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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 47: गोपियों को श्रीकृष्ण का सन्देश प्रदान करना  » 
 
 
 
 
 
जब गोपियों ने उद्धव जी के दर्शन किए, तो उन्होंने देखा कि उनकी और श्रीकृष्ण की मृखाकृति में अत्यधिक साम्य था। वे समझ गईं कि वे श्रीकृष्ण के एक महान् भक्त हैं। उनकी भुजाएँ लम्बी थीं और उनके नेत्र कमलदल की भाँति थे। उन्होंने पीत वस्त्र धारण कर रखा था और कण्ठ में कमलपुष्पों की माला थी। उनका मुख अत्यन्त सुन्दर था। सारूप्य मुक्ति प्राप्त कर लेने के कारण उद्धव जी की शारीरिक आकृति भगवान् के जैसी ही थी और वे लगभग श्रीकृष्ण के समान ही दिखाई देते थे। श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति में गोपियाँ नियमपूर्वक अपना कर्तव्य समझ कर प्रात:काल माता यशोदा के घर आती थीं। उन्हें ज्ञात था कि माता यशोदा तथा नन्द महाराज सदा दुख से आतुर रहते हैं, अत: वृन्दावन के वयोवृद्ध व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ (नन्द व यशोदा) के पास आकर उन्हें प्रणाम करना उन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य बना लिया था। कृष्ण की सखियों को देख कर नन्द जी तथा यशोदा जी दोनों श्रीकृष्ण का स्मरण करते थे और सन्तुष्ट हो जाते थे। गोपियों को भी नन्द तथा यशोदा जी के दर्शन करके प्रसन्नता होती थी।
जब गोपियों ने देखा कि उद्धव जी शारीरिक आङ्गों में भी श्रीकृष्ण के प्रतिनिधि थे, तो उन्होंने विचार किया कि उद्धव जी पूर्णरूप से श्रीभगवान् के प्रति शरणागत भक्त होंगे। वे विचार करने लगीं, “ये कौन किशोर हैं, जो एकदम श्रीकृष्ण के समान दिखता है ? श्रीकृष्ण के समान ही इनके भी कमल दल-से नयन हैं, वैसी ही उन्नत नासिका और सुन्दर मुख है। ये श्रीकृष्ण की ही भाँति मुस्कुरा भी रहे हैं। प्रत्येक दृष्टि से ये श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के सदृश ही हैं। इनका वेश भी एकदम श्रीकृष्ण के ही समान है। ये किशोर कहाँ से आए हैं ? वंह कौन सौभाग्यवती किशोरी है, जिसके ये पति हैं ?" गोपियाँ इस प्रकार आपस में वार्तालाप करने लगीं। वे उनके विषय में जानने को अत्यन्त उत्सुक थीं। चूँकि वे निश्छल ग्रामबालाएँ थीं, अत: वे उद्धव जी को घेर कर खड़ी हो गईं।
जब गोपियों को ज्ञात हुआ कि उद्धव जी श्रीकृष्ण का सन्देश लाए हैं, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हो उठीं और उन्हें एकान्त स्थान में बुला लिया और उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। वे उनसे अत्यन्त मुक्त रूप से वार्तालाप करना चाहती थीं। वे नहीं चाहती थीं कि कोई अज्ञात व्यक्ति कोई उलझन उत्पन्न करे। अत्यन्त विनम्रभाव से और विनीत शब्दों में उन्होंने उनका स्वागत करते हुए कहा: "हमें ज्ञात है कि आप श्रीकृष्ण के अत्यन्त अन्तरंग सखा हैं; इसीलिए उन्होंने अपने माता-पिता को धीरज बँधाने के निमित्त आपको वृन्दावन भेजा है। हम समझ सकती हैं कि पारिवारिक स्नेह अत्यन्त दृढ़ होता है। महान् मुनि भी जिन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया है, अपने परिवार के सदस्यों के प्रति स्नेह को शत प्रतिशत नहीं त्याग पाते हैं। यदा कदा वे उन्हें याद करते रहते हैं । अतएव श्रीकृष्ण ने आपको अपने माता-पिता के पास भेजा है, अन्यथा वृन्दावन में अब उनका कोई प्रयोजन नहीं है। अब वे नगर में हैं। अब वृन्दावन ग्राम अथवा गायों की गोचरभूमि के विषय में जान कर उन्हें क्या करना है? इन सब बातों का श्रीकृष्ण के लिए अब कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि अब वे नगरनिवासी हो गए हैं।
"निश्चय ही अब उन्हें उन व्यक्तियों से कोई काम नहीं है, जो उनके परिवार के सदस्य नहीं हैं। कोई अपने परिवार से बाहर के व्यक्तियों की चिन्ता क्यों करे? विशेष रूप से दूसरों की पत्नियों से सम्बद्ध व्यक्ति तभी तक उनमें रुचि रखता है। जब तक इन्द्रिय-तृप्ति की आवश्यकता रहती है। वह उस भ्रमर की भाँति है जिसे पुष्पों में तभी तक रुचि है जब तक वह उनका मधु लेना चाहता है। यह अत्यन्त मनोवैज्ञानिक एवं स्वाभाविक है कि जैसे ही प्रेमी का धन समाप्त हो जाता है वैसे नया की उसमें रुचि भी समाप्त हो जाती है। उसी भाँति जब नागरिकों को ज्ञात ता है कि शासन उनकी सुरक्षा करने में असमर्थ है, तब वे उस देश को त्याग देते एक विद्यार्थी अपनी शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् अपने विद्यालय तथा गुरु से बन्ध त्याग देता है। पूजा कराने वाले ब्राह्मण अपनी दक्षिणा के पश्चात् अपने जमान को त्याग देते हैं। फल की ऋतु समाप्त होने पर पक्षियों की वृक्ष में रुचि भी समाप्त हो जाती हैं। किसी मेज़बान के गृह में भोजन कर लेने के पश्चात् अतिथि उस गहस्थ से सम्बन्ध तोड़ लेता है। दावाग्नि के पश्चात् जब वन में हरी घास की कमी हो जाती है, तब मृग तथा अन्य पशु उस वन को छोड़ देते हैं। इसी प्रकार एक पुरुष भी अपनी प्रिया सखी का भोग करने के बाद उससे सम्बन्ध त्याग देता है।" इस प्रकार इतनी उपमाओं का उल्लेख करके गोपियाँ परोक्ष रूप से श्रीकृष्ण को दोष देने लगीं।
उद्धव जी को ज्ञात था कि वृन्दावन की गोपिकाएँ केवल श्रीकृष्ण और उनकी बाल-लीलाओं के चिन्तन में ही मग्न थीं। उद्धव जी से श्रीकृष्ण के विषय में वार्तालाप करते हुए वे अपने घर के काम-काज को पूरी तरह से भूल गईं। जैसे-जैसे श्रीकृष्ण में उनकी रुचि बढ़ती गई, उनको स्वयं का भी विस्मरण हो गया।
उन गोपियों में से श्रीमती राधारानी नामक एक गोपी श्रीकृष्ण का व्यक्तिगत सान्निध्य पा चुकी थीं। इसी कारण वे श्रीकृष्ण के चिन्तन में इतनी मग्न हो गईं कि वे वहाँ उड़ते हुए तथा उनके पदकमलों का स्पर्श करने का प्रयास करने वाले एक भ्रमर से संभाषण करने लगीं। जब अन्य गोपियाँ श्रीकृष्ण के दूत उद्धव जी से वार्तालाप कर रही थीं, तब श्रीमती राधारानी ने भ्रमर को श्रीकृष्ण का दूत समझा और उससे इस प्रकार वार्तालाप करने लगी: “हे भ्रमर! तुम्हें पुष्पों का मधुपान करने का अभ्यास है, अतएव तुमने श्रीकृष्ण का दूत होने में रुचि प्रकट की है, क्योंकि उनका भी वही स्वभाव है जैसा तुम्हारा है। श्रीकृष्ण जब मेरी किसी प्रतिस्पर्धिनी युवती के स्तन का स्पर्श कर रहे थे, तब उनकी पुष्पमाला पर कुमकुम लग गया था। वही कुमकुम मैं तुम्हारी मूंछों पर लगा हुआ देख रही हूँ। तुम उस माला का स्पर्श करके अत्यन्त अभिमान का अनुभव कर रहे हो और तुम्हारी मूछे रक्ताभ हो गई हैं। तुम यहाँ मेरे लिए श्रीकृष्ण का सन्देश ले कर आए हो। तुम मेरे चरणस्पर्श करने को व्याकुल हो। किन्तु हे भ्रमर ! मैं तुम्हें चेतावनी देती हूँ कि तुम मेरा स्पर्श न करना। तुम अविश्वसनीय स्वामी के अविश्वसनीय सेवक हो। तुम्हारे अविश्वसनीय स्वामी श्रीकृष्ण का कोई भी सन्देश मुझे नहीं चाहिए।" हो सकता है कि श्रीमती राधारानी ने जान बूझ कर श्रीकृष्ण के दूत उद्धव जी की आलोचना करने के लिए प्रमा इस प्रकार व्यंग्य करते हुए सम्बोधित किया हो। परोक्ष रूप से श्रीमती राधारानी उद्धव जी को न केवल शारीरिक आकृति में श्रीकृष्ण के अनुरूप पाया, अपित उन्होंने उन्हें श्रीकृष्ण के बराबर ही समझा। इस प्रकार उन्होंने परोक्षरूप से इंगित किया कि उद्धव जी भी उतने ही अविश्वसनीय हैं जितने कि स्वयं श्रीकृष्ण। राधारानी उन विशिष्ट कारणों को बताना चाहती थीं जिनसे वे श्रीकृष्ण तथा उनके दूत से असन्तुष्ट थीं।
