इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर अक्रूर जी हस्तिनापुर गए । कहा जाता है कि आजकल जहाँ पर नई दिल्ली है, वहीं प्राचीनकाल में हस्तिनापुर था । नई दिल्ली के उस भाग को जो अभी भी इन्द्रप्रस्थ के नाम से विख्यात है, सामान्यतया लोग पाण्डवों की पुरानी राजधानी मानते हैं । हस्तिनापुर नाम से ही आभास मिलता है कि वहाँ बहुत सारे हस्ती अर्थात् हाथी थे । चूँकि पाण्डवों ने राजधानी में अनेकानेक हाथी रखे थे, अत: इसका नाम हस्तिनापुर पड़ गया । हाथी पालने में अत्यधिक धन व्यय होता है, अत: अनेकानेक हाथी पालने के लिए राजधानी का अत्यन्त सम्पन्न होना आवश्यक है । हस्तिनापुर हाथी, घोड़े, रथ तथा अन्य वैभवों से परिपूर्ण था । हस्तिनापुर पहुँचने पर अक्रूर जी ने देखा कि राजधानी सभी प्रकार के वैभवों से परिपूर्ण थी । हस्तिनापुर के राजाओं को समस्त विश्व का शासक माना जाता था । समस्त राज्य में उनका यश दूर-दूर तक फैला हुआ था और वे विद्वान ब्राह्मणों के परामर्श के अनुसार राज-काज चलाते थे । वैभवपूर्ण राजधानी को देखने के पश्चात् अक्रूर जी ने राजा धृतराष्ट्र से भेंट की । उन्होंने राजा के साथ बैठे हुए भीष्म पितामह के भी दर्शन किए । उनसे मिलने के पश्चात् वे विदुर जी तथा अपनी बहन कुन्ती के दर्शनार्थ गए । एक के पश्चात् एक करके वे राजा बाह्वीक, उनके पुत्र द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण तथा सुयोधन से मिले । (सुयोधन दुर्योधन का ही दूसरा नाम है) तब उन्होंने द्रोणाचार्य के पुत्र, अश्वत्थामा तथा पाँचों पाण्डव भाइयों तथा नगर में रहने वाले अन्य मित्रों तथा सम्बन्धियों से भेंट की । अक्रूर जी गान्दिनी के पुत्र के रूप में विख्यात थे, अत: वे जिस किसी से भी मिले उसने उनका स्वागत करने में प्रसन्नता अनुभव की और अपने सम्बन्धियों के कुशल समाचार और अन्य गतिविधियों के विषय में पूछा । अक्रूर जी को उत्तम आसन दिया गया और उन्होंने भी अपने सम्बन्धियों की कुशलता और गतिविधियों के विषय में पूछा । चूँकि श्रीकृष्ण ने अक्रूर जी को हस्तिनापुर भेजा था, अतएव यह समझना चाहिए कि वे कूटनीतिक स्थिति का अध्ययन करने में अत्यन्त बुद्धिमान थे । राजा पाण्डु की मृत्यु के उपरान्त, पाण्डु के पुत्रों की उपस्थिति के बावजूद, धृतराष्ट्र विधान के विरुद्ध सिंहासन पर बैठे हुए थे । अक्रूर जी अच्छी तरह समझ गए थे कि दुष्प्रेरित धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों के पक्ष में अधिक झुकाव है । वस्तुत: धृतराष्ट्र ने पहले से ही राज्य को हथिया लिया था । अब वे पाण्डवों का सफाया करने के लिए छल-कपट कर रहे थे । अक्रूर जी यह भी जानते थे कि दुर्योधन के नेतृत्व में धृतराष्ट्र के सब पुत्र कुटिल राजनीतिज्ञ हैं । धृतराष्ट्र भीष्म और विदुर के सदुपदेशों के अनुसार कार्य नहीं कर रहे थे । इसके विपरीत वे कर्ण और शकुनी जैसे लोगों की कुटिल सलाह से कार्य कर रहे थे । अक्रूर जी ने समस्त राजनीतिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए कुछ माह तक हस्तिनापुर में रहने का निश्चय किया । धीरे-धीरे कुन्ती और विदुर से अक्रूर जी को ज्ञात हुआ कि पाँचों पाण्डव सैन्य विज्ञान में असामान्य रूप से दक्ष थे और उनकी शारीरिक शक्ति भी अत्यधिक विकसित थी । इसी कारण धृतराष्ट्र के पुत्र उनके प्रति असहनशील और विद्वेषी थे । पाण्डव सच्चे शूर-वीर के समान कार्य करते थे । उनमें क्षत्रियों के सभी सद्गुण थे । वे अत्यन्त उत्तरदायित्वपूर्ण राजकुमार थे और सदैव प्रजा का कल्याण करने की सोचते रहते थे । अक्रूर जी को यह भी ज्ञात हुआ कि धृतराष्ट्र के ईर्ष्यालु पुत्रों ने पाण्डवों को विष देकर मारने का प्रयास किया था । अक्रूर जी कुन्ती के चचेरे भाई थे, अतएव उनसे मिलने के बाद कुन्ती ने अपने पैतृक सम्बन्धियों के विषय में पूछना आरम्भ किया । अपनी जन्मभूमि का स्मरण करके उनके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गए । उन्होंने अक्रूर जी से पूछा कि क्या उनके पिता, माता, भाई, बहनें तथा घर पर अन्य मित्र अभी भी उन्हें स्मरण करते हैं ? उन्होंने विशेष रूप से अपने यशस्वी भतीजों श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के विषय में पूछा । उन्होंने पूछा, "क्या भक्तवत्सल ! भगवान् श्रीकृष्ण, मेरे पुत्रों का स्मरण करते हैं ? क्या बलरामजी हमारा स्मरण करते हैं ?" अपने अन्त:करण में कुन्ती को अपनी स्थिति सिंहों से घिरी हुई हिरनी के समान प्रतीत हो रही थी । वास्तव में उनकी स्थिति वैसी ही थी । अपने पति राजा पाण्डु की मृत्यु के पश्चात् कुन्ती को पाँचो पाण्डवों का पालन पोषण करना पड़ा, किन्तु धृतराष्ट्र के पुत्र सदैव उनके वध की योजना बनाते रहते थे । निश्चित रूप से वे अनेक सिंहों से घिरे हुए भोले-भाले पशु के समान रह रही थीं । भगवान् श्रीकृष्ण की भक्त होने के कारण वे सदैव उनका चिन्तन करती थीं और सोचती थीं कि एक दिन श्रीकृष्ण आएँगे और उन्हें उनकी भयावह स्थिति से बचाएँगे । उन्होंने अक्रूर जी से पूछा कि क्या पितृहीन पांड़वों को धृतराष्ट्र और उसके पुत्रों की कपटी राजनीति से मुक्त होने का मार्ग बताने के लिए श्रीकृष्ण यहाँ आने का विचार रखते हैं ? अक्रूर जी से इन सब विषयों पर चर्चा करके कुन्ती स्वयं को असहाय अनुभव करने लगीं और इस प्रकार पुकारने लगीं, "प्रिय कृष्ण ! प्रिय कृष्ण ! तुम परम योगी हो; समस्त ब्रह्माण्ड के परमात्मा हो । तुम समस्त ब्रह्माण्ड के यथार्थ हितैषी हो । प्रिय गोविन्द ! इस समय तुम मुझसे बहुत दूर हो, किन्तु फिर भी मैं तुम्हारे चरणकमलों की शरण में आने की प्रार्थना करती हूँ । इस समय अपने पाँचों पितृहीन पुत्रों सहित मैं अत्यन्त दुखी हूँ । मैं अच्छी तरह से समझ सकती हूँ कि तुम्हारे पदकमलों के अतिरिक्त मेरी और कोई शरण अथवा आश्रय नहीं है । तुम श्रीभगवान् हो । अत: तुम्हारे चरणकमल सभी दुखी आत्माओं को मुक्ति दे सकते हैं । केवल तुम्हारी दया