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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 51: मुचुकुन्द की मुक्ति  » 
 
 
 
 
 
जब श्रीकृष्ण नगर से बाहर आए, तो कालयवन ने प्रथम बार श्रीकृष्ण के दर्शन किए, जो पीतवस्त्रधारी तथा असाधारण रूप से सुन्दर थे । कालयवन के सैनिकों के समूहों के मध्य से जाते हुए श्रीकृष्ण ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे मेघ-समूह के मध्य चलता हुआ चन्द्रमा शोभित होता है । सौभाग्यवश कालयवन को श्रीकृष्ण के वक्ष पर एक विशिष्ट चिह्न, श्रीवत्स की रेखाओं, के दर्शन हुए । श्रीकृष्ण के कण्ठ में पड़ी हुई कौस्तुभ-मणि के दर्शन भी कालयवन ने किए । कालयवन ने चतुर्भुज सुदृढ़ शरीर तथा नवविकसित कमलदल के समान लोचनों वाले, विष्णुरूप श्रीकृष्ण के दर्शन किए । मनोहर भाल और सुन्दर स्मित मुख से युक्त, चंचल भौंहो तथा चलायमान कुण्डलों वाले श्रीकृष्ण आनन्दमूर्ति प्रतीत हो रहे थे । श्रीकृष्ण के दर्शन के पूर्व कालयवन ने उनके विषय में नारद जी सुन से रखा था और अब नारद जी के वर्णनों की पुष्टि हो गई । उसने श्रीकृष्ण के विशिष्ट लक्षणों तथा उनके वक्ष पर रत्नों को देखा । उसने श्रीकृष्ण की अति सुन्दर कमलमाला, उनके कमलनयनों तथा उसी के समान अन्य मनोहर शारीरिक लक्षणों के दर्शन किए । उसने निष्कर्ष निकाला कि यह मनोहर व्यक्ति निश्चय ही वासुदेव है, क्योंकि नारद द्वारा पहले से सुने हुए सभी विवरण श्रीकृष्ण की उपस्थिति से प्रमाणित हो जाते थे । श्रीकृष्ण को बिना शस्त्रों तथा रथ के उसकी सेना में से गुजरते हुए देख कर कालयवन चकित हो गया । वे पैदल चल रहे थे । कालयवन श्रीकृष्ण से युद्ध करने आया था फिर भी वह इतना सिद्धान्तवादी था कि उसने भी कोई शस्त्र नहीं लिया । उसने श्रीकृष्ण से द्वन्द्ध युद्ध करने का निश्चय किया । इस प्रकार वह श्रीकृष्ण से युद्ध करके उन्हें बन्दी बनाने के लिए तत्पर हो गया । किन्तु श्रीकृष्ण कालयवन की ओर दृष्टिपात किए बिना आगे बढ़ते गए और कालयवन उन्हें बन्दी बनाने की इच्छा से उनका अनुगमन करने लगा । किन्तु तीव्र गति से दौड़ने पर भी वह श्रीकृष्ण को नहीं पकड़ सका । मन की गति से चलने वाले योगियों के द्वारा भी श्रीकृष्ण को नहीं पकड़ा जा सकता है । उन्हें केवल भक्ति पथ का अनुसरण करने वालों के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और कालयवन को भक्ति का अभ्यास नहीं था । वह श्रीकृष्ण को पकड़ना चाहता था, किन्तु ऐसा करने में असमर्थ होकर वह पीछे पीछे जा रहा था । कालयवन ने अत्यन्त तीव्र गति से दौड़ना प्रारम्भ कर दिया और वह सोच रहा था, "अब मैं समीप आ गया हूँ, अब मैं उन्हें पकड़ लूँगा ।" किन्तु वह उन्हें पकड़ न सका । श्रीकृष्ण उसे दूर ले गए और एक पर्वत की गुफा में प्रविष्ट हो गए । कालयवन ने सोचा कि श्रीकृष्ण उससे युद्ध करने से बचने के लिए गुफा में आश्रय ले रहे हैं । वह इन शब्दों में उनकी भर्त्सना करने लगा, “अरे कृष्ण ! मैंने सुना था कि तुम यदुवंश में जन्में एक महान् शूरवीर हो, किन्तु मैं देखता हूँ कि तुम एक कायर की भाँति युद्ध से मुख मोड़ कर भाग रहे हो । यह तुम्हारे वंश की परम्परा तथा तुम्हारे नाम के योग्य नहीं है ।" तीव्रता से दौड़ते हुए कालयवन श्रीकृष्ण का अनुगमन कर रहा था, किन्तु तब भी वह उन्हें नहीं पकड़ सका, क्योंकि वह पापी जीवन के समस्त दोषों से मुक्त नहीं था । वैदिक संस्कृति के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य आदि उच्च वर्णों के लोग तथा श्रमिक वर्ग भी जो विधि-विधानों का पालन नहीं करते हैं । वे म्लेच्छ अथवा यवन कहलाते हैं । वैदिक समाज की योजना इस प्रकार की गई है कि संस्कार नामक सांस्कृतिक उत्कर्ष अथवा शुद्धिकरण की विधि से शूद्र भी धीरे-धीरे ब्राह्मणों के पद तक उन्नति कर सकते हैं । वैदिक धर्मग्रन्थों के मतानुसार कोई भी जन्म से ब्राह्मण अथवा म्लेच्छ नहीं होता है, जन्म से सभी शूद्र होते हैं । शुद्धिकरण की विधि द्वारा व्यक्ति ब्राह्मणत्व के स्तर तक अपनी उन्नति करता है । यदि वह ऐसा न करके अपना और भी पतन कर लेता है, तब वह म्लेच्छ अथवा यवन कहलाता है । कालयवन भी यवनों अथवा म्लेच्छों के वर्ग में से एक था । वह पापों से दूषित था और श्रीकृष्ण के समीप नहीं पहुँच सका । अवैध काम-भोग, मांस-भक्षण, जुआ खेलने तथा नशा करने के जिन सिद्धान्तों को उच्चवर्णों के लिए वर्जित किया गया