श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी का हरण करने पर जरासन्ध सहित समस्त राजा अत्यंत क्रोधित हो उठे । रुक्मिणी के सौन्दर्य से आहत होकर वे अपने अश्वों तथा गजों की पीठ पर से गिर पड़े थे, किन्तु अब वे उठने लगे और शस्त्रास्त्र उठाने लगे । अपने धनुष-बाण उठाकर वे अपने रथों, तथा गजों पर आरूढ़ होकर श्रीकृष्ण का पीछा करने लगे । उनको आगे बढ़ने से रोकने के लिए यदुबंशी सैनिक मुड़कर उनके सामने आ गए । इस प्रकार दोनों योद्धा-दलों में भयानक युद्ध आरम्भ हो गया । श्रीकृष्ण के विरोधी राजाओं का नेतृत्व जरासन्ध कर रहा था और वे सभी युद्ध में अत्यन्त कुशल थे । जिस प्रकार मेघ पर्वत के मुख पर , धाराप्रवाह वर्षा करता है, उसी प्रकार वे यदु सैनिकों पर बाण वर्षा करने लगे । पर्वत के ऊपर एकत्र हुए मेघ अधिक चंचल नहीं होते हैं, अतएव पर्वत पर अन्य स्थानों की तुलना में वर्षा की तीव्रता अधिक होती है । विरोधी राजाओं का निश्चय था कि वे श्रीकृष्ण को हरा कर रुक्मिणी को उनके संरक्षण से पुन: प्राप्त कर लेंगे । उन्होंने जितना हो सकता था, उतनी प्रचण्डता से श्रीकृष्ण के साथ युद्ध किया । श्रीकृष्ण के पार्श्व में बैठी हुई रुक्मिणी ने देखा कि विरोधी दल की ओर से यदु सैनिकों के मुख पर बाणों की वर्षा हो रही है । भयभीत मुद्रा में वे श्रीकृष्ण के मुख की ओर देखने लगीं और अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने लगीं कि भगवान् श्रीकृष्ण ने केवल उनके लिए इतना महान् संकट उठाया है । उनके नेत्र चलायमान् थे और वे अत्यन्त दुखी प्रतीत हो रही थीं । श्रीकृष्ण तत्काल उनके मन की दशा समझ गए । उन्होंने इन शब्दों से उन्हें साहस बँधाया: "प्रिय रुक्मिणी । चिन्ता न करो । निश्चिन्त रहो कि यदुवंश के सैनिक समस्त विरोधी सैनिकों का अविलम्ब वध कर देंगे ।" जब श्रीकृष्ण रुक्मिणी से वार्तालाप कर रहे थे तब यदुवंश की सेना के सेनापतियों ने भगवान् श्रीबलराम के नेतृत्व में शत्रु-पक्ष के सैनिकों पर बाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी । बलराम जी को संकर्षण एवं गदाधर के नाम से भी जाना जाता है । सेनापतियों तथा बलराम जी ने विरोधी सैनिकों के अवज्ञापूर्ण व्यवहार को सहन न करते हुए उनके घोड़ों, हाथियों तथा रथों पर बाणों से प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया । जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ा, शत्रु पक्ष के राजा एवं सैनिक अपने अश्वों, गजों तथा रथों से नीचे गिरने लगे । यह देखा गया कि अत्यन्त अल्पकाल में मुकुटों और कुण्डलों से सज्जित लाखों कटे हुए सिर युद्धभूमि पर गिर पड़े थे । सैनिकों के हाथ उनकी गदा, धनुष और बाण सहित कट गए थे, एक सिर दूसरे पर तथा एक अश्व दूसरे पर गिर पड़ा था । अपने ऊँटों, गजों तथा गधों के साथ-साथ समस्त पैदल सैनिकों के सिर भी कट कर गिर पड़े थे । जब