कृष्ण व नन्द महाराज ने अक्रूर जी का हार्दिक स्वागत किया तथा रात्रि में विश्राम करने के हेतु उन्हें समुचित स्थान दिया। इसी बीच बलराम व श्रीकृष्ण दोनों भाई भोजन करने गए। अक्रूर जी शैय्या पर बैठ कर विचार करने लगे कि मथुरा से वृन्दावन आते हुए उन्होंने जिन-जिन कामनाओं की पूर्ति की अपेक्षा की थी वे सभी पूर्ण हो गईं। लक्ष्मी के पति श्रीकृष्ण अपने शुद्ध भक्त पर प्रसन्न हो कर उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण कर सकते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए भगवान् से कुछ नहीं माँगता।
भोजनोपरान्त श्रीकृष्ण व बलराम जी अक्रूर जी से रात्रि के लिए विदा लेने आए। श्रीकृष्ण ने अपने मामा कंस के विषय में पूछा, "वह अपने मित्रों तथा सगे सम्बन्धियों से किस प्रकार व्यवहार कर रहे हैं?" उन्होंने कंस की योजनाओं के विषय में भी पूछा। श्रीभगवान् ने तत्पश्चात् अक्रूर जी को बताया कि वृन्दावन में उनके आगमन का स्वागत है। उन्होंने अक्रूर जी से पूछा कि उनके सभी सम्बन्धी व मित्र स्वस्थ व निरोग तो हैं! श्रीकृष्ण ने कहा कि उन्हें अपने मामा कंस के राज्याध्यक्ष होने का बहुत दुख है। उन्होंने कहा कि समस्त प्रशासकीय प्रणाली में कंस सबसे बड़ा कालदोष है और उसके शासनकाल में नागरिकों के कल्याण की कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती है। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने कहा, "मेरे पिता को केवल मेरे पिता होने के कारण अनेक कष्ट सहन करने पड़े हैं। केवल इसी कारण से उन्होंने अपने अन्य पुत्रों को भी खो दिया है। आप मेरे मित्र व सम्बन्धी के रूप में आए हैं इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। मेरे प्रिय मित्र अक्रूर जी! कृपया अपने वृन्दावन आने का प्रयोजन बताइए।"
इस प्रकार पूछे जाने पर यदुवंशी अक्रूर जी ने कंस द्वारा श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी को मारने के प्रयास सहित मथुरा में घटी सभी नवीन घटनाओं का विवरण श्रीकृष्ण को दिया। नारद जी के द्वारा श्रीकृष्ण के वसुदेव के पुत्र होने तथा नन्द महाराज के घर में छुपाये जाने के रहस्योद्घाटन के उपरान्त घटी सभी घटनाओं का भी विवरण अक्रूर जी ने दिया। अक्रूर जी ने कंस-विषयक सभी बातें बताईं। उन्होंने श्रीकृष्ण को बताया कि किस प्रकार नारद मुनि ने कंस से भेंट की तथा किस प्रकार कंस ने स्वयं अक्रूर जी को अपना प्रतिनिधि बनाकर वृन्दावन भेजा। अक्रूर जी ने कृष्ण को बताया कि नारद मुनि ने जन्मोपरान्त श्रीकृष्ण के मथुरा से वृन्दावन स्थानान्तरण तथा कंस द्वारा प्रेषित सभी असुरों के श्रीकृष्ण द्वारा संहार के विषय में भी कंस को बता दिया था। तदुपरान्त अक्रूर जी ने अपने वृन्दावन आने के प्रयोजन के विषय में श्रीकृष्ण को बताया कि वे उन्हें मथुरा ले जाने के लिए आए हैं। इन सब आयोजनों को सुन कर शत्रुवध में निपुण श्रीकृष्ण तथा बलराम कंस की योजनाओं पर मन्द हास करने लगे।