है, वे म्लेच्छों या यवनों के जीवन के अविभाज्य अंग हैं । इस प्रकार के पापों से बद्ध होने पर व्यक्ति ईश्वर-साक्षात्कार की दिशा में कोई प्रगति नहीं कर सकता है । भगवद्-गीता में पुष्टि की गई है कि पापों के फलों से पूर्ण रूप से मुक्त होने वाला व्यक्ति ही भक्ति अथवा कृष्णभावनामृत में संलग्न हो सकता है । जब श्रीकृष्ण ने गिरि-कन्दरा में प्रवेश किया तब कालयवन विभिन्न कठोर शब्दों से भर्त्सना करते हुए उनका अनुगमन करता रहा । श्रीकृष्ण अचानक असुर की दृष्टि से ओझल हो गए, किन्तु कालयवन उनका अनुगमन करता गया और वह भी गुफा में प्रविष्ट हो गया । उसने कन्दरा के भीतर सर्वप्रथम एक व्यक्ति को सोते हुए देखा । कालयवन श्रीकृष्ण से युद्ध करने को अत्यन्त अधीर था । जब उसने वहाँ श्रीकृष्ण को नहीं देखा, अपितु उनके स्थान पर एक व्यक्ति को सोते हुए देखा, तो उसने सोचा कि श्रीकृष्ण ही उस कन्दरा में सो रहे हैं । कालयवन को अपने बल का बहुत घमण्ड था और उसने विचार किया कि श्रीकृष्ण उससे युद्ध करने से बचना चाहते हैं । अतएव सोए हुए व्यक्ति को श्रीकृष्ण समझ कर उसने उसपर एक तीव्र पदाघात किया । वह सोया हुआ व्यक्ति वहाँ दीर्घकाल से सो रहा था । कालयवन के पदाघात से जब उसकी निद्रा टूटी, तो उसने तत्काल अपने नेत्र खोल कर समस्त दिशाओं में देखा । अन्तत: उसने अपने समीप खड़े कालयवन को देखा । उस व्यक्ति की निद्रा असमय में भंग कर दी गई थी, अतएव वह अत्यन्त क्रोधित था । जब उसने क्रुद्ध भाव से कालयवन पर दृष्टिपात किया, तो उसके नेत्रों से अग्नि की ज्वाला निकलने लगी और क्षण-मात्र में कालयवन जल कर भस्म हो गया । जब महाराज परीक्षित ने कालयवन के भस्म होने की इस घटना को सुना, तब उन्होंने शुकदेव गोस्वामी से उस शयन करते हुए व्यक्ति के विषय में पूछा-"वह कौन था ? वह वहाँ क्यों शयन कर रहा था ? उसने इतनी शक्ति किस प्रकार प्राप्त की थी कि उसके दृष्टिपात से ही कालयवन तत्क्षण भस्म हो गया ? ऐसा किस प्रकार हुआ कि वह गिरि-कन्दरा में शयन कर रहा था ?" उन्होंने अनेक प्रश्न श्रीशुकदेव गोस्वामी के समक्ष प्रस्तुत किए और श्रीशुकदेवजी ने निम्न प्रकार से उत्तर दिया : "प्रिय राजन् ! उस पुरुष का जन्म राजा इक्ष्वाकु के महान् परिवार में हुआ था । भगवान् रामचन्द्र का जन्म भी इसी परिवार में हुआ था । वह महान् राजा मान्धाता का पुत्र था । वह स्वयं भी एक महापुरुष था और मुचुकुन्द के नाम से प्रसिद्ध था । राजा मुचुकुन्द ब्राह्मण संस्कृति के वैदिक सिद्धान्तों का अत्यन्त दृढ़ता से पालन करता था और वह सत्यप्रतिज्ञ था । वह इतना बलशाली था कि असुरों से युद्ध करते समय इन्द्र आदि देवता भी उसकी सहायता की याचना करते थे और इस प्रकार अनेक बार देवताओं की रक्षा करने के लिए उसने असुरों से युद्ध किया था ।" कार्तिकेय के नाम से विख्यात देवताओं के सेनापति राजा मुचुकुन्द के युद्धकौशल से अत्यन्त प्रसन्न थे । किन्तु एक बार कार्तिकेय ने राजा से कहा कि वे असुरों से युद्ध करने में अत्यन्त कष्ट उठा चुके हैं, अतः अब वे युद्ध से अवकाश लेकर विश्राम करें । सेनापति कार्तिकेय ने राजा मुचुकुन्द को सम्बोधित किया, "प्रिय राजन् ! देवताओं के हेतु आपने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया है । आपका राज्य किसी प्रकार के शत्रु के भय से मुक्त एक उत्तम राज्य था । किन्तु आपने अपना राज्य त्याग दिया, अपने ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति की उपेक्षा की और अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति की भी चिन्ता नहीं की । देवताओं के लिए असुरों से युद्ध करते समय आप अपने राज्य से दीर्घकाल तक अनुपस्थित रहे और उस अनुपस्थिति के कारण समयानुसार आपके परिवार, आपकी सन्तान, आपके सम्बन्धियों तथा आपके मंत्रियों का स्वर्गवास हो चुका है । काल किसी भी मानव की प्रतीक्षा नहीं करता है । अब यदि आप अपने घर लौट भी जाँए तो वहाँ आपको कोई भी जीवित नहीं मिलेगा । काल का प्रभाव अत्यन्त बलवान् होता है । काल इतना शक्तिशाली तथा बलवान् है, क्योंकि यह श्रीभगवान् का एक प्रतिनिधि है । अतएव काल बलवान्तम व्यक्ति से भी बलवान् है । काल का प्रभाव बिना किसी कठिनाई के सूक्ष्म वस्तुओं में भी परिवर्तन ला सकता है । काल की गति को कोई नहीं रोक सकता है । जिस प्रकार पशुपालक मदारी अपनी इच्छानुसार पशुओं को वश में कर लेता है, उसी भाँति काल भी वस्तुओं