अपने स्नान तथा अन्य प्रात:कर्मों से निवृत्त होने के पश्चात् श्रीकृष्ण तथा जबलराम ने मल्लयुद्ध की रंगशाला में नगाड़ों के बजने की ध्वनि सुनी। वे तत्काल ही मल्ल-प्रतियोगिता का आनन्द उठाने के लिए उस स्थान पर जाने के लिए तैयार हो गए। मल्लयुद्ध की रंगशाला के द्वार पर पहुँचने पर श्रीकृष्ण और बलराम ने वहाँ कुवलयापीड़ नामक एक विशाल हाथी को देखा। उसका महावत उसके सिर पर बैठा उसकी देखभाल कर रहा था। वह महावत जानबूझ कर हाथी को प्रवेशद्वार के सामने खड़ा करके दोनों बन्धुओं के प्रवेश का मार्ग अवरुद्ध कर रहा था। श्रीकृष्ण उस महावत का उद्देश्य समझ गए और अपनी कमर कस कर उस हाथी से युद्ध करने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने घनगर्जन के समान गम्भीर स्वर में महावत को सम्बोधित किया, "अरे दुष्ट महावत! रास्ता छोड़ो और मुझे अन्दर जाने दो। यदि तुम मेरा मार्ग अवरुद्ध करोगे, तो मैं तुमको तथा तुम्हारे हाथी को यमराज के घर पहुँचा दूंगा।"
इस प्रकार श्रीकृष्ण द्वारा अपमानित होने पर वह महावत अत्यन्त क्रोधित हो उठा। पहले ही से सुनियोजित योजनानुसार श्रीकृष्ण को चुनौती देने के हेतु उसने अपने हाथी को आक्रमण करने के लिए उत्तेजित किया। तब वह हाथी श्रीकृष्ण की और अटल मृत्यु की भाँति बढ़ा। वह उनकी ओर दौड़ा और उन्हें अपनी सूंड़ से करने का प्रयास करने लगा, किन्तु श्रीकृष्ण अत्यधिक कुशलता से हाथी के पीछे नाले गए। केवल अपनी नाक की सीध में देखने में सक्षम वह हाथी अपने पैरों के पीले छपे हुए श्रीकृष्ण को न देख सका। किन्तु उसने श्रीकृष्ण को अपनी सूंड से पकडने का प्रयास किया। अति शीघ्रता से श्रीकृष्ण ने अपना बचाव किया और फिर से हाथी के पीछे जाकर उन्होंने उसकी पूँछ पकड़ ली। हाथी को पूँछ से पकड़े हुए श्रीकृष्ण उसे खींचने लगे। उन्होंने अपनी महान् शक्ति का प्रदर्शन करते हुए उसे पच्चीस गज तक घसीटा जैसे गरुड़ छोटे से सर्प को घसीटता है। श्रीकृष्ण ने उस हाथी को इधर से उधर, दाईं से बाईं ओर वैसे ही खींचा जैसे बाल्यकाल में वे किसी बछड़े की पूंछ खींचते थे। तदुपरान्त श्रीकृष्ण हाथी के सम्मुख गए और उसे एक जोर का थप्पड़ मारा। फिर, वे हाथी की दृष्टि से ओझल होकर उसके पीछे चले गए। फिर श्रीकृष्ण नीचे गिर कर, हाथी के अगले पैरों के सामने, लेट गए जिससे वह हाथी ठोकर खाकर गिर पड़ा। श्रीकृष्ण तत्काल उठ खड़े हुए। किन्तु उस हाथी ने यह सोचा कि वे अभी भी नीचे पड़े हैं, अतएव उनके शरीर में अपने दाँत धंसा देने के प्रयास में उसने जोर से भूमि में अपने दाँत धंसा दिये। यद्यपि हाथी क्रोधित और विकल हो चुका था, तथापि उसके सिर पर सवार महावत ने उसे और भी उत्तेजित करने का प्रयास किया। तब हाथी पागलों के समान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। जैसे ही वह उनकी पकड़ की सीमा में आया उन्होंने उसकी सूंड़ पकड़ कर उसे नीचे गिरा दिया। जब हाथी और महावत गिर पड़े तब श्रीकृष्ण ने हाथी की पीठ पर कूद कर उसका एक दात तोड़ दिया और इसीसे हाथी का और महावत का वध कर दिया। हाथी का उद्धार करने के उपरान्त उन्होंने उसका दाँत अपने कन्धे पर उठा लिया। श्रमबिन्दुओं से भूषित तथा हाथी के रक्त के छीटों से युक्त श्रीकृष्ण अतीव सुन्दर लग रहे थे। इस प्रकार वे मल्लयुद्ध की रंगभूमि की ओर बढ़े। बलराम जी ने दूसरा हाथी-दाँत अपने कन्धे पर उठा लिया। फिर अपने ग्वालबाल सखाओं के साथ उन्होंने रंगभूमि में प्रवेश किया।
