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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 45: श्रीकृष्ण द्वारा अपने गुरु-पुत्र की पुनः प्राप्ति  » 
 
 
 
 
 
जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि वसुदेव तथा देवकी सम्मानपूर्वक खड़े हैं तब उन्होंने तत्काल अपनी योगमाया के प्रभाव का विस्तार कर दिया जिससे कि वे बलराम तथा उनके साथ पुत्रवत् व्यवहार कर सकें। जिस प्रकार इस भौतिक जगत में विभिन्न जीवों के मध्य माता-पिता तथा सन्तान का सम्बन्ध माया के प्रभाव से स्थापित किया जा सकता है, उसी तरह योगमाया के प्रभाव से भक्त ऐसा सम्बन्ध स्थापित कर सकता है, जिसमें श्रीभगवान् उनके पुत्र हों। अपनी योगमाया से ऐसी स्थिति का निर्माण करने के पश्चात् श्रीकृष्ण और बलराम सात्वतों के वंश में सर्वाधिक प्रख्यात पुत्रों की भाँति प्रकट हुए। उन्होंने अत्यन्त समर्पित भाव से देवकी और वसुदेव जी को आदरपूर्वक सम्बोधित किया "हे पिता! हे माता! यद्यपि आपने सदैव हमारी रक्षा करने की चिन्ता की है, परन्तु शिशु, बालक व किशोर रूप में हमें सन्तान के रूप में प्राप्त करने के आनन्द से आप वञ्चित रहे हैं।" परोक्ष रूप से श्रीकृष्ण ने नन्द महाराज के पितृत्व तथा यशोदा जी के मातृत्व को सर्वाधिक यशस्वी मान कर उनकी प्रशंसा की, क्योंकि यद्यपि श्रीकृष्ण और बलराम उनके आत्मज नहीं थे तब भी नन्द तथा यशोदा जी को ही वस्तुतः उनकी बाल लीलाओं का आनन्द-लाभ हुआ। यह प्रकृति की व्यवस्था है कि सन्तान की बाल्यावस्था का आनन्द माता-पिता को मिलता है। पशुजगत में भी माता-पिता अपने शिशु के प्रति स्नेह-भाव रखते हैं। अपनी सन्तान की गतिविधियों पर मोहित होकर वे उनके हित की देखभाल करते हैं। जहाँ तक वसुदेव और देवकी का प्रश्न था उन्हें अपने पुत्रों, बलराम व श्रीकृष्ण, की सुरक्षा की सदैव अत्यधिक चिन्ता थी। यही कारण था कि श्रीकृष्ण को उनके आविर्भाव के तत्काल बाद दूसरे के घर स्थानान्तरित कर दिया गया और बलराम को भी देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दिया गया था।
वसुदेव तथा देवकी श्रीकृष्ण एवं बलराम की सुरक्षा के विषय में अत्यन्त चिन्तित थे। वे उनकी बाल-लीलाओं का आनन्द न उठा पाये। श्रीकृष्ण ने कहा, "दुर्भाग्य से दैव इच्छा के कारण हमारा लालन-पालन हमारे माता-पिता के हाथों न हो पाया और वे घर पर हमारी बाल्यावस्था के सुख का आनन्द न उठा सके। पिता जी तथा माता जी ! मानव पितृ-ऋण नहीं चुका सकता। भौतिक जगत के सभी लाभों को प्राप्त करने का साधन, यह शरीर, जिनसे प्राप्त होता है। वेदों के निर्देशानुसार मानव योनि द्वारा ही हम विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों (धर्म) को सम्पन्न करने में समर्थ होते हैं। मानव-जीवन प्राप्त होने पर ही हम अपनी कामनाएँ पूर्ण कर सकते हैं (काम एवं अर्थ) और सभी प्रकार की सम्पत्ति का सञ्चय भी कर सकते हैं। और इस मानव तन में ही यह सम्भावना होती है कि हम भौतिक अस्तित्त्व से मुक्ति पा सकें (मोक्ष)। माता-पिता के सम्मिलित प्रयास से इस देह का उत्पादन होता है। प्रत्येक मानव को अपने माता-पिता का अनुगृहीत होना चाहिए और उसे यह समझना चाहिए कि वह उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता है। यदि युवा होने पर कोई पुत्र अपने कार्यों और अपने धन के द्वारा अपने माता-पिता को सन्तुष्ट करने का प्रयास नहीं करता है, तो वह मृत्यु के पश्चात् यमराज द्वारा निश्चित रूप से दण्डित होता है और अपना