में अपनी इच्छानुसार समजन कर लेता है । महाकाल के द्वारा किए गए प्रबन्ध में कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता है ।" मुचुकुन्द को इस प्रकार सम्बोधित करते हुए देवताओं ने उनसे कहा कि मुक्ति के वरदान के अतिरिक्त वह उनसे अपनी रुचि के अनुसार कोई भी वरदान माँग ले । भगवान् विष्णु के अतिरिक्त और कोई भी प्राणी मुक्ति देने में समर्थ नहीं है । अतएव भगवान् विष्णु अथवा श्रीकृष्ण का दूसरा नाम मुकुन्द है, क्योंकि वे मुक्ति दे सकते हैं । राजा मुचुकुन्द अनेकानेक वर्षों से सोए नहीं थे । वे युद्ध के कर्तव्य में संलग्न थे और इसलिए बहुत थके हुए थे । अतः जब देवताओं ने वरदान माँगने को कहा तो मुचुकुन्द को केवल निद्रा का विचार आया । उन्होंने इस प्रकार उत्तर . “देवताओं में श्रेष्ठ, प्रिय कार्तिकेय में अब सोना चाहता हूँ । मैं आपसे यह वरदान चाहता हूँ कि जो कोई मेरी निद्रा में बाधा डालने का प्रयास करे और मुझे असमय मैं उठाए, उसे मैं केवल एक दृष्टिपात से भस्म कर दूँ । कृपया मुझे यह वरदान दीजिए ।" देवता कार्तिकेय सहमत हो गए और उन्होंने यह भी वरदान दिया कि वे पूर्ण विश्राम ग्रहण करने में समर्थ होंगे । तदनन्तर राजा मुचुकुन्द ने पर्वत की गुफा में प्रवेश किया । कार्तिकेय के वरदान की शक्ति से मुचुकुन्द द्वारा कालयवन पर दृष्टिपात मात्र से वह भस्म हो गया । जब यह घटना पूरी हो गई, कृष्ण मुचुकुन्द के सम्मुख आए । वास्तव में श्रीकृष्ण ने मुचुकुन्द को उनकी तपस्या से मुक्ति देने के लिए ही गुफा में प्रवेश किया था, किन्तु वे उनके समक्ष पहले नहीं आए । उन्होंने ऐसा प्रबन्ध किया कि पहले कालयवन मुचुकुन्द के समक्ष आए । श्रीभगवान् का यही स्वभाव है । वे एक कार्य इस प्रकार से करते हैं कि उससे अन्य अनेक प्रयोजन भी सिद्ध होते हैं । श्रीकृष्ण गुफा में सोते हुए मुचुकुन्द का उद्धार करना चाहते थे, साथ ही साथ मथुरा पर आक्रमण करने वाले कालयवन का उद्धार भी करना चाहते थे । इस कार्य से उन्होंने सभी प्रयोजन सिद्ध कर लिए । जब भगवान् श्रीकृष्ण मुचुकुन्द के समक्ष प्रकट हुए तब राजा ने पीतवस्त्रधारी, श्रीवत्स के चिह्न से चिह्नित वक्ष वाले श्रीकृष्ण के दर्शन किए । श्रीकृष्ण के कण्ठ में कौस्तुभ मणि लटक रही थी । कण्ठ से लेकर जानुओं तक लटकती हुई वैजयन्ती माला धारण किए हुए श्रीकृष्ण मुचुकुन्द के समक्ष चतुर्भुजी विष्णुमूर्ति के रूप में प्रकट हुए । वे अत्यन्त ज्योतिर्मय थे, उनके मुख पर अत्यन्त सुन्दर मुस्कान थी, उनके दोनों कानों में रत्नजटित कुण्डल थे । श्रीकृष्ण मानव की कल्पना से कहीं अधिक सुन्दर लग रहे थे । वे न केवल इन लक्षणों से युक्त प्रकट हुए, अपितु उन्होंने मुचुकुन्द पर एक अत्यन्त तेजस्वी दृष्टि डाली और राजा का मन आकर्षित कर लिया । यद्यपि वे सर्वाधिक पुरातन श्रीभगवान् थे तथापि वे एक नव किशोर के समान प्रतीत हो रहे थे और उनकी चाल मुक्त हिरण के समान थी । वे अत्यन्त बलशाली प्रतीत हो रहे थे । बल में उनकी श्रेष्ठता इतनी अधिक है कि प्रत्येक मानव को उनसे भयभीत होना चाहिए । जब मुचुकुन्द ने श्रीकृष्ण के तेजस्वी स्वरूप को देखा तब उनमें भगवान् के विषय में कौतूहल उत्पन्न हुआ और उन्होंने अत्यन्त विनयपूर्वक भगवान् से प्रश्न, “प्रिय भगवन् ! क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप इस कन्दरा में कैसे आए ? आप कौन हैं ? मैं देख सकता हूँ कि आपके चरण कोमल कमलों के समान हैं । काँटों तथा झाड़ियों से पूर्ण इस वन में आप किस प्रकार चल सकें । मुझे यह देखकर अचरज हो रहा है । अतएव आप बलवानों में परम बलवान् भगवान् तो नहीं हैं ? आप समस्त प्रकाश तथा अग्नि के मूल स्रोत तो नहीं हैं ? क्या मैं सूर्य, चन्द्र, अथवा देवेन्द्र इन्द्र आदि महान् देवताओं में से आपको एक समझें ? अथवा आप किसी और ग्रह के अधिपति देवता लोकपाल हैं ?" मुचुकुन्द को भलीभाँत ज्ञात था कि प्रत्येक उच्चतर लोक का अपना लोकपाल होता हैं । वे आधुनिक मानवों की भाँति अज्ञानी नहीं थे, जो यह मानते हैं कि पृथ्वी लोक जीवों से पूर्ण है और अन्य ग्रह रिक्त हैं । श्रीकृष्ण के किसी अज्ञात लोक के अधिपति देवता होने के विषय में मुचुकुन्द की जिज्ञासा अत्यन्त उपयुक्त थी । भगवान् के शुद्ध भक्त होने के कारण राजा मुचुकुन्द तत्काल समझ गए कि भगवान् कृष्ण जो उनके समक्ष इस प्रकार के ऐश्वर्ययुक्त लक्षण में प्रकट हुए हैं, भौतिक ग्रहों के अधिपति