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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 53: श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी हरण  » 
 
 
 
 
 
रुक्मिणी जी का पत्र सुनकर श्रीकृष्ण अत्यन्त प्रसन्न हुए । उन्होंने तत्काल ब्राह्मण का हाथ पकड़ कर कहा, "प्रिय ब्राह्मण ! रुक्मिणी मुझसे विवाह करने को उत्सुक है, यह सुन करके मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ, क्योंकि मैं भी रुक्मिणी से विवाह करने को उत्सुक हूँ । मेरा मन सदैव भीष्मक की पुत्री के विचारों में मग्न रहता है और कभी-कभी उसके विषय में चिन्तन करने के कारण मैं रात्रि में सो नहीं पाता हूँ । मैं समझ सकता हूँ कि मुझसे शत्रुता की भावना से रुक्मिणी के बड़े भाई ने उसका विवाह शिशुपाल से तय किया है, अतएव इन सभी राजाओं को समुचित शिक्षा देने का मेरा दृढ़ निश्चय भी है । जिस प्रकार साधारण काष्ठ से कुशलतापूर्वक अग्नि निकाली जाती है और उसका उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार इन आसुरी राजाओं से निपट कर, उनके मध्य से मैं अग्निरूपी रुक्मिणी को निकाल लाऊँगा ।" रुक्मिणी जी के विवाह की तिथि के विषय में सूचित किए जाने के पश्चात् श्रीकृष्ण तत्काल प्रस्थान करने के लिए आतुर हो गए । उन्होंने अपने सारथि दारुक को अपने रथ में अश्व जोत कर विदर्भ राज्य की ओर प्रस्थान करने की तैयारी करने को कहा । इस आदेश को सुनकर सारथि तत्क्षण श्रीकृष्ण के चार विशेष अश्वों को ले आया । इन अश्वों के नामों और विवरण का उल्लेख पद्म-पुराण में है । शैव्य नामक प्रथम अश्व हरितवर्णी था । सुग्रीव नामक दूसरा अश्व बर्फ के समान धूसर वर्ण का था । मेघपुष्प नामक तीसरा अश्व नवीन मेघ के वर्ण का था और चौथा अश्व बलाहक भस्म के वर्ण का था । जब अश्व जोत दिए गए और रथ जाने के लिए तैयार था तब श्रीकृष्ण ने उस ब्राह्मण को रथ में चढ़ने में सहायता की और उसे अपने समीप आसन दिया । उन्होंने तत्काल द्वारका से प्रस्थान कर दिया और वे एक रात्रि में विदर्भ राज्य में पहुँच गए । द्वारका का राज्य भारत के पश्चिमी भाग में है और विदर्भ उत्तर भारत में है । उनके मध्य का अन्तर एक हजार मील से कम नहीं है, किन्तु श्रीकृष्ण के अश्व इतने द्रुतगामी थे कि वे अपने गन्तव्य कुण्डिन नामक नगर एक रात्रि में पहुँच गए या अधिक से अधिक उन्हें बारह घण्टे लगे । राजा भीष्मक को अपनी पुत्री शिशुपाल को देने में कुछ अधिक उत्साह नहीं था, किन्तु यह विवाह उनके ज्येष्ठ पुत्र ने निश्चित किया था । अपने ज्येष्ठ पुत्र के प्रति राजा भीष्मक का अत्यधिक स्नेह था, अत: वे शिशुपाल के साथ अपनी पुत्री के विवाह प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए बाध्य हो गए थे । अपना कर्तव्य मानकर वे विवाह के लिए नगर की सज्जा करा रहे थे और इसे सफल बनाने के लिए अत्यन्त उत्साहपूर्वक कार्य कर रहे थे । गलियों में चारों ओर जल का छिड़काव किया गया था और नगर को भलीभाँति स्वच्छ किया गया था । भारत उष्ण कटिबन्ध क्षेत्र में स्थित है, अत: यहाँ का वातावरण सदैव शुष्क रहता है । इसके कारण गलियों में तथा पथों पर सदैव धूल एकत्र हो जाती है, अतएव उन पर दिन में कम से कम