ही मांस खाने को बाध्य कर दिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति वृद्ध माता-पिता, अपनी पवित्र पत्नी, सन्तान, गुरु, ब्राह्मणों एवं अन्य आश्रितों का भरण-पोषण करने और उनको सुरक्षा देने में समर्थ होते हुए भी ऐसा नहीं करता है, तो जीवित रहते हुए भी वह मृत समझा जाता है। प्रिय माता एवम् पिता! आप सदैव हमारी सुरक्षा के लिए अत्यन्त चिन्तित रहे हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश हम आपकी कोई सेवा नहीं कर सके। अभी तक हमने केवल समय नष्ट किया है; हम अपने नियंत्रण से बाहर के कारणों से आपकी सेवा न कर सके। माता और पिता जी! कृपया हम पापों के लिए क्षमा प्रदान कीजिए।"
जब श्रीभगवान् एक भोले बालक के समान मीठे वचन बोल रहे थे, तो वसन और देवकी जी दोनों ही वात्सल्य से मोहित हो गए और उन्होंने अत्यन्त आनन्दपूर्वक दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया। वे चकित हो गए। वे न तो श्रीकृष्ण के शब्दों का उत्तर दे सके, न ही कुछ बोल सके। उन्होंने अत्यधिक स्नेहपूर्वक श्रीकृष्ण और बलराम जी को कण्ठ से लगा लिया और अविरल अश्रपात करते हुए मौन रहे।
देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण अपने माता-पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन के समीप गए। उन्होंने घोषणा की कि अब उग्रसेन यदुराज्य के राजा होंगे। अपने पिता के होते हुए भी कंस उन्हें बन्दी बना कर बलपूर्वक यदुराज्य पर राज्य कर रहा था। किन्तु कंस की मृत्यु के उपरान्त कंस के पिता मुक्त कर दिए गए और उन्हें यदु वंश का राजा घोषित कर दिया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों भारत के पश्चिमी भाग में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे जिन पर यदुवंश, अन्धक वंश, वृष्णि वंश और भोजवंश राज्य करते थे। उग्रसेन भोजवंशी थे। परोक्ष रूप से श्रीकृष्ण ने यह घोषणा की कि भोजवंश का राजा अन्य छोटे राज्यों का सम्राट होगा। उन्होंने स्वेच्छा से महाराज उग्रसेन को उन पर शासन करने को कहा, क्योंकि कृष्ण और बलराम उनकी प्रजा थे। प्रजा शब्द सन्तान तथा नागरिक दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। श्रीकृष्ण, उग्रसेन के नाती (दौहित्र) के रूप में तथा यदुवंशी के रूप में, दोनों ही दृष्टि से उनकी प्रजा थे। उन्होंने स्वेच्छा से महाराज उग्रसेन का शासन स्वीकार किया। उन्होंने उग्रसेन जी को सूचित किया, "ययाति के शाप के कारण यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकेंगे। आपके सेवक के रूप में आपकी सेवा करना हमारा सौभाग्य होगा। मेरा पूर्ण सहयोग आपकी स्थिति को और भी उत्तम एवं सुदृढ़ बना देगा जिससे कि दूसरे वंशों के राजा अपना अपना कर देने में असमंजस नहीं करेंगे। मेरी सुरक्षा प्राप्त होने पर स्वर्गलोक के देवता भी आपका आदर करेंगे। प्रिय नानाजी! मेरे मृत मामा कंस के भय से यदुवंशी, वृष्णि वंशी, अन्धकवंशी, मधुवंशी, दशाहवंशी तथा कुकुरवंशी सभी राजा अत्यन्त उद्विग्न व अशान्त थे। अब आप उन सबको शान्त करके सुरक्षा का आश्वासन दे सकते हैं। समस्त राज्य शान्तिपूर्ण रहेगा।"