देवताओं में से एक नहीं हो सकते थे । वे अवश्य ही भगवान् श्रीकृष्ण होंगे जिनके अनेक विष्णु रूप हैं । अतएव मुचुकुन्द ने उन्हें पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु माना । मुचुकुन्द यह भी देख सकते थे कि भगवान् की उपस्थिति से गुफा का गहन अंधकार नष्ट हो गया था, अतएव वे श्रीभगवान् के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकते थे । उन्हें भलीभाँति ज्ञात था कि जहाँ कहीं भी अपने दिव्य नाम, गुण अथवा स्वरूप में भगवान् स्वयं प्रकट होते हैं वहाँ अज्ञान का अंधकार नहीं रह सकता है । वे अंधकार में रखे गए एक दीपक की भाँति हैं; अंधकारयुक्त स्थान को वे तत्काल प्रकाश से पूर्ण कर देते हैं । राजा मुचुकुन्द भगवान् कृष्ण का परिचय जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक हो गए अतएव उन्होंने कहा, "हे पुरुषोत्तम ! यदि आप मुझे अपना परिचय जानने के योग्य समझते हैं, तो कृपया मुझे बताइए कि आप कौन हैं ? आपका वंश कौन-सा है ? आपका व्यवसाय क्या है और आपके परिवार की परम्परा (गोत्र) क्या है ?" राजा मुचुकुन्द ने भगवान् को पहले अपना परिचय देना उचित समझा; अन्यथा उन्हें भगवान् का परिचय पूछने का कोई अधिकार नहीं था । निम्न पद का व्यक्ति उच्च पद वाले व्यक्ति का परिचय नहीं पूछ सकता, यदि पूछते समय वह पहले अपना परिचय नहीं देता है । यह शिष्टाचार है । अतएव राजा मुचुकुन्द ने भगवान् श्रीकृष्ण को सूचित किया, "प्रिय भगवन् ! पहले मुझे आपको अपना परिचय देना चाहिए । मैं सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा इक्ष्वाकु के वंश से सम्बन्धित हूँ किन्तु व्यक्तिगत रूप से मैं अपने पूर्वज के समान महान् नहीं हूँ । मेरा नाम मुचुकुन्द है, मेरे पिता का नाम मान्धाता था और मेरे बाबा महान् राजा युवनाश्व थे । सहस्रों वर्ष तक विश्राम न करने के कारण मैं अत्यन्त श्रमित था और इस कारण मेरे शरीर के अंग शिथिल और कार्य करने में लगभग असमर्थ थे । अपनी शक्ति को पुन: प्राप्त करने के लिए मैं इस एकान्त कन्दरा में विश्राम कर रहा था । किन्तु किसी अज्ञात व्यक्ति ने मुझे उठने के लिए बाध्य कर दिया । यद्यपि मैं नहीं चाहता था, तथापि किसी ने मुझे उठा दिया है । इस प्रतिकूल कार्य के लिए मैंने एक दृष्टिपात-मात्र से उस व्यक्ति को भस्म कर दिया । सौभाग्यवश अब मैं आपके देदीप्यमान् तथा सुन्दर रूप में आपके दर्शन कर सकता हूँ । अतएव मेरा विचार है कि मेरे शत्रु के वध का कारण आप हैं । प्रिय भगवन् ! आपकी अंगकान्ति मेरे नेत्रों को असह्य है; इसी कारण मैं ठीक से आपके दर्शन नहीं कर सकता हूँ । मैं भलीभाँति अनुभव कर सकता हूँ कि आपके तेज के प्रभाव से मेरी शक्ति कम हो गई है । मुझे ज्ञात है कि आप समस्त जीवों की आराधना के योग्य मुचुकुन्द को अपना परिचय जानने के लिए इतना उत्सुक देख कर भगवान् श्रीकृष्ण मुस्काते हुए इस प्रकार से उत्तर देने लगे, "प्रिय राजन् ! मेरे जन्म, आविर्भाव, तिरोभाव अथवा कार्यकलापों के विषय में कुछ कहना व्यावहारिक रूप से असम्भव है ।

सम्भवत: तुमको ज्ञात होगा कि मेरे अवतार अनन्तदेव के अनन्त मुख हैं और वे अनन्त काल से मेरे नाम, यश, गुणों, आविर्भाव, तिरोभाव तथा अवतारों का पूर्ण रूप से वर्णन करने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु फिर भी वे यह कार्य समाप्त नहीं कर सके हैं । अतएव मेरे कितने नाम और रूप हैं यह ठीक-ठीक जानना असम्भव है । एक भौतिक विज्ञानी के लिए पृथ्वी के समस्त अणुओं की संख्या की गणना करना सम्भव हो सकता है, किन्तु वह विज्ञानी भी मेरे अनन्त नामों, रूपों तथा कार्यकलापों की गणना नहीं कर सकता है । अनेक महान् साधु व सन्तजन मेरे विभिन्न रूपों व कार्यकलापों की सूची बनाने की चेष्टा करते रहे हैं, वे फिर भी पूर्ण सूची बनाने में असफल रहे हैं । किन्तु चूँकि तुम मेरे विषय में जानने के इतने उत्सुक हो अत: मैं तुम्हें सूचित करता हूँ कि अभी मैं जनसाधारण के आसुरी सिद्धान्तों के विनाश के लिए तथा वेदों में कहे गए धार्मिक सिद्धान्तों को पुन:स्थापित करने के लिए इस धरती पर प्रकट हुआ हूँ । इस कार्य के हेतु ब्रह्मा ने मुझे निमंत्रित किया है, जो इस ब्रह्माण्ड के अधिपति देवता हैं । इस प्रकार मैं यदुवंश में उनके परिवार के एक सदस्य के रूप में, प्रकट हूँ । मैंने विशेष रूप से यदु-वंश में वसुदेव के पुत्र-रूप में जन्म लिया और लोग मुझे वासुदेव के नाम