उन्होंने नन्द महाराज से कहा कि कंस ने सभी ग्वालबालों को धनुर्यज्ञ-उत्सव में भाग लेने के लिए मथुरा जाने का निमंत्रण दिया है। कंस की इच्छा थी कि वे सब उत्सव में सम्मिलित होने के लिए वहाँ जाँए। श्रीकृष्ण के वचन सुन कर नन्द महाराज ने तत्काल सब ग्वालबालों को बुलाया तथा यज्ञ में उपहार देने के लिए सब प्रकार की दुग्धनिर्मित वस्तुओं तथा दूध का संग्रह करने का आदेश दिया। उन्होंने वृन्दावन के नगरपाल को निर्देश भेजा कि वह सभी निवासियों को कंस के महान् धनुर्यज्ञ के विषय में सूचित कर दे तथा उन्हें उत्सव में सम्मिलित होने का निमंत्रण दे। नन्द महाराज ने ग्वालबालों को सूचित किया कि वे कल प्रात: चलेंगे। अतएव उन्होंने सबकी मथुरा-यात्रा के लिए गायों व बैलों का प्रबन्ध कर लिया।
जब गोपियों ने देखा कि अक्रूर जी श्रीकृष्ण व बलराम जी को मथुरा ले जाने अक्रूर जी की वापसीयात्रा व यमुना में विष्णु लोक के दर्शन के लिए आए हैं, तो वे अत्यन्त व्याकुल हो उठीं। कुछ गोपिकाओं के मुख दुख से वर्ष हो गए, उनकी हृदयगति तीव्र हो गई व वे दीर्घ नि:श्वास लेने लगीं। उन्होंने देखा कि उनके केश व वस्त्र तत्काल शिथिल हो गए हैं। गृहकार्य में रत अन्य गोपियाँ श्रीकृष्ण व बलराम जी के मथुरा जाने की सूचना पाकर काम छोड़ कर ऐसी स्तब्ध हो गईं जैसे सब कुछ विस्मृत हो गया हो। उनकी दशा वैसी ही थी जैसी उस प्राणी को होती है, जिसका अन्त समय आ गया हो और वह तत्काल इस जगत को छोड़ रहा हो । अन्य गोपियाँ श्रीकृष्ण-वियोग के कारण तत्क्षण मूछित हो गईं। स्वयं से उनके वार्तालाप तथा उनकी मनमोहक मुस्कान का स्मरण करके गोपियाँ दुख में डूब गईं। वे भगवान् श्रीकृष्ण के अभिलक्षणों का स्मरण करने लगीं कि किस प्रकार वे वृन्दावन की भूमि पर विचरण करते थे तथा विनोदपूर्ण वचनों से सबका हृदय आकर्षित कर लेते थे। श्रीकृष्ण तथा उनसे अपने आसन्न वियोग के विषय में चिन्ता करती हुई गोपियाँ धड़कते हृदय से एकसाथ एकत्र हो गईं। वे पूर्णत: कृष्ण के ध्यान में डूब गई और आँखों में अश्रु भर कर निम्न प्रकार से वार्तालाप करने लगीं :
"ओ दैव! तुम कितने क्रूर हो! ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हें दूसरों पर दया करना नहीं आता है। तुम्हारी ही योजना से मित्र एक दूसरे से मिलते हैं, किन्तु उनकी मनोकामना पूर्ण हुए बिना ही तुम उन्हें विलग कर देते हो। यह ठीक बालकों की निरर्थक क्रीड़ा की भाँति है। पहले तो तुम हमें श्रीकृष्ण के दर्शनों का आयोजन कराते हो जिनकी काली कुंचित केशराशि उनके विशाल ललाट तथा तीक्ष्ण नासिका को और भी सुन्दर बनाती है तथा जो इस भौतिक जगत के संघर्ष को कम करने के लिए सदा मुस्काते रहते हैं। उन श्रीकृष्ण के दर्शन जब हमें हो जाते हैं तब तुम हमें उनसे वियोग कराने का आयोजन कर देते हो। अरे भाग्य ! तुम