एक बार जल का छिड़काव आवश्यक होता है । कलकत्ता जैसे महानगरों में जल का छिड़काव दिन में दो बार करना पड़ता है । कुण्डिन के मार्गों पर रंगीन पताकाओं और कागज की झण्डियों से सज्जा की गई थी और विशिष्ट चौराहों पर द्वारों का निर्माण किया गया था । समस्त नगर को अत्यन्त सुरुचिपूर्वक सजाया गया था । नगरनिवासी स्त्री व पुरुष दोनों ही नगर के सौन्दर्य में अभिवृद्धि कर रहे थे । उन्होंने निर्मल वस्त्र धारण किए थे और चन्दन के आलेप, मुक्तामालाओं और पुष्पमालाओं से श्रृंगार किया था । सर्वत्र धूप जल रही थी और अगुरु के समान सुगन्धों से वायु सुगन्धित थी । पुरोहितों और ब्राह्मणों को उनके इच्छानुसार पर्याप्त सम्पत्ति और गायें दान में दी गई थीं । इस प्रकार वे वैदिक मंत्रों के उच्चारण में संलग्न थे । राजकुमारी रुक्मिणी परम सुन्दरी थीं । उनको विभिन्न द्रव्यों से स्नान कराया गया था और उनकी दन्तावलि अत्यन्त सुन्दर थी । उनकी कलाई में मंगलसूचक कंकण बाँधा गया था । उन्हें पहनने के लिए विभिन्न प्रकार के आभूषण तथा रेशमी वस्त्र दिए गए थे । विद्वान पुरोहित उनकी रक्षा के हेतु सामवेद, ऋगवेद तथा यजुर्वेद के मंत्रों का गान कर रहे थे । इसके पश्चात् उन्होंने अर्थववेद के मंत्रों का गान किया और ग्रह शान्ति के लिए अग्नि में आहुति दी । इस प्रकार के संस्कारों के सम्पादन के समय राजा भीष्मक को ब्राह्मणों और पुरोहितों से व्यवहार करने का अत्यधिक अनुभव था । ब्राह्मणों को बड़ी मात्रा में स्वर्ण व चाँदी, गुड़ सहित धान्य तथा स्वर्णाभूषणों से सज्जित गायें देकर उन्होंने उनका विशेष आदर किया । शिशुपाल का पिता दमघोष था, क्योंकि वह अनियमित नागरिकों का दमन करने में अत्यन्त पटु था । दम का अर्थ है दमन करना (दबाना) और घोष का अर्थ है प्रसिद्ध, अतएव वह प्रजा का दमन करने के लिए प्रसिद्ध था । दमघोष ने विचार किया कि यदि कृष्ण विवाह-संस्कार में विध्न डालने आया, तो वह अपनी सैन्य शक्ति से कृष्ण का अन्त कर देगा । अतएव विभिन्न शुभ अनुष्ठानों के सम्पादन के पश्चात् दमघोष ने मदस्त्रवी नामक अपनी सेना को एकत्र कर लिया । उसने स्वर्णहारों से सज्जित अनेक गजों और उसी भाँति सज्जित अनेक रथों व अश्वों को एकत्र किया । ऐसा प्रतीत होता था कि दमघोष, उसके पुत्र तथा साथियों का कुण्डिन जाना पूर्णरूपेण विवाहोत्सव के लिए नहीं, अपितु युद्ध करने के लिए था । जब राजा भीष्मक को ज्ञात हुआ कि दमघोष तथा उसके साथी आ रहे हैं, तो वे उनका स्वागत करने के लिए नगर से बाहर आ गए । नगर के द्वार के बाहर अनेक उद्यान थे जहाँ अतिथियों का स्वागत करके उन्हें ठहराया गया । विवाह की वैदिक विधि में वधू का पिता, वर की विशाल बरात का स्वागत करता है और विवाहसंस्कार के सम्पादित होने तक, दो-तीन दिवस, उन्हें उचित स्थान पर ठहराता है । दमघोष के साथ आने वाली बरात में सहस्रों मनुष्य थे । उनमें से प्रमुख व्यक्ति तथा राजा थे जरासन्ध, दन्तवक्र, विदूरथ और पौण्ड्रक । यह सर्वविदित तथ्य था कि रुक्मिणी का श्रीकृष्ण से विवाह होने वाला था, किन्तु उसके बड़े भाई रुक्मी ने उसका विवाह शिशुपाल से निश्चित कर दिया था । लोगों में इस किंवदन्ती के विषय में भी चर्चा चल रही थी कि रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजा है । अतएव सैनिकों को सन्देह था कि श्रीकृष्ण रुक्मिणी का हरण करने का प्रयास करके अशान्ति उत्पन्न कर सकते हैं । यद्यपि वे निर्भय नहीं थे, तथापि वे कन्या-हरण को रोकने के लिए श्रीकृष्ण से युद्ध करने को तत्पर थे । श्रीबलराम को जानकारी प्राप्त हुई कि श्रीकृष्ण ने केवल एक ब्राह्मण के साथ कुण्डिन को प्रस्थान कर दिया है । उन्होंने यह भी सुना कि वहाँ पर शिशुपाल भी बड़ी संख्या में सैनिकों के साथ उपस्थित था । बलराम जी को सन्देह था कि वह श्रीकृष्ण पर आक्रमण करेगा, अतएव रथों, सैनिकों, अश्वों तथा गजों की शक्तिशाली सेना लेकर वे कुण्डिन की सीमा पर पहुँच गए ।

उस समय, महल में रुक्मिणी श्रीकृष्ण के आगमन की आशा कर रही थीं, किन्तु जब न वे आए, न ही उनका सन्देश ले जाने वाला ब्राह्मण, तो वे अत्यन्त उद्विग्न हो उठीं और विचार करने लगीं कि वे कितनी अभागिनी हैं । "मेरा विवाह होने में केवल एक रात्रि शेष है और अभी भी न तो वह ब्राह्मण लौटा है, न ही श्यामसुन्दर आए हैं । मुझे इसका कोई कारण नहीं समझ में आता है ।" निराश होकर वे विचार करने लगीं कि सम्भवत: किसी कारणवश श्रीकृष्ण असन्तुष्ट हों गए हो और उन्होंने उसका प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया हो । इसके परिणामस्वरूप ब्राह्मण निराश हो गया होगा, अतः वापस नहीं लौटा । यद्यपि रुक्मिणी जी देरी के विभिन्न कारणों पर विचार कर रही थीं, किन्तु उन्हें किसी भी क्षण उन दोनों के आने की आशा था । रुक्मिणी जी विचार करने लगीं कि सम्भवत: ब्रह्मा, शिवादि देवता और दुर्गा देवी अप्रसन्न हो गई हों । कहा जाता है कि यदि देवताओं की उचित उपासना नहीं की जाती है, तो वे कुद्ध हो जाते हैं । उदाहरण के लिए, जब इन्द्र को ज्ञात हुआ कि वृन्दावनवासी श्रीकृष्ण के द्वारा इन्द्रयज्ञ रोक दिए जाने के कारण उसकी उपासना नहीं कर रहे हैं, तो वे अत्यन्त क्रोधित हो गए और वे वृन्दावनवासियों को दण्ड देना चाहते थे । इस प्रकार रुक्मिणी जी विचार कर रही थीं कि उन्होंने शिव तथा ब्रह्माजी की अधिक उपासना नहीं की, अत: हो सकता है कि उन्होंने क्रोधित होकर उनकी योजना को निष्फल करने का प्रयास किया हो । उसी प्रकार उन्होंने यह विचार किया कि भगवान् शिव की पत्नी, दुर्गा देवी ने भी सम्भवतः अपने पति का पक्ष लिया हो । भगवान् शिव रुद्र के नाम से भी विख्यात हैं और उनकी पत्नी को रुद्राणी के नाम से जाना जाता है । रुद्राणी तथा रुद्र उनकी ओर संकेत करते हैं, जो दूसरों को कष्ट में डालने के अभ्यस्त होते हैं जिससे कि प्राणी सदैव क्रन्दन करते रहें । रुक्मिणी तो दुर्गा जी का चिन्तन पर्वतराज हिमालय की पुत्री गिरिजा के रूप में कर रही थीं । हिमालय की पर्वत श्रृंखला अत्यधिक शीतल व कठोर है । रुक्मिणी दुर्गा जी को भी अत्यन्त शीतल तथा कठोरहृदय मान रही थीं । श्रीकृष्ण के दर्शन की उत्सुकता में रुक्मिणी विभिन्न देवताओं के विषय में विचार कर रही थीं, क्योंकि कुछ भी हो वे अभी भी एक किशोरी ही थीं । श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए गोपियाँ कात्यायनी देवी की उपासना करती हैं, उसी भाँति रुक्मिणीजी भी भौतिक लाभ के लिए नहीं, अपितु श्रीकृष्ण के सन्दर्भ में