जरासन्ध के नेतृत्व में शत्रु को ज्ञात हुआ कि धीरे-धीरे वे श्रीकृष्ण के सैनिकों से पराजित हो रहे हैं, तो उन्होंने शिशुपाल के लिए युद्ध में पराजय का संकट उठाना बुद्धिमानी नहीं समझी । श्रीकृष्ण के हाथों से रुक्मिणी को छुड़ाने के लिए शिशुपाल को स्वयं युद्ध करना चाहिए था, किन्तु जब सैनिकों ने देखा कि शिशुपाल श्रीकृष्ण से युद्ध करने के योग्य नहीं है, तब उन्होंने भी व्यर्थ में अपनी शक्ति न खोने का निश्चय किया । अतएव उन्होंने युद्ध रोक दिया और तितर-बितर हो गए । शिष्टाचार के कारण कुछ राजा शिशुपाल के समक्ष गए । उन्होंने देखा कि शिशुपाल उस व्यक्ति के समान जिसकी पत्नी खो गई हो, अत्यन्त निरुत्साहित हो । चुका था । उसका मुख सूख गया था, वह अपनी समस्त शक्ति खो बैठा था, उसके शरीर पर कान्ति नहीं रह गई थी । वे शिशुपाल को इस प्रकार सम्बोधित करने लगे, "प्रिय शिशुपाल ! इस प्रकार निरुत्साहित मत होइए । आप राजबंशी हैं और योद्धाओं में प्रमुख हैं । आपके समान व्यक्ति के लिए दुःख अथवा प्रसन्नता का प्रश्न ही नहीं उठता है, क्योंकि इनमें से कोई भी दशा सदैव नहीं रहती है । साहस रखिए । इस अस्थायी पराजय से निराश मत होइए । कुछ भी हो, हम अन्तिम कर्ता नहीं हैं । जैसे कठपुतलियाँ जादूगर के संकेत पर नृत्य करती हैं वैसी ही हम भी ईश्वर की इच्छा पर नृत्य करते हैं । उनकी ही कृपा के अनुसार दुःख भोगते हैं, अथवा सुख का उपभोग करते हैं । सुख-दुःख ईश्वर के इच्छानुसार प्राप्त होते हैं अतएव सभी परिस्थितियों में उनका सन्तुलन समान होता है ।" इस पराजय में समस्त दुर्गति का कारण रुक्मिणी के ज्येष्ठ भ्राता रुक्मी का द्वेषी स्वभाव था । उसने रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से करने की योजना बनाई थी, उसके पश्चात् भी श्रीकृष्ण रुक्मिणी को बलात् हर ले गए । यह देख कर रुक्मी निराश हो गया था । अतएव वह और उसका मित्र शिशुपाल अपने-अपने घर लौट गए । रुक्मी अत्यन्त क्षुब्ध था और स्वयं श्रीकृष्ण को पाठ पढ़ाने का इच्छुक था । उसने अपनी एक अक्षौहिणी सेना बुलायी और सैन्य शक्ति से सज्जित होकर वह द्वारका की ओर श्रीकृष्ण का पीछा करने लगा । उसकी सेना में हजारों हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों से युक्त सैन्य व्यूह था । अपनी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन करने के लिए रुक्मी वापस लौटते हुए राजाओं के समक्ष प्रतिज्ञा करने लगा, "आप मेरी बहन रुक्मिणी के साथ शिशुपाल का विवाह कराने में शिशुपाल की सहायता नहीं कर सके, किन्तु मैं कृष्ण द्वारा रुक्मिणी को ले जाने नहीं दे सकता । मैं उसको पाठ पढ़ाऊँगा । अब मैं वहाँ जा रहा हूँ ।" उसने अपने को एक महान् सेनापित के रूप में प्रस्तुत किया और समस्त उपस्थित राजाओं के समक्ष प्रतिज्ञा की, "जब तक कृष्ण को युद्ध में मार कर मैं अपनी बहन रुक्मिणी को उसके पास से छुड़ा