भगवान् श्रीकृष्ण ने इक्ष्वाकु वंश के प्रख्यात वंशज मुचुकुन्द पर अनुग्रह किया तब उन्होनें गुफा के अन्दर भगवान् की परिक्रमा की और बाहर आ गए । कन्दरा से बाहर आने के पश्चात् मुचुकुन्द ने देखा कि मानव-जाति का आकार आश्चर्य रूप से छोटा होकर वामन (बौनों) के आकार का हो गया है । उसी भाँति वृक्षों का आकार भी अति लघु हो गया है । इससे मुचुकुन्द तत्काल समझ गए कि वर्तमान युग कलियुग है । अत: अपना ध्यान विचलित किए बिना वे उत्तर की ओर यात्रा करने लगे । अन्ततः वे गन्धमादन नामक पर्वत पर पहुँच गए । उस पर्वत पर चन्दन तथा अन्य अनेक पुष्पों के वृक्ष थे, जिनकी सुगन्ध समीप आने वाले व्यक्ति को प्रसन्न कर देती थी । उन्होंने आत्म-संयम तथा तपचर्या के लिए शेष जीवन गन्धमादन पर्वत के क्षेत्र में व्यतीत करने का निश्चय किया । ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्थान हिमालय की पर्वत श्रृंखला के उत्तरी भाग में स्थित है, जहाँ नर-नारायण का धाम है । यह स्थान अभी भी है और बदरिकाश्रम के नाम से विख्यात है । बदरिकाश्रम में मुचुकुन्द इस भौतिक जगत् के समस्त द्वंद्व, सुख-दुःख आदि को सहन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण की उपासना में संलग्न हो गए । श्रीकृष्ण मथुरा क्षेत्र में लौट आए और उन्होंने कालयवन के सैनिकों से युद्ध करके उनका वध कर दिया । तत्पश्चात् उन्होंने मृतशरीरों पर से मूल्यवान सामग्री एकत्र करवाई और अपने निर्देशन में उस सामग्री को बैलगाड़ियों पर रख कर द्वारका ले आए । इसी मध्य जरासन्ध ने तेइस अक्षौहिणी सेना लेकर मथुरा पर पुन: आक्रमण कर दिया । भगवान् श्रीकृष्ण राजा जरासन्ध के विशाल सैन्य समूहों के अठारहवें आक्रमण से मथुरा की रक्षा करना चाहते थे । सैनिकों के और अधिक वध को रोकने के लिए तथा अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों को (0)सम्पादित करने के लिए श्रीकृष्ण ने युद्ध किए बिना ही रणक्षेत्र का त्याग कर दिया । वास्तव में वे तनिक भी भयभीत नहीं थे, किन्तु उन्होंने जरासन्ध की विशाल सेना तथा शक्ति से भयभीत एक साधारण मानव होने का अभिनय किया । बिना कोई शस्त्र लिए उन्होंने रणक्षेत्र त्याग दिया । यद्यपि उनके चरण कमलदल की भाँति कोमल थे, तथापि वे बहुत दूर तक पैदल ही चलते गए । जरासन्ध ने विचार किया कि इस बार श्रीकृष्ण तथा बलराम उसकी सैन्य शक्ति से अत्यन्त भयभीत हैं और रणक्षेत्र से भाग रहे हैं । उसने अपने समस्त रथों, अश्वों तथा सैन्य सहित उनका पीछा करना प्रारम्भ किया । उसके विचार से श्रीकृष्ण तथा बलराम साधारण मानव थे और उसी प्रकार वह भगवान् की गतिविधियों को माप रहा था । श्रीकृष्ण को रणछोड़ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "वह व्यक्ति जिसने रणक्षेत्र छोड़ दिया हो ।" भारत में और मुख्य रूप से गुजरात में, श्रीकृष्ण के अनेक मन्दिर हैं, जो रणछोड़ जी के मन्दिर के रूप में विख्यात हैं । साधारणतया यदि कोई राजा युद्ध किए बिना