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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 40: अक्रूर जी द्वारा स्तुति  » 
 
 
 
 
 
अक्रूर जी ने इस प्रकार स्तुति की: "प्रिय भगवान् ! आप समस्त कारणों के परम कारण हैं तथा आप ही मूल एवं अविनाशी मूर्ति श्रीनारायण हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ। आपकी नाभि से कमल प्रस्फुटित होता है तथा उस कमल से ब्रह्माण्ड के कर्ता ब्रह्माजी का जन्म होता है। चूंकि ब्रह्माजी इस ब्रह्माण्ड के कारण हैं अत: आप सभी कारणों के कारण हैं। भूमि, जल, पावक, गगन व समीर तथा अहंकार एवं महत् तत्त्व आदि इस भौतिक सृष्टि के सभी तत्त्वों की उत्पत्ति आपके विग्रह से होती है। जीवों की एवं समस्त भौतिक शक्ति, तटस्था शक्ति और प्रकृति की उत्पत्ति भी आप ही के शरीर से होती है। जीवात्माओं, मन, इन्द्रियों के विषय तथा भूत-जगत के प्रपञ्चों का नियमन करने वाले देवताओं की उत्पत्ति भी आपके श्रीविग्रह से ही होती है। आप सबके परमात्मा हैं, किन्तु आपके दिव्य स्वरूप का ज्ञान किसी को नहीं है। इस भौतिक जगत में सभी भौतिक प्रकृति के गुणों से प्रभावित रहते हैं। भौतिक प्रकृति के प्रभाव से आच्छादित होने के कारण ब्रह्मादि देवता भी आपके त्रिगुणातीत स्वरूप को ठीक-ठीक नहीं जान पाते हैं। महान् ऋषि, मुनि व योगी आपकी श्रीभगवान् के रूप में पूजा करते हैं। जीवात्माओं, भौतिक सृष्टि एवं सभी देवताओं के मूल कारण के रूप में वे आपकी वन्दना करते है। वे समस्त सृष्टि को आप में समाहित मान कर आपकी अर्चना करते हैं। कुछ बाली ब्राह्मण शास्त्रोक्त वैदिक पद्धति का अनुसरण करते हुए आपका पूजन करते हैं। विभिन्न देवताओं के नाम से विभिन्न यज्ञ करते हैं। कुछ लोगों को दिव्य ज्ञान की उपासना प्रिय है। वे अत्यन्त शान्त होते हैं तथा समस्त भौतिक क्रियाकलापों को त्याग कर दार्शनिक खोज के लिए ज्ञा यज्ञ में लगते हैं।"
"कुछ ऐसे भक्त भी हैं, जो आप की पूजा भगवान् के रूप में करते हैं, जिन्हें भागवत कहा जाता है। पांचरात्र' की विधि में उचित रूप से दीक्षित होने के पश्चात् वे अपने शरीर को तिलक से विभूषित कर के आपकी विष्णुमूर्ति के विभिन्न रूपों की उपासना करते हैं। 'शैव' नाम से प्रसद्धि अन्य भक्त भी हैं, जो विभिन्न आचार्यों के अनुयायी हैं और आपकी शिव के रूप में उपासना करते हैं।"
भगवद्गीता में कहा गया है कि देवताओं की उपासना भी परोक्ष रूप से श्रीभगवान् का ही पूजन है। किन्तु इस प्रकार की उपासना शास्त्रानुसार नहीं है, क्योंकि वस्तुतः उपास्य भगवान्, श्रीभगवान् नारायण ही हैं। ब्रह्मा, शिवादिक देवता नारायण के श्रीविग्रह से उत्पन्न होने वाले प्रकृति के गुणों के अवतार हैं । वस्तुतः सृष्टि से पूर्व श्रीभगवान् नारायण के अतिरिक्त किसी का अस्तित्त्व नहीं था। देवताओं की भक्ति नारायण की भक्ति के स्तर की नहीं है।