कितने क्रूर हो किन्तु सबसे अधिक आश्चर्य तो यह है कि तुम अब उस अक्रूर के रूप में उपस्थित हुए हो जिसका अर्थ होता है, वह व्यक्ति "जो क्रूर न हो।" प्रारम्भ में हम तुम्हारी सराहना करती थीं कि तुमने हमें श्रीकृष्ण के मनहर मुख के दर्शनार्थ ये नेत्र दिए हैं। किन्तु अब एक मूर्ख प्राणी की भाँति तुम हमारे नेत्र छीन लेना चाहते हो जिससे हम श्रीकृष्ण का पुन: यहाँ दर्शन न कर सकें। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण भी अत्यन्त क्रूर हैं। उन्हें सदैव नवीन मित्र चाहिए। उन्हें किसी से भी अधिक समय तक मैत्री रखना भाता नहीं है। अपना घर-द्वार, मित्र या सम्बन्धी सबको त्याग कर हम वृन्दावन की गोपियाँ श्रीकृष्ण की दासियाँ बन गई हैं, किन्तु वे हमारी उपेक्षा कर के जा रहे हैं। अब यद्यपि हम उनके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हैं फिर भी वे हमारी ओर देखते भी नहीं हैं। अब मथुरा की युवतियों को सुअवसर मिलेगा। वे श्रीकृष्ण के आगमन की आशा कर रही हैं। वे मधुर मुसकाना से युक्त उनके मुख का दर्शन करेंगी व उसका मधुपान करेंगी। यद्यपि हम जानती हैं कि श्रीकृष्ण अत्यन्त स्थिरचित्त व दृढ-निश्शय हैं, तथापि हमें भय है कि जब वे मथुरा की युवतियों के सुन्दर मुख देखेंगे, तो वे स्वयं को भूल जाएँगे। हमें भय है कि वे उनके वश में हो जाएँगे और हम सीधी सादी ग्रामबालाओं को भूल जाएँगे। फिर वे हम पर कृपालु नहीं रहेंगे। अतएव हमें श्रीकृष्ण से वृन्दावन वापस आने की आशा नहीं है। वे मथुरा की बालाओं के संसर्ग को नहीं छोड़ेंगे।"
मथुरा शहर के शानदार समारोहों के बारे में सभी गोपियों ने कल्पना करना शुरू कर दिया। श्रीकृष्ण गलियों से गुजरते थे, और शहर की महिलाएँ और युवा लड़कियाँ उन्हें अपने-अपने घरों की छज्जों से देखती थीं। मथुरा शहर में अलग-अलग समुदाय थे, जिन्हें तब दशार्ह, भोज, अन्धक और सात्वत के नाम से जाना जाता था। ये सभी समुदाय एक ही यदुवंश की ही अलग-अलग शाखाएँ थी, जिनमें श्रीकृष्ण प्रकट हुए थे। वे सभी श्रीकृष्ण के आने की आशा कर रहे थे। यह सुनिश्चित था कि श्रीकृष्ण, जो भाग्य की देवी का विश्रामस्थल तथा सभी सुखों और श्रेष्ठतम गुणों के भण्डार थे, वे मथुरा शहर का दौरा करने वाले थे।
तदुपरान्त गोपियाँ अक्रूर के कार्यों की निन्दा करने लगीं। वे कहने लगी कि अक्रूर जी उनके प्रियतम से भी अधिक प्रिय, उनके नयनों की ज्योति, श्रीकृष्ण को लिये जा रहे हैं। अक्रूर जी गोपियों को बिना सांत्वना दिए, बिना बताए ही उन्हें उनकी दृष्टि से दूर ले जा रहे थे। अक्रूर जी को इतना निर्दय नहीं होना चाहिए था, उन्हें गोपियों से सहानुभूति दर्शानी चाहिए थी। गोपियों ने आगे कहा, "सबसे आश्चर्य की बात यह है कि नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ने बिना कुछ विचार किए पहले से ही रथ पर आसन ग्रहण कर लिया है। इससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीकृष्ण बहुत बुद्धिमान नहीं हैं। हो सकता है कि वे बुद्धिमान भी हों पर दयावान् नहीं हैं। केवल श्रीकृष्ण अपितु सभी ग्वाल बाल भी इतने निष्ठुर हैं कि पहले से ही वे बैलों और बछड़ों को मथुरा यात्रा के लिए गाड़ियों में जोत रहे हैं। वृन्दावन के वयोवृद्ध भी निर्दय हैं। वे भी हमारी दुर्दशा को ध्यान में रख कर श्रीकृष्ण को मथुरा जाने से नहीं रोकते। देवता भी हमसे रुष्ट हैं, जो श्रीकृष्ण की मथुरा-यात्रा में बाधा नहीं डाल रहे हैं।
गोपियाँ देवताओं से प्रार्थना करने लगीं कि वे चक्रवात, तूफान अथवा अतिवृष्टि जैसी किसी प्राकृतिक बाधा पैदा कर दें जिससे कि श्रीकृष्ण मथुरा न जा सकें। तदनन्तर वे विचार करने लगीं, "अपने वयोवृद्ध मातापिता तथा संरक्षकों की उपस्थिति की चिन्ता न कर के हम सब स्वयं ही श्रीकृष्ण को मथुरा जाने से रोकेंगी। इस सीधी कार्यवाही के अतिरिक्त हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हर कोई हमारे विरुद्ध है और श्रीकृष्ण को हमारी दृष्टि से दूर करना चाहता है। उनके बिना हम क्षण-भर भी जीवित नहीं रह सकती हैं।" इस प्रकार गोपियों ने रथ के मार्ग को अवरुद्ध करने का निर्णय ले लिया। वे आपस में वार्तालाप करने लगीं, "श्रीकृष्ण के साथ रासलीला करते हुए हमने एक लम्बी रात्रि एक पल के समान व्यतीत कर दी अक्रूर जी की वापसीयात्रा व यमुना में विष्णु लोक के दर्शन थी। हम उनके मन्दहास्य का दर्शन कर रही थीं व उनका आलिंगन कर रही थीं और उनसे बातें कर रही थीं। अब यदि वे हमसे दूर चले गए, तो हम एक पल भी कैसे जियेंगी? सूर्यास्त के समय अपने ज्येष्ठ भ्राता बलराम तथा सखाओं के साथ श्रीकृष्ण घर वापस आते थे। गोरज से उनका मुख मण्डित होता था तथा वे मन्द मुसकान करते थे। वंशी बजाते हुए वे हम पर कृपापूर्ण दृष्टिपात करते थे। हम उन्हें कैसे भूल सकेंगी? हम अपने जीवन-धन श्रीकृष्ण को कैसे भुला सकेंगी? हमारे हृदय उन्होंने दिन रात कई प्रकार से पहले ही चुरा लिए हैं। अब यदि वे चले जाते हैं, तो हमारे जीवित रहने की कोई सम्भावना नहीं है।" इस प्रकार विचार करते हुए श्रीकृष्ण के वियोग की कल्पना से गोपियाँ और भी अधिक दुखित हो गईं। वे अपने मन को न रोक सकी तथा श्रीकृष्ण के विभिन्न नामों, "हे प्यारे दामोदर! प्रिय माधव!" को पुकारती हुई उच्च स्वर से क्रन्दन करने लगीं।
श्रीकृष्ण के प्रस्थान से पूर्व गोपिकाएँ सम्पूर्ण रात्रि क्रन्दन करती रहीं। सूर्योदय के साथ ही अक्रूर जी स्नानादि समाप्त कर के रथ पर बैठ गए तथा श्रीकृष्ण एवं बलराम सहित उन्होंने मथुरा के लिए प्रस्थान किया। दूध से निर्मित पदार्थों, दही, घी, दूध आदि को मिट्टी के पात्रों में भर कर, उन्हें बैलगाड़ी पर लाद कर नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले भी गाड़ियों में बैठ गए। वे श्रीकृष्ण एवं बलराम जी के रथ का अनुगमन करने लगे। श्रीकृष्ण