से ही प्राणी बारम्बार जन्म-मृत्यु के बन्धन से सुरक्षित रह सकता है । प्रिय कृष्ण ! तुम परम शुद्ध, परमात्मा तथा सभी योगियों के स्वामी हो । मैं क्या कह सकती हूँ ? मैं तुमको केवल सादर प्रणाम कर सकती हूँ । कृपया मुझ पूर्णरूपेण शरणागत भक्त को स्वीकार करो ।" यद्यपि श्रीकृष्ण वहाँ उनके सम्मुख उपस्थित नहीं थे फिर भी कुन्ती ने उनकी स्तुति इस प्रकार की मानो वे श्रीकृष्ण के सम्मुख उपस्थित थीं । कुन्ती के चरणचिह्नों पर चल कर ऐसा करना किसी के लिए भी सम्भव है । सब जगह श्रीकृष्ण की शारीरिक रूप से उपस्थिति आवश्यक नहीं है । वे आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा वास्तव में सब स्थानों पर उपस्थित रहते हैं और आवश्यकता केवल इस बात की है कि मनुष्य निश्छल मन से उनकी शरण में जाए । जब कुन्ती अत्यन्त भावपूर्वक श्रीकृष्ण की स्तुति कर रही थीं तब वे स्वयं को रोक न सकीं और अक्रूर जी के समक्ष उच्च स्वर से क्रन्दन करने लगीं । विदुरजी भी वहाँ उपस्थित थे । अक्रूर जी तथा विदुर दोनों के हृदय पाण्डवों की माता के प्रति सहानुभूतिपूर्ण विचारों से भर गए । वे कुन्ती के पुत्रों युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल तथा सहदेव का यशगान करके उन्हें सान्त्वना देने लगे । यह कह कर कि उनके पुत्र असामान्य रूप से बलशाली हैं और कुन्ती को उनके विषय में चिन्तित नहीं होना चाहिए, अक्रूर जी और विदुर ने उन्हें सान्वना दी । उन दोनों ने यह भी कहा कि कुन्ती के पुत्र असाधारण रूप से बलशाली हैं और उन्हें चिन्ता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनका जन्म यमराज, इन्द्र तथा वायु जैसे महान् देवताओं से हुआ था ।
अक्रूर जी ने घर वापस जाकर कुन्ती और उनके पाँचों पुत्रों की अत्यन्त विषम पाण्डवों का उद्देश्य न्यायसंगत था, अत: उनकी विजय होगी और धृतराष्ट्र के पुत्रों का परिस्थिति का विवरण श्रीकृष्ण को देने का निश्चय किया । वे सर्वप्रथम धृतराष्ट्र को सद् परामर्श देना चाहते थे जिन का झुकाव अपने पुत्रों के पक्ष में तथा पाण्डवों के विरोध में था । जब धृतराष्ट्र मित्रों और सम्बन्धियों के मध्य बैठे हुए थे तब अक्रूर जी ने उन्हें "वैचित्रवीर्य" के नाम से सम्बोधित किया । "वैचित्रवीर्य" का अर्थ है वैचित्रवीर्य के पुत्र । धृतराष्ट्र के पिता का नाम वैचित्रवीर्य था, किन्तु वे उनके आत्मज पुत्र नहीं थे । वे व्यासदेव के आत्मज पुत्र थे । पुराने समय में यह प्रथा थी कि यदि कोई पुरुष सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ रहता था, तो उसका भाई उसकी पत्नी के गर्भ से सन्तानोत्पत्ति (देवरेण सुतोत्पति) कर सकता था । यह प्रथा अब कलियुग में निषिद्ध है । अक्रूर जी ने व्यंग्यपूर्वक धृतराष्ट्र को वैरचित्रवीर्य कह कर सम्बोधित किया, क्योंकि वस्तुत: उसकी उत्पत्ति उसके पिता से नहीं हुई थी । वे व्यासदेव के पुत्र थे । जब पत्नी के गर्भ से पति के भाई की सन्तान उत्पन्न होती थी, तब वह सन्तान पति की ही मानी जाती थी, किन्तु वस्तुत: वह सन्तान पति से नहीं प्राप्त होती थी । ये व्यंग्यपूर्ण वचन इंगित करते थे कि पैतृक आधार पर, धृतराष्ट्र का राजसिंहासन पर अधिकार जताना गलत था । वास्तव में पाण्डुपुत्र ही अधिकारी थे और पाण्डवों की उपस्थिति में धृतराष्ट्र को सिंहासन पर अधिकार नहीं करना चाहिए था ।