अक्रूर जी ने कहा, "यद्यपि देवताओं के भक्तों के मन किसी विशेष देवता पर केन्द्रित रहते हैं, क्योंकि आप देवताओं समेत सभी जीवों के परमात्मा हैं, उनकी उपासना भी परोक्ष रूप से आपकी ही उपासना है। कभी-कभी वर्षा ऋतु में पर्वत से बहने वाली छोटी नदियाँ सागर तक पहुँचने में असफल रहती हैं। कुछ सागर तक पहुँच जाती हैं और कुछ नहीं। इसी भाँति देवताओं के भक्त आप तक पहुँच भी सकते हैं और नहीं भी। इसकी कोई निश्चितता नहीं है। उनकी सफलता उनकी उपासना की शक्ति पर निर्भर करती है।"
वैदिक सिद्धान्त के अनुसार जब कोई उपासक किसी देवता विशेष की पूजा करता है, तो कुछ अनुष्ठान वह 'यज्ञेश्वर' नारायण के लिए भी सम्पादित करता है क्योंकि भगवद्गीता के अनुसार नारायण अथवा श्रीकृष्ण की अनुमति के बिना देवता अपने उपासकों की मनोकामनाएँ पूर्ण नहीं कर सकते हैं। भगवद्गीता में प्रयुक्त शब्द है-मयैव विहितान् हि तान् । इसका अर्थ है कि भगवान् के द्वारा अधिकार दिए जाने पर ही देवगण वरदान दे सकते हैं। जब देवताओं के उपासक को वस्तुस्थिति का ज्ञान होता है, तब वह इस प्रकार तर्क कर सकता है, "भगवान् के द्वारा अधिकार दिए जाने पर ही देवता वरदान दे सकते हैं तब क्यों न भगवान् की ही प्रत्यक्ष रूप पूजा की जाये?" देवताओं के ऐसे उपासक श्रीभगवान् के पास आ सकते हैं, किन देवताओं को ही सर्वेसर्वा मानने वाले कभी भी परम लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकते
अक्रूर जी ने आगे वन्दना की, "मेरे आराध्य देव! समस्त जगत सत्, रज व तम नामक प्रकृति के तीन गुणों से परिपूर्ण है। इस भौतिक जगत में ब्रह्मा से लेकर जड पेड़ पौधे तक सभी इन गुणों से प्रभावित हैं। प्रिय भगवान् ! मैं आपको बारम्बार सादर प्रणाम करता हूँ क्योंकि आप त्रिगुणातीत हैं। इन त्रिगुणों की लहरों में आपके अतिरिक्त सभी बहे जा रहे है। प्रिय भगवन् ! अग्नि आपका मुख है, पृथ्वी आपके चरण है, सूर्य आपका नेत्र है, आकाश आपकी नाभि है और दिशाएँ आपके कान हैं, गगन आपका शीश है, देवता आपकी भुजाएँ हैं, महासागर तथा सागर आपके उदर हैं तथा वायु और पवन आपकी शक्ति एवं स्फूर्ति हैं, समस्त वनस्पति और जड़ी बूटियाँ आपके शरीर के रोम हैं, मेघ आपके केश हैं, पर्वत आपकी अस्थियाँ और नख हैं, दिवस और रात्रि आपकी पलकों का खुलना और बन्द होना हैं, प्रजापति आपकी जननेन्द्रियाँ हैं और वर्षा आपका वीर्य है।"
"हे भगवान् ! विभिन्न स्तर के देवताओं, राजाओं, महाराजाओं और प्राणियों सहित सभी जीवात्माएँ आप में ही आश्रित हैं। ये सभी आपके विराट रूप के अंश हैं। प्रायोगिक ज्ञान द्वारा कोई आपको नहीं समझ सकता है। आपके दिव्य अस्तित्त्व को केवल एक महासागर के रूप में समझा जा सकता है, जिसमें विभिन्न स्तरों की सभी जीवात्माएँ सम्मिलित हैं, अथवा आपको उदुम्बर फल की भाँति जान सकते हैं जिसमें से