उन्होंने भ्रमर को सम्बोधित किया, "तुम्हारे स्वामी श्रीकृष्ण के गुण तुम्हारे जैसे ही हैं । तुम एक पुष्प पर बैठते हो, उसका थोड़ा मधु लेकर तुम तत्काल उड़ जाते हो और किसी दूसरे पुष्प पर बैठ कर उसका रसास्वादन करते हो। तुम ठीक अपने स्वामी श्रीकृष्ण की भाँति हो। उन्होंने मुझे अपने अधरामृत के रसास्वादन का अवसर एक ही बार दिया और फिर मुझे बिल्कुल त्याग कर चले गए। मुझे यह भी ज्ञात है कि नित्य कमलासन पर बैठने वाली भाग्य-देवी लक्ष्मी जी सतत श्रीकृष्ण की सेवा करती रहती हैं। किन्तु मुझे यह ज्ञात नहीं कि वे श्रीकृष्ण पर इतनी मोहित क्यों हो गईं। यद्यपि उनको श्रीकृष्ण का वास्तविक चरित्र ज्ञात है, तथापि वे उन पर इतनी अनुरक्त क्यों हैं। हो सकता है कि वे कृष्ण के मीठे शब्दों में इतना फँस गई हो कि वे उनके वास्तविक चरित्र को न समझ सकती हों। जहाँ तक हमारा सम्बन्ध है, हम उन लक्ष्मी जी से अधिक बुद्धिमती हैं। अब श्रीकृष्ण अथवा उनके दूत हमें और नहीं छल सकते।"
विशेषज्ञों के मतानुसार भाग्यदेवी लक्ष्मी श्रीमती राधारानी का ही एक अधीनस्थ विस्तार हैं । जिस प्रकार विष्णुमूर्तियों के रूप में श्रीकृष्ण के असंख्य विस्तार हैं, उसी प्रकार उनकी ह्लादिनी शक्ति राधारानी के भी लक्ष्मियों के रूप में असंख्य विस्तार हैं। अतएव भाग्यदेवी लक्ष्मी जी सदैव ही गोपियों के पद तक उन्नत होने को उत्सुक रहती हैं।
श्रीमती राधारानी ने आगे कहा, "अरे मूर्ख भ्रमर! तुम श्रीकृष्ण का यशगान करके और मुझे सन्तुष्ट करके पुरस्कार प्राप्त करना चाहते हो, किन्तु यह एक व्यर्थ का प्रयास है। हम गोपियाँ तो पूरी तरह से सम्पत्ति से विहीन हैं। हम अपने घर परिवार से दूर हैं। हम श्रीकृष्ण के विषय में भलीभाँति जानती हैं। हमें तुमसे भी अधिक जानकारी है। अतएव तुम उनके विषय में जो कुछ भी कहोगे, वह हमारे लिए एक पुरानी कहानी के समान होगा। श्रीकृष्ण अब नगर में रहते हैं और अर्जुन सखा के रूप में जाने जाते हैं। अब उनकी अनेक नवीन सखियाँ हैं और सम्पन्देह वे श्रीकृष्ण की संगति में अत्यन्त प्रसन्न हैं, क्योंकि उनके हृदय की ज्वलन्त पीटा श्रीकृष्ण ने अब दूर कर दी है, अत: वे प्रसन्न हैं । यदि तुम वहाँ जाकर श्रीकृष्ण का यशगान करो, तो सम्भवतः वे प्रसन्न होकर तुम्हें पुरस्कार दें। तुम अपने चाटुकार व्यवहार से मुझे शान्त करने का प्रयास कर रहे हो और इसीलिए तुमने अपना सिर मेरे चरणों के नीचे रख दिया है। किन्तु तुम जो छल करना चाहते हो वह मुझे ज्ञात है। मुझे ज्ञात है कि तुम एक बहुत बड़े छलिया श्रीकृष्ण के दूत बन कर आए हो, अतएव तुम मेरा पीछा छोड़ दो।" ,
"मैं समझ सकती हूँ कि तुम दो विरोधियों का पुनर्मिलन कराने में अत्यन्त कुशल हो, किन्तु तुम्हें भी यह ज्ञात होना चाहिए कि मैं न तो तुम पर भरोसा कर सकती हूँ और न ही तुम्हारे स्वामी श्रीकृष्ण पर। हमने केवल श्रीकृष्ण के लिए अपना परिवार, पति, सन्तान तथा सम्बन्धियों का त्याग कर दिया और इसके बदले उन्होंने हमारे प्रति कोई भी आभार नहीं अनुभव किया। अन्ततोगत्वा हमें उन्होंने पूरी तरह से अकेले छोड़ दिया है। क्या तुम सोच सकते हो कि हम पुनः श्रीकृष्ण पर विश्वास करेंगी? हमें ज्ञात है कि श्रीकृष्ण नवयुवतियों के संसर्ग के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते हैं। यह उनका स्वभाव है। उन्हें मथुरा में कठिनाई हो रही है, क्योंकि अब वे गाँव में भोलीभाली ग्वालबालाओं के मध्य नहीं हैं। श्रीकृष्ण अब कुलीन समाज में है और उन्हें अन्य नवयुवतियों से मित्रता करने में कठिनाई हो रही होगी। सम्भवतः तुम यहाँ उनके पक्ष में तर्क करने आए हो, अथवा हमें वहाँ ले जाने के लिए आए हो। किन्तु श्रीकृष्ण यह अपेक्षा क्यों करते हैं कि हम वहाँ जाएँगी? श्रीकृष्ण तो न केवल वृन्दावन, मथुरा अपितु पूरे ब्रह्माण्ड में सभी युवतियों को फुसलाने की योग्यता रखते हैं। उनकी अद्भुत तथा मोहिनी मुस्कान इतनी मनोहारी है और उनकी भ्रू-भंगिमा इतनी सुन्दर है कि वे स्वर्गलोक, भूलोक अथवा पाताललोक से किसी भी स्त्री को बुला सकते हैं। भाग्य की सभी देवियों में प्रमुख महालक्ष्मी भी उनकी सेवा करने को लालायित रहती हैं। ब्रह्माण्ड की इन सभी युवतियों के समक्ष हम क्या हैं? हम तो अत्यन्त तुच्छ हैं।
"श्रीकृष्ण स्वयं को अत्यन्त उदार कहते हैं और महान् सन्तगण उनकी स्तुति करते हैं। चूँकि हम अत्यन्त दीन तथा श्रीकृष्ण द्वारा उपेक्षित हैं, अत: यदि वे हम पर थोड़ी दया दिखाएँगे, तो उनके गुणों का वास्तविक उपयोग हो सकता है। हे दीन दूत! तुम तो एक अल्पबुद्धि सेवक-मात्र हो। तुम्हें श्रीकृष्ण के विषय में अधिक ज्ञात नहीं है। तुम्हें ज्ञात नहीं है कि वे कितने अकृतज्ञ और कठोर हैं। ऐसा वे न के इस जीवन में अपितु पूर्वजन्मों में भी रहे हैं। यह सब हमने अपनी दादी पौर्णमापी से सुना है। उन्होंने हमें बताया है कि पिछले जन्म में श्रीकृष्ण एक क्षत्रिय परिवार में प्रकट हुए थे और श्रीरामचन्द्र के नाम से विख्यात थे। उस जन्म में अपने एक मित्र के शत्रु बालि का, एक क्षत्रिय की भाँति वध करने के स्थान पर, उन्होंने एक व्याध (शिकारी) की भाँति उसका वध किया। एक व्याध सुरक्षित स्थान में छुप कर पश के सामने आए बिना ही उसका वध करता है। अतः भगवान् श्री रामचन्द्र को एक क्षत्रिय की भाँति बालि से प्रत्यक्ष युद्ध करना चाहिए था, किन्तु अपने मित्र द्वारा प्रेरित होकर उन्होंने एक वृक्ष के पीछे से उसका वध किया था। इस प्रकार उन्होंने एक क्षत्रिय के धार्मिक नियमों का उल्लंघन किया था। वे सीता-सौन्दर्य के प्रति इतने आकर्षित थे कि उन्होंने रावण की बहन शूर्पणखा की नाक व कान काट कर उसे कुरूप कर दिया। शूर्पणखा ने राम जी के सामने विवाह का प्रस्ताव किया और एक क्षत्रिय के रूप में उन्हें उसे सन्तुष्ट करना चाहिए था। किन्तु वे इतने स्वार्थी थे कि वे सीता देवी को न भूल सके और शूर्पणखा को कुरूप बना दिया। क्षत्रिय रूप में उस जन्म के पूर्व, उन्होंने वामन देव के नाम से एक ब्राह्मण बालक के रूप में जन्म लिया था। उस समय उन्होंने बलि महाराज से दान माँगा था। बलि महाराज इतने उदार थे कि उन्होंने वामन देव को अपना सर्वस्व दे दिया, किन्तु वामन देव के रूप में श्रीकृष्ण ने अकृतज्ञता से उन्हें एक कौवे की भाँति बन्दी बना कर पाताल लोक की राजधानी में धकेल दिया। हमें श्रीकृष्ण के विषय में सब ज्ञात है कि वे कितने अकृतज्ञ हैं। किन्तु कठिनाई यही है कि उनके इतने क्रूर एवं कठोरहृदय होने पर भी उनके विषय में वार्तालाप करना छोड़ पाना हमारे लिए अत्यन्त कठिन है।
केवल हम ही यह वार्तालाप छोड़ने में असमर्थ हैं, अपितु महर्षि व सन्तगण भी उनके विषय में वार्तालाप करने में संलग्न रहते हैं। हम वृन्दावन की गोपियाँ इस श्यामवर्ण किशोर से और मैत्री नहीं करना चाहती हैं, किन्तु हमें यह नहीं ज्ञात है कि हम उनकी गतिविधियों के विषय में वार्तालाप करना और उनका स्मरण करना किस प्रकार त्यागें?"
