक्षणों से युक्त थे। कृष्ण के दिव्य चरणकमलों के ये चिह्न तीनों लोकों में सभी देवताओं और अन्य महान् व्यक्तियों द्वारा पूजे जाते हैं। श्रीकृष्ण के पदचिह्नों के दर्शन होते ही वे रथ से नीचे कद पड़े और आनन्दातिरेक से उनका शरीर प्रकम्पित हो उठा एवं उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। श्रीकृष्ण के चरणकमलों के स्पर्श से पावन उस धूलि के दर्शन कर के हर्षातिरेक से अक्रूर जी मुख के बल धरती पर लोटने लगे।
अक्रूर जी की वृन्दावन-यात्रा आदर्श है । वृन्दावन-यात्रा का विचार रखने वाले को अक्रूर जी के आदर्श पदचिह्नों का अनुसरण करना चाहिए एवं सदैव श्रीकृष्ण ही गतिविधियों एवं लीलाओं का चिन्तन करना चाहिए। जैसे ही कोई वृन्दावन की सीमा पर पहुँचता है, उसे अपने भौतिक पद या प्रतिष्ठा का विचार किए बिना तत्काल वृन्दावन की पावन रज का अपनी देह पर आलेप करना चाहिए। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने अपने सुप्रसिद्ध गीत में गाया है-विषय छाडिया कवे शुद्ध हबे मन । इसका अर्थ है “इन्द्रिय-सुख के दूषण को त्याग देने के पश्चात् जब मेरा मन शुद्ध हो जाएगा तब मैं वृन्दावन की यात्रा करने में समर्थ होऊँगा।" वास्तव में केवल टिकट क्रय कर के कोई वृन्दावन नहीं जा सकता है। अक्रूर जी ने वृन्दावन जाने की प्रक्रिया को दर्शाया है।
जब अक्रूर जी ने वृन्दावन में प्रवेश किया तब उन्हें गोदोहन के निरीक्षण में व्यस्त श्रीकृष्ण एवं बलराम जी के दर्शन हुए। श्रीकृष्णजी ने पीताम्बर एवं बलराम जी ने नीलाम्बर धारण किया था। अक्रूर जी ने शरऋतु के पूर्ण विकसित कमलदल जैसे श्रीकृष्ण के नेत्रों का भी दर्शन किया। श्रीकृष्ण एवं बलराम जी यौवन के वसन्त में पदार्पण कर चुके थे। यद्यपि शारीरिक आकृति में दोनों में सादृश्य था, किन्तु वर्ण में श्रीकृष्ण श्यामल एवं बलराम जी गौरवर्ण के थे। दोनों ही सौभाग्य की देवी के आश्रय स्वरूप थे। उनके कर सौष्ठव से पूर्ण थे तथा मुख सुन्दर एवं शरीर पुष्ट था। वे गजों की भाँति बलशाली थे। उनके पदचिह्नों के दर्शनोपरान्त वास्तविक रूप से अक्रूर जी ने अब श्रीकृष्ण एवं बलराम जी के प्रत्यक्ष रूप से दर्शन किए। यद्यपि वे अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति थे फिर भी वे स्मितमुख उनकी ओर देख रहे थे। अक्रूर जी समझ गए कि श्रीकृष्ण एवं बलराम जी वन में गोचारण के पश्चात् लौटे हैं। उन्होंने स्नानोपरान्त नवीन वस्त्र, पुष्प मालाएँ एवं रत्नजटित कंठहार धारण किए हैं। उनके शरीर पर चन्दन का आलेप किया गया था। पुष्प, चन्दन एवं भगवान् की सशरीर उपस्थिति की सुगन्ध की अक्रूर जी ने भूरि-भूरि सराहना की। भगवान् श्रीकृष्ण एवं उनके पूर्णांश बलराम जी के दर्शन करके उन्होंने स्वयं को कृतार्थ समझा, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि वे सृष्टि की आदि विभूतियाँ हैं।