छोटे-छोटे मच्छर निकलते हैं। प्रिय भगवन् ! आप जो भी अनन्त रूप तथा अवतार ग्रहण करते हैं जब आप इस विश्व में प्रकट होते हैं, वे सब जीवात्माओं को उनके अज्ञान, भ्रमों तथा दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए ही होते हैं। अतएव सब लोग आपकी लीलाओं तथा अवतारों को समझ सकते हैं तथा अनन्त काल तक आपके कार्यों का यशगान कर सकते हैं। कोई भी इस बात की कल्पना नहीं कर सकता है कि आपके कितने अवतार एवं स्वरूप हैं; न ही कोई यह गणना कर सकता है कि आपके विराट रूप में कितने ब्रह्माण्डों का अस्तित्त्व है।
"यद्यपि आप सभी कारणों के कारण हैं तथापि मैं प्रलय के समय प्रकट होने वाले आपके मत्स्यावतार की वन्दना करता हूँ। मधु और कैटभ नामक दो असुरों का वध करने वाले हयग्रीव अवतार की मैं वन्दना करता हूँ। मन्दराचल नामक विशाल पर्वत को उठाने वाले महान् कच्छपावतार को मेरा अनेकानेक नमन है। गर्भोदक पर के जल में गिरी हुई पृथ्वी के उद्धार के लिए वराह के रूप में प्रकट होने वाले बाद अवतार को मेरा बारम्बार प्रणाम है। नृसिंह देव के रूप में प्रकट होने वाले तथा नास्तिक क्रूरताओं की भंयकर स्थिति से भक्तों को बचाने वाले आपको मेरा पणाम है। आपने वामन देव के रूप में प्रकट हो कर तीनों लोकों को अपने चरणकमलों के विस्तार से नाप लिया था, आपको मेरा नमन है। जगत के दुराचारी प्रशासकों का वध करने के लिए भृगुवंशियों के स्वामी के रूप में प्रकट आपको मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। रावणादि राक्षसों के वध के लिए आप श्रीराम के रूप में अवतरित हुए, आपकी मैं विनम्र वन्दना करता हूँ। आप सभी भक्तों द्वारा रघुकुलमणि भगवान् श्री रामचन्द्र के रूप में पूजे जाते हैं। श्रीवासुदेव, श्रीसंकर्षण, श्रीप्रद्युम्न तथा श्रीअनिरुद्ध के रूप में प्रकट होने वाले आपको मेरा बारम्बार वन्दन है । नास्तिक व आसुरी प्रवृत्ति के लोगों को संभ्रमित करने के लिए आप भगवान् बुद्ध के रूप में प्रकट हुए, आपको शतशः प्रणाम है। वैदिक विधि-विधानों के कार्यक्षेत्र के स्तर के नीचे की स्थिति म्लेच्छ-स्थिति कहलाती है। इस निन्दनीय म्लेच्छ-स्थिति के स्तर पर आ पहुँचे राज-परिवारों को दण्डित करने के लिए कल्कि के रूप में प्रकट होने वाले आपको मेरा सादर प्रणाम है।"
"प्रिय भगवन् ! इस भौतिक जगत में सभी आपकी माया से बद्ध हैं। मिथ्या पहचान तथा मिथ्या मोह के प्रभाव के अन्तर्गत सकाम कर्म तथा उसके फल के मार्ग से हर कोई एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तर कर रहा है। मैं भी इन्हीं बद्धात्माओं में से एक हूँ। अपने घर, पत्नी, बच्चे और धन-सम्पत्ति पर अधिकार करने के कारण मैं मिथ्या ही स्वयं को अत्यन्त सुखी मानता हूँ। इस प्रकार मैं स्वप्न-जगत में विचरण करने वाले प्राणी के समान व्यवहार कर रहा हूँ, क्योंकि इन सबमें से कुछ भी स्थायी