रणक्षेत्र छोड़ देता है, तो उसे कायर कहते हैं, किन्तु श्रीकृष्ण युद्ध के बिना रणक्षेत्र छोड़ने की यह लीला करते हैं तब भक्त उनकी उपासना करते हैं । असुर सदैव श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य तथा शक्ति को मापने का प्रयास करता है, जबकि एक भक्त कभी भी उनके ऐश्वर्य तथा शक्ति को मापने का प्रयास नहीं करता है । भक्त सदैव भगवान् की शरण में जाते हैं और उनका भजन करते हैं । शुद्ध भक्तों के पदचिह्नों का अनुसरण करके हम यह जान सकते हैं कि रणछोड़ जी श्रीकृष्ण ने भयभीत होने के कारण युद्ध क्षेत्र को नहीं छोड़ा था, किन्तु इस कार्य के पीछे उनका कोई अन्य प्रयोजन था । जैसाकि बाद में स्पष्ट होगा, उनका प्रयोजन अपनी भविष्य में होने वाली प्रथम पत्नी रुक्मिणी द्वारा भेजे गए गुप्त पत्र के अनुसार कार्य करना था । श्रीकृष्ण का रणक्षेत्र छोड़ना उनके छ: ऐश्वर्यों में से एक का प्रदर्शन है । श्रीकृष्ण परम शक्तिमान, परम सम्पन्न (धनवान), परम प्रसिद्ध, परम बुद्धिमान, परम सुन्दर हैं, उसी भाँति वे परम वैराग्यवान् भी हैं । श्रीमद्-भागवत में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पर्याप्त सैन्य शक्ति के होते हुए भी उन्होंने रणक्षेत्र का त्याग किया । अपनी सेना के बिना भी वे जरासन्ध की सेना को पराजित करने के लिए अकेले ही पर्याप्त थे । पहले भी सत्रह बार वे ऐसा कर चुके थे । अतएव उनका रणक्षेत्र को त्यागना उनके श्रेष्ठतम वैराग्य-ऐश्वर्य का एक दृष्टान्त है । बहुत दूर तक चलने के पश्चात् श्रीकृष्ण तथा बलराम दोनों भाइयों ने अत्यन्त थक जाने का अभिनय किया । अपनी थकान को दूर करने के लिए वे समुद्र तल से कई मील ऊँचे एक अत्यन्त उच्च पर्वत पर चढ़े । निरन्तर वर्षा के कारण इस पर्वत को प्रवर्षण कहा जाता था । पर्वत का शिखर सदैव इन्द्र द्वारा प्रेषित मेघों से आच्छादित रहता था । जरासन्ध ने मान लिया कि दोनों भाई उसकी सैन्य शक्ति से भयभीत होकर पर्वत शिखर पर जाकर छिप गए हैं । पहले तो उसने बहुत समय तक श्रीकृष्ण व बलराम को ढूँढ़ने का प्रयास किया, किन्तु जब वह असफल रहा तब उसने पर्वत के शिखर के चारों ओर आग लगा कर उनका वध करने का निश्चय किया । उसने शिखर के चारों ओर तेल डाल कर आग लगा दी । जब अग्नि अधिक फैली तब श्रीकृष्ण और बलराम पर्वत शिखर से अट्ठासी मील नीचे धरती पर कूद गए । इस प्रकार जब पर्वत-शिखर जल रहा था, वे जरासन्ध की दृष्टि से ओझल होकर बच निकले । जरासन्ध ने निष्कर्ष निकाला कि दोनों भाई भस्म हो गए और आगे युद्ध करने की आवश्यकता नहीं रही । स्वयं को अपने प्रयासों में सफल मान कर वह मथुरा से अपनी राजधानी मगध लौट गया । धीरे-धीरे श्रीकृष्ण और बलराम जी चारों ओर सागर से घिरी हुई द्वारकापुरी पहुँच गए । इसके पश्चात् आनर्त प्रदेश के राजा रैवत की पुत्री रेवती से बलराम जी ने विवाह किया । इसका विवरण श्रीमद्रागवत के नवम स्कन्ध में दिया गया है । श्रीबलदेव के विवाह के उपरान्त