जैसाकि ब्रह्म-संहिता में कहा गया है, श्रीकृष्ण आदि श्रीभगवान् हैं एवं समस्त कारणों के कारण हैं। अक्रूर जी को यह ज्ञात हो सका कि श्रीभगवान् अपनी सृष्टि के कल्याण, धर्मसिद्धान्तों की पुनर्स्थापना एवं असुरों के संहार के लिए स्वयं आविर्भूत हुए हैं। अपनी अंग-कान्ति से दोनों भाई समस्त जगत के अंधकार को दूर कर रहे थे मानो वे दोनों नीलमणि एवं रजत के दो पर्वत हों। अक्रूर जी तत्काल रथ से उतर एवं निस्संकोच श्रीकृष्ण एवं बलराम जी को दण्डवत् प्रणाम किया। श्रीभगवान् के चरणारविन्दों का स्पर्श करके वे दिव्य आनन्द में मग्न हो गए, उनका कंठ अवरुद्ध हो गया एवं वाणी मूक हो गई। उनके दिव्य आनन्द के कारण उनके नयनों से अविरत अश्रुधारा बह चली। वे आनन्द में ऐसे विभोर हो गए जैसे वे दृष्टि एवं वाणी की शक्ति से रहित हो गए हों। भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से अक्रूर जी को उठाया एवं उन्हें छाती से लगा लिया। ऐसा प्रतीत होता था मानो भगवान् श्रीकृष्ण अक्रूर जी से अत्यन्त प्रसन्न थे। बलराम जी ने भी अक्रूर जी का आलिंगन किया। श्रीकृष्ण एवं बलराम जी उनका हाथ पकड़ कर उन्हें अपने कक्ष में ले आए एवं उन्हें बैठने के लिए उत्तम आसन दिया, पैर धोने के लिए जल दिया, उन्होंने मधु एवं अन्य सामग्रियों के उपयुक्त उपहारों के साथ उनका पूजन किया। जब अक्रूर जी ने सुखपूर्वक आसन ग्रहण कर लिया तब श्रीकृष्ण एवं बलराम जी ने उन्हें एक गऊ दान में दी। तत्पश्चात् वे उनके लिए सुस्वादु पकवान लाए जिन्हें अक्रूर जी ने ग्रहण किया। जब अक्रूर जी ने भोजन कर लिया तब बलराम जी ने उन्हें पान व सुपारी भेंट की और उन्हें अधिक प्रसन्न एवं सुखी करने के लिए चन्दन का लेप अर्पित किया। श्रीकृष्ण ने अतिथि के स्वागत की वैदिक विधि का पूर्ण रूप से पालन किया जिससे कि अन्य सबको यह शिक्षा मिल सके कि अपने घर में अतिथि का स्वागत-सत्कार किस प्रकार करना चाहिए। वेद का यह निर्देश है कि अतिथि यदि शत्र भी हो, तो भी उसका इतना सुन्दर सत्कार होना चाहिए कि उसे अतिथि का स्वागत करने वाले से किसी भय की शंका न रहे। यदि मेज़वान निर्धन हो तब भी उसे कम से कम चटाई का आसन एवं पीने को एक गिलास जल तो देना ही चाहिए। श्रीकृष्ण और बलराम जी ने अक्रूर जी के उच्च पद के अनुकूल ही उनका स्वागत किया।
इस रीति से जब अक्रर जी का उचित स्वागत-सत्कार हो चका तथा वे आसन ग्रहण कर चुके, तब श्रीकृष्ण के पोषक पिता नन्द महाराज ने उन्हें सम्बोधित किया, "प्रिय अक्रूर जी, मैं आपसे क्या प्रश्न करूँ? मुझे ज्ञात है कि आप क्रूर एवं आसुरी प्रकृति वाले कंस के संरक्षण में हैं। जैसे वधशाला में पशुओं के लिए बधिक का संरक्षण होता है, जो भविष्य में पशुओं का वध कर देगा, कंस का संरक्षण उसी प्रकार का है। कंस इतना स्वार्थी है कि उसने अपनी ही बहन के पुत्रों का वध किया है, अत: मैं इस बात पर सच्चाई से विश्वास कैसे कर सकता हूँ कि वह मथुरावासियों की रक्षा कर रहा है।" यह कथन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यदि राज्यों के राजनीतिक अथवा प्रशासकीय प्रमुख केवल आत्महित में लगे रहें, तो वे नागरिकों के हितों की सुरक्षा कभी नहीं कर सकते हैं।
नन्द महाराज के मनमोहक वचनों को सुनकर अक्रूर जी मथुरा से वृन्दावन की अपनी एकदिवसीय यात्रा का समस्त श्रम भूल गए।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "अक्रूर जी का वृन्दावन में आगमन" नामक अड़तीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
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