चूँकि श्रीकृष्ण अद्वय (परम) हैं, अत: उनका तथाकथित निर्दय चरित्र भी उतना ही आस्वादनीय है, जितना कि उनका दयालु चरित्र । सन्तजन और महान् भक्त गोपियों के समान किसी भी परिस्थिति में श्रीकृष्ण को नहीं त्याग सकते हैं । अतएव भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्तुति की, " श्रीकृष्ण! आप प्रत्येक दृष्टि से मुक्त एवं स्वतन्त्र है। आप या तो मेरा आलिंगन करें, अथवा मुझे अपने चरणों के नीचे कुचल दें - जैसी आपकी रुचि हो वैसा आप करें। मुझे पूरे जीवन भर अपने दर्शन न देकर मेरा हृदय भग्न कर सकते हैं, किन्तु आप ही मेरे प्रेम के केन्द्र हैं।"
श्रीमती राधारानी ने आगे कहा, "मेरे विचार में किसी को श्रीकृष्ण के विषय में नहीं सुनना चाहिए, क्योंकि जैसे ही श्रीकृष्ण के लीलामृत की एक बूंद भी कान में पडती है वैसे ही व्यक्ति तत्काल राग और द्वेष के द्वन्द्व स्तर से ऊपर उठ जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति भौतिक आसक्ति के संदूषण से पूर्णरूपेण मक्त हो जाता है और इस भौतिक जगत, परिवार, गृह, पत्नी, सन्तान आदि उन सभी वस्तुओं का मोह त्याग देता है, जो भौतिक रूप से सभी मानव को प्रिय होती हैं। भौतिक उपलब्धियों से रहित होकर वह अपने सम्बन्धियों को भी दुखी करता है और स्वयं भी दुखी होता है। फिर वह मानव रूप में अथवा अन्य किसी भी योनि में, चाहे वह पक्षी-योनि ही हो, साधु बन कर श्रीकृष्ण की खोज में भटकता रहता है। श्रीकृष्ण को, उनके नाम, उनके गुण, उनके रूप, उनकी लीलाओं, उनकी साज सामग्री और उनके संगी-साथियों को तथ्य रूप से समझना अत्यन्त कठिन है।।
श्रीमती राधारानी ने श्रीकृष्ण के श्यामवर्ण दूत से आगे कहा, "कृपया अब श्रीकृष्ण के विषय में और बातें न करो। किसी और विषय में बातें करना श्रेष्ठ होगा। हम तो व्याध के मधुर संगीत की गूंज से मुग्ध चितकबरी जंगली हिरनी की भाँति पहले से ही शापित हैं । उसी की भाँति हम श्रीकृष्ण के मधुर वचनों से मोहित हो गई हैं और बारम्बार हम उनके चरणों के नखों की प्रभा का चिन्तन कर रही हैं और उनके संग के लिए हम और अधिक लालायित होती जा रही हैं, अतएव मेरी तुमसे विनती है कि श्रीकृष्ण के विषय में और चर्चा न करो।।
भ्रमर-दूत से श्रीमती राधारानी की यह वार्ता और उनके द्वारा श्रीकृष्ण को कई प्रकार से दोष देना, साथ ही साथ उनके विषय में चर्चा का त्याग करने में उनकी असमर्थता आदि महाभाव के लक्षण हैं। महाभाव श्रेष्ठतम दिव्य भाव का नाम है। इस महाभाव का प्राकट्य केवल राधारानी और उनकी सखियों में ही सम्भव है। श्रील रूप गोस्वामी और विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जैसे महान् आचार्यों ने राधारानी के इस महाभाव-उद्गार का विश्लेषण किया है। उन्होंने विभिन्न भावों को उद्भूर्णा अर्थात् विभ्रम तथा जल्पप्रतिजल्प अथवा प्रलाप को कई रूपों में वर्णन किया है। राधारानी में हमें उज्ज्वल रस दिखाई देता है, जिसका अर्थ है सर्वाधिक प्रदीप्त रत्न अथवा भगवत् प्रेम ।
जब राधारानी भ्रमर से वार्तालाप कर रही थीं और वह इधर-उधर उड़ रहा था, तो अचानक वह उनकी दृष्टि से लुप्त हो गया। श्रीकृष्ण के वियोग में ही अत्यन्त शोकाकुल थीं और भ्रमर से वार्तालाप करके आनन्द अनुभव कर रही थी। यह सोचकर कि, वे श्रीकृष्ण के विरुद्ध जो बातें कर रही थीं उन्हें श्रीकृष्ण को बताने के लिए भ्रमर-दूत सम्भवतः उनके पास लौट गया हो, राधारानी विक्षिप्त-सी हो गईं। उन्होंने सोचा “ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण बहुत दुखी होंगे।" इस प्रकार वे एक अन्य प्रकार के भाव में मग्न हो गईं।
इसी बीच वह भ्रमर इधर-उधर उड़ कर पुनः उनके समक्ष प्रकट हो गया। वे विचार करने लगीं, "श्रीकृष्ण अभी भी मुझ पर कृपालु हैं। दूत द्वारा फूट डालने वाला सन्देश लाने पर भी वे इतने दयालु हैं कि उन्होंने मुझे अपने पास बुला लाने के लिए भ्रमर को फिर भेजा है।" इस बार श्रीमती राधारानी अत्यन्त सावधान थीं कि वे श्रीकृष्ण के विरुद्ध कुछ न कहें। उन्होंने कहा, "प्रिय सखा ! मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ; श्रीकृष्ण इतने दयालु हैं कि उन्होंने तुम्हें पुनः भेज दिया है। श्रीकृष्ण इतने दयालु और मेरे प्रति स्नेही हैं कि उनके विरुद्ध मेरा सन्देश ले जाने पर भी सौभाग्यवश उन्होंने तुम्हें फिर भेज दिया है। प्रिय सखा! तुम्हारी जो इच्छा हो, तुम मुझसे माँग सकते हो। तुम मुझ पर इतने दयालु हो, अतः मैं तुम्हें कुछ भी दे दूंगी। श्रीकृष्ण यहाँ आने में असमर्थ हैं, अत: तुम मुझे उनके समीप ले जाने के लिए आए हो। वे मथुरा में नवीन सखियों से घिरे हुए हैं। किन्तु तुम तो एक छोटे से प्राणी हो । तुम मुझे कैसे ले जा सकते हो? जब श्रीकृष्ण लक्ष्मी जी को हृदय से लगाए हुए, उनके साथ शयन कर रहे होंगे, तब तुम उनसे मेरी भेंट कराने में मेरी सहायता किस प्रकार कर सकोगे? यह चर्चा छोड़ो। चलो, मेरे वहाँ जाने अथवा तुम्हें यहाँ भेजने के विषय में ये सब बातें भूल जाँए । कृपया मुझे यह बताओ कि मथुरा में श्रीकृष्ण कैसे हैं ? क्या वे अब भी अपने पालक पिता नन्द महाराज, स्नेहमयी माता यशोदा, अपने ग्वालबाल सखाओं और अपनी दीन सखियों हम गोपियों का स्मरण करते हैं ? मुझे विश्वास है कि वे कभी-कभी हमारे विषय में अवश्य चर्चा करते होंगे जिन्होंने बिना किसी पारिश्रमिक के दासियों के समान उनकी सेवा की थी। क्या श्रीकृष्ण के यहाँ लौट आने और अपना अग्रु-सुगन्धित हाथ हमारे सिरों पर रखने की कोई सम्भावना है ? कृपया ये सारे प्रश्न श्रीकृष्ण के समक्ष रखना।"