कंस के भय से आस-पास के क्षेत्र के सभी राजा अपने घर छोड़ कर देश के दूरवर्ती भी भागों में रह रहे थे। अब कंस की मृत्यु और उग्रसेन के राजा के रूप में पुनः शित होने के उपरान्त उन पड़ोसी राजाओं को सभी प्रकार का सम्मान तथा शासन दिया गया। तब वे अपने-अपने घर लौट आए। इस श्रेष्ठ राजनैतिक व्यवस्था के पश्चात् श्रीकृष्ण तथा बलराम जी की बलशाली भुजाओं द्वारा सुरक्षित मथरा के नागरिक मथुरा में निवास करने के लिए प्रसन्न हुए। श्रीकृष्ण तथा बलराम जी की उपस्थिति में एक उत्तम शासन के होने से मथुरावासी अपनी सभी भौतिक कामनाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति में पूर्ण सन्तुष्टि अनुभव करने लगे। उन्हें प्रतिदिन श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के प्रत्यक्ष दर्शन होते थे, अत: वे समस्त भौतिक दखों को पूर्णतः भूल गए। मथुरा के नागरिक जैसे ही उत्तम वस्त्र धारण किए हुए, मस्काते हुए तथा इधर-उधर दृष्टिपात करते हुए श्रीकृष्ण तथा बलराम को गलियों में आते हुए देखते त्योंही, उनके हृदय मुकुन्द के साकार दर्शन मात्र से आनन्दपूर्ण हो जाते थे। 'मुकुन्द' का अर्थ है "वह जो मुक्ति तथा दिव्य आनन्द दे सके।" श्रीकृष्ण की उपस्थिति ने ऐसी स्फूर्तिदायक ओषधि का कार्य किया कि उनके मुखारविन्द के नियमित दर्शन से न केवल मथुरा की युवा पीढ़ी अपितु वयोवृद्ध भी यौवन की शक्ति तथा बल से पूर्णतया अनुप्राणित हो गए।
चूँकि श्रीकृष्ण और बलराम मथुरा में थे, अत: माता यशोदा तथा नन्द महाराज भी वही रह रहे थे, किन्तु कुछ काल पश्चात् उन्होंने वृन्दावन लौटने की इच्छा प्रकट की। श्रीकृष्ण और बलराम ने उनके समक्ष जाकर उनका अत्यन्त भावपूर्ण व प्रेमपूर्ण आलिंगन किया। तदुपरान्त दोनों ने कहा "हे पिता व माता ! यद्यपि हम जन्म से वसुदेव एवं देवकी जी के पुत्र हैं, किन्तु हमारे सच्चे माता-पिता आप ही रहे हैं, क्योंकि हमारे जन्म तथा बाल्यवस्था से ही आपने अत्यन्त स्नेह तथा प्रेमपूर्वक हमारा पालन किया है। स्वयं की सन्तान को कोई जितना स्नेह और प्रेम दे सकता है उससे कहीं अधिक प्रेम आपने हमें दिया है। आप वस्तुतः हमारे माता-पिता हैं क्योंकि आपने हमारा पालन पोषण उस समय अपनी सन्तान की भाँति किया जब हम अनाथों जैसे थे। कुछ विशेष कारणों वश हमारे माता-पिता ने हमारा त्याग कर दिया था और आपने हमारी रक्षा की। प्रिय माता तथा पिता जी! हमें ज्ञात है कि हमें यहाँ छोड़कर वृन्दावन लौटने में आपको वियोग के दुख का अनुभव होगा, किन्तु आप निश्चिन्त रहिए; हम वृन्दावन लौट आएँगे। अपने जन्मदाता माता-पिता वसुदेव जी तथा देवकी जी को, अपने नाना उग्रसेन जी को तथा अन्य सम्बन्धियों व परिवार के सदस्यों को थोड़ा सुख सन्तोष देने के उपरान्त हम अवश्य ही वृन्दावन लौट आएँगे।" श्रीकृष्ण तथा बलराम ने मधुर वचनों से तथा विभिन्न प्रकार के वस्त्राभला और पीतल के उत्तम पात्रादि उपहार में देकर नन्द तथा यशोदा जी को सन्तप कर दिया। श्रीकृष्ण तथा बलराम ने उनको तथा उनके साथ वृन्दावन से मथुरा आए हा अपने सखाओं और पड़ोसियों को पूर्णरूप से सन्तुष्ट कर दिया। श्रीकृष्ण तथा बलराम के प्रति अतिशय वात्सल्य के कारण नन्द महाराज के नेत्रों में अश्रु आ गए। उन्होंने दोनों बन्धुओं का आलिंगन करके गोपों सहित वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया।
इसके उपरान्त वसुदेव जी ने अपने पुत्रों का यज्ञोपवीत संस्कार कराया। यज्ञोपवीत द्विज का चिह्न होता है और मानव-समाज की उच्चतर जातियों के लिए यह संस्कार अनिवार्य होता है। वसुदेव जी ने अपने कुल पुरोहित तथा विद्वान ब्राह्मणों को निमंत्रित किया और श्रीकृष्ण एवं बलराम का यज्ञोपवीत संस्कार सम्पादित हुआ। इस संस्कार के समय वसुदेव जी ने ब्राह्मणों को विभिन्न आभूषण दान में दिए तथा रेशमी वस्त्रों एवं स्वर्णाभूषणों से अलंकृत गाएँ भी ब्राह्मणों को भेंट की। तब