जब श्रीकृष्ण ने बलरामजी तथा अपने सखाओं के साथ रंगभूमि में प्रवेश किया, तो विभिन्न लोगों को उनके विभिन्न रूपों में दर्शन हुए। जिसका उनके साथ जैसा रस (सम्बन्ध) था उसे वे उसी रूप में दिखाई दिए। श्रीकृष्ण समस्त सुखों तथा अनुकूल एवं प्रतिकूल सभी रसों के सागर हैं। मल्लों को वे वज्र के समान प्रतीत हुए। साधारण जनता को वे सबसे सुन्दर व्यक्ति प्रतीत हुए। स्त्रियों को वे सबसे आकर्षक पुरुष, मूर्तिमान् कामदेव, प्रतीत हुए। उनके दर्शनों से उन स्त्रियों की कामातुरता में वृद्धि हो गई। वहाँ उपस्थित ग्वालों को श्रीकृष्ण अपने ही गोली वृन्दावन से आए हुए अपने सम्बन्धी प्रतीत हुए। उपस्थित क्षत्रिय राजाओं ने श्रीका के दर्शन सर्वाधिक बलशाली राजा तथा दण्ड देने वाले के रूप में किए। उनले माता-पिता नन्द एवं यशोदा को उनके दर्शन सर्वाधिक प्यारे बालक के रूप में हरा। भोज वंश के राजा कंस को वे साक्षात् यमराज प्रतीत हुए। बुद्धिहीनों को वे अयोग्य व्यक्ति प्रतीत हुए। उपस्थित योगियों ने उनके दर्शन परमात्मा के रूप में किए। वष्णि वंश के सदस्यों को वे सर्वाधिक प्रसिद्ध वंशज प्रतीत हुए। इस प्रकार विभिन्न लोगों ने श्रीकृष्ण को विभिन्न रूपों में देखा जब उन्होंने बलराम तथा ग्वालबाल सखाओं सहित रंगभूमि में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण द्वारा कुवलयापीड़ हाथी के वध की जानकारी कंस को मिल चुकी थी और वह जान गया था कि श्रीकृष्ण निस्सन्देह ही दुर्जेय हैं। इस प्रकार वह उनसे अत्यन्त भयभीत हो गया। श्रीकृष्ण तथा बलराम की भुजाएँ लम्बी थीं। वे अत्यन्त सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए थे। वहाँ उपस्थित सभी को वे अतीव आकर्षक लग रहे थे। वे ऐसे वस्त्र धारण किए हुए थे मानों वे रंगमंच पर अभिनय करने वाले हों और उन्होंने सभी का ध्यान आकर्षित कर लिया।
भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन करने वाले मथुरा के नागरिक अत्यधिक प्रसन्न हो गए। वे अतृप्त दृष्टि से उनके मुख का दर्शन इस प्रकार करने लगे जैसे वे अमृतपान कर रहे हों। श्रीकृष्ण का दर्शन करने से उन्हें इतना आनन्द मिला कि ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे वे न केवल उनके मुखारविन्द के दर्शन का मधुपान कर रहे हों, अपितु उनकी देह की सुगन्ध ले रहे हों तथा उनका रसास्वादन कर रहे हों। ऐसा प्रतीत होता था जैसे वे श्रीकृष्ण और बलराम को भुजाओं में बाँध कर आलिंगन कर रहे हों। वे दोनों दिव्य बन्धुओं के विषय में परस्पर वार्तालाप करने लगे। दीर्घ काल से उन्होंने श्रीकृष्ण और बलराम के सौन्दर्य तथा कार्यों की चर्चा तो सुन रखी, किन्तु अब वे प्रत्यक्ष रूप से उनके दर्शन कर रहे थे। उन्होंने विचार किया कि श्रीकृष्ण और बलराम भगवान् श्रीनारायण के दो पूर्णांशावतार हैं, जो वृन्दावन में प्रकट हुए हैं।
मथुरा के नागरिक श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करने लगे। वसुदेव के पुत्र के रूप में उनके जन्म और नन्द महाराज तथा उनकी पत्नी के पास गोकुल में उन्हें पोषणार्थ लिए जाने तथा अन्य सभी उन घटनाओं की वे चर्चा करने लगे, जो उनके हित के लिए श्रीकृष्ण के मथुरा पधारने के हेतु बनी थीं। उन्होंने पूतना राक्षसी के वध की तथा बवन्डर के रूप में आए हुए असुर तृणावर्त के वध की भी चर्चा की। उन्होंने गमलार्जुन वृक्ष में से जुड़वाँ भाइयों के उद्धार का भी स्मरण किया। मथुरा के नागरिक परस्पर चर्चा करने लगे, “श्रीकृष्ण और बलराम ने वृन्दावन में शंखाचूड़, कशी, धेनुकासुर तथा अन्य अनेक असुरों का उद्धार किया। श्रीकृष्ण ने सभी गोपों की दावानल से भी रक्षा की। उन्होंने यमुना नदी में कालिय नाग का दमन किया तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र का मान-मर्दन किया। श्रीकृष्ण ने एक हाथ में गोवर्धन पर्वत को सतत सात दिवस तक धारण करके सभी गोकुलवासियों की आँधी, तूफान और अविरत वर्षा से रक्षा की।" वे और भी उत्साहवर्धक कार्यों का स्मरण करने लगे, "वन्दावन की गोपियाँ श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का दर्शन करके तथा उनके कार्यों में सहभागी होकर इतनी प्रसन्न हो गई थीं कि वे अपने भौतिक अस्तित्त्व के कष्टों को ही भूल गईं। श्रीकृष्ण के चिन्तन तथा दर्शन से उन्हें हर प्रकार का भौतिक श्रम विस्मृत हो गया।" मथुरा के नागरिक यदुवंश की चर्चा करने लगे। उन्होंने कहा कि यदुवंश में श्रीकृष्ण के प्रकट होने के कारण यदु-परिवार समस्त ब्रह्माण्ड में सर्वाधिक प्रसिद्ध वंश रहेगा। तब मथुरा के नागरिक बलराम कीचर्चा करने लगे। वे उनके कमलदल जैसे नेत्रों की बात करने लगे और कहने लगे "इस बालक ने प्रलम्बासुर और अनेक अन्य असुरों अन्य असुरों का वध किया है।" जब वे इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलराम की लीलाओं की चर्चा कर रहे थे, तो उन्होंने मल्लयुद्ध के आरम्भ की घोषणा करने वाले विभिन्न वाद्यों की गूंज सुनी।
तत्पश्चात् प्रसिद्ध मल्ल चाणूर ने श्रीकृष्ण और बलराम को सम्बोधित किया। उसने कहा, "प्रिय कृष्ण और बलराम! हम लोगों ने तुम्हारे पूर्व कार्यों की चर्चा सुनी है। तुम लोग महान् नायक हो; अतएव राजा ने तुमको बुलाया है। हमने सुना है कि तुम्हारी भुजाएँ अति बलशाली हैं। राजा तथा उपस्थित सभी सज्जन तुम्हारे मल्लयुद्ध के कौशल का प्रदर्शन देखने को इच्छुक हैं । प्रजा को अपने राजा का आज्ञाकारी तथा उसका चित्त प्रसन्न करने वाला होना चाहिए। इस प्रकार का नागरिक सभी सौभाग्यों को प्राप्त करता है। जो आज्ञाकारी नहीं होता है, वह राजा के क्रोध के कारण दुखी होता है। तुम लोग ग्वाले हो और हमने सुना है कि वनों में गाएँ चराते समय तुम एक दूसरे के साथ कुश्ती का आनन्द उठाते हो। अतएव हमारी इच्छा है कि तुम हमारे साथ मल्लयुद्ध करो जिससे कि यहाँ उपस्थित जनसमुदाय तथा राजा प्रसन्न हो जाए।"
श्रीकृष्ण ने चाणूर के कथन का अभिप्राय तत्काल ही समझ लिया और उससे मल्लयुद्ध करने के लिए तत्पर हो गए। किन्तु काल व परिस्थिति के अनुसार उन्होंने इस प्रकार कहा, “तुम भोजराज की प्रजा हो और हम वन में रहते हैं । परोक्ष रूप हम भी उन्हीं की प्रजा हैं और जहाँ तक सम्भव होता है हम उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं। मल्लयुद्ध में भाग लेने का निमंत्रण उनका हमारे ऊपर एक विशेष अनुग्रह है, किन्तु तथ्य तो यह है कि हम केवल बालक हैं । हम कभी-कभी अपनी ही आयु के अपने सखाओं के साथ वृन्दावन में क्रीड़ा करते हैं। हमारा विचार है कि समान अवस्था तथा शक्ति के व्यक्तियों के साथ युद्ध करना हमारे लिए अच्छा है किन्तु तुम्हारे समान महान् मल्लों से युद्ध करना दर्शकों को रुचिकर न होगा। यह उनके धार्मिक सिद्धान्तों के विरुद्ध होगा।" इस भाँति श्रीकृष्ण ने इंगित किया कि प्रसिद्ध व बलशाली मल्लों को श्रीकृष्ण और बलराम को युद्ध करने के लिए चुनौती नहीं देनी चाहिए।
इसके उत्तर में चाणूर ने कहा, "प्रिय कृष्ण! हम भलीभाँति समझ सकते हैं कि तुम न तो बालक हो, न ही किशोर। तुम अपने ज्येष्ठ भ्राता बलरामजी के समान हर किसी से श्रेष्ठ हो। दूसरे सहस्रों हाथियों से युद्ध करके उन्हें हराने में समर्थ कुवलयापीड़ का तुमने पहले ही वध कर दिया है। तुमने उसका वध अत्यन्त अद्भुत रीति से किया है। तुम्हारी शक्ति के कारण हममें से अधिक बलशाली मल्लों से प्रतियोगिता तुम्हारे लिए उचित होगी। अतएव मेरी तुमसे मल्लयुद्ध करने की आकांक्षा है और तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता बलराम मुष्टिक से मल्लयुद्ध करेंगे।"
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “कुवलयापीड़ हाथी का उद्धार" नामक तैंतालीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
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