उद्धव जी समीप ही खड़े थे और उन्होंने राधारानी को इस प्रकार चर्चा करते सुना, जैसे वे श्रीकृष्ण के लिए प्राय: उन्मत्त हो गई थीं। उन्हें यह देखकर अत्यधिक आश्चर्य हुआ कि किस प्रकार गोपियाँ कृष्ण-भक्ति के सर्वश्रेष्ठ स्तर, महाभाव में श्रीकृष्ण चिन्तन करने की अभ्यस्त हो गई थीं। वे श्रीकृष्ण का एक लिखित सन्देश लाए थे और गोपियों को सान्त्वना देने के लिए अब वे यह सन्देश उनके समक्ष प्रस्तुत करना चाहते थे। उन्होंने कहा, "अरे गोपियो! आपके मानव-जीवन का उद्देश्य अब पूर्ण हो गया है। आप सब श्रीभगवान् की अद्भुत भक्त हैं, अतः आप सभी प्रकार के व्यक्तियों द्वारा उपासना के योग्य हैं। आपके मन आश्चर्यजनक रूप से वासदेव श्रीकृष्ण के चिन्तन में मग्न हैं, अतः आप तीनों लोकों में उपासना के योग्य हैं। दान देना, व्रतों का दृढ़ता से पालन करना, घोर तपस्या करना तथा यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित करना आदि सभी धार्मिक क्रियाओं व विधियों के पालन का लक्ष्य श्रीकृष्ण हैं । विभिन्न मंत्रों का उच्चारण, वेदों का अध्ययन, इन्द्रियदमन और ध्यान में मन को एकाग्र करने के पीछे एक ही प्रयोजन है और वह प्रयोजन श्रीकृष्ण ही हैं। आत्म-साक्षात्कार तथा जीवन की पूर्णता को प्राप्त करने की ये कुछ विधियाँ हैं। किन्तु वास्तव में इनका उद्देश्य श्रीकृष्ण की प्राप्ति और स्वयं को श्रीभगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा लेना ही है। यही भगवद्गीता का भी अन्तिम निर्देश है। यद्यपि वहाँ आत्म-साक्षात्कार की विभिन्न प्रकार की विधियों का विवरण है, किन्तु अन्त में श्रीकृष्ण ने कहा है कि मानव को सब कुछ त्याग कर केवल उनकी शरण में आना चाहिए। अन्य सभी विधियों का उद्देश्य यही सिखाना है कि अन्त में श्रीकृष्ण के चरणकमलों की शरण में किस प्रकार जाँए। भगवद्गीता का यह भी कहना है कि एक निश्छल व्यक्ति, जो ज्ञान और तपस्या के मार्ग से आत्म-साक्षात्कार करने की चेष्टा करता है, वह कई जन्मों के पश्चात् इस शरणागति की विधि को पूरा करता है।"
चूँकि इस प्रकार की तपस्या की पूर्णता गोपियों के जीवन में पूर्ण रूप से दिखती थी, अत: उद्धव जी उनकी दिव्य स्थिति को देखकर पूर्णरूप से सन्तुष्ट थे। उन्होंने आगे कहा, "प्रिय गोपियो! श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में जो भाव आपने बना लिया है उसे प्राप्त करना महर्षियों और सन्तों के लिए भी अत्यन्त कठिन है। आपने जीवन की सर्वोच्च सिद्धि की स्थिति प्राप्त कर ली है। आपके लिए यह एक महान् वरदान है कि आपने भगवान् श्रीकृष्ण पर अपना मन केन्द्रित कर लिया है और अपने परिवार, घर, सम्बन्धियों, पति और सन्तान को त्यागकर केवल श्रीकृष्ण को प्राप्त करने का निश्चय कर लिया है। क्योंकि अब आपका मन पूर्णरूप से परमात्मा श्रीकृष्ण में मग्न हो गया है, अतएव आप में अपने आप ही सार्वभौम प्रेम विकसित हो गया है। मैं इसे अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि आपकी कृपा से ही आपकी यह स्थिति देखने का सुअवसर मुझे मिला है।"
जब उद्धव जी ने कहा कि वे श्रीकृष्ण का एक सन्देश लाए हैं, तो गोलि अपनी सर्वश्रेष्ठ स्थिति के विषय में सुनने से अधिक उस सन्देश को सुनने को अभी हो उठीं। अपनी उच्च स्थित की प्रशंसा सुनने में उनकी रुचि नहीं थी। उन्होंने श्रीकृष्ण का वह सन्देश सुनने के हेतु उद्विग्नता प्रदर्शित की जो उद्धव लाए थे। उद्धव जी ने कहा, "प्रिय गोपियो! आप महान् और मृदुस्वभाव की भक्त हैं, आप तक यह सन्देश भेजने के लिए मुझे विशेष रूप से नियुक्त किया गया है। श्रीकृष्ण ने मझे आपके समीप विशेष रूप से भेजा है, क्योंकि मैं उनका सर्वाधिक अन्तरंग दास हैं।"
श्रीकृष्ण का जो लिखित सन्देश उद्धव जी लाए थे उसे उन्होंने गोपियों को नहीं दिया, अपितु स्वयं ही उसे उनके समक्ष पढ़ कर सुनाया। वह सन्देश अत्यन्त गम्भीरता से लिखा हुआ था जिससे कि न केवल गोपियाँ, अपितु समस्त प्रयोग वादी (ज्ञानी) दार्शनिक भी समझ सकें कि शुद्ध भगवत् प्रेम किस प्रकार भगवान् की विभिन्न शक्तियों से स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है। वैदिक ज्ञान से यह ज्ञात होता है कि भगवान् अनेक शक्तियों से युक्त हैं- परास्य शक्तिर्विविधैवश्रूयते। गोपियाँ श्रीकृष्ण की इतनी अन्तरंग सखियाँ थीं कि उन्हें सन्देश लिखते समय वे अत्यन्त द्रवित हो गए थे और स्पष्ट रूप से नहीं लिख पाये। बृहस्पति के शिष्य उद्धवजी की बुद्धि अत्यन्त तीव्र थी। अतएव लिखित सन्देश गोपियों को देने के स्थान पर उन्होंने उचित समझा कि वे स्वयं ही उसे पढ़कर उन्हें सुना दें और उसकी व्याख्या भी कर दें।
उद्धव जी ने आगे कहा, "ये श्रीभगवान् के शब्द हैं। "प्रिय गोपियो! मेरी प्रिय सखियो! कृपया यह समझ लो कि किसी भी काल, स्थान अथवा स्थिति में हम लोगों के मध्य वियोग असम्भव है, क्योंकि मैं सर्वव्यापी हूँ।"
श्रीकृष्ण की इस सर्वव्यापकता को भगवद्गीता के सातवें और नवें अध्याय में स्पष्ट किया गया है। नवें अध्याय में श्रीकृष्ण अपने निर्विशेष पक्ष में सर्वव्यापी बताए गए हैं। सब कुछ उन्हीं में अवस्थित है। किन्तु वे व्यक्तिगत रूप से सर्वत्र उपस्थित नहीं हैं। सातवें अध्याय में कहा गया है कि पंचभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, समीर व गगन तथा तीन सूक्ष्म तत्त्व मन, बुद्धि तथा अहंकार सभी श्रीकृष्ण की अपरा (निम्न श्रेणी की) शक्तियाँ हैं । किन्तु एक दूसरी पराशक्ति भी है, जिसे जीव कहते हैं । जीव भी प्रत्यक्ष रूप से श्रीकृष्ण के विभिन्न अंश हैं। अतएव श्रीकृष्ण प्रत्येक वस्तु के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों कारण हैं। वे कारण और कार्य रूप में प्रत्येक वस्तु में मिले हुए हैं। न केवल गोपियाँ, अपितु सभी जीव सभी परिस्थितियों में, अपृथक् रूप से श्रीकृष्ण से सम्बन्धित हैं। किन्तु गोपियाँ श्रीकृष्ण से पूर्णरूपेण सहयोग भावना से युक्त सम्बन्ध रखती हैं, जबकि माया से प्रभावित अन्य जीव श्रीकृष्ण का निसरण कर देते हैं और स्वयं को श्रीकृष्ण से असम्बद्ध और पृथक् मानते हैं। वे सोचते हैं कि श्रीकृष्ण से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है और वे स्वाधीन हैं।