श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी से विवाह किया । रुक्मिणी विदर्भ प्रदेश के शासक राजा भीष्मक की पुत्री थीं । जिस प्रकार कृष्ण श्रीभगवान् वासुदेव हैं उसी प्रकार रुक्मिणी महालक्ष्मी हैं । चैतन्य-चरितामृत के प्रमाणानुसार श्रीकृष्ण तथा श्रीमती राधारानी का प्रकाश एकसाथ होता है । श्रीकृष्ण स्वयं को विभिन्न विष्णुतत्त्व-रूपों में विस्तारित करते हैं । श्रीमती राधारानी अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा स्वयं का विभिन्न शक्तियों के रूप में, अथवा श्रीलक्ष्मी के अनेक रूपों में विस्तार करती हैं । वैदिक लोकाचार के अनुसार आठ प्रकार के विवाह होते हैं । प्रथम श्रेणी के विवाह में वर व वधू के माता-पिता विवाह की तिथि निश्चित करते हैं । तदनन्तर राजसी ठाठ से वर वधू के घर जाता है । ब्राह्मणों, पुरोहितों तथा सम्बन्धियों की उपस्थिति में वर को वधू का दान दिया जाता है । इसके अतिरिक्त और भी विवाह की प्रणालियाँ हैं, जैसे गन्धर्व और राक्षस विवाह । रुक्मिणी जी का श्रीकृष्ण से राक्षस प्रणाली से विवाह हुआ था, क्योंकि श्रीकृष्ण ने शिशुपाल, जरासन्ध, शाल्व तथा अन्य अनेक प्रतिद्वन्द्वियों की उपस्थिति में रुक्मिणी जी का हरण किया था । जब रुक्मिणी जी का कन्यादान शिशुपाल को किया जा रहा था तब श्रीकृष्ण विवाह मण्डप से उसे उसी प्रकार छीन ले गए जैसे गरुड़ ने असुरों से अमृत का पात्र छीना था । राजा भीष्मक की एकमात्र पुत्री रुक्मिणी अनिन्द्य सुन्दरी थी । वह रुचिरानना के नाम से विख्यात थी जिसका अर्थ है, "कमलपुष्प के समान सुन्दर मुख वाली ।" श्रीकृष्ण के भक्त भगवान् के दिव्य चरित्र के विषय में सुनने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं । युद्ध, हरण तथा रणक्षेत्र छोड़कर भागना आदि उनकी सभी लीलाएँ दिव्य हैं, क्योंकि वे सर्वोच्च स्तर की लीलाएँ हैं । भक्तगण उनके विषय में सुनने में दिव्य रुचि रखते हैं । शुद्ध भक्त यह भेद नहीं करते कि भगवान् की कुछ लीलाओं को सुनना चाहिए तथा कुछ को नहीं । फिर भी तथाकथित भक्तों की एक श्रेणी है, जो प्राकृत सहजिया के नाम से विख्यात है । वे लोग गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की रासलीला के विषय में सुनने में अत्यधिक रुचि रखते हैं, किन्तु शत्रुओं से उनके युद्ध के विषय में सुनने में रुचि नहीं रखते । वे यह नहीं जानते हैं कि उनकी युद्ध सम्बन्धी लीलाएँ तथा गोपियों के साथ उनकी प्रेमपूर्ण लीलाएँ दोनों ही समान रूप से दिव्य हैं, क्योंकि दोनों ही प्रकार की लीलाएँ अद्वय (परम) स्तर की हैं । शुद्ध भक्त श्रीमद्-भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण की लीलाओं का रसास्वादन विनम्र श्रवण द्वारा करते हैं । वे लीलामृत की एक बूंद को भी अस्वीकार नहीं करते हैं । रुक्मिणी के साथ श्रीकृष्ण के विवाह की कथा का वर्णन इस प्रकार किया गया है । विदर्भ के राजा महाराज भीष्मक एक अत्यन्त योग्य तथा भक्त सम्राट थे । उनके