वसुदेव को स्मरण हो पाया कि वे श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के जन्म के समय ब्राह्मणों को गोदान करना चाहते थे, किन्तु कंस के बन्दी होने के कारण केवल अपने मन में ही दान का संकल्प किया था क्योंकि कंस ने उनकी सारी गौएँ चुरा ली थी। कंस की मृत्यु हो जाने से अब गौएँ छोड़ दी गई थी और उन्हें वस्तुतः ब्राह्मणों को दे दिया गया। श्रीकृष्ण एवं बलराम का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ और उन्होंने गायत्री मंत्र का जप किया। यह मंत्र शिष्यों को यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त दिया जाता है। बलराम जी और श्रीकृष्ण ने इस मंत्र के जप का कर्तव्य उचित रूप से पूरा किया। इस मंत्र का जप करने वाले को कुछ विशेष नियमों और व्रतों का पालन करना पड़ता है। यद्यपि श्रीकृष्ण तथा बलराम जी दोनों ही दिव्यपुरुष थे, तथापि उन्होंने इन विधि-विधानों का कठोरता से पालन किया। दोनों को उनके कुल पुरोहित गर्गाचार्य ने मंत्र दिया। गर्गाचार्य यदुवंश के आचार्य गर्गमुनि के नाम से प्रसिद्ध हैं। वैदिक संस्कृति के अनुसार प्रत्येक सम्माननीय वंश का एक आचार्य अथवा गुरु होता है। जब तक कोई गुरु अथवा आचार्य से दीक्षा तथा मंत्र नहीं लेता है, उसे पूर्णरूप से सुसंस्कृत व्यक्ति नहीं माना जाता है। अतएव यह कहा गया है कि गुरु का आश्रय लेने वाला वास्तव में पूर्णज्ञान में अवस्थित होता है। बलराम जी तथा श्रीकृष्ण भगवान् थे। वे समस्त शिक्षा तथा ज्ञान के स्वामी थे। उनको किसी को गुरु स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, किन्तु जनसाधारण के मार्गदर्शन के हेतु उनहोंने भी आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति के लिए गुरु स्वीकार किया।
आध्यात्मिक जीवन में प्रशिक्षित होने के लिए गायत्री मंत्र में दीक्षित होने के जात शिष्यों को कुछ काल तक घर से बाहर गुरु के निर्देशन में रहने की प्रथा है। काल में शिष्य को गुरु के अधीन साधारण सेवक की भाँति कार्य करना पड़ता आचार्य के अधीन रहने वाले ब्रह्माचारी के लिए बहुत से विधि-विधान होते हैं और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलराम ने गुरु सान्दीपनि मुनि के मार्गदर्शन में रहते हुए दन विधि-विधानों का कठोरता से पालन किया। और उनका आश्रम उत्तर भारत में उज्जैन जिले में अवन्तिपुर में था। शास्त्रों के आदेशानुसार गुरु का आदर भगवान् के समान करना चाहिए और उन्हें श्रीभगवान् के बराबर के स्तर का ही समझना चाहिए। श्रीकृष्ण तथा बलराम दोनों ने उन सिद्धान्तों का और ब्रह्मचर्य के नियमों का भक्तिपूर्वक पालन किया। इस प्रकार उन्होंने अपने गुरु को सन्तुष्ट कर दिया और जिन्होंने उन्हें वैदिक ज्ञान की समस्त जटिलताओं की शिक्षा दी और साथ ही उन्हें उपनिषदों की भी शिक्षा दी, जो कि वैदिक साहित्य के ही पूरक हैं। चूँकि श्रीकृष्ण और बलराम क्षत्रिय थे, अतएव उन्हें विशेष रूप से सैन्यविज्ञान, राजनीति तथा नीतिशास्त्र में भी प्रशिक्षित किया गया। राजनीति में ज्ञान के ये विभाग होते हैं सन्धि कैसे करें, युद्ध कैसे करें, शान्ति कैसे स्थापित करें, फूट डाल कर किस प्रकार राज्य करें तथा आश्रय कैसे दें, आदि। श्रीकृष्ण तथा बलराम को पूर्ण व्याख्या के । साथ इन सभी विषयों की शिक्षा दी गई।