विभिन्न देवताओं का चिन्तन कर रही थीं । श्रीकृष्ण का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए देवताओं की स्तुति करना अनियमित नहीं है और रुक्मिणी तो पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के विचारों में मग्न थीं । यद्यपि रुक्मिणी जी ने यह विचार करके कि गोविन्द के आने का समय अभी समाप्त नहीं हुआ है स्वयं को सान्त्वना दी, तथापि रुक्मिणी जी को अनुभव हुआ कि यह केवल दुराशा-मात्र है । वे अश्रुपात करने लगीं और जब अश्रु तीव्रता से प्रवाहित होने लगे, तो असहायावस्था में उन्होंने अपने नेत्र बन्द कर लिए । जब रुक्मिणी जी इस प्रकार गहन ध्यान में मग्न थीं तब उनके शरीर के विभिन्न अंगों में शुभ लक्षण प्रकट होने लगे । उनकी बाई पलक, बाई भुजा और बाईं जंघा में स्फुरण होने लगा । शरीर के इन अंगों का स्फुरण एक शुभ शकुन है और यह संकेत करता है कि कोई लाभ होने वाला है । उद्विग्न रुक्मिणी ने तभी दूत ब्राह्मण को देखा । समस्त जीवों के परमात्मा होने के कारण श्रीकृष्ण रुक्मिणी की उद्विग्नता को समझ सकते थे । अतएव उन्होंने रुक्मिणी को अपने आने के विषय में जानकारी देने के लिए ब्राह्मण को महल में अन्दर भेजा । जब रुक्मिणी ने ब्राह्मण को देखा, तब उन्हें अपने शरीर के शुभ स्फुरण का अर्थ समझ में आ गया और वे तत्काल प्रफुल्लित हो गई । उन्होंने मुस्करा कर ब्राह्मण से प्रश्न किया, "क्या श्रीकृष्ण पहले ही आ गए हैं अथवा नहीं ?" ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि यदुवंश के पुत्र श्रीकृष्ण आ गए हैं । आगे ब्राह्मण ने यह कह कर उन्हें और साहस बँधाया कि श्रीकृष्ण ने निश्चित रूप से उन्हें हर ले जाने का वचन दिया है । ब्राह्मण के सन्देश से रुक्मिणी जी इतनी प्रफुल्लित हो गई कि वे अपना सर्वस्व ब्राह्मण को दान में देना चाहती थीं । किन्तु उपहार में देने योग्य कोई भी वस्तु न पाने पर उन्होंने ब्राह्मण को केवल सादर प्रणाम किया । अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति को सादर प्रणाम करने की महत्ता है कि नमस्कार करने वाला व्यक्ति कृतज्ञ है । दूसरे शब्दों में, प्रणाम करके रुक्मिणी जी ने इंगित किया कि वे सदैव ब्राह्मण की कृतज्ञ रहेंगी । इस ब्राह्मण के समान श्रीलक्ष्मी जी की कृपा प्राप्त करने वाला कोई भी व्यक्ति निस्सन्देह भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त करके प्रसन्न होता है । जब राजा भीष्मक ने सुना कि श्रीकृष्ण और बलराम जी आए हैं, तो उन्होंने उन दोनों को अपनी पुत्री का विवाह-संस्कार देखने के लिए निमंत्रण दिया । तत्काल उन्होंने एक उपयुक्त उद्यानगृह में, श्रीकृष्ण और बलरामजी का उनके सैनिकों सहित स्वागत करने का प्रबन्ध किया । जैसी कि वैदिक रीति है, राजा ने श्रीकृष्ण और बलरामजी को मधुपर्क तथा निर्मल वस्त्र अर्पित किए । उन्होंने न केवल श्रीकृष्ण, बलराम जी का तथा जरासन्ध के समान राजाओं का आतिथ्य किया, अपितु अन्य अनेक राजाओं और राजकुमारों का भी उनके व्यक्तिगत पराक्रम, आयु और भौतिक सम्पत्ति के अनुरूप स्वागत किया । कौतूहल और उत्सुकता के कारण, कुण्डिन की जनता श्रीकृष्ण और बलराम के समक्ष एकत्र होकर उनके सौन्दर्यामृत का पान करने लगी । अश्रुपूर्ण नयनों से उन लोगों ने श्रीकृष्ण तथा बलरामजी को अपना मूक अभिवादन किया । वे भगवान् श्रीकृष्ण को रुक्मिणी जी के योग्य वर मान कर अत्यन्त हर्षित हुए । श्रीकृष्ण और रुक्मिणी जी को संयुक्त करने के लिए वे इतने उत्सुक थे कि वे भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे, "प्रिय भगवन् ! यदि हमने कोई पुण्यकर्म किए हैं जिससे कि आप सन्तुष्ट हैं, तो कृपया हम पर दया कीजिए और रुक्मिणी जी का पाणिग्रहण इनसे कीजिए ।" ऐसा प्रतीत होता है कि रुक्मिणी जी एक अत्यन्त लोकप्रिय राजकुमारी थीं । उनके प्रति तीव्र प्रेम के कारण सभी नागरिक उनके सौभाग्य के लिए स्तुति कर रहे थे । तभी सुन्दर वस्त्र धारण करके अंगरक्षकों की सुरक्षा में रुक्मिणी जी बाहर आई । वे दुर्गा जी (अम्बिका) के मन्दिर में जाने के लिए महल से निकलीं । वैदिक सभ्यता के प्रारम्भ से ही मन्दिर में श्रीमूर्ति की उपासना का प्रचलन रहा है । मानवों का एक वर्ग है, जिसे भगवद्-गीता में वेदवाद-रत कहा गया है । वे केवल वैदिक अनुष्ठानों में विश्वास रखते हैं और मन्दिर में श्रीमूर्ति का पूजन करने में नहीं । ऐसे मूढ़ व्यक्ति यहाँ ध्यान दे सकते हैं कि यद्यपि रुक्मिणी जी तथा श्रीकृष्ण का विवाह पाँच हजार से भी अधिक वर्ष पूर्व हुआ था, तो भी मन्दिर में पूजन की व्यवस्था थी । भगवद्-गीता में भगवान् कहते हैं याति देव-व्रता देव/नू-देवोपासक देवताओं के लोक को जाते हैं । अनेक लोग ऐसे थे, जो देवताओं की उपासना करते थे और अनेक प्रत्यक्ष रूप से श्रीभगवान् की उपासना करते थे । देवपूजन में मुख्यत: ब्रह्माजी, शिवजी, गणेश जी, सूर्य देव तथा दुर्गा जी की उपासना की जाती थी । शिवजी तथा दुर्गाजी की उपासना राजपरिवार भी करते थे, जबकि निम्नकोटि के मूर्ख लोग अन्य गौण देवताओं की उपासना करते थे । जहाँ तक ब्राह्मणों और वैष्णवों का सम्बन्ध है वे केवल भगवान् श्रीविष्णु की उपासना करते हैं देवताओं के उपासना की भत्सना की गई है, किन्तु उसे वर्जित नहीं किया गया है । वहाँ यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अल्पबुद्धि मानव-वर्ग भौतिक लाभ के लिए विभिन्न प्रकार के देवताओं की उपासना करते हैं । दूसरी ओर, यद्यपि रुक्मिणी जी लक्ष्मी जी थीं, तथापि वे भगवती दुर्गा की उपासना के हेतु मन्दिर में गई, क्योंकि वहाँ कुलदेवी की उपासना होती थी । श्रीमद्भागवतमें कहा गया है कि जब रुक्मिणी जी भगवती दुर्गा के मन्दिर की ओर जा रही थीं, तो वे अपने हृदय में सदैव श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन कर रही थीं । अतएव जब रुक्मिणी जी मन्दिर में गई, तो वे साधारण व्यक्ति की भाँति भौतिक लाभों की याचना के उद्देश्य से नहीं गई थीं, अपितु उनका एकमात्र लक्ष्य श्रीकृष्ण थे । जब लोग किसी देवता के मन्दिर में जाते हैं तब उनका वास्तविक ध्येय श्रीकृष्ण ही होते हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण ही देवताओं को भौतिक लाभ देने की शक्ति प्रदान करते हैं । मन्दिर की ओर जाती हुई रुक्मिणी जी अत्यन्त मौन एवं गम्भीर थीं । उनकी माता तथा सखियाँ उनके समीप थीं और एक ब्राह्मण की पत्नी मध्य में थी । उनके चारों ओर राजकीय अंगरक्षक थे । विवाह से पूर्व देवमन्दिर