पाँच पुत्र तथा केवल एक पुत्री थी । प्रथम पुत्र रुक्मी, दूसरा रुक्मरथ, तीसरा रुक्मबाहु, चौथा रुक्मकेश और पाँचवाँ रुक्ममाली के नाम से विख्यात था । उन भाइयों की एक छोटी बहन रुक्मिणी थी । वह सुन्दर और सती थी तथा श्रीकृष्ण से उसका विवाह होने वाला था । अनेक सन्त तथा नारद मुनि जैसे साधु राजा भीष्मक के राजमहल में जाया करते थे । स्वाभाविक ही था कि रुक्मिणी जी को उनसे वार्तालाप करने का अवसर प्राप्त हुआ और इस प्रकार उन्होंने श्रीकृष्ण के विषय में ज्ञान प्राप्त कर लिया । उन्होंने श्रीकृष्ण के षड्-ऐश्वर्यों के विषय में जानकारी प्राप्त की और उनके विषय में सुनकर ही रुक्मिणी श्रीकृष्ण के चरणकमलों की शरण लेकर उनकी पत्नी बनने की कामना करने लगीं । श्रीकृष्ण ने भी रुक्मिणी के विषय में सुना था । वे बुद्धिमत्ता मन की उदारता, अनिन्द्य सौन्दर्य और सदाचार आदि सभी दिव्य गुणों की सागर थीं । अतएव श्रीकृष्ण ने निश्चय किया कि वे उनकी पत्नी बनने के योग्य हैं । राजा भीष्मक के समस्त परिवार तथा सम्बन्धियों ने निश्चय किया कि रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण से होना चाहिए । किन्तु रुक्मिणी के बड़े भाई रुक्मी ने अन्य सबकी इच्छा के विपरीत उनका विवाह शिशुपाल के साथ निश्चित कर दिया । शिशुपाल श्रीकृष्ण का कट्टर शत्रु था । जब काली आँखों वाली सुन्दरी रुक्मिणी ने इस सम्बन्ध के विषय में सुना, तो वे तत्काल अत्यन्त उदास हो गई । उनका विचार था कि तत्काल ही कुछ करना चाहिए । कुछ विचार करने के पश्चात् उन्होंने श्रीकृष्ण को सन्देश भेजने का निश्चय किया और उनके साथ छल न हो इसलिए उन्होंने एक योग्य ब्राह्मण को अपना दूत चुना । इस प्रकार का योग्य ब्राह्मण विष्णु भक्त होता है और सदैव सत्य भाषण करता है । ब्राह्मण को अविलम्ब द्वारका भेज दिया गया । द्वारका के मुख्य द्वार पर पहुँच कर ब्राह्मण ने द्वारपाल को अपने आने की जानकारी दी । द्वारपाल उसे उस स्थान पर ले गया जहाँ श्रीकृष्ण एक स्वर्ण-सिंहासन पर आसीन थे । चूँकि ब्राह्मण को रुक्मिणी जी का दूत होने का अवसर मिला था, अतएव उसे समस्त कारणों के मूल कारण, भगवान् श्रीकृष्ण, के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । ब्राह्मण तो समाज के सभी विभागों का गुरु होता है । ब्राह्मणों का किस प्रकार आदर करना चाहिए, यह वैदिक शिष्टाचार सिखाने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण तत्काल उठ खड़े हो गए और उस ब्राह्मण को अपना सिंहासन दिया । जब ब्राह्मण स्वर्ण-सिंहासन पर आसीन हो गया तब भगवान् श्रीकृष्ण उसकी उसी प्रकार उपासना करने लगे जिस प्रकार देवता श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं । इस प्रकार उन्होंने सबको आदेश दिया कि उनके भक्त की उपासना करना उनकी उपासना करने से भी अधिक मूल्यवान है । यथासमय ब्राह्मण ने स्नान किया, भोजन किया और रेशम से सज्जित कोमल शय्या पर वह विश्राम करने लगा । जब वह विश्राम कर रहा