अतएव कृष्णप्रेम अथवा कृष्णभावनामृत वस्तुओं को यथारूप समझने के वास्तविक ज्ञान की सिद्धावस्था है। हमारा मन कभी भी रिक्त नहीं रह सकता है । मन सतत रूप से किसी न किसी विचार से पूर्ण रहता है और इस विचार का विषय श्रीकृष्ण की शक्ति के आठ तत्त्वों की परिधि से बाहर नहीं हो सकता है। जो व्यक्ति विचारों के इस दार्शनिक पक्ष को जान लेता है, वह वास्तव में बुद्धिमान है और वह श्रीकृष्ण की शरण में चला जाता है। गोपियाँ ज्ञान की इस सिद्धावस्था का एक आदर्श सारांश हैं। वे केवल अनुमानकी नहीं हैं। उनके मन सदैव श्रीकृष्ण में लगे रहते हैं। मन श्रीकृष्ण की शक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वास्तव में विचार, अनुभव तथा इच्छा कर सकने वाला कोई भी प्राणी श्रीकृष्ण से अलग नहीं किया जा सकता है। किन्तु जिस स्तर पर वह कृष्ण के साथ अपने सनातन सम्बन्ध को समझ सकता है, उस स्तर को कृष्णभावनामृत कहा जाता है। ऐसी रोगग्रस्त अवस्था, जिसमें वह श्रीकृष्ण से अपने सनातन सम्बन्ध को नहीं समझ सकता है, एक दूषित अवस्था अथवा माया है। चूंकि गोपियाँ शुद्ध दिव्य ज्ञान के स्तर पर अवस्थित हैं, अतएव उनके मन सदैव कृष्णभक्ति से पूर्ण रहते हैं। उदाहरणार्थ, जिस प्रकार अग्नि तथा वायु में कोई पृथक्ता नहीं है, उसी भाँति श्रीकृष्ण और जीव भी पृथक् नहीं हैं। जब जीव श्रीकृष्ण को भूल जाता है, तब वह अपनी सामान्य दशा में नहीं होता। जहाँ तक गोपियों का सम्बन्ध है, सदैव श्रीकृष्ण का चिन्तन करने के कारण वे ज्ञान की पूर्णता के सर्वोच्च स्तर पर स्थित हैं। तथाकथित प्रयोगवादी (ज्ञानी) दार्शनिक कभी-कभी सोचते हैं कि भक्ति मार्ग अल्पबुद्धि के व्यक्तियों के लिए है। किन्तु जब तक तथाकथित ज्ञानमार्गी भक्ति का अवलम्बन नहीं लेते हैं, उनका ज्ञान निश्चित रूप से अशुद्ध और अपूर्ण है। वस्तुतः श्रीकृष्ण से अपने सनातन सम्बन्ध को भूल जाने की स्थिति वियोग है, किन्तु वह भी भ्रमात्मक है, क्योंकि वास्तव में कोई वियोग नहीं है। गोपियाँ कभी-भी श्रीकृष्ण से विलग नहीं हुई थीं। दार्शनिक दृष्टिकोण से भी कोई वियोग नहीं था।
उद्धव श्रीकृष्ण का संदेश पढ़ते रहे। जगत भी श्रीकृष्ण से विलग नहीं है। "मुझसे अलग कुछ भी नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि मुझ पर आश्रित है और मुझसे अलग नहीं है। सृष्टि के पूर्व भी मैं था।" इस बात की पुष्टि वैदिक साहित्य में भी कीमत है एको नारायण आसीन् न ब्रह्मा न ईशानः-सृष्टि से पूर्व केवल श्रीनारायण थे। तो ब्रह्मा थे, न ही शिव। सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन प्रकृति के तीन गुणों के द्वारा होता है। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने जो रजोगुण के अवतार है इस ब्रह्माण्ड की रचना की किन्तु ब्रह्मा गौण रचयिता हैं, मूल रचयिता तो श्रीनारायण हैं । इसकी पुष्टि शंकराचार्य ने भी की है, “नारायणः परोऽव्यक्तात्।"नारायण इस सृष्टि से परे हैं, दिव्य हैं।" इस प्रकार इस सृष्टि के भीतर कुछ भी कृष्ण से पृथक नहीं है।
श्रीकृष्ण विभिन्न अवतारों में अपना विस्तार करके समस्त सृष्टि की रचना करते हैं, उसका पालन करते हैं और संहार करते हैं। सब कुछ श्रीकृष्ण है और सब कुछ श्रीकृष्ण पर निर्भर है, किन्तु भौतिक शक्ति में उनकी प्रतीति नहीं होती है। अत: इसे माया अथवा भ्रम कहा जाता है। किन्तु आध्यात्मिक शक्ति में पग-पग पर तथा सभी परिस्थितियों में श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं। ज्ञान की इस पूर्णता की स्थिति की प्रतिनिधित्व गोपिया करती हैं । सृष्टि पूर्णरूप से श्रीकृष्ण पर निर्भर है, किन्तु वे उससे सदैव पृथक् रहते हैं। उसी भाँति जीव भी अपने भौतिक और बद्ध जीवन से पृथक् हैं यद्यपि आध्यात्मिक अस्तित्त्व के आधार पर भौतिक शरीर का विकास हुआ है। भगवद्गीता में समस्त सृष्टि को जीवों की माता तथा श्रीकृष्ण को पिता के रूप में स्वीकार किया गया है। जिस प्रकार पिता माता के गर्भ में इंजेक्षन देकर जीव का गर्भाधान करता है उसी भाँति श्रीकृष्ण ने सभी जीवों को भौतिक प्रकृति के गर्भ में इंजेक्शन दे कर स्थापित किया है। अपने विविध कर्मफलों के अनुसार वे विभिन्न प्रकार का शरीर ग्रहण करते हैं। किन्तु जीव सभी परिस्थितियों में इस बद्ध भौतिक जीवन से पृथक् हैं।
यदि हम केवल अपने शरीरों का ही अध्ययन करें, तो हम समझ सकते हैं कि किस प्रकार जीव इस शारीरिक आवरण से सदैव पृथक् है। शरीर की प्रत्येक क्रिया प्रकृति के तीनों गुणों की पारस्परिक अन्तक्रिया के कारण होती है। प्रत्येक क्षण हमें शरीर में अनेक परिवर्तन होते दिखाई देते हैं, किन्तु आत्मा इन सभी परिवर्तनों से पृथक् है। कोई भी प्रकृति के कार्यों की न तो सृष्टि कर सकता है न नष्ट कर सकता है और न इसमें हस्तक्षेप कर सकता है। अतएव जीव भौतिक शरीर में फँस जाता है और जागृति, सुषुप्ति तथा चेतनाहीन (स्वप्न) नामक तीन दशाओं में बद्ध हो जाता है। मन जीवन की इन तीनों दशाओं में कार्यशील रहता है। जीव को सुप्तावस्था में कोई वस्तु वास्तविक प्रतीत होती है, किन्तु वही वस्तु जाग्रतावस्थ में आने पर शास्तविक प्रतीत होने लगती है। अतएव यह निष्कर्ष निकलता है कि किन्हीं परिस्थितियों में जीव किसी वस्तु को वास्तविक स्वीकार करता है, किन्तु जसरी परिस्थितियों में वह उसी वस्तु को अवास्तविक मान लेता है। यह विषय योगवादी दार्शनिकों अथवा सांख्य योगी के अध्ययन की विषयवस्तु है। उचित निर्णय पर पहुँचने के लिए सांख्य योगी कठोर व्रत और तपस्या करते हैं। वे इन्द्रिय दमन और वैराग्य का अभ्यास करते हैं।
जीवन के चरम लक्ष्य का निर्धारण करने वाले इन विभिन्न विधियों की तुलना नदियों से की गई है और श्रीकृष्ण की तुलना सागर से। जैसे सभी नदियाँ सागर की ओर प्रवाहित होती हैं, उसी भाँति ज्ञान प्राप्ति के सभी प्रयास श्रीकृष्ण की ओर जाते हैं। अनेकानेक जन्मों के प्रयास के पश्चात् जब कोई वास्तव में श्रीकृष्ण के समीप आ जाता है, तब उसे सिद्धि की अवस्था प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है, "सभी मुझे प्राप्त करने के पथ का अनुसरण कर रहे हैं, किन्तु भक्तिरहित मार्ग को अपनाने वालों को अपना प्रयास अत्यन्त कष्टकर प्रतीत होता है।" क्लेशोऽधिकतरस्तेषाम्अव्यक्तासक्त चेतसाम्। भक्ति के बिन्दु तक पहुँचे बिना श्रीकृष्ण को नहीं समझा जा सकता है।