से जानते हैं । तुन्हें यह भी ज्ञात होगा कि पिछले जन्म में मैने कालनेमि नाम से विख्यात कंस तथा प्रलम्बासुर जैसे अन्य अनेक असुरों का वध किया है । उन्होंने मुझसे शत्रुता की, अतएव मेरे हाथों उनका वध हुआ है । तुम्हारे सम्मुख उपस्थित असुर ने भी मुझसे शत्रुता की थी और तुमने कृपा करके उस पर दृष्टिपात करके उसे भस्म कर दिया है । प्रिय राजन् । मुचुकुन्द ! तुम मेरे महान् भक्त हो तथा तुम्हें अपनी अहैतुकी दया का दर्शन कराने के लिए मैं इस कन्दरा में प्रकट हुआ हूँ । मैं अपने भक्तों के प्रति अत्यधिक स्नेह रखता हूँ । अपनी वर्तमान दशा से पूर्व पूर्वजन्म में तुम मेरे महान् भक्त थे तथा तुमने मेरी अहैतुकी दया के लिए प्रार्थना की थी । अतएव मैं तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करने के लिए तुमसे भेंट करने आया हूँ । अब तुम अपनी अभिलाषा के अनुसार मेरे दर्शन कर सकते हो । प्रिय राजन् ! अब तुम मुझसे अपनी इच्छानुसार कोई भी वरदान माँग सकते हो । मैं तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करने को तत्पर हूँ । यह मेरा सनातन सिद्धान्त है कि जो कोई भी मेरी शरण में आता है, मेरी अनुकम्पा से उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण होनी चाहिए ।" जब भगवान् श्रीकृष्ण ने मुचुकुन्द को उनसे कोई भी वर माँगने का आदेश दिया तब राजा अत्यन्त हर्षित हो गया । उन्हें तत्काल ही गर्गमुनि की भविष्यवाणी स्मरण हो आई । गर्गमुनि ने दीर्घकाल पूर्व भविष्यवाणी की थी कि वैवस्वत मनु के अट्ठाइसवें मन्वन्तर में भगवान् श्रीकृष्ण इस पृथ्वी पर प्रकट होंगे । जैसे ही उन्हें यह भविष्यवाणी स्मरण हुई उन्हें समझ में आने लगा कि भगवान् कृष्ण के रूप में स्वयं पुरुषोत्तम नारायण उनके समक्ष उपस्थित हैं । वे तत्काल भगवान् के पदकमलों पर गिर पड़े और निम्न प्रकार से स्तुति करने लगे"प्रिय भगवन् ! मैं समझ सकता हूँ कि इस जगत् में सभी जीव आपकी बहिरंगा शक्ति, माया, के द्वारा भ्रमित हैं और इन्द्रियतृप्ति की भ्रामक तुष्टि पर मोहित हैं । भ्रामक गतिविधियों में पूर्ण रूप से संलग्न होने के कारण वे आपके चरणारविन्दों की पूजा के प्रति अनिच्छुक हैं । आपके चरणकमलों की शरण में आने के लाभों का उन्हें ज्ञान नहीं है, इसी कारण वे भौतिक जगत् की विभिन्न दुःखदायी दशाओं के वशीभूत होते हैं । मूर्खतावश वे विभिन्न प्रकार की दुःखद दशाओं को जन्म देने वाले ॥ तथाकथित समाज, मैत्री तथा प्रेम के प्रति बँधे रहते हैं । आपकी बहिंरगा शक्ति से भ्रमित होकर प्रत्येक व्यक्ति, स्त्री तथा पुरुष दोनों ही, इस भौतिक जगत् से बँधे रहते हैं । छलने वालों तथा छले जाने वालों के इस समाज में सभी एक दूसरे को छलने में संलग्न हैं । ये मूर्ख व्यक्ति यह नहीं जानते हैं कि इस मानव-जीवन को प्राप्त करना उनका कितना बड़ा सौभाग्य है; अतः वे आपके चरणकमलों का भजन करने के अनिच्छुक हैं । आपकी बहिरंगा शक्ति के प्रभाववश वे केवल भौतिक गतिविधियों के आकर्षण से बँधे रहते हैं । अन्धकूप में गिरे हुए गूँगे पशु की भाँति वे केवल तथाकथित समाज, मैत्री तथा प्रेम से ही बँधे रहते हैं ।" अन्धकूप का उदाहरण इसलिए दिया गया है, क्योंकि खेतों में अनेक ऐसे कुएँ होते हैं, जो अनेक वर्षों तक उपयोग में न आने के कारण घास से ढक जाते हैं और बेचारे पशु उन कुओं को न जानने के कारण उनमें गिर जाते हैं । यदि कोई उनकी रक्षा न करे तो उनकी मृत्यु हो जाती है । घास के कुछ तिनकों पर मोहित हो कर, पशु अन्धकूप में गिर कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं । उसी भाँति मूर्ख व्यक्ति मानव-जीवन के महत्त्व को न जानकर, इसे केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए नष्ट कर देते हैं और व्यर्थ ही, अनावश्यक रूप से मृत्यु को प्राप्त होते हैं । "प्रिय भगवन् ! प्रकृति के इस सार्वभौम नियम का मैं अपवाद नहीं हूँ । मैं भी उन्हीं मूर्ख व्यक्तियों में से एक हूँ जिन्होंने अपना समय व्यर्थ गाँवा दिया है और मेरी स्थिति तो विशेष रूप से गम्भीर है । राजवंश का होने के कारण मैं साधारण व्यक्तियों से भी अधिक गर्व-युक्त था । एक साधारण मनुष्य अपने शरीर अथवा परिवार का स्वामी होने की बात सोचता है, किन्तु मैंने बड़े पैमाने पर यह भ्रामक विचार करना आरम्भ किया । मैं समस्त जगत् का स्वामी बनना चाहता था । जैसे-जैसे मैं इन्द्रियतृप्ति के विचारों से उन्मत्त होता