के द्वारा रथ का मार्ग अवरुद्ध न करने को कहने पर भी गोपियाँ रथ को घेर कर खड़ी हो गईं और दीन दृष्टि से श्रीकृष्ण की ओर देखने लगीं। गोपियों की दुर्दशा देख कर श्रीकृष्ण बहुत प्रभावित हुए, किन्तु जैसी कि नारद जी ने भविष्यवाणी की थी उनका कर्तव्य मथुरा को प्रस्थान करना था। अतएव श्रीकृष्ण ने गोपियों को धीरज बँधाया। उन्होंने कहा कि गोपियों को इतना दुखी नहीं होना चाहिए। वे अपना कार्य समाप्त कर के शीघ्र ही वापस लौट आएँगे। किन्तु वे मार्ग छोड़ने को सहमत नहीं हुईं। फिर भी रथ पश्चिम की ओर बढ़ने लगा। जैसे-जैसे रथ आगे बढ़ा गोपियों के मनों ने यथासम्भव उसका अनुसरण किया। जब तक रथ की पताका दिखाई दी तब तक वे उसे देखती रहीं, अन्त में दूर रथ की केवल धूलि मात्र दिखाई दे रही थी। गोपियाँ अपने स्थान पर स्तब्ध खड़ी रहीं । अन्ततः रथ नेत्रों से ओझल हो गया। वे चित्रलिखित सी अविचल खड़ी थीं। गोपियों को निश्चय हो गया कि श्रीकृष्ण तत्काल वापस आने वाले नहीं हैं और अत्यन्त निराश मन से वे अपने-अपने घरों को लौट गईं। श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति से गोपियाँ अत्यन्त विचलित हो गई थीं। वे सम्पूर्ण दिवस श्रीकृष्ण की लीलाओं का चिन्तन करती रहती थीं और इस प्रकार उन्हें कुछ धैर्य मिलता था।
अक्रूर तथा बलराम सहित भगवान् ने रथ को तीव्र गति से यमुनातट की और बढ़ाया। यमुना में स्नान करने मात्र से प्राणियों के सभी पाप-फल नष्ट हो जाते हैं। श्रीकृष्ण तथा बलराम जी दोनों ने नदी में स्नान किया और मुख धोया। यमना के स्फटिक के समान पारदर्शी निर्मल जल का पान करने के पश्चात् वे पुनः रथ में बैठ गए। रथ बड़े-बड़े वृक्षों की छाया में खड़ा था और दोनों भाई वहाँ बैठ गए। तत्पश्चात् अक्रूर जी ने उनसे यमुना में स्नान करने की अनुमति माँगी। वैदिक रीति के अनुसार नदी में स्नानोपरान्त कटि तक जल में खड़े हो कर गायत्री मंत्र का पाठ करना चाहिए। जब अक्रूर जी नदी में खड़े थे, तो अचानक उन्हें जल में श्रीकृष्ण व बलराम जी के दर्शन हुए। दोनों भाइयों को देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि वे दोनों रथ में बैठे हैं। भ्रमित हो कर वे तत्क्षण जल से बाहर निकल आए और दोनों भाइयों को देखने के लिए रथ के समीप गए। उन्हें यह देख कर आश्चर्य हुआ कि वे पहले की ही भाँति रथ में बैठे हुए थे। जब उन्होंने उन दोनों को रथ में बैठे देखा, तो वे सोचने लगे कि उन्होंने उन्हें जल में देखा भी था या नहीं? अतएव वे पुनः नदी पर गए। इस बार उन्होंने न केवल श्रीकृष्ण एवं बलराम के दर्शन किए, अपितु अनेक देवताओं, सभी सिद्धों, चारणों व गंधों के भी दर्शन किए। वे सभी भगवान् के समक्ष नतमस्तक खड़े थे। भगवान् शेषनाग की शैया पर विराजमान थे। उन्होंने सहस्रों फण वाले शेषनाग जी के भी दर्शन किए। शेषनाग जी ने नीले वस्त्र धारण किए थे और उनके कण्ठ श्वेत थे। उनके श्वेत कण्ठ हिमाच्छादित पर्वत शिखरों के समान दिखते थे। अक्रूर जी ने शेषनाग की कुण्डली में अत्यन्त गम्भीर रूप में बैठे हुए चतुर्भुज श्रीकृष्ण के दर्शन किए। उनके नयन रक्ताभ कमलदल के समान थे।