नदी के जल का स्रोत सागर होता है। सागर के जल के वाष्पीकरण द्वारा मेघों का निर्माण होता है। वही जल फिर वर्षा के रूप में समस्त पृथ्वी पर वितरित होता है। अन्ततः वही जल नदियों के रूप में पुन: सागर की ओर जाता है। उसी भाँति भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलराम जी सभी प्रकार के ज्ञान के स्रोत हैं, किन्तु चूँकि वे सामान्य बालकों के समान अभिनय कर रहे थे। अत: उन्होंने एक उदाहरण प्रस्तुत किया जिससे कि सब लोग उचित स्रोत से ज्ञान प्राप्त करें। इस प्रकार उन्होंने गुरु से ज्ञान प्राप्त करना स्वीकर किया।
श्रीकृष्ण एवं बलराम जी ने गुरु से केवल एक बार श्रवण करके सभी कलाओं एवं विज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर ली। मानव-समाज में जिनकी आवश्यकता होती है वे सभी आवश्यक कलाएँ और विज्ञान उन्होंने चौंसठ दिवसों तथा चौंसठ रात्रियों में सीख लिए। दिन में वे अपने गुरु से किसी विषय पर शिक्षा प्राप्त करते थे और रात्रि तक वे उस ज्ञान के विभाग में विशेषज्ञ बन जाते थे।
सर्वप्रथम उन्होंने गायन, गीत रचना तथा विभिन्न रागों को पहचानने की विना सीखी। उन्होंने समय के अनुकूल और प्रतिकूल विभिन्न राग-रागिनियों को सीखा जिस प्रकार भिन्न-भिन्न लयों और सुरों को गाया जाता है और उनकी संगति में विभिन्न प्रकार के तबले और मृदंग आदि को बजाते हैं, उन्होंने वह भी सीखा। उन्होंने लय, सुर और विभिन्न प्रकार के गीतों के साथ नृत्य करना सीखा। उन्होंने नाटक लिखना सीखा और विभिन्न ग्रामीण कलाओं से प्रारम्भ करके उन्होंने सर्वोच्च पूर्णता तक विभिन्न प्रकार की चित्रकारी सीखी। उन्होंने मुख पर तिलक लगाना और गाल तथा कपाल पर भिन्न-भिन्न प्रकार के बिन्दु चित्रित करना भी सीखा। तदनन्तर उन्होंने चावल व आटे के पतले घोल से धरती पर अल्पना बनाना भी सीखा। घर अथवा मन्दिर में शुभ संस्कारों के सम्पादन के समय अल्पना अथवा रंगोली बनाने का प्रचलन अत्यन्त लोकप्रिय है। उन्होंने पुष्पशैया बनाने, वस्त्रों तथा शरीर के अङ्गों को रंगीन चित्रों से सज्जित करने की भी कला सीखी। उन्होंने विभिन्न मूल्यवान रत्नों को आभूषणों में जड़ने की कला के साथ ही जलतरंग बजाना भी सीखा। जल के पात्रों को एक निश्चित मात्रा में जल से भरकर जब उन्हें बजाया जाता है, तो विभिन्न स्वर निकलते हैं और जब उन पात्रों को एकसाथ रख कर बजाया जाता है, तो सुरीली ध्वनि निकलती है। सखाओं के साथ स्नान करते हुए नदी अथवा तालाब में जल कैसे फेंका जाता है, यह भी उन्होंने सीखा। पुष्पसज्जा की कला भी उन्होंने सीखी। सजावट की यह कला ग्रीष्म ऋतु में वृन्दावन के विभिन्न मन्दिरों में आज भी देखी जा सकती है। इसे फुलवारी कहते हैं। मंच, सिंहासन, दीवारें तथा छत सभी पूर्णतया सुसज्जित किए जाते हैं और छोटा-सा फूलों का सुगन्धित फौवारा मध्य में रखा जाता है। ग्रीष्म ऋतु की गर्मी से थके व्यक्ति इन पुष्प सज्जाओं के कारण विश्रान्ति प्राप्त करते हैं।
श्रीकृष्ण तथा बलराम जी ने विभिन्न शैली में केशविन्यास करने की भी कला सीखी। उन्होंने सिर पर विभिन्न प्रकार से मुकुट धारण करना भी सीखा। उन्होंने रंगमंच पर अभिनय करना भी सीखा। नाटक के कलाकारों को कान के ऊपर पुष्पालंकारों से सजाना तथा चन्दन के आलेप और जल का सम्मिश्रण छिड़क कर एक मधुर सुगन्ध उत्पन्न करना भी उन्होंने सीखा। उन्होंने इन्द्रजाल के कार्य दिखाने की कला भी सीखी। इन्द्रजाल में ही "बहुरूपी" नामक एक कला भी होती है। इसके द्वारा व्यक्ति अपना वेश ऐसा बनाता है कि यदि वह अपने मित्र के निकट जाए, तो मित्र भी उसे नहीं पहचान सकता। विभिन्न अवसरों पर जिनकी आवश्यकता ड़ती है उन पेयों को बना नके स्वाद नपेयों को बनाने की कला