अक्रूर जी ने आगे कहा, "हे विचित्रवीर्य के पुत्र ! आपने नियमविरोधी तरीके से पाण्डवों का सिंहासन ले लिया है । फिर भी किसी-न-किसी प्रकार से अब आप सिंहासनारूढ़ हैं । अतएव मैं आपको परामर्श देता हूँ कि आप नैतिक सिद्धान्तों के आधार पर राज्य पर शासन करें । यदि आप ऐसा करेंगे और अपनी प्रजा को प्रसन्न करेंगे, तो आपका नाम और कीर्ति अमर हो जाएगी । अक्रूर जी ने संकेत किया कि यद्यपि धृतराष्ट्र अपने भतीजों से दुर्व्यहार कर रहे थे, फिर भी पाण्डव उनकी प्रजा थे ।
“यदि आप उन्हें राजसिंहासन के स्वामी न मान कर उनसे अपनी प्रजा के समान व्यवहार करें, तब भी आपको निष्पक्ष रूप से उनके हित का चिन्तन इस प्रकार करना चाहिए, जैसे वे आपके अपने ही पुत्र हों । किन्तु यदि आप इस सिद्धान्त का पालन नहीं करेंगे और इसके विरुद्ध कार्य करेंगें, तो प्रजा में आपकी निन्दा होगी और अगले जीवन में आपको नारकीय स्थिति में रहना पड़ेगा । अतएव मैं आशा करता हूँ कि आप अपने पुत्रों और पाण्डुपुत्रों के साथ एकसमान व्यवहार करेंगे ।" अक्रूर जी ने संकेत किया कि यदि धृतराष्ट्र पाण्डवों और अपने पुत्रों से समानता का व्यवहार नहीं करेंगे, तो निश्चय ही चचेरे भाइयों के दोनों वर्गों के मध्य युद्ध होगा । चूँकि वध हो जाएगा । यह एक भविष्यवाणी थी, जो अक्रूर जी ने धृतराष्ट्र से की । अक्रूर जी ने आगे धृतराष्ट्र को उपदेश दिया, "इस भौतिक जगत् में कोई भी सदैव किसी का साथ नहीं दे सकता है । भाग्यवश हम एक परिवार, एक समाज, एक समुदाय अथवा एक राष्ट्र में एकत्र होते हैं । किन्तु सबको यह शरीर एक-न- एक दिन त्यागना पड़ता है, अत: अन्त में हम सबको अलग होना पड़ता है । अतएव किसी को परिवार के सदस्यों से अनावश्यक रूप से स्नेह नहीं करना चाहिए ।" धृतराष्ट्र का मोह अनुचित भी था और इससे यह लगता था कि वे अल्पबुद्धि हैं । सरल शब्दों में कहें तो अक्रूर जी ने संकेत किया कि धृतराष्ट्र के इस दृढ़ पारिवारिक प्रेम का कारण तथ्य के प्रति उनका पूर्ण अज्ञान अथवा नैतिक सिद्धान्तों की ओर अन्धापन था । यद्यपि हम परिवार, समाज अथवा राष्ट्र में एक दूसरे से मिले जुले प्रतीत होते हैं, किन्तु हममें से प्रत्येक का अपना व्यक्तिगत भाग्य होता है । प्रत्येक प्राणी अपने विगत व्यक्तिगत कमाँ के कारण जन्म लेता है, अतएव प्रत्येक को अपने कर्म का फल व्यक्तिगत सुख अथवा दुःख के रूप में भोगना पड़ता है । सहकारपूर्ण जीवन के द्वारा भाग्य में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है । कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी के पिता अवैध रीति से सम्पत्ति एकत्र करते हैं, किन्तु पुत्र वह सब धन ले जाता है, यद्यपि उस धन को श्रम करके पिता ने अर्जित किया था । यह ठीक वैसे ही है जैसे सागर में एक छोटी मछली दूसरी बूढ़ी बड़ी मछली के भौतिक शरीर को खा जाती है । अतएव कोई अपने परिवार, समाज, समुदाय अथवा राष्ट्र की तृप्ति के लिए अवैध ढंग से धन एकत्र नहीं कर सकता है । पहले के समय में विकसित हुए अनेक बड़े साम्राज्य आज नहीं हैं, क्योंकि उनके धन को उनके बाद के वंशजों ने निरुद्देश्य व्यय कर दिया । यह तथ्य इस सिद्धान्त का ज्वलन्त उदाहरण है । जो कर्मफल के इस सूक्ष्म सिद्धान्त को नहीं जानता है और नैतिक सिद्धान्तों को त्याग देता है, वह अपने साथ केवल अपने पापों के फल ले जाता है । उसकी छल से प्राप्त की गई धन-सम्पत्ति कोई और ले जाता है और वह घोर नरक में चला जाता है । अतएव किसी को भी उसके भाग्य में जितना लिखा है उससे अधिक धन एकत्र नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह वास्तव में अपने हित के प्रति आँखें बन्द कर लेगा । अपना स्वार्थ पूर्ण करने के स्थान पर वह अपने पतन के लिए उसके एकदम विपरीत कार्य करेगा । अक्रूर जी ने आगे कहा, "प्रिय धृतराष्ट्र ! मैं आपको परामर्श देता हूँ कि आप भौतिक जीवन के तथ्य की ओर से आँखें न बन्द करें । भौतिक बद्ध जीवन को चाहे वह सुख में हो अथवा दुःख में एक स्वप्न मानना चाहिए । सबको अपने मन तथा इन्द्रियों पर संयम करने का प्रयास करना चाहिए और शान्तिपूर्वक कृष्णभावनामृत में आध्यात्मिक प्रगति के लिए जीवित रहना चाहिए ।" चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है कि कृष्णभावनामृत में स्थित व्यक्तियों के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति सदैव अशान्त मन:स्थिति में और व्याकुलता से पूर्ण होता है । मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करने वाले, ब्राह्म के तेज में लीन हो जाने वाले अथवा योगिक सिद्धियाँ प्राप्त करने का प्रयास करने वाले योगी भी मानसिक शान्ति नहीं पा सकते हैं । श्रीकृष्ण के शुद्ध भक्त श्रीकृष्ण से कुछ नहीं माँगते हैं । वे केवल श्रीकृष्ण की सेवा करके ही सन्तुष्ट रहते हैं । वास्तविक शान्ति और मानसिक समता केवल पूर्ण कृष्णभावनामृत में ही प्राप्त की जा सकती है । अक्रूर जी से ये नैतिक उपदेश सुनकर धृतराष्ट्र ने उत्तर दिया, "प्रिय अक्रूर ! यह आपकी दया है कि आप मुझे सदुपदेश दे रहे हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश मैं इसे स्वीकर नहीं कर सकता । जिस व्यक्ति के भाग्य में मृत्यु लिखी हो, यदि उसे अमृत पिलाया जाए तो भी वह अमृत के प्रभाव का उपयोग नहीं कर पाता है । मैं जानता हूँ कि आपके उपदेश अत्यन्त मूल्यवान हैं । दुर्भाग्यवश वे मेरे चंचल मन में उसी प्रकार स्थिर नहीं रह पाते, जैसे आकाश में चमकती हुई बिजली किसी एक मेघ में स्थिर नहीं रहती है । मैं केवल यह जानता हूँ कि