कर वापस नहीं लाता, मैं अपनी राजधानी कुण्डिन वापस नहीं आऊँगा । मैं आप सबके सामने यह प्रतिज्ञा करता हूँ और आप देखेंगे कि मैं इसे पूर्ण करूंगा ।" इस प्रकार आत्मश्लाघा से पूर्ण शब्द कह कर रुक्मी तत्काल अपने रथ पर सवार हो गया और अपने सारथि से श्रीकृष्ण का पीछा करने को कहा । उसने कहा, "मैं कृष्ण से तत्काल युद्ध करना चाहता हूँ । क्षत्रियों से युद्ध करने की अपनी कपट-नीति के कारण यह गोप बालक अत्यन्त अंहकारी हो गया है । किन्तु आज में उसे एक अच्छा पाठ पढ़ाऊँगा । उसने मेरी बहन का हरण करने की धृष्टता की है, मैं अपने तीक्ष्ण बाणों
से निस्सन्देह ही उसे एक अच्छा पाठ पढ़ाऊँगा ।" मूर्ख रुक्मी श्रीभगवान् की शक्ति और कार्य के विस्तार से अनजान था, अत: वह इस प्रकार धृष्टतापूर्ण धमकियाँ देने लगा । वह शीघ्र ही श्रीकृष्ण के समक्ष खड़ा होकर मूर्खतावश बारम्बार कहने लगा "एक पल रुको और मुझसे युद्ध करो ।" ऐसा कहने के पश्चात् उसने अपने धनुष की डोरी खींच कर सीधे श्रीकृष्ण के शरीर पर तीन शक्तिशाली बाण मारे । तदनन्तर उसने श्रीकृष्ण को यदुवंश का सर्वाधिक निन्दनीय वंशज कह कर उनकी निन्दा की । रुक्मी ने श्रीकृष्ण को पलभर अपने समक्ष खड़ा रहने को कहा, जिससे कि वह उसको अच्छा पाठ पढ़ा सके । "तुम मेरी बहन को उसी भाँति लिए जा रहे हो जैसे कौवा यज्ञ में उपयोग के लिए रखे गए घी को चुराता है । तुम्हे केवल अपनी सैन्य-शक्ति का अंहकार है, किन्तु तुम विधि-विधानों के अनुसार युद्ध नहीं कर सकते हो । तुमने मेरी बहन को चुरा लिया है, अब मैं तुम्हें तुम्हारी मिथ्या प्रतिष्ठा से वंचित कर दूँगा । तुम अपने अधिकार में मेरी बहन को तभी तक रख सकते हो जब तक मैं तुम्हें सदा के लिए अपने बाणों से धरती से बाँध नहीं देता ।"
रुक्मी के इस प्रलाप को सुन कर श्रीकृष्ण ने तत्काल एक बाण मार कर उसके धनुष की डोरी काट दी और इस प्रकार रुक्मी को दूसरे बाण का उपयोग करने में असमर्थ कर दिया । रुक्मी ने तत्काल दूसरा धनुष उठा लिया तथा श्रीकृष्ण को अन्य पाँच बाण मारे । रुक्मी द्वारा दूसरी बार आक्रमण करने पर श्रीकृष्ण ने पुन: उसके धनुष की डोरी काट दी । रुक्मी ने तीसरा धनुष लिया, तो श्रीकृष्ण ने उसकी भी डोरी काट दी । रुक्मी को शिक्षा देने के लिए इस बार स्वयं श्रीकृष्ण ने उसको छ: बाण मारे और तदन्तर उन्होंने आठ बाण और मारे । इस प्रकार चार बाणों से चार अश्व मारे गए और दूसरे एक बाण ने सारथि का वध कर दिया । बचे हुए तीन बाणों ने ध्वजा सहित रुक्मी के रथ के ऊपरी भाग को अलग कर दिया । बाण समाप्त हो जाने के कारण रुक्मी ने द्वंद्व युद्ध के शस्त्रास्त्रों जैसे तलवार, कवच, त्रिशूल, भाले तथा अन्य ऐसे ही अस्त्रों की सहायता ली । किन्तु श्रीकृष्ण ने इन सब अस्त्रों को भी उसी रीति से काट दिया । बारम्बार अपने प्रयासों में असफल होकर रुक्मी ने अपनी तलवार उठाई और उसी प्रकार श्रीकृष्ण