गया, वैसे-वैसे जीवन के प्रति मेरी देहात्मबुद्धि दृढ़तर होती गई । घर, पत्नी, सन्तान, धन और जगत् पर प्रभुत्व के प्रति मेरी आसक्ति न केवल अधिक प्रबल होती गयी, अपितु वास्तव में मेरी आसक्ति असीम थी । इस प्रकार जीवन की भौतिक दशाओं के विचारों से मैं सर्वदा बद्ध रहा ।" "अतएव भगवन् ! मैंने अपना इतना बहुमूल्य जीवन व्यर्थ गँवा दिया । जीवन विषयक मेरी मिथ्या धारणा दृढ़ हो जाने के कारण, मैं विचार करने लगा कि अस्थिमांस का पिंजर यह भौतिक शरीर ही सब कुछ है और व्यर्थ ही मैं उस श्वान (कुत्ते) की भाँति यह विश्वास करने लगा कि वह मानव-समाज का राजा बन गया है । देहात्मबुद्धि के कारण सैनिकों, सारथियों, हाथियों तथा अश्वों आदि की अपनी सैन्य शक्ति सहित मैं समस्त जगत् की यात्रा करने लगा । अनेक सेनापति मेरी सहायता करते थे तथा मैं अपनी शक्ति पर गर्वित हो उठा था । इस कारण सर्वाधिक अन्तरंग सखा की भाँति, मेरे हृदय में सदा निवास करने वाले भगवान्, आपको मैं नहीं पा सका । मैंने आपकी चिन्ता नहीं की और भौतिक रूप से मेरी तथाकथित उन्मत्त स्थिति का यही दोष था । मेरे विचार में मेरी भाँति सभी प्राणी आध्यात्मिक साक्षात्कार के प्रति असावधान रहते हैं और यह सोचते हुए कि क्या किया जाए, आगे क्या होगा, सदैव उद्विग्न रहते हैं । किन्तु हमें भौतिक कामनाओं ने दृढ़ता से बाँध रखा है, अतएव हम उन्मत्तावस्था में बने रहते हैं । भौतिक विचारों में इतना मग्न होने पर भी आपका ही एक स्वरूप, अटल काल, अपने कर्तव्य के प्रति सदैव सावधान रहता है । जैसे ही निर्धारित समय समाप्त होता है वैसे ही आप हमारी भौतिक स्वपनों की समस्त गतिविधियों को तत्काल समाप्त कर देते हैं । काल के रूप में आप हमारी समस्त गतिविधियों को उसी प्रकार समाप्त कर देते हैं जैसे एक भूखा कालसर्प निर्दयतापूर्वक शीघ्रता से एक छोटे से चूहे को निगल जाता है । वे राजसी शरीर, जो जीवन में सदैव स्वर्णाभूषणों से सज्जित रहते थे तथा जो उत्तम अश्वों वाले रथों पर अथवा स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित हाथी की पीठ पर सवार हो कर चलते थे; काल की क्रूर गति से निर्जीव हो जाते हैं । मानव समाज के राजा के रूप में प्रसिद्ध वही राजसी शरीर अटल काल के प्रभाव के अन्तर्गत क्षय को प्राप्त होता है और कीड़े-मकोड़ों का भोजन बन जाता है, अथवा भस्म हो जाता है या किसी पशु की विष्ठा बनने के योग्य हो जाता है । यह सुन्दर शरीर जीवितावस्था में राजसी हो सकता है, किन्तु मृत्यु के उपरान्त एक राजा के शरीर को भी पशु खाते हैं, अतएव वह विष्ठा में परिवर्तित हो जाता है, अथवा उसे शमशान में जला दिया जाता है और वह भस्म बन जाता है, अथवा उसे कब्र में दबा देते हैं जहाँ इसमें से भिन्न-भिन्न प्रकार के कीड़े-मकोड़ों की उत्पत्ति होती है । “प्रिय भगवन् ! हम न केवल मृत्यु के पश्चात् इस अटल काल के पूर्ण नियंत्रण में आ जाते हैं, अपितु जीवितावस्था में भी एक दूसरे प्रकार से इसके नियंत्रण में आते हैं । उदाहरण के लिए, भले ही मैं एक शक्तिशाली राजा हो सकता हूँ, फिर भी जगत् पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब मैं घर वापस आता हूँ तब मैं अनेक भौतिक दशाओं के वशीभूत हो जाता हूँ । हो सकता है कि जब मैं विजयी होकर वापस आता हूँ तब समस्त अधीनस्थ राजा आकर प्रणाम करें, किन्तु जैसे ही मैं महल के अन्त:पुर में प्रवेश करता हूँ, मैं स्वयं अपनी रानियों के हाथों का खिलौनाबन जाता हूँ और इन्द्रियतृप्ति के लिए मुझे स्त्रियों के चरणों पर गिरना पड़ता है । जीवन का भौतिकतावादी मार्ग इतना जटिल है कि भौतिक जीवन का आनन्द उठाने के पूर्व व्यक्ति को इतना कठोर श्रम करना पड़ता है कि शान्तिपूर्वक आनन्द भोगने का अवसर कठिनाई से मिलता है । भौतिक सुखों को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को कठोर आत्मसंयम तथा तपस्या करनी पड़ती है । तब कहीं स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त होता है । यदि व्यक्ति को एक अत्यन्त धनी अथवा राज परिवार में जन्म लेने का अवसर मिलता है, उस अवस्था में भी वह उस वैभवशाली स्तर को बनाए रखने के लिए सदैव व्याकुल रहता है । अगले जन्म की तैयारी करने के लिए उसे अनेक प्रकार के यज्ञ सम्पन्न करने पड़ते हैं तथा दान देने पड़ते हैं । जीवन की राजसी दशा में भी व्यक्ति न केवल राजनैतिक प्रशासन के कारण उद्विग्नताओं से पूर्ण रहता है अपितु वह स्वर्ग में स्थान प्राप्त करने के बारे में भी चिन्तित रहता है ।