भगवत् इच्छा की अग्रगामी गति को कोई भी नहीं रोक सकता है । मैं जानता हूँ कि भगवान् श्रीकृष्ण ने इस धरती के भार को कम करने के लिए यदु परिवार में अवतार लिया है ।" धृतराष्ट्र ने अक्रूर जी को संकेत दिया कि उसे भगवान् श्रीकृष्ण में पूर्ण विश्वास है, किन्तु साथ ही साथ उसकी प्रवृत्ति अपने परिवार के सदस्यों के प्रति अत्यन्त पक्षपातपूर्ण है । निकट भविष्य में श्रीकृष्ण उसके परिवार के सभी सदस्यों का नाश कर देंगे और असहायावस्था में धृतराष्ट्र श्रीकृष्ण के चरणकमलों की शरण में चले जाएँगे । किसी भक्त के प्रति विशेष अनुग्रह का प्रदर्शन करने के लिए सामान्यतया श्रीकृष्ण उसकी सभी प्रिय भौतिक वस्तुओं को उससे छीन लेते हैं । इस प्रकार वे भौतिक रूप से भक्त को असहाय बना देते हैं जिससे कि उसके पास श्रीकृष्ण के चरणकमलों को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है । वस्तुतः कुरुक्षेत्र के युद्ध के समाप्त होने पर धृतराष्ट्र के साथ भी यही हुआ था ।
धृतराष्ट्र यह अनुभव कर रहे थे कि उनके समक्ष दो विरोधी तथ्य हैं । वे समझ सकते थे कि श्रीकृष्ण इस जगत् के अनावश्यक भार को हटाने के लिए प्रकट हुए हैं । उनके पुत्र अनावश्यक भार थे, अतएव उन्हें आशा थी कि वे मारे जाएँगे । साथ ही वे अपने पुत्रों के प्रति अपने अवैध स्नेह का त्याग भी नहीं कर सकते थे । इन दो विरोधी तथ्यों को जानते हुए उन्होंने इस प्रकार श्रीभगवान् की स्तुति करनी प्रारम्भ की: “भौतिक अस्तित्त्व की विरोधी विधियों को समझना अत्यन्त कठिन है । इनको केवल भगवान् की योजना के अकल्पनीय कार्य के रूप में समझा जा सकता है । भगवान् अपनी अचिन्तनीय शक्ति के द्वारा इस भौतिक जगत् की रचना करते हैं और इसमें प्रवेश करके प्रकृति के तीनों गुणों को गतिशील कर देते हैं । जब समस्त वस्तुओं की सृष्टि हो जाती है, तब वे प्रत्येक जीव तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु में प्रवेश कर जाते हैं । परमेश्वर की गणनातीत योजनाओं को कोई नहीं समझ सकता है इस कथन को सुनने के पश्चात् अक्रूर जी को स्पष्ट रूप से ज्ञात हो गया कि धृतराष्ट्र अपने पुत्रों के पक्ष में पाण्डवों के प्रति भेदभाव करने की अपनी नीति में परिवर्तन करने वाले नहीं थे । उन्होंने हस्तिनापुर में अपने मित्रों से तुरन्त विदा ली और यदुवंशियों की राजधानी अर्थात् अपने घर लौट आए । घर लौटने के पश्चात् उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलराम जी को हस्तिनापुर की वास्तविक स्थिति और धृतराष्ट्र की इच्छाओं के विषयों में स्पष्ट रूप से बताया । श्रीकृष्ण ने अकूर जी को हस्तिनापुर में वहाँ की परिस्थिति का अध्ययन करने के लिए भेजा था । भगवान् की कृपा से वे सफल हुए ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “दुष्प्रेरित धृतराष्ट्र” नामक उनचासवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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