की ओर तीव्र गति से दौड़ा जिस प्रकार पतंगे अग्नि की ओर दौड़ते हैं । जैसे ही रुक्मी श्रीकृष्ण के निकट पहुँचा, श्रीकृष्ण ने उसके अस्त्र को खण्ड़-खण्ड़ कर दिया । इस बार श्रीकृष्ण ने अपनी तीक्षण तलवार निकाली और वे तत्काल ही रुक्मी को मारने वाले थे कि उसकी बहन रुक्मिणी श्रीकृष्ण के चरणकमलों पर गिर पड़ीं । रुक्मिणी समझ गई कि इस बार श्रीकृष्ण उनके भाई को क्षमा नहीं करेंगे, अतएव वे श्रीकृष्ण के चरणकमलों पर गिर पड़ीं और भय से काँपते हुए अत्यन्त करुण स्वर में अपने पति से विनती करने लगीं ।
पहले तो रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को योगेश्वर कह कर सम्बोधित किया । योगेश्वर का अर्थ है "अचिन्त्य ऐश्वर्य और शक्ति वाले ।" श्रीकृष्ण के पास अचिन्त्य ऐश्वर्य और शक्ति है, जबकि रुक्मिणी के भाई के पास केवल सीमित सैन्य शक्ति थी । श्रीकृष्ण अपरिमित हैं, जबकि उनका भाई जीवन के प्रत्येक पग पर परिमित था । अतएव श्रीकृष्ण की असीम शक्ति के समक्ष रुक्मी एक क्षुद्र कीट के समान भी नहीं था । रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को देवाधिदेव भी कह कर सम्बोधित किया । शक्तिशाली देवता अनेक हैं, जैसे ब्रह्माजी, शिवजी, इन्द्र और चन्द्र । श्रीकृष्ण इन सभी देवताओं के स्वामी हैं । दूसरी ओर रुक्मिणी का भाई न केवल एक साधारण मानव था, अपितु वास्तव में वह नराधम था, क्योंकि उसे श्रीकृष्ण की तनिक भी समझ नहीं थी । दूसरे शब्दों में, श्रीकृष्ण के वास्तविक पद को न समझने वाला मनुष्य मानव समाज में अधम है । रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को जगत्पति कह कर भी सम्बोधित किया जिसका अर्थ है "समस्त सृष्टि के स्वामी ।" इसकी तुलना में उनका भाई केवल एक साधारण राजा था ।
इस रीति से रुक्मिणी ने रुक्मी के पद की तुलना श्रीकृष्ण के पद से की और अत्यन्त भावनापूर्वक अपने पति से विनती की कि अपने इस शुभ विवाह के पूर्व वे उसके भाई का वध न करें, अपितु उसे क्षमा कर दें । दूसरे शब्दों में, उन्होंने एक स्त्री के रूप में अपनी सही स्थिति का प्रदर्शन किया । उनका विवाह किसी और से किया जाने वाला था । उसी क्षण श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करके वे अत्यन्त प्रसन्न थीं, किन्तु वे इस विवाह के हेतु अपने बड़े भाई को खोना नहीं चाहती थीं । रुक्मी अपनी छोटी बहन से प्रेम करता था और वह अपनी बहन ऐसे व्यक्ति को देना चाहता था, जो उसके विचारानुसार श्रेष्ठ पुरुष था । जब रुक्मिणी अपने भाई के जीवन के लिए श्रीकृष्ण से अनुनय-विनय कर रही थीं, तो उनका सम्पूर्ण शरीर काँप रहा था और चिन्ता के कारण उनका मुख सूखा हुआ तथा कंठ अवरूद्ध प्रतीत हो रहा था । उनके काँपने से उनके शरीर के आभूषण शिथिल पड़ गए और गिर कर धरती पर बिखर गए । भगवान् श्रीकृष्ण तत्काल दयार्द्र हो उठे गए और मूर्ख रुक्मी को न मारने के लिए