नहीं है। मैं मूर्ख हूँ जो सदा इन सबको नित्य तथा सत्य मानता हूँ और सदैव ऐसे ही विचारों में लीन रहता हूँ। मेरे भगवान् ! अपने मिथ्या स्वरूप के कारण मैंने सभी अनित्य वस्तुओं को स्थायी स्वीकार कर लिया है जैसे यह भौतिक शरीर जो दिव्य नहीं है और अनेक दुखदायी स्थितियों का मूल है। जीवन सम्बन्धी ऐसी धारणाओं से भ्रमित हो कर मैं सदा द्वैतवादी विचारों में लीन रहता हूँ। इसी कारण मैं सदा द्वैतवाद में मग्न रहता हूँ और दिव्य आनन्द के सागर आपको भी भूल गया हूँ। मैं आपके दिव्य संग से वंचित हूँ। मैं उस मूर्ख प्राणी की भाँति हूँ, जो जल से पोषित वनस्पति से आच्छादित जलाशय को छोड़कर मरुस्थल में जल ढूँढ़ने जाता है। बद्धात्माएँ अपनी तृष्णा को शान्त करना चाहती हैं, किन्तु वे यह नहीं जानतीं कि जल कहाँ से प्राप्त करें। वे उस स्थल को छोड़ देती हैं जहाँ वास्तव में जलाशय होता है और मरुस्थल में चली जाती हैं जहाँ जल नहीं होता। मेरा मन असंयमित इन्दियों के वश में हो गया है और मैं इसे, बिल्कुल निमत्रण में नहीं रख सकता। मैं सकाम कर्म तथा उसके फल की ओर आच्छादित और आकर्षित हूँ। मेरी बुद्धि अत्यन्त कृपण है, मेरे भगवन् ! भौतिक अस्तित्त्व की बद्धस्थिति में रहने वाला व्यक्ति आपके चरणकमलों की महिमा नहीं समझ सकता है। किन्तु किसी प्रकार मैं आपके पादपद्मों के निकट आ गया हूँ और मैं इसे अपने ऊपर आपकी अहैतुकी दया ही समझता हूँ। आप परम ईश्वर हैं अतएव आप कैसे भी कार्य कर सकते हैं। इस प्रकार मैं समझ सकता हूँ कि जब कोई व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाने की योग्यता प्राप्त कर लेता है, तो केवल आपकी ही अहैतुकी दया से वह आपके चरणकमलों से निकट आता है और आपकी निष्काम भक्ति में संलग्न हो जाता है।"
अक्रूर जी ने भगवान् के सम्मुख दण्डवत् प्रणाम करके कहा, "मेरे आराध्य! आपका अनन्त, दिव्य स्वरूप ज्ञान से पूर्ण है। आपके स्वरूप पर ध्यान केन्द्रित करने मात्र से कोई भी सब वस्तुओं को पूर्णतः समझ सकता है, क्योंकि आप समस्त ज्ञान के मूल स्रोत हैं। आप सभी प्रकार की शक्तियों के स्वामी हैं और परम शक्तिमान हैं, आप परब्रह्म एवं परम-पुरुष हैं; आप भौतिक शक्तियों के अधिष्ठाता तथा परम नियन्ता हैं, आप समस्त सृष्टि के आश्रय स्थल भगवान् वासुदेव हैं, अत: मैं आपको सादर नमन करता हूँ। आप सर्वव्यापी श्रीभगवान् हैं। आप सबके हृदय में निवास करने वाले परमात्मा भी हैं। आप ही सबको कार्य करने के लिए निर्देश देते हैं । हे भगवन् ! अब मैं आपके प्रति पूर्णतः समर्पित हूँ। कृपया मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।"
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "अक्रूर जी द्वारा स्तुति" नामक चालीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
 
 
 
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