भगवद्गीता में तीन मार्गों का उल्लेख है-कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग। जिनको सकाम कर्म करने का घोर व्यसन पड़ गया है, उन्हें ऐसे कर्म करने का परामर्श दिया गया है, जो उन्हें भक्ति तक ले आएँ। जो ज्ञान के अभ्यस्त हो गए हैं उन्हें भी इस प्रकार कर्म करने की सलाह दी गई है कि वे भक्ति का साक्षात्कार कर सकें। कर्मयोग साधारण कर्म से भिन्न है और ज्ञानयोग साधारण ज्ञान से भिन्न है। अन्ततः जैसाकि भगवान् ने भगवद्गीता में कहा है- भक्त्या माम् अभिजानाति अन्ततः श्रीकृष्ण को भक्ति से ही समझ सकते हैं। गोपियों ने भक्ति के सिद्धि स्तर को प्राप्त कर लिया था, क्योंकि वे श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कुछ भी जानना नहीं चाहती थीं। इस बात की पुष्टि वेदों में की गई है, कस्मिन् भगवो विज्ञाते सर्वम् इदं विज्ञातम् भवति । इसका अर्थ है कि केवल श्रीकृष्ण को जान लेने से अन्य सब ज्ञान अपने आप प्राप्त हो जाता है।
उद्धव ने कृष्ण सन्देश आगे पढ़ते हुआ कहा, “परम का दिव्य ज्ञान अब तुम्हारे लिए आवश्यक नहीं है। तुमको जीवन के प्रारम्भ से ही मुझसे प्रेम करने का अभ्यास है।" परम सत्य का ज्ञान विशेष रूप से भौतिक अस्तित्त्व से मुक्ति पाने की इच्छा रखने वालों के लिए है। किन्तु जिसने श्रीकृष्ण-प्रेम प्राप्त कर लिया है, वह पहले से ही मक्ति के स्तर पर पहुँच चुका है। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया और विशुद्ध भक्ति में संलग्न किसी भी व्यक्ति को मुक्ति के दिव्य स्तर पर स्थित समय चाहिए। वास्तव में गोपियों को भौतिक अस्तित्त्व की वेदना का अनुभव नहीं हो रहा था, अपितु उन्हें श्रीकृष्ण के वियोग का अनुभव हो रहा था। अतएव श्रीकृष्ण ने कहा, "प्रिय गोपियो! अपने प्रति तुम्हारे सर्वोत्कृष्ट प्रेम की वृद्धि के लिए मैंने सोद्देश्य स्वयं को तुमसे दूर कर लिया है। मैंने ऐसा इसलिए किया है कि जिससे तम लोग सतत मेरे ध्यान में मग्न रहो।"
गोपियाँ ध्यान की सिद्धावस्था में हैं । साधारणतया योगियों की रुचि भगवान की भक्ति करने की अपेक्षा ध्यान में अधिक होती है। किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि योग-प्रणाली की पूर्णता भक्ति की आदर्श स्थिति की प्राप्ति ही है। भगवद्गीता में पुष्टि की गई है कि गोपियों द्वारा निरन्तर श्रीकृष्ण का ध्यान करना सर्वोत्कृष्ट योग है। श्रीकृष्ण को स्त्री-मनोविज्ञान का भलीभाँति ज्ञान था। जब किसी स्त्री का प्रेमी उससे दूर रहता है, तब वह उसका ध्यान करती रहती है बजाये इसके कि जब वह उसके सम्मुख उपस्थित रहता है। श्रीकृष्ण गोपियों के आचरण के माध्यम से उपदेश देना चाहते थे कि जो गोपियों की भाँति निरन्तर ध्यानावस्थित रहता है, उसे निश्चित रूप से श्रीकृष्ण के चरणकमलों की प्राप्ति होती है।
भगवान् श्री चैतन्य ने सामान्य जन को विप्रलम्भ सेवा का उपदेश दिया था। विप्रलम्भ विधि का अर्थ है विरह भाव में श्रीभगवान् की सेवा करने की विधि। षड्गोस्वामियों ने भी गोपियों की भाँति विरह भाव में श्रीकृष्ण की उपासना करने की शिक्षा दी थी। गोस्वामियों के विषय में श्रीनिवास आचार्य की स्तुतियों में इन विषयों की स्पष्ट व्याख्या की गई है। श्रीनिवास आचार्य ने कहा है कि गोस्वामी सदैव गोपी भाव में दिव्योन्माद के सागर में निमग्न रहते थे। जब वे वृन्दावन में निवास करते थे तब " श्रीकृष्ण कहाँ हैं ? गोपियाँ कहाँ है ? हे राधारानी, आप कहाँ हैं ?" क्रन्दन करते हुए वे श्रीकृष्ण की खोज करते रहते थे। उन्होंने कभी यह नहीं कहा, "हमने अब राधा-कृष्ण के दर्शन कर लिए हैं, अतः हमारा ध्येय पूर्ण हो गया है।" उनका ध्येय कभी पूर्ण नहीं हुआ, उनकी श्रीराधाकृष्ण से कभी भेंट नहीं हुई।
श्रीकृष्ण ने गोपियों को स्मरण कराया कि रासलीला के समय जो गोपियाँ श्रीकृष्ण के साथ रासलीला में सम्मिलित न हो सकी उन्होंने श्रीकृष्ण के चिन्तन-मात्र से अपने शरीर त्याग दिए। इस प्रकार वियोग का अनुभव करते हुए कृष्णभावनामृत में मग्न हो जाना श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों को प्राप्त करने की सर्वाधिक गतिशील विधि है। श्रीकृष्ण के अपने कथनानुसार गोपियों को विरह भाव की शक्ति की प्रतीति हो गई थी। उन्हें श्रीकृष्ण की उपासना की अलौकिक विधि का अनुभव हो रहा था। यह इसे समझकर कि कृष्ण उनसे दूर नहीं है प्रत्युत उनके साथ हैं, उन्हें अत्यन्त शान्ति व सुख प्राप्त हुआ।
अत: गोपियाँ ने उद्धव का स्वागत प्रसन्नपूर्वक किया। वे इस प्रकार कहने लगी, "हमने सुना है कि यदुवंश के लिए कष्ट के स्रोत, कंस का अब वध कर दिया गया है। यह हमारे लिए सुखद समाचार है। अतएव हमें आशा है कि श्रीकृष्ण की संगति में यदुवंशी अत्यन्त प्रसन्न हैं क्योंकि वे अपने भक्तों की सभी इच्छाओं को पूर्ण कर सकते हैं। प्रिय उद्धव जी! कृपया हमें यह बताइए कि मथुरा की कुलीन तथा ससंस्कृत युवतियों के मध्य रहते हुए श्रीकृष्ण कभी हमारे विषय में सोचते हैं अथवा नहीं? हमें ज्ञात है कि मथुरा की नारियाँ और कन्याएँ ग्रामबालाएँ नहीं हैं। वे चतुर और सुन्दर हैं। उनके लज्जापूर्ण और स्मितयुक्त दृष्टिनिक्षेप और अन्य स्त्रियोचित लक्षण श्रीकृष्ण को अत्यन्त मुदित करते होंगे। हमें भलीभाँति ज्ञात है कि श्रीकृष्ण को सुन्दर नारियों का व्यवहार सदैव प्रिय है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि वे मथुरा की नारियों के मोहपाश में बद्ध हो गए हैं। प्रिय उद्धव जी ! कृपया आप हमें बताइए. कि दूसरी नारियों के मध्य रहते हुए श्रीकृष्ण को कभी हमारा स्मरण भी होता है ?"
दूसरी गोपी ने पूछा, "क्या कुमुदनी पुष्पों और चाँदनी से युक्त उस रात्रि का उन्हें स्मरण होता है जब वृन्दावन अत्यधिक सुन्दर हो गया था? श्रीकृष्ण हमारे साथ नृत्य कर रहे थे और वातावरण में घुघुरुओं की झंकार गूंज रही थी। तब हमने अत्यन्त सुखद वार्तालाप किया था। क्या उन्हें उस विशेष रात्रि का स्मरण है ? हमें उस रात्रि का स्मरण होता है, तो हम वियोग का अनुभव करती हैं और लगता है जैसे हमारे शरीर जल रहे हों। क्या यह अग्नि बुझाने के लिए वे वृन्दावन आने का प्रस्ताव रखते है जैसे वर्षा करके दावाग्नि बुझाने के लिए आकाश में बादल प्रकट होते हैं।"
एक अन्य गोपी ने कहा, "श्रीकृष्ण ने अपने शत्रु का वध कर दिया है और विजयी की तरह कंस के राज्य को प्राप्त कर लिया है। हो सकता है कि अब तक उन्होंने किसी राजकुमारी से विवाह कर लिया हो और अपने स्वजनों और मित्रों के मध्य अत्यन्त सुखपूर्वक रह रहे हों। अतएव श्रीकृष्ण अब इस वृन्दावन ग्राम में क्यों आने लगे?"