"अतएव भौतिक बन्धनों से मुक्त होना अत्यन्त कठिन है । किन्तु यदि किसी प्रकार किसी व्यक्ति पर आपका अनुग्रह हो जाता है, तब केवल आपकी कृपा से ही उसे किसी शुद्ध भक्त की संगति का अवसर मिल जाता है । भौतिक बद्ध जीवन के बन्धनों से मुक्ति का यही आरम्भ-बिन्दु है । प्रिय भगवन् ! आप भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों जगतों के नियन्ता हैं, व्यक्ति केवल शुद्ध भक्त की संगति के द्वारा आप की ओर आकर्षित होता है । आप समस्त शुद्ध भक्तों के परम लक्ष्य हैं

और शुद्ध भक्तों की संगति के द्वारा व्यक्ति आपके प्रति अपने सुप्त प्रेम को विकसित कर सकता है । अतएव शुद्ध भक्तों की संगति में कृष्णभावनामृत का विकास ही भौतिक बन्धनों से मुक्ति का कारण है ।

"प्रिय भगवन् ! आप इतने दयालु हैं कि आपके महान् भक्तों के संग के प्रति मेरे अनिच्छुक होने पर भी अपने मुझे गर्गमुनि के समान शुद्ध भक्त का संत्सग प्राप्त कराकर मुझ पर परम अनुकम्पा दर्शाई है । आपकी अहैतुकी दया से ही मैंने अपने भौतिक ऐश्वर्य, अपने राज्य तथा अपने परिवार को खो दिया है । मेरे विचार में आपकी अहैतुकी दया के बिना मैं इन सब बन्धनों से मुक्ति नहीं पा सकता था । राजा, महाराजा राजसी जीवन का विस्मरण करने के लिए कभी कभी साधु का जीवन स्वीकार करते हैं, किन्तु आपकी विशिष्ट अहैतुकी दया से मैं पहले ही राजसी जीवन से वंचित हूँ । दूसरे राजाओं को राज्य और परिवार के बन्धनों से मुक्त होने का प्रयास करना पड़ता है । किन्तु आपकी दया से मुझे वैराग्य का अभ्यास करने अथवा साधु बनने की कोई आवश्यकता नहीं है ।

“प्रिय भगवन् ! इसलिए मेरी आपसे प्रार्थना है कि मैं केवल आपके चरणारविन्दों की दिव्य प्रेममयी सेवा करने में संलग्न रह सकूं । सभी प्रकार के भौतिक दूषणों से मुक्त शुद्ध भक्तों का भी यही ध्येय होता है । आप श्रीभगवान् हैं और आप मुझे मुक्ति सहित कुछ भी दे सकते हैं । किन्तु ऐसा कौन मूर्ख होगा, जो आपको प्रसन्न करने के उपरान्त आपसे कोई ऐसी वस्तु माँगेगा, जो भौतिक जगत् में बन्धन का कारण बने ? मेरे विचार में कोई भी स्वस्थचित्त व्यक्ति आपसे ऐसा वरदान नहीं माँगेगा । आप श्रीभगवान् हैं । आप प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करने वाले परमात्मा हैं । आप निर्विशेष ब्राह्म-ज्योति हैं, अतएव मैं आपकी शरण में आता हूँ । बहिंरगा शक्ति की अभिव्यक्ति मात्र है । अतएव किसी भी दृष्टिकोण से आप प्रत्येक प्राणी के परमाश्रय हैं । भौतिक स्तर पर हो अथवा आध्यात्मिक स्तर पर, सबको आपके चरणकमलों का आश्रय लेना पड़ता है । अतएव भगवन् ! मैं आपकी शरण लेता हूँ । अनेकानेक जन्मों से मैं भौतिक जगत् के त्रिदाहों से पीड़ित हूँ और अब मैं इससे थक गया हूँ । मैं केवल अपनी इन्द्रियों के वशीभूत रहा और कभी-भी सन्तुष्ट नहीं हुआ । अतएव मैं आपके उन चरणकमलों की शरण लेता हूँ, जो समस्त शान्तिपूर्ण जीवन के स्रोत हैं और जो भौतिक दूषणों से उत्पन्न सभी प्रकार के शोकों को मिटा सकते हैं । प्रिय भगवन् ! आप प्रत्येक जीव के परमात्मा हैं और आप सब कुछ समझ सकते हैं । अब मैं भौतिक इच्छा के सभी दूषणों से मुक्त हूँ । मुझे इस भौतिक जगत् का उपभोग करने की कोई कामना नहीं है, न ही मैं आपकी आध्यात्मिक ज्योति में विलीन होने का लाभ उठाना चाहता हूँ । मुझे आपके परमात्मा पक्ष का ध्यान करने की भी इच्छा नहीं है, क्योंकि मुझे ज्ञात है कि आपका आश्रय लेने मात्र से मैं पूर्ण रूप से शान्त और स्थिर हो जाऊँगा ।"

राजा मुचुकुन्द के इस कथन को सुनकर भगवान् कृष्ण ने उत्तर दिया, "प्रिय राजन् ! तुम्हारे कथन से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ । तुम समस्त पृथ्वी के राजा रह चुके हो, किन्तु मुझे आश्चर्य है कि तुम्हारा मन अब समस्त भौतिक दूषणों से मुक्त हो चुका है । अब तुम भक्ति करने के योग्य हो गए हो । मुझे यह देख कर अत्यधिक हर्ष है कि यद्यपि मैंने तुम्हें कोई भी वर माँगने का अवसर दिया, किन्तु तुमने उसका लाभ उठा कर किसी भौतिक लाभ की कामना नहीं की । मैं समझ सकता हूँ कि तुम्हारा मन अब मुझमें केन्द्रित है और किसी भौतिक गुण से क्षुब्ध नहीं है । "सत, रज तथा तम नामक तीन भौतिक गुण होते हैं । जब व्यक्ति रज तथा तम के सम्मिलित गुणों में अवस्थित होता है, तब वह विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों तथा वासनाओं के द्वारा, इस भौतिक जगत् में सुख प्राप्त करने का प्रयास करने के लिए प्रेरित कर दिया जाता है । जब वह सतोगुण में अवस्थित होता है, तब वह विभिन्न प्रकार के तपों तथा संयमों का सम्पादन करके स्वयं को शुद्ध करने का प्रयास करता है । जब व्यक्ति वास्तविक ब्राह्मण के स्तर पर पहुँच जाता है, तब वह भगवान् के अस्तित्त्व में लीन हो जाने की कामना करता है । किन्तु जब वह व्यक्ति केवल भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने की कामना करता है, तब वह त्रिगुणातीत होता है । अतएव शुद्ध कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सदैव ही तीनों गुणों से मुक्त होता है । प्रिय राजन ! भक्ति में तुम कितनी प्रगति कर चुके हो, इसकी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने तुमको वर देना चाहा था । अब मैं देख सकता हूँ कि तुम शुद्ध भक्त के स्तर को प्राप्त कर चुके हो, क्योंकि तुम्हारा मन भौतिक जगत् की किसी प्रकार की लोलुपता (लालच) अथवा दुर्वासनाओं से क्षुब्ध नहीं है । इन्द्रियों का दमन तथा प्राणायाम का अभ्यास करके, अपना उत्कर्ष करने का प्रयास करने वाले योगी भी इतने पूर्णरूप से भौतिक कामनाओं से मुक्त नहीं हैं । ऐसे अनेक उदाहरण देखे गए हैं कि जैसे ही प्रलोभन समक्ष आता है, ऐसे योगी फिर भौतिक स्तर पर उतर आते हैं ।" इस कथन की पुष्टि करने वाले ज्वलन्त उदाहरण विश्वामित्र मुनि हैं । विश्वामित्र मुनि एक महान् योगी थे, जो प्राणायाम का अभ्यास कर रहे थे । किन्तु जब उनके निकट स्वर्ग की अप्सरा मेनका गई, तो वे संयम खो बैठे और मेनका से शकुन्तला नामक एक पुत्री उत्पन्न की । किन्तु शुद्ध भक्त हरिदास ठाकुर, एक वेश्या के द्वारा इस प्रकार के प्रलोभन दिए जाने पर भी कभी विचलित नहीं हुए । भगवान् कृष्ण ने आगे कहा, "प्रिय राजन् ! इसीलिए मैं तुमको यह विशेष वरदान देता हूँ कि तुम सदैव मेरे विषय में चिन्तन करोगे । इस प्रकार तुम त्रिगुणों से दूषित हुए बिना भौतिक जगत् में मुक्त रूप से विचरण करने में समर्थ होगे ।" भगवान् का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि गुरु के निर्देशन में भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में संलग्न कृष्णभावनामृत में यथार्थत: स्थित भक्त कभी भी प्रकृति के गुणों के दूषणों से प्रभावित नहीं होता है । भगवान् ने कहा, "प्रिय राजन् ! एक क्षत्रिय होने के कारण तुमने आखेट करते हुए तथा राजनैतिक संग्रामों में पशु-वध का अपराध किया है । शुद्धिकरण के लिए स्वयं को भक्तियोग के अभ्यास में संलग्न करो तथा अपना मन सदैव मुझमें लीन रखों । शीघ्र ही तुम्हें इन पापों के फलों से मुक्ति मिल जाएगी ।" इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि क्षत्रियों को शिकार के समय पशु वध करने की अनुमति है, तथापि वे पापों से जन्य इन दूषणों से मुक्त नहीं होते हैं । अतएव किसी के क्षत्रिय, वैश्य अथवा ब्राह्मण होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता है । जीवन के अन्त में सभी को संन्यास लेने की संस्तुति की जाती है । सभी को पूर्ण रूप से स्वयं को भगवान् की सेवा में संलग्न कर देना चाहिए और इस प्रकार पूर्वजन्म के पापों से मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए ।

तदनन्तर भगवान् ने राजा मुचुकुन्द को आश्वासन दिलाया, "अपने अगले जन्म में तुम एक श्रेष्ठ वैष्णव के रूप में जन्म लोगे जो कि ब्राह्मणों में सर्वोत्तम होते हैं । उस जन्म में मेरी दिव्य सेवा में संलग्न रहना ही तुम्हारा एकमात्र प्रयोजन होगा ।" वैष्णव प्रथम श्रेणी का ब्राह्मण होता है, क्योंकि जिसने एक प्रामाणिक ब्राह्मण के गुण प्राप्त नहीं किए हैं, वह वैष्णव के स्तर को नहीं प्राप्त कर सकता । जब कोई वैष्णव स्तर को प्राप्त कर लेता है, तो वह पूर्णत: समस्त जीवों के कल्याण में संलग्न हो जाता है । कृष्णभावनामृत का प्रचार ही समस्त जीवों का परम कल्याण करना है । यहाँ पर कहा गया है कि जिन पर भगवान् का विशेष अनुग्रह होता है, वे पूर्ण रूप से श्रीकृष्णभक्त बन सकते हैं और वैष्णव दर्शन का प्रचार करने में संलग्न हो सकते हैं ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “मुचुकुन्द की मुक्ति” नामक इक्यावनवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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