में वधू के जाने की प्रथा भारत में अभी भी प्रचलित है । जब वे जा रही थीं तब विभिन्न वाद्यों के स्वर सुनाई पड़ रहे थे । दुन्दुभी, शंख और विभिन्न आकारों की तुरही जैसे कि पणव, तूर्य और भेरी बज रही थीं । इन सबकी सम्मिलित ध्वनि न केवल मांगलिक थी, अपितु कर्णप्रिय भी थी । सहस्त्रों सम्मानित ब्राह्मणों की पत्नियाँ वहाँ उपस्थित थीं । वे सब स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किए थीं । उन्होंने शिवजी तथा भवानी की उपासना के लिए रुक्मिणी को पुष्पहार, चन्दन का लेप तथा विभिन्न प्रकार के रंगीन वस्त्र दिए । इनमें से कुछ स्त्रियाँ अत्यन्त वृद्धा थीं और उन्हें पूर्ण रूप से ज्ञात था कि भवानी तथा शिवजी की स्तुति किस प्रकार करनी चाहिए, अतएव उन्होंने श्रीमूर्ति के समक्ष स्तुति की और रुक्मिणी तथा अन्य स्त्रियों ने उनका अनुसरण किया ।

रुक्मिणी जी ने यह कह कर श्रीमूर्ति की उपासना की: "प्रिय दुर्गा देवी ! आपको तथा आपकी सन्तान को मेरा सादर प्रणाम है ।" दुर्गा जी की चार यशस्वी सन्तानें हैं, दो पुत्रियाँ- श्रीदेवी लक्ष्मी तथा विद्या की देवी सरस्वती और दो कीर्तिमान् पुत्र गणेश जी तथा कार्तिकेय जी । ये सभी देवता तथा देवियाँ माने जाते हैं । दुर्गा देवी की उपासना सदैव उनकी प्रसिद्ध सन्तानों सहित की जाती है, अतएव रुक्मिणी जी ने श्रीमूर्ति को इस प्रकार विशेष रूप से सादर प्रणाम किया । किन्तु उनकी स्तुति भिन्न थी । साधारण मनुष्य भौतिक सम्पत्ति, यश, लाभ और शक्ति आदि के लिए दुर्गा जी की स्तुति करते हैं । किन्तु रुक्मिणी जी श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करना चाहती थीं, अतएव उन्होंने श्रीमूर्ति से अपने पर प्रसन्न होने तथा आशीर्वाद देने की प्रार्थना की । वे केवल श्रीकृष्ण की कामना करती थीं, अतएव उनकी देवोपासना की निन्दा नहीं की गई है । जब रुक्मिणी जी स्तुति कर रही थीं तब अनेक प्रकार की वस्तुएँ श्रीमूर्ति को अर्पित की गई । उन वस्तुओं में प्रमुख थींजल, विभिन्न प्रकार की अग्नि, धूप, वस्त्र, हार तथा घी से बने हुए विभिन्न प्रकार के व्यजंन यथा पूरी, कचौरी । फल, गन्ना, पान तथा मसाले भी अर्पित किए गए । वृद्धा ब्राह्मणियों के निर्देशन में, विधि-विधानों के अनुसार रुक्मिणी जी ने अत्यधिक भक्तिपूर्वक सारी वस्तुएँ श्रीमूर्ति को अर्पित कीं । इस विधिवत् पूजा के पश्चात् स्त्रियों ने अवशिष्ट व्यंजन प्रसाद के रूप में रुक्मिणी जी को दिए, जिसे उन्होंने अत्यन्त सम्मानपूर्वक ग्रहण किया । तत्पश्चात् रुक्मिणी जी ने स्त्रियो तथा दुर्गा जी को सादर प्रणाम किया । जब श्रीमूर्ति का पूजन समाप्त हो गया तब रुक्मिणी जी अपनी एक सखी का हाथ पकड़ कर मन्दिर से बाहर आई । अन्य सखियाँ भी उनके साथ आई ।