एक अन्य गोपी ने कहा, "श्रीकृष्ण भगवान् हैं! वे लक्ष्मी के पति हैं और आत्मनिर्भर हैं। उन्हें न तो हम जैसी वृन्दावन की वनबालाओं से, न ही मथुरा की नगर-बालाओं से कोई प्रयोजन है। श्रीकृष्ण महान् परमात्मा हैं। यहाँ या वहाँ की हममें से किसी से भी कोई प्रयोजन नहीं है।"
एक अन्य गोपी ने कहा, "श्रीकृष्ण के वृन्दावन में हमारे पास लौट आने की अपेक्षा करना हमारी एक अनुचित आशा है। इसके स्थान पर हमें निराशा में भी सुखी होने का प्रयास करना चाहिए। महान् वेश्या पिंगला ने भी कहा है निराशा सबसे बड़ा सुख है। हम सबको इस सब बातों का ज्ञान है, किन्तु हमारे लिए श्रीकृष्ण के पुनः वापस लौटने की आशा का त्याग करना अत्यन्त कठिन है। जिनके वक्ष पर लक्ष्मी जी का नित्य निवास है, उन श्रीकृष्ण के साथ हुए एकान्त सम्भाषण को कौन भूल सकता है? चाहे श्रीकृष्ण उसकी कामना न करें पर वह युवती श्रीकृष्ण को नहीं भूल सकती है। प्रिय उद्धव जी! वृन्दावन नदियों, वनों और गउओं की भूमि है। यहाँ मुरली की ध्वनि सुनाई दी थी और अपने ज्येष्ठ भ्राता बलराम जी के साथ श्रीकृष्ण ने हमारे सान्निध्य में इस वातावरण का आनन्द लिया था। अतएव वृन्दावन का वातावरण हमें निरन्तर श्रीकृष्ण व बलराम जी का स्मरण कराता रहता है। श्रीदेवी लक्ष्मी के आश्रय श्रीकृष्ण के चरणचिह्नों की छाप वृन्दावन की भूमि पर है, और इन चिह्नों के कारण हम कृष्ण को नहीं भूल सकी हैं।"
गोपियों ने आगे भी कहा कि वृन्दावन अभी भी समस्त वैभव व सौभाग्य से परिपूर्ण है। जहाँ तक भौतिक आवश्यकताओं का प्रश्न है, वृन्दावन में कोई भी कमी नहीं है। किन्तु इस वैभव के होते हुए भी वे श्रीकृष्ण व बलराम जी को नहीं भूल सकती हैं।
"श्रीकृष्ण की चाल, उनकी मुस्कान और उनके विनोदी शब्द आदि उन सुन्दर श्रीकृष्ण के विभिन्न आकर्षक लक्षणों का हम निरन्तर स्मरण करती रहती हैं। श्रीकृष्ण के व्यवहार ने हमें पूरी तरह से हर लिया है और उन्हें विस्मृत करना हमारे लिए असम्भव है। हम सदैव उनकी प्रार्थना करती रहती हैं और कहती हैं, "प्रिय भगवन् ! प्रिय लक्ष्मीपति! हे वृन्दावन के स्वामी और दुखी भक्तों के मुक्तिदाता! हम अब दुख के सागर में गिर कर डूब गई हैं। अतएव कृपया आप पुन: वृन्दावन लौट आइए और हमें इस दयनीय स्थिति से मुक्ति दिलाइए।" मला
उद्धव जी ने श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दिव्य असामान्य दशा का सूक्ष्मता से अध्ययन किया और उन्होंने उनके साथ श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं का बारम्बार गान करना ही श्रेयस्कर समझा। भौतिकतावादी व्यक्ति भौतिक दुखों की ज्वाला में सदैव दग्ध रहते हैं। गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के विरह के कारण एक दिव्य ज्वाला में जल रहीं थीं। किन्तु गोपियों को व्याकुल करने वाली ज्वाला भौतिक जगत की अग्नि से भिन्न है। गोपियाँ श्रीकृष्ण के संग की सतत कामना करती थीं, जबकि भौतिकतावादी व्यक्ति भौतिक सुखों के लाभ की इच्छा करते हैं।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कहा है कि जब ग्वाल-बालों ने आँखें बन्द कर नवी थीं तब श्रीकृष्ण ने प्रज्ज्वलित दावानल से पल-भर में उनकी रक्षा की थी। उद्धव जी ने गोपियों को परामर्श दिया कि उसी भाँति यदि वे नेत्र बन्द करके श्रीकृष्ण की उनके सात शुरू से ही की गई लीलाओं का ध्यान करें, तो विरहाग्नि से उनकी रक्षा हो सकेगी। उद्धव-कृत वर्णनों को सुन कर गोपियाँ बाह्य रूप से श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं की कल्पना कर सकती थीं और अन्त:करण से वे उन लीलाओं का स्मरण कर सकती थीं। उद्धव के निर्देशों से गोपियों को समझ में आ गया कि श्रीकृष्ण उनसे वियुक्त नहीं थे। जिस प्रकार वे श्रीकृष्ण का सतत चिन्तन कर रही थीं, वैसे ही मथुरा में रहते हुए श्रीकृष्ण भी निरन्तर उनके विषय में चिन्तन कर रहे थे।
उद्धवजी के निर्देशों और सन्देशों ने गोपियों को तत्काल मृत्यु से बचा लिया और गोपियों ने उद्धवजी के अनुग्रह को स्वीकार किया। उद्धवजी ने गोपियों के उपदेशक गुरु के समान कार्य किया और उसके बदले गोपियों ने उनकी वैसे ही उपासना की जैसे वे श्रीकृष्ण की उपासना करतीं। प्रामाणिक धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि गुरु श्रीभगवान् के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होते हैं, अतएव उनकी उपासना श्रीभगवान् के स्तर पर की जानी चाहिए। आचार्य इस बात को स्वीकार करते हैं कि गुरु श्रीकृष्ण का बाह्य विस्तार है। यह ज्ञान होते ही कि श्रीकृष्ण उनके साथ हैं, गोपियों को दिव्य दाह की स्थिति से मुक्ति मिल गई। आन्तरिक रूप से वे श्रीकृष्ण के संग का अपने अन्त:करण में चिन्तन करती थीं और बाह्य रूप से उद्धव जी ने उन्हें निर्णायक निर्देश देकर श्रीकृष्ण को समझने में उनकी सहायता की।
शास्त्रों में श्रीभगवान् को अधोक्षज कहा गया है, जिसका अर्थ है कि वे इन्द्रियातीत हैं, उन्हें भौतिक इन्द्रियों की सहायता से देखना असम्भव है। यद्यपि वे इन्द्रियातीत हैं फिर भी वे सबके हृदय में उपस्थित हैं। साथ ही साथ वे ब्रह्म के सर्वव्यापी पक्ष के द्वारा सर्वत्र उपस्थित हैं। परम सत्य के तीन पक्ष हैं- श्रीभगवान्, अन्तर्यामी परमात्मा और सर्वव्यापक ब्रह्म। श्रीमद्भागवत में गोपियों की उद्धव जी से भट करते समय जिस दशा का वर्णन किया गया है, उसका अध्ययन करने मात्र से परम सत्य के उपयुक्त तीनों पक्षों को समझा जा सकता है।
श्रीनिवास आचार्य ने कहा है कि षड्गोस्वामी सदैव गोपियों के कार्यकलाप चिन्तन में मग्न रहते थे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी गोपियों द्वारा श्रीभगवान की उपासना की विधि का सर्वश्रेष्ठ विधि के रूप में अनुमोदन किया है। श्रील शकदेव गोस्वामी ने भी कहा है कि गोपियों के श्रीकृष्ण से व्यवहार के विषय में उचित स्रोत से सुनने वाला व्यक्ति भक्ति की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करता है, वह भौतिक सुख की वासना को त्यागने में समर्थ होकर भक्ति की पराकष्ठा पर पहुँच जाता है।
सभी गोपियों को उद्धव जी के उपदेशों से सान्त्वना प्राप्त हुई और उन्होंने उद्धव जी से कुछ दिन और वृन्दावन में निवास करने की विनती की। उद्धव जी उनके प्रस्ताव से सहमत हो गए और न केवल कुछ दिन अपितु कुछ माह के लिए वहाँ रुक गए । उद्धव जी सदैव गोपियों को श्रीकृष्ण के दिव्य सन्देश तथा उनकी लीलाओं के चिन्तन में मग्न रखते थे। गोपियों को ऐसा प्रतीत होता था मानो उन्हें प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण की संगति का लाभ मिल रहा हो। जब तक उद्धव जी वृन्दावन में रहे, वहाँ के निवासियों ने उनकी संगति का आनन्द उठाया। जब वे श्रीकृष्ण के कार्यकलापो की चर्चा करते थे, तो दिवस क्षणों के समान व्यतीत हो जाते थे। वृन्दावन का प्राकृतिक वातावरण और यमुना नदी की उपस्थिति, विभिन्न प्रकार के फलपूर्ण वृक्षों के सुन्दर निकुंज, गोवर्धन पर्वत, गुफाएँ तथा खिलते हुए पुष्प आदि सभी उद्धव जी को श्रीकृष्ण-लीला का गान करने को प्रेरित करते थे। वहाँ के निवासियों ने उद्धव जी की संगति का उसी भाँति आनन्द उठाया जिस भाँति वे श्रीकृष्ण की संगति का आनन्द उठाते थे।
चूँकि गोपियाँ श्रीकृष्ण पर पूर्णतः आसक्त अत: उनकी इस भावभंगिमा के प्रति उद्धवजी आकर्षित थे। श्रीकृष्ण के लिए गोपियों की व्याकुलता से उद्धव जी को प्रेरणा प्राप्त हुई। वे गोपियों को आदरपूर्वक प्रणाम करने लगे और उनके दिव्य गुणों की स्तुति में उन्होंने इस प्रकार के गीत रचे-"मानव जीवन प्राप्त सभी जीवों में गोपियाँ अपने जीवन के ध्येय में सर्वोत्कृष्ट रूप से सफल हैं। उनके विचार पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के चरणकमलों में मग्न हैं। मुक्तिदाता मुकुन्द श्रीकृष्ण के चरणकमलों पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास महर्षि और हम सभी भी करते हैं, किन्तु गोपियों ने श्रीकृष्ण को प्रेम से अंगीकार कर लिया है, अत: उन्हें सहज ही इस बात का अभ्यास हो गया है। वे किसी योगिक साधन का आश्रय नहीं लेती हैं । इस सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिस व्यक्ति ने जीवन में गोपियों जैसी स्थिति प्राप्त कर ली है, उसे न भगवान् ब्रह्मा के रूप में अथवा ब्राह्मण परिवार में जन्म लेना और न ही ब्राह्मण की भाँति दीक्षा लेनी पड़ती है।