था तब श्रीकृष्ण ने नि:शब्द आकर, अत्यन्त आदरपूर्वक ब्राह्मण के पैरों को अपनी गोद में रख लिया और उन्हें सहलाने लगे । इस प्रकार श्रीकृष्ण ब्राह्मण के समक्ष प्रकट हुए और कहा, "प्रिय ब्राह्मण ! मुझे आशा है कि आप धर्मविधियों का निर्विध्न सम्पादन कर रहे हैं और आपका मन सदैव शान्त रहता है ।" सामाजिक व्यवस्था में लोगों के विभिन्न वर्ग अनेक प्रकार के व्यवस्थायों में संलग्न रहते हैं और किसी व्यक्ति विशेष की कुशलता के विषय में जिज्ञासा उसके व्यवसाय के आधार पर करनी चाहिए । अतएव जब कोई ब्राह्मण की कुशलता का समाचार पूछता है, तब उसके जीवन की स्थिति के अनुसार ही प्रश्न करना चाहिए, जिससे कि ब्राह्मण क्षुब्ध न हो । शान्त मन ही सत्यवादी, स्वच्छ, सन्तुलित, आत्मसंयमी तथा सहिष्णु बनने का आधार है । इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करके तथा जीवन में उसके व्यावहारिक प्रयोग को जानकर, व्यक्ति को परम सत्य की प्रतीति हो जाती है । ब्राह्मण को ज्ञात था कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं तथापि उसने वैदिक सामाजिक लोकाचार के आधार पर भगवान् की आदरपूर्ण सेवा स्वीकार की । भगवान् श्रीकृष्ण ठीक एक मानव के समान अभिनय कर रहे थे । । सामाजिक व्यवस्था के क्षत्रिय विभाग का अंग होने के कारण तथा एक किशोर बालक होने के कारण, ऐसे ब्राह्मण के प्रति आदर दर्शाना उनका कर्तव्य था ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने आगे कहा, "हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! आपको सदैव सन्तुष्ट रहना या चाहिए, क्योंकि यदि ब्राह्मण सदैव आत्मसन्तुष्ट रहता है, तो वह अपने निर्धारित । कर्तव्यों से विचलित नहीं होता । केवल अपने निर्धारित कर्तव्यों में संलग्न रहने से ही प्रत्येक व्यक्ति, विशेष रूप से ब्राह्मण, समस्त कामनाओं की सर्वोच्च पूर्णता को प्राप्त कर सकता है । यदि कोई व्यक्ति स्वर्ग के राजा इन्द्र के समान ऐश्वर्यवान् हो, तब भी यदि वह सन्तुष्ट न हो तो उसे एक लोक से दूसरे लोक में भटकना पड़ता है । ऐसा व्यक्ति किसी भी स्थिति में सुखी नहीं रह सकता है । किन्तु यदि किसी व्यक्ति का मन सन्तुष्ट हो, तब अपने उच्चपद से विहीन होने पर भी वह कहीं भी रह कर सुखी हो सकता है ।
ब्राह्मण को दिया गया श्रीकृष्ण का यह उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । तात्पर्य । यह है कि सच्चे ब्राह्मण को किसी भी दशा में अशान्त नहीं होना चाहिए । इस । आधुनिक समय (कलियुग) में तथाकथित ब्राह्मणों ने शूद्रों से भी निम्न कोटि के निन्द्य पद को स्वीकार कर लिया है, तो भी वे चाहते हैं कि उन्हें योग्य ब्राह्मण माना जाए । वास्तव में एक योग्य ब्राह्मण सदैव अपने ही कर्तव्यों पर दृढ़ रहता है । वह । कभी भी शूद्र अथवा शूद्रों से भी निम्न कोटि के कर्तव्य स्वीकार नहीं करता है । प्रामाणिक धर्मग्रन्थों में परामर्श दिया गया है कि विशेष परिस्थितियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य