विवाह के लिए कुण्डिन आए हुए सभी अतिथि तथा राजकुमार रुक्मिणी को देखने के लिए मन्दिर के बाहर एकत्र थे । विशेष रूप से राजकुमार रुक्मिणी जी को देखने के लिए अति आतुर थे, क्योंकि वास्तव में वे सभी यही सोचते थे कि वे रुक्मिणी को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करेंगे । रुक्मिणी जी को देख कर, चकित होकर वे विचार करने लगे: सभी शूरवीर राजकुमारों को मोहित करने के लिए ही ब्रह्माजी ने विशेष रूप से उनकी रचना की है । क्षीण कटि युक्त उनका शरीर सुनिर्मित था । उनके नयन हरित थे, अधर गुलाबी थे और उनका मुख अत्यन्त सुन्दर था । बिखरे हुए केश तथा विभिन्न प्रकार के कर्णफूल उनके मुख की शोभा में वृद्धि कर रहे थे । पैरों में उन्होंने रत्नजटित नूपुर पहने थे । रुक्मिणी जी के शरीर की आभा तथा सौन्दर्य से ऐसा प्रतीत होता था मानो महान् कवियों द्वारा वर्णित सौन्दर्य को किसी चित्रकार ने अपने चित्र में साकार कर दिया हो । रुक्मिणी के वक्ष कुछ उन्नत थे जिससे संकेत मिलता है कि वे मात्र एक किशोरी थीं और उनकी आयु तेरह या चौदह वर्ष से अधिक नहीं थी । उनका सौन्दर्य श्रीकृष्ण को आकर्षित करने के लिए था । यद्यपि अन्य राजा उनकी सुन्दर छवि को देख रहे थे, किन्तु उन्हें तनिक भी गर्व नहीं था । उनके नयन चंचल थे और जब वे एक भोली-भाली बलिका की भाँति अत्यन्त सरलता से मुस्कराती थीं तब उनके दाँत कमलों के समान प्रतीत होते थे । वे आशा कर रही थीं कि श्रीकृष्ण किसी भी क्षण उन्हें ले जाएँगे, अतएव वे मन्थर गति से घर की ओर बढ़ने लगीं । उनके पग राजहंस की भाँति पड़ रहे थे और उनके नूपुर मन्द स्वर में बज रहे थे ।

जैसाकि पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है, वहाँ पर एकत्र महान् शूरवीर राजा रुक्मिणी के सौन्दर्य से इतने प्रभावित हो गए थे कि वे लगभग चेतनाहीन थे । वासना से पूर्ण होकर, अपने सौन्दर्य की उनके सौन्दर्य से तुलना करते हुए वे रुक्मिणी जी का हाथ पाने की निरर्थक कामना कर रहे थे । किन्तु श्रीमती रुक्मिणी को उनमें से किसी में भी रुचि नहीं थी । अपने हृदय में वे केवल यही आशा कर रही थीं कि श्रीकृष्ण आकर उनको ले जाएँगे । जब वे अपने बाँए हाथ की उँगली का आभूषण ठीक कर रही थीं, तो उनकी दृष्टि राजाओं पर पड़ी और अचानक उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण भी उनमें उपस्थित हैं । यद्यपि रुक्मिणी जी ने पहले कभी श्रीकृष्ण के दर्शन नहीं किए थे, तथापि वे सदैव उनका चिन्तन करती रहती थीं । इस प्रकार उन राजाओं के मध्य श्रीकृष्ण को पहचानने में रुक्मिणी जी को कोई कठिनाई नहीं हुई । दूसरे अपने रथ पर बैठा लिया । श्रीकृष्ण का रथ गरुड़ के चित्र वाली ध्वजा से युक्त था । तदनन्तर वे निर्भय रूप से धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे । जिस प्रकार सिंह सियारों के श्रीकृष्ण द्वारा समस्त राजाओं को हरा कर मध्य से हिरण को ले जाता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण रुक्मिणी को ले गए । इसी बीच रुक्मिणी जी का हरण यदुवंश के सैनिकों को लेकर बलराम जी भी वहाँ आ उपस्थित हुए । श्रीकृष्ण के द्वारा अनेक बार पराजित होने वाला जरासन्ध गर्जना करने लगा, "यह क्या हो रहा है ? कृष्ण निर्विरोध हमसे रुक्मिणी को दूर ले जा रहा है । हमारे शूरवीर धनुर्धर योद्धा होने का क्या लाभ है ? प्रिय राजाओ, देखो ! इस कार्य से हम अपनी कीर्ति खो रहे हैं । यह तो वैसा ही है जैसे सियार सिंह का अंश ले जाए ।"

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी-हरण” नामक तिरपनवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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