उद्धव जी ने भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण के निम्नलिखित वचनों की की. उचित प्रयोजन से श्रीकृष्ण की शरण में आने वाला चाहे शूद्र हो अथवा दो अथवा निम्न वर्ण का हो, उसे जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त होगा। गोपियों समस्त जगत के लिए भक्ति का एक मानदण्ड स्थापित कर दिया है। श्रीकृष्ण का निरन्तर चिन्तन करके गोपियों के चरणचिह्नों पर चलकर व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन की सर्वोच्च सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है। गोपियों का जन्म किसी अत्यन्त ससंस्कत परिवार में नहीं हुआ था; वे अहीर-पुत्रियाँ थीं; फिर भी उन्होंने सर्वोच्च श्रीकृष्ण-प्रेम को विकसित कर लिया था-कृष्ण जो परमात्मा हैं, परमेश्वर हैं, और परम ब्रह्म हैं। आत्म-साक्षात्कार अथवा भगवत्-साक्षात्कार के लिए उच्चकुल में जन्म लेना आवश्यक नहीं है। इसके लिए केवल भगवत्-प्रेम को विकसित करने की आवश्यकता होती है। कृष्णभावनामृत में सिद्धि प्राप्त करने के लिए परमानन्द श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा में निरन्तर संलग्न रहने के अतिरिक्त और किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं होती है। श्रीकृष्ण समस्त सुख के सागर हैं और सर्वोत्कृष्ट अमृत हैं। कृष्णभावनामृत को अपनाने का प्रभाव अमृतपान करने की भाँति ही है। चाहे इसका ज्ञान हो अथवा न हो, इसका प्रभाव तो होगा ही। कृष्णभावनामृत का क्रियाशील सिद्धान्त, बिना यह विचार किए कि कोई कहाँ और कैसे जन्मा है, सर्वत्र प्रकाशित होगा। जो कोई कृष्णभावनामृत को अपनाएगा उस पर श्रीकृष्ण निस्सन्देह अपनी कृपा-दृष्टि करेंगे।
उद्धव ने आगे कहा-अहीरों के कुल में जन्म लेने पर भी गोपियों को श्रीकृष्ण की जो परम कृपा प्राप्त हुई थी वह स्वयं लक्ष्मी जी को भी कभी प्राप्त नहीं हुई। निस्सन्देह उन स्त्रियों को भी नहीं प्राप्त हुई जिनके शरीर से कमल जैसी सुगन्ध निकलती है। गोपियाँ इतनी भाग्यवती हैं कि रासलीला के समय श्रीकृष्ण ने स्वयं अपनी भुजाओं से उनका आलिंगन किया था। श्रीकृष्ण ने प्रत्यक्ष उनका चुम्बन लिया था। गोपियों के अतिरिक्त यह सौभाग्य प्राप्त करना तीनों लोकों में किसी भी स्त्री के लिए सम्भव नहीं है।
अत: मैं वृन्दावन में एक पौधे अथवा लता के रूप में जन्म लेना चाहता हूँ, जो इतने भाग्यशाली हैं कि गोपियाँ उन्हें पाँव लते रौंदती है। गोपियों ने मुक्तिदाता कृष्ण, मुकुन्द की जिन्हें महाऋषि-मुनि ढूँढ़ते रहते है, अत्यन्त प्रेम से सेवा की है। उनके लिए गोपियों ने सब कुछ त्याग दिया-अपने परिवार, अपनी सन्तान अपनी सखियाँ अपने घर-बार तथा सभी संसार की आसक्ति ।
उद्धव जी गोपियों की इस उन्नत स्थिति का महत्त्व समझते थे और उनके चरणों पर गिर कर उनकी चरण-रज को शिरोधार्य करना चाहते थे। किन्त गोपिक से उनकी चरण-रज माँगने का उन्हें साहस नहीं होता था। उन्हें भय था कि सम्भवतः इसके लिए सहमत नहीं होंगी। अतएव उनकी इच्छा थी कि गोपियों को ज्ञात हुए बिना वे उनकी पद-धूलि लेकर सिर पर लगा लें और वृन्दावन की भमि पर तुच्छ घास अथवा वनस्पति बन जाँए।
गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रति इतनी आकर्षित थीं कि जब वे उनकी मुरली का स्वर सुनती थीं, तो तत्काल ही वे अपना परिवार, सन्तान, सम्मान और स्त्रीसुलभ लज्जा को त्याग कर उधर दौड़ जाती थीं जहाँ श्रीकृष्ण खड़े रहते थे। उन्हें इसका भी ध्यान नहीं रहता था कि वे पथ पर जा रही हैं, अथवा वन में तथा अदृश्य रूप से वृन्दावन की छोटी घास तथा वनस्पतियों को उनकी चरणरज प्राप्त हो जाती थी। उद्धव जी को साहस नहीं होता था कि वे गोपियों की चरण-रज को इस जीवन में सिर पर लगाएँ, अत: उन्होंने अगले जन्म में वृन्दावन में घास अथवा वनस्पति बनने की कामना की। तब उन्हें गोपियों की चरण-धूलि लेने का अवसर मिल सकेगा।
उद्धव जी गोपियों के असामान्य सौभाग्य की सराहना करते थे जिन्होंने श्रीकृष्ण के पदकमलों को अपने उन्नत और सुन्दर स्तनों पर स्थापित करके स्वयं को सभी प्रकार के भौतिक दूषणों और चिन्ताओं से मुक्त कर लिया था। श्रीकृष्ण के चरणकमलों की उपासना न केवल लक्ष्मी जी करती हैं, अपितु ब्रह्मा, शिवादि उच्चकोटि के देवता भी उनकी वन्दना करते हैं और जिनके पदारविन्दों का उन महान् योगी भी अन्तःकरण में ध्यान करते हैं। इस प्रकार उद्धव जी ने प्रार्थन की कि वे उन गोपियों के चरणकमल की धूल से निरन्तर सम्मानित हो सकें। जिन के द्वारा श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का गान तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो चुका है।
वृन्दावन में कुछ दिन रहने के उपरान्त उद्धव जी ने श्रीकृष्ण के पास लौटने की इच्छा व्यक्त की और नन्द महाराज तथा यशोदा जी से जाने की अनुमति माँगी। गोपियों से विदा लेने के लिए उन्होंने उनसे भी भेंट की और उनकी भी अनुमति लेने के पश्चात् मथुरा जाने के लिए वे अपने रथ पर सवार हो गए।
जब उद्धवजी जाने के लिए तत्पर थे तब नन्द महाराज तथा यशोदा सहित वृन्दावन के सभी निवासी उन्हें विदा करने के लिए वहाँ आए और उन्हें वृन्दावन की अनेक प्रकार की मूल्यवान वस्तुएँ उपहार स्वरूप दी। श्रीकृष्ण के प्रति प्रगाढ़ आसक्ति के कारण अश्रुपूरित नयनों के साथ उन्होंने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया। वे सभी उद्धव जी का आशीर्वाद चाहते थे। उनकी कामना थी कि वे सदैव श्रीकृष्ण के यशस्वी कार्यकलापों का स्मरण करते रहें, उनके मन सदैव श्रीकृष्ण के " लों पर केन्द्रित रहें कि उनकी इच्छा थी; उनके शब्द सदैव श्रीकृष्ण के यशगान में संलग्न रहें और उनके शरीर सदैव श्रीकृष्ण को प्रणाम करते रहें और वे तर श्रीकृष्ण का चिन्तन करते रहें। वृन्दावनवासियों की यह प्रार्थना सर्वोत्कृष्ट कार का आत्म-साक्षात्कार है। इसकी विधि अत्यन्त सरल है-मन सतत श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में केन्द्रित रहे, किसी अन्य विषय पर गए बिना निरन्तर श्रीकृष्ण के विषय में ही चर्चा करे और शरीर निरन्तर श्रीकृष्ण की सेवा में संलग्न रहे। विशेषरूप से इस मानव जीवन में व्यक्ति को अपना जीवन, साधन, वचन और बुद्धि सभी को भगवान् की सेवा में लगा देना चाहिए। इस प्रकार के कार्य ही मानव को सिद्धि के सर्वोच्च स्तर तक ले जा सकते हैं। सभी अधिकारियों का यही निर्णय है।
वृन्दावन के निवासियों ने कहा, "भगवत् इच्छा तथा अपने कर्मफल के अनुसार हम जहाँ कहीं भी जन्म लें, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है, किन्तु हमारी एकमात्र प्रार्थना है कि हम केवल कृष्णभावनामृत में संलग्न रहें। भगवान् श्रीकृष्ण के शुद्ध भक्त कभी भी स्वर्ग या वैकुण्ठ अथवा गोलोक वृन्दावन गमन की कामना नहीं करते हैं, क्योंकि अपनी व्यक्तिगत सन्तुष्टि के हेतु उनकी कोई इच्छा नहीं होती है। शुद्ध भक्त स्वर्ग और नरक को एक समान समझता है। श्रीकृष्ण के बिना स्वर्ग भी नरक के सदृश है और श्रीकृष्ण के साथ नरक भी स्वर्ग है ।
जब उद्धव जी का वृन्दावन के शुद्ध भक्तों द्वारा समुचित आदर कर लिया गया तब वे अपने स्वामी श्रीकृष्ण के पास वृन्दावन लौट आए। भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम जी के सम्मुख सादर प्रणाम करके वे वृन्दावन के निवासियों के अद्भुत भक्तिमय जीवन का वर्णन करने लगे। तब वृन्दावन के वासियों ने उन्हें जो भी उपहार दिए थे वे सब उद्धव जी ने श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी तथा श्रीकृष्ण के नाना उग्रसने जी को अर्पित कर दिए।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "गोपियों को श्रीकृष्ण का सन्देश प्रदान करना" नामक सैंतालीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
 
 
 
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