दूसरे शब्दों में, अक्रूर जी ने वापस आने पर बलराम जी को शेषनाग के रूप में तथा श्रीकृष्ण को महाविष्णु के रूप में परिवर्तित देखा। उन्होंने मन्द हास्य करते हुए चतुर्भुज श्रीभगवान् के दर्शन किए। वे सबके प्रति आनन्ददायक थे तथा सबकी ओर कृपादृष्टि डाल रहे थे। अपनी उन्नत नासिका, विशाल भाल चौड़े कानों तथा लाल अधरों सहित वे अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होते थे। उनकी आजानु भुजाएँ अत्यन्त बलशाली थीं। उनके स्कन्ध उच्च थे। उनका वक्षस्थल अत्यन्त विशाल था तथा उनकी ग्रीवा शंख की भाँति थी। उनकी नाभि अत्यन्त गहरी थी तथा उनके उदर पर त्रिवली थी। किसी स्त्री के नितम्बों सदृश उनकी कटि चौड़ी और बड़ी थी और अक्रूर जी की वापसीयात्रा व यमुना में विष्णु लोक के दर्शन उनकी जंघाएँ हाथी की सूंड़ के समान पुष्ट थीं। उनके पगों के निम्न भाग व चरण नशा घटने सभी सुन्दर थे। उनके चरणों के नख प्रभापूर्ण थे और उनके पदों की लियाँ कमलदल के समान सुन्दर थीं। उनता मुकुट मूल्यवान रत्नों से जटित था। उनकी कटि पर उत्तम करधनी थी तथा उनके चौड़े वक्ष पर यज्ञोपवीत शोभायमान था। उनकी कलाई में कंकण थे तथा भुजाओं में बाजूबंद। उनके पैरों में नुपूर थे। उनका देदीप्यमान सौन्दर्य नेत्रों के लिए असह्य था। उनके करतल पद्मपुष्प के समान थे। विष्णु मूर्ति के विभिन्न चिह्नों-शंख, चक्र, गदा तथा पद्म–को अपने हाथों में धारण किए वे और भी अधिक सुन्दर लग रहे थे। उनके वक्ष पर विष्णु भगवान् के विशिष्ट लक्षण मुद्रित थे और उन्होंने ताजे पुष्पों की माला धारण की हुई थी। इस प्रकार सम्पूर्ण रूप से उनका सौन्दर्य अत्यन्त मनोहारी था। अक्रूर जी ने श्रीभगवान् को अन्तरंग पार्षदों, जैसे चारों कुमारों, सनक, सनातन, सनन्द और सनत्कुमार-से घिरे हुए देखा। उनके अन्य पार्षद जैसे सुनन्द व नन्द, ब्रह्मा और शिवादिक देवता, नव योगेन्द्र ऋषिगण तथा प्रह्लाद जैसे और नारद जैसे भक्त तथा आठ वसु निर्मल हृदय तथा विशुद्ध वचनों से भगवान् की वन्दना कर रहे थे। भगवान् के दिव्य व्यक्तित्त्व का दर्शन करके अक्रूर जी तत्क्षण भक्ति के सागर में निमग्न हो गए और उनके शरीर में दिव्य रोमाञ्च हो आया। यद्यपि एक क्षण के लिए वे मोहित हो गए थे तथापि अपनी शुद्ध चेतना बनाये रहे और भगवान् के समक्ष शीश झुका कर उन्होंने नमन किया। हाथ जोड़ कर गद्गद वाणी से वे भगवान् की स्तुति करने लगे। इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “अक्रूर जी की वापसी यात्रा व यमुना में विष्णुलोक के दर्शन" नामक उनतालीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
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