का व्यवसाय स्वीकार कर सकता है, किन्तु उसे शूद्र का व्यवसाय कभी नहीं स्वीकार करना चाहिए । भगवान् श्रीकृष्ण ने घोषणा की कि यदि ब्राह्मण विवेकपूर्वक अपने धार्मिक सिद्धान्तों पर दृढ़ रहता है, तब उसे जीवन की किसी भी प्रतिकूल स्थिति द्वारा विचलित नहीं होना चाहिए । निष्कर्ष रूप में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, "मैं ब्राह्मण तथा वैष्णवों को सादर प्रणाम करता हूँ, क्योंकि ब्राह्मण सदैव आत्मसन्तुष्ट रहते हैं और वैष्णव सदैव मानव-समाज के वास्तविक कल्याण के कार्यों में संलग्न रहते हैं । वे जनसाधारण के सर्वोत्तम मित्र हैं, दोनों ही मिथ्या अंहकार से मुक्त हैं और सदैव शान्तचित रहते हैं ।"
तत्पश्चात् भगवान् कृष्ण उस ब्राह्मण से राज्य के राजाओं (क्षत्रियों) के विषय में जानना चाहते थे, अतएव उन्होंने पूछा कि क्या राज्य के सभी नागरिक प्रसन्न हैं । किसी राजा की योग्यता का मूल्यांकन उसकी प्रजा की दशा से किया जाता है । यदि वे सर्व प्रकार से प्रसन्न हों, तो समझा जाता है कि राजा ईमानदार है और अपना कर्तव्य उचित रूप से सम्पादित कर रहा है । श्रीकृष्ण ने कहा कि जिस राजा के राज्य में नागरिक प्रसन्न होते हैं, वह राजा उन्हें अत्यन्त प्रिय है । श्रीकृष्ण समझ सकते थे कि वह एक गोपनीय सन्देश लेकर आया था, अतएव उन्होंने कहा, "यदि आपको कोई आपत्ति न हो, तो मैं आपको अनुमति देता हूँ कि आप अपना यहाँ आने का उद्देश्य बताएँ ।" इस प्रकार भगवान् के साथ इन दिव्य लीलाओं से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर ब्राह्मण ने श्रीकृष्ण से भेंट करने आने के अपने प्रयोजन की पूरी कथा सुनाई । उसने श्रीकृष्ण के नाम रुक्मिणी जी का लिखा हुआ पत्र निकाला और कहा, "ये राजकुमारी रुक्मिणी के शब्द हैं, "प्रिय श्रीकृष्ण ! हे अच्युत और त्रिभुवन-सुन्दर । कोई भी मानव जो आपके दिव्य स्वरूप तथा लीलाओं के विषय में श्रवण करता है, वह तत्काल अपने कानों के द्वारा आपके ज्ञान, यश तथा गुणों में मग्न हो जाता है । इस प्रकार उसके सभी भौतिक दुःख शान्त हो जाते हैं और वह आपके स्वरूप को अपने हृदय में स्थिर कर लेता है । आपके प्रति इस दिव्य प्रेम के माध्यम से वह अपने अन्तस्तल में सदैव आपके दिव्य गुणों के विषय में श्रवण करता है । इतने प्रत्यक्ष रूप से अपनी भावाभिव्यक्ति करना सम्भवत: मेरी निर्लज्जता मानी जाए, किन्तु आपने मेरा हृदय ले लिया है और मुझे मोहित कर लिया है । आपको सन्देह हो सकता है कि मैं एक अल्प आयु की कुमारी कन्या हूँ, अत: आप मेरी चरित्र-दृढ़ता पर सन्देह कर सकते हैं, किन्तु प्रिय मुकुन्द ! आप नृसिंह हैं, आप मानवों में सर्वश्रेष्ठ हैं । घर से बाहर न गई हुई कोई कन्या अथवा सर्वोच्च पवित्रता वाली कोई भी स्त्री आपसे विवाह करने की कामना करेगी । कोई भी पवित्र नारी अथवा कन्या आपके अभूतपूर्व चरित्र, ज्ञान, ऐश्वर्य और पद पर मोहित होकर आपसे विवाह करना चाहेगी । मुझे ज्ञात