का भी उन्होंने प्रशिक्षण लिया। उन्होंने रसों, द तथा विभिन्न नशों के प्रभाव का भी अध्ययन किया। उन्होंने विविध का सीना पुरीना और कसीदा काढ़ी का काम भी सीखा। उन्होंने कठपुतली के लिए बारीक धागों की हस्तकला भी सीखी। मधुर सुर निकालने के लिए सितार और तानपूरा आदि वाद्यों पर तार चढ़ाना भी उन्होंने सीख लिया। पाशात उन्होंने पहेलियाँ बनाना और उन्हें हल करना सीखा। उन्होंने वाचन कला सीखी जिसके द्वारा मूर्ख से मूर्ख विद्यार्थी भी शीघ्रता से पढ़ना-लिखना सीख सकता है। उन्होंने नाटक का अभ्यास करना और उसका अभिनय करना सीखा। उन्होंने शब्दपति, रिक्त स्थानों की पूर्ति और वर्गपहेली को हल करने की कला का भी अध्ययन किया।
उन्होंने साहित्य को चित्र संकेत में चित्रित करना भी सीखा। कुछ देशों में चित्र सांकेतिक साहित्य अभी भी प्रचलित हैं। किसी कथा को चित्रों द्वारा व्यक्त किया जाता है। उदाहरणार्थ, घर जाते हुए पुरुष को व्यक्त करने के लिए एक पुरुष और एक घर को चित्रित किया जाता है। श्रीकृष्ण और बलराम जी ने वास्तु-कला अथवा गृह-निर्माण कला भी सीखी। रत्नों की प्रभा व उनके रंगों की गुणवत्ता का अध्ययन करके मूल्यवान रत्नों को परखने की कला भी उन्होंने सीखी। उन्होंने सोने तथा चाँदी में रत्नों को जड़ना सीखा। उन्होंने भूमि का अध्ययन करके खनिज पदार्थों को ढूँढ़ने की विद्या सीखी। आजकल भूमि के अध्ययन की विद्या (भूतत्त्व विज्ञान) एक अत्यधिक विशिष्ट विज्ञान है, किन्तु प्राचीनकाल में यह साधारण-जन के लिए भी सामान्य ज्ञान की विद्या थी। उन्होंने जड़ी-बूटियों और पेड़-पौधों का अध्ययन किया तथा उनका विविध रोगों के लिए ओषधि का प्रभाव भी सीखा। पौधों की विभिन्न जातियों के अध्ययन के द्वारा उन्होंने पौधों एवं वृक्षों की वर्णसंकर जातियाँ पैदा करके विभिन्न प्रकार के फल प्राप्त करना सीखा। उन्होंने मेढ़ों और मुर्गों को प्रशिक्षित करके उन्हें लड़ाने का खेल सीखा। तत्पश्चात् उन्होंने तोतों को बोलना सिखाने और लोगों के प्रश्नों के उत्तर देना सिखाने की कला सीखी।
उन्होंने व्यावहारिक मनोविज्ञान, अर्थात् दूसरों के मन को प्रभावित करने और उससे अपने मनोनुकूल कार्य करवाने की विद्या भी सीखी। कभी-कभी इसे वाकरण भी कहा जाता है। उन्होंने केश-प्रक्षालन, केशरंजन तथा केशों को भिन्न भिन्न प्रकार से घुघराला करने की कला भी सीखी। दूसरे की पुस्तक को बिना देखे उसमें क्या लिखा है, यह बताना भी सीख लिया। और दूसरे की बन्द मुट्ठी में क्या है, यह बताना भी सीखा। कभी-कभी बालक इस कला का अनुकरण करने में किन्तु वे ठीक-ठीक नहीं बता पाते हैं। एक बालक अपनी मुट्ठी में कुछ रख कर अपने मित्र से पूछता है, “क्या तुम बता सकते हो कि मुट्ठी के अन्दर क्या है ?" और मित्र यद्यपि ठीक-ठीक नहीं बता सकता है फिर भी कुछ सुझाव देता है। किन्तु एक ऐसी कला भी है, जिससे मुट्ठी में क्या है, इसे वास्तव में बताया जा सकता है।
श्रीकृष्ण तथा बलराम जी ने विभिन्न देशों की भाषाओं को बोलना और समझना सीखा। उन्होंने न केवल मनुष्यों की भाषा सीखी, अपितु श्रीकृष्ण तो पशु-पक्षियों से भी सम्भाषण कर सकते थे। गोस्वामियों द्वारा संग्रहीत वैष्णव साहित्य में इस बात के प्रमाण उपलब्ध हैं । तदनन्तर उन्होंने पुष्पों से रथ तथा विमान बनाने की कला सीखी। रामायण में कहा गया है कि रावण को पराजित करने के पश्चात् रामचन्द्र पुष्पनिर्मित विमान "पुष्प-रथ" (पुष्पक विमान) द्वारा लंका से भारतवर्ष आए थे। फिर श्रीकृष्ण तथा बलराम ने लक्षण देख