सहमत हो गए । किन्तु साथ ही वे रुक्मी को कुछ अल्प दण्ड देना चाहते थे, अतएव उन्होंने उसे एक वस्त्र के टुकड़े से बाँध दिया और उसकी मूंछ, दाढ़ी और इधर-उधर के कुछ बाल छोड़कर सारे बाल काट दिये । जब श्रीकृष्ण रुक्मी से इस प्रकार निपट रहे थे, तभी बलराम जी के सेनापतित्व में यदुवंश के सैनिकों ने रुक्मी की सेना की समस्त शक्ति उसी प्रकार तोड़ दी, जिस प्रकार हाथी किसी जलाशय में घुसकर दुर्बल कमलनाल को तोड़ देता है । दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार किसी जलाशय में स्नान करते हुए कोई हाथी कमलपुष्प को छिन्न-भिन्न कर डालता है, उसी प्रकार यदुओं की सैन्य शक्ति ने रुक्मी की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया । फिर भी जब यदुवंश के सेनापति श्रीकृष्ण से भेंट करने वापस लौटे तब रुक्मी की दशा देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ । भगवान् बलराम को अपने भाई की नवविवाहिता पत्नी पर विशेष रूप से दया हो आई । रुक्मिणी को प्रसन्न करने के लिए बलराम जी ने स्वयं रुक्मी का बन्धन खोला । श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता के रूप में उन्होंने श्रीकृष्ण को कुछ भर्त्सना के शब्द भी कहे । उन्होंने कहा, "कृष्ण ! तुम्हारा कार्य सन्तोषप्रद नहीं है । यह एक निन्दनीय कार्य है और हमारे परिवार की परम्परा के विरुद्ध है । किसी के केश काटना और उसे मूंछ दाढ़ी से रहित कर देना उसका वध करने के ही समान है । रुक्मी चाहे जैसा भी रहा हो, वह अब हमारा साला है, हमारे परिवार का सम्बन्धी है । तुम्हें उसकी ऐसी दशा नहीं करनी चाहिए थी ।" इसके उपरान्त रुक्मिणी जी को सान्त्वना देने के लिए भगवान् बलराम ने उनसे कहा, "तुम्हारे भाई का रूप विकृत कर दिया गया है, इस बात से तुमको दुखी नहीं होना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्यों का सुखद-दुःखद परिणाम भोगना पड़ता है ।” भगवान् बलराम रुक्मिणी जी को भली-भाँति समझा देना चाहते थे कि उन्हें अपने भाई को उसके कर्मों का फल मिलने पर दुखी नहीं होना चाहिए । इस प्रकार के भाई के प्रति अधिक स्नेहपूर्ण होने की कोई आवश्यकता नहीं । भगवान् बलराम ने पुनः श्रीकृष्ण की ओर मुड़ कर कहा, "प्रिय श्रीकृष्ण ! यदि कोई सम्बन्धी इस प्रकार की भूल करता है, जिसके दण्ड स्वरूप उसका वध कर देना उचित हो, तब भी उसे क्षमा करना चाहिए । इस प्रकार का सम्बन्धी जब अपने दोष के प्रति सचेत होता है, तब यह विचार ही उसके लिए मृत्यु के समान होता है । अतएव उसका वध करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है ।" बलराम जी पुनः रुक्मिणी जी की ओर मुड़े और उन्हें सूचित किया कि मानव-समाज में क्षत्रिय का वर्तमान कर्तव्य निर्धारित है । वह कर्तव्य यह है कि युद्ध के सिद्धान्तों के अनुसार यदि अपना भाई भी विपक्ष में हो, तो वह शत्रु माना जाता है । क्