है कि आप लक्ष्मीपति हैं और अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त कृपालु हैं । अतएव मैंने आपकी नित्य दासी बनने का निश्चय किया है । प्रिय भगवन् ! मैं अपना जीवन आपके चरणकमलों में समर्पित करती हूँ । मैंने आपको अपने निर्वाचित पति के रूप में स्वीकार किया है, अतएव मैं आपसे विनती करती हूँ कि आप मुझे पत्नी रूप में स्वीकार करें । हे कमलनयन ! आप परम शक्तिमान हैं । अब मैं आपकी हो चुकी हूँ । यदि सिंह का आहार सियार ले जाए, तो अत्यन्त ही असंगत होगा । अतएव मेरी आपसे प्रार्थना है कि इसके पूर्व कि शिशुपाल और उसके समान अन्य राजा मुझे ले जाँए, आप तत्काल मेरा भार स्वीकर करें । प्रिय भगवन् ! अपने पूर्वजन्म में मैंने कुएँ बनवाने और वृक्ष लगाने जैसे कुछ जनकल्याण के कार्य किए होंगे, अथवा अनुष्ठान, यज्ञ गुरु, ब्राह्मण तथा वैष्णवों की सेवा आदि की होगी । सम्भवत: अपने इन कार्यों द्वारा मैंने भगवान् श्रीनारायण को प्रसन्न किया हो । यदि ऐसा है, तो हे बलराम के भ्राता भगवान् कृष्ण ! मेरी कामना है कि आप यहाँ आकर मुझसे पाणिग्रहण करें, जिससे कि शिशुपाल और उसके साथी मेरा स्पर्श न कर सकें ।"
शिशुपाल के साथ रुक्मिणी का विवाह पहले से ही निश्चित हो चुका था, अतएव रुक्मिणी ने सुझाव दिया कि श्रीकृष्ण उनका हरण कर लें जिससे इस व्यवस्था में परिवर्तन हो सके । इस प्रकार का विवाह, जिसमें कन्या का बलपूर्वक हरण किया जाता है, राक्षस विवाह नाम से प्रसिद्ध है । यह विवाह क्षत्रियों, प्रशासकों अथवा सैन्य प्रवृत्ति के लोगों में प्रचलित है । चूँकि रुक्मिणी जी का विवाह अगले दिन होना निश्चय हो चुका था, अतएव उन्होंने सुझाव दिया कि श्रीकृष्ण अज्ञात रूप से वहाँ आकर उनका हरण कर लें और तदनन्दर वे शिशुपाल तथा मगधराज के समान उसके मित्रों से युद्ध करें । यह जानते हुए कि कोई भी श्रीकृष्ण पर विजय नहीं पा सकता है और वे निश्चित रूप से विजयी होंगे, रुक्मिणीजी ने श्रीकृष्ण को अजित कह कर सम्बोधित किया जिसका अर्थ है "जो अजेय हैं ।" रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को सूचित किया कि वे इस सम्बन्ध में चिन्तित न हों कि दूसरी स्त्रियों सहित उनके परिवार के अनेक सदस्य हताहत होंगे । यदि महल में युद्ध होता, तो स्त्रियों और अन्य व्यक्तियों के आहत होने अथवा वध होने की सम्भावना थी । जिस प्रकार किसी देश का राजा कूटनीतिक विधि से अपना उद्देश्य प्राप्त करने का विचार करता है, उसी भाँति राजा की पुत्री होने के कारण रुक्मिणी जी ने भी कूटनीति से कार्य लेते हुए इस अनावश्यक और अवांछनीय वध को टालने की रीति का सुझाव दिया ।
उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी भी विवाह के पूर्व उनके परिवार में कुलदेवी दुर्गा के मन्दिर में जाने की रीति है । (अधिकतर क्षत्रिय राजा परम वैष्णव थे । वे राधाकृष्ण अथवा लक्ष्मीनारायण के रूप में भगवान् विष्णु की पूजा करते थे । किन्तु अपने लौकिक कल्याण के लिए वे भगवती दुर्गा की उपासना करते थे । वे कुछ अल्पबुद्धि मनुष्यों के समान देवताओं को परम ईश्वर भगवान् समझने की अथवा विष्णु तत्त्व के बराबरी के स्तर का समझने की भूल कभी नहीं करते थे ।) अपने सम्बन्धियों के अनावश्यक वध को टालने के लिए रुक्मिणीजी ने सुझाव दिया कि महल से मन्दिर जाते हुए अथवा घर वापस लौटते हुए उनका हरण करना श्रीकृष्ण के लिए सर्वाधिक सरल होगा ।
रुक्मिणी ने यह भी स्पष्ट किया कि वे श्रीकृष्ण से विवाह के लिए इतनी अधीर क्यों हैं, जबकि उनका विवाह शिशुपाल से होने वाला था, जो स्वयं भी एक महान् राजा का पुत्र तथा योग्य व्यक्ति था । रुक्मिणी ने कहा कि उसके विचार में श्रीकृष्ण से महान् और कोई नहीं है, शिव भी नहीं, जो देवताओं में श्रेष्ठ हैं और महादेव के नाम से विख्यात हैं । भौतिक जगत् में तमोगुण के बन्धन से आत्मशुद्धि के लिए शिव भी भगवान् श्रीकृष्ण के अनुग्रह को प्राप्त करना चाहते हैं । यह तथ्य है कि शिवजी सभी महात्माओं में महान्तम हैं, फिर भी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों से निकलने वाले शुद्धिकारक गंगा जल को वे अपने सिर पर धारण करते हैं । शिवजी तमोगुण के अधिष्ठाता हैं और अपने को दिव्य स्थिति में अवस्थित रखने के हेतु वे सदैव भगवान् विष्णु का ध्यान करते रहते हैं । अतएव रुक्मिणीजी को भलीभाँति ज्ञात था कि श्रीकृष्ण का अनुग्रह प्राप्त करना कोई सरल कार्य नहीं है । यदि इस प्रयोजन के लिए भगवान् शिव को भी शुद्धिकरण की आवश्यकता पड़ती है, तब तो रुक्मिणी जी के लिए यह कार्य कठिन ही होगा, क्योंकि वह तो एक क्षत्रिय राजा की कन्यामात्र थीं । इस प्रकार वे उपवास तथा शरीरसुख का त्याग जैसे कठोर आत्म-संयम तथा तपस्या के पालन के लिए अपना जीवन समर्पित कर देना चाहती थीं । यदि इन कार्यों द्वारा श्रीकृष्ण का अनुग्रह इस जीवन में प्राप्त होना सम्भव नहीं, तो वे जन्मजन्मांतर तक यही कार्य करने के लिए तैयार थीं । भगवद्-गीता में कहा गया है कि शुद्ध भक्त दृढ़निश्चय के साथ भगवान् की भक्ति करते हैं । रुक्मिणी देवी द्वारा प्रदर्शित यह दृढ़निश्चय ही श्रीकृष्ण का अनुग्रह क्रय करने का एकमात्र मूल्य है । यह दृढ़निश्चय ही कृष्ण-भक्ति में परम सफलता का एकमात्र मार्ग है ।
रुक्मिणी देवी का कथन श्रीकृष्ण के सम्मुख स्पष्ट करने के उपरान्त ब्राह्मण ने कहा, "हे यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण ! मैं रुक्मिणी देवी का यह गोपनीय सन्देश आपके लिए लाया हूँ । अब यह आपके सम्मुख विचारार्थ प्रस्तुत है । उचित विचार करने के पश्चात् आप अपनी रुचि के अनुकूल कार्य कर सकते हैं । किन्तु यदि आप कुछ करना चाहते हैं, तो उसे तत्काल ही कीजिए । अब कार्य करने के लिए अधिक समय शेष नहीं है ।"
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “रणछोड़ श्रीकृष्ण” नामक बावनवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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