कर आगे की घटनाओं के विषय में भविष्यवाणी करने की कला सीखी। “खनार वचन" नामक एक पुस्तक में विभिन्न प्रकार के लक्षणों एवं शकुनों का विवरण दिया गया है। बाहर जाते समय यदि जलपूर्ण कलश के दर्शन हों, तो वह एक अत्यन्त शुभ लक्षण है। किन्तु यदि रिक्त कलश के दर्शन हों, तो वह लक्षण शुभ नहीं है। इसी प्रकार यदि बछड़े सहित दुही जा रही गाय के दर्शन हों, तो यह एक शुभ लक्षण है। इस लक्षणों को समझने से व्यक्ति आगामी घटनाओं के विषय में भविष्यवाणी कर सकता है और श्रीकृष्ण तथा बलराम ने इस विज्ञान को सीखा। उन्होंने मातृका बनाने की भी कला सीखी। मातृका वह वर्ग होता है, जिसमें प्रत्येक पंक्ति में तीन अङ्क होते हैं। किसी तरफ से भी किन्हीं तीन को गिनने पर उनका योग नौ ही होता है। मातृकाएँ कई प्रकार की तथा भिन्न-भिन्न प्रयोजन के लिए होती हैं।
श्रीकृष्ण तथा बलराम ने मूल्यवान रत्नों, जैसे हीरे आदि, को तराशने की कला सीखी। मन में आशु पद्य रचना के द्वारा प्रश्नोत्तर करने तथा उत्तर देने की कला भी उन्होंने सीखी। विभिन्न पदार्थी के संयोगों तथा क्रम-परिवर्तनों की क्रिया-प्रतिक्रिया के विज्ञान का भी उन्होंने अध्ययन किया। उन्होंने मनोचिकित्सक की कला भी सीखी। मनोचिकित्सक दूसरे व्यक्ति के मन में होने वाली गतिविधियों को समझ सकता है। उन्होंने इच्छा को सन्तुष्ट करने की कला सीखी। कामनाओं की पूर्ति अत्यन्त कठिन होती है। यदि कोई ऐसी वस्तु की कामना करे, जिसे पूर्ण करना असम्भव हो तब इच्छा पर विजय पाकर उसे सन्तुष्ट किया जा सकता है और यह एक कला है। इस कला द्वारा काम-वासना का भी दमन किया जा सकता है। बचारी के जीवन में भी ऐसे क्षण आ सकते हैं जब वह कामातुर हो जाता है। इस कला द्वारा शत्रु को भी मित्र बनाया जा सकता है, अथवा किसी तत्त्व की क्रिया को दसरी वस्तुओं में स्थानान्तरित किया जा सकता है।
समस्त ज्ञान-विज्ञान तथा कलाओं के सागर श्रीकृष्ण तथा बलराम जी ने उपरिलिखित सभी कलाओं और विज्ञानों के पूर्ण बोध का प्रदर्शन करते हुए अपने गरु जी की सेवा के लिए उनकी किसी भी इच्छापूर्ति के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया। विद्यार्थियों द्वारा गुरु की यह इच्छापूर्ति गुरु-दक्षिणा कहलाती है। विद्यार्थी के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षक के द्वारा भौतिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के बदले शिक्षक को सन्तुष्ट करे। जब श्रीकृष्ण तथा बलराम ने इस प्रकार अपनी सेवा प्रस्तुत की, तो सांदीपनि मुनि ने सोचा कि उनसे किसी ऐसी अद्भुत तथा असामान्य वस्तु की माँग करनी चाहिए, जिसे साधारण विद्यार्थी न दे सकें। अतएव उन्होंने अपनी पत्नी से मंत्रणा की कि उनसे क्या माँगना चाहिए। उन्होंने तथा उनकी पत्नी ने श्रीकृष्ण और बलराम की असाधारण शक्तियों का अनुभव किया था और वे समझ सकते थे कि ये दोनों बालक वस्तुतः श्रीभगवान् हैं। अत: उन्होंने प्रभास क्षेत्र के तट पर समुद्र में डूब चुके अपने पुत्र को पुनः लौटाने की माँग करने का निश्चय किया।
जब श्रीकृष्ण और बलराम ने गुरु से उनके पुत्र के प्रभासक्षेत्र के तट पर हुई मृत्यु के विषय में सुना तो अपने रथ पर बैठ कर उन्होंने तत्काल सागर की ओर प्रस्थान कर दिया। सागर तट पर पहुँच कर उन्होंने सागर के अधिष्ठात्री देव को गुरु पुत्र के लौटाने का आदेश दिया। वरुण देव तत्काल भगवान् के समक्ष प्रकट हुए और अत्यन्त विनम्रता से आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया।
भगवान् ने कहा, "कुछ काल पूर्व तुमने हमारे गुरु के पुत्र को डुबवा दिया था। मेरा आदेश है कि तुम उसे लौटा दो।"
समुद्रदेव ने उत्तर दिया, "उस बालक को वस्तुत: मैंने. नहीं, अपितु पंचजन नामक असुर ने पकड़ा था। यह विशाल असुर साधारणत: एक शंख के रूप में गहरे जल में रहता है। आपके गुरु के पुत्र को सम्भवतः उसने खा लिया होगा और अब वे उसके उदर में होंगे।"
यह सुनकर श्रीकृष्ण ने गहन जल में डुबकी मारी और पंचजन असुर को पकड़ लिया। उन्होंने उसी स्थान पर उसका वध कर दिया, किन्तु उसके उदर में उन्हें गुरुपुत्र नहीं मिला। अतएव शंख आकार वाले असुर के मृत शरीर को लेकर वे प्रभास क्षेत्र के तट पर अपने रथ के पास गये। वहाँ से उन्होंने यमराज की पुरी संयमनी की ओर प्रस्थान किया। हलायुध नाम से प्रसिद्ध अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे और उन्होंने अपना शंख बजाया।
उस ध्वनि को सुन कर यमराज प्रकट हुए और सादर प्रणाम करके उन्होंने श्रीकृष्ण का स्वागत किया। यमराज को ज्ञात था कि श्रीकृष्ण तथा बलराम कौन हैं. अतएव उन्होंने तत्काल ही अपनी विनीत सेवा भगवान् को अर्पित की। भूतल पर श्रीकृष्ण एक साधारण मानव के रूप में प्रकट हुए थे, किन्तु वस्तुतः श्रीकृष्ण और बलराम प्रत्येक जीव के हृदय में वास करने वाले परमात्मा हैं। वे स्वयं विष्णु हैं, किन्तु साधारण बालकों की भाँति अभिनय कर रहे थे। जब यमराज ने भगवान् को अपनी सेवा अर्पित की, तब श्रीकृष्ण ने उनसे गुरु-पुत्र को लौटाने को कहा, जो कि अपने कर्म-फल के अनुसार वहाँ उनके पास आया था। श्रीकृष्ण ने कहा, "मेरे आदेश को परम आदेश मानते हुए तुम्हें तत्काल ही मेरे गुरु के पुत्र को लौटा देना चाहिए।"
यमराज ने वह बालक श्रीभगवान् को लौटा दिया और श्रीकृष्ण तथा बलराम उसे उसके पिता के समीप ले आए। तदनन्तर दोनों ने गुरु से पूछा कि क्या वे उनसे कुछ और माँगना चाहते हैं। गुरु ने उत्तर दिया, "प्रिय पुत्रो! तुमने मेरे लिए बहुत किया है। मैं अब पूर्णरूपेण सन्तुष्ट हूँ। जिस व्यक्ति के तुम जैसे शिष्य हों उसको किस वस्तु का अभाव हो सकता है ? प्रिय बालको! अब तुम घर जा सकते हो। तुम्हारे इन यशस्वी कार्यों की समस्त जगत में सदैव ही प्रशंसा होगी। तुम समस्त आशीर्वादों से परे हो, किन्तु फिर भी मेरा कर्तव्य है कि मैं तुमको आशीर्वाद दूँ। मेरा तुमको वरदान है कि तुम्हारी वाणी वेद वाक्यों की भाँति शाश्वत रूप में नवीन रहे। तुम्हारी शिक्षाओं का न केवल इस ब्रह्माण्ड में अथवा इस युग में, अपितु सर्वकाल व सभी युगों में सम्मान होगा और वे और भी अधिक नवीन तथा महत्त्वपूर्ण रहेंगी।" गुरु के इस वरदान के कारण ही भगवान् श्रीकृष्ण की भगवद्गीता सदैव अधिकाधिक नवीन है और न केवल इस ब्रह्माण्ड में अपितु अन्य लोकों और ब्रह्माण्डों में भी मान्यताप्राप्त है।
गुरु की आज्ञा प्राप्त होने पर श्रीकृष्ण और बलराम तत्काल अपने रथों पर बैठकर घर के लिए चले। वायु के समान अत्यन्त तीव्र गति से चलते हुए और मेघों की गड़गड़ाहट जैसी ध्वनि करते हुए रथ पर विराजमान होकर वे घर लौट आए। उनके दर्शनों से दीर्घकाल तक वञ्चित रहने वाले मथुरावासी उनका दर्शन करके यधिक प्रसन्न हो गए। उन्हें वैसा ही आनन्द हुआ जैसे उन्हें अपनी खोई हुई निधि मिल गई हो।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "श्रीकृष्ण द्वारा अपने र पत्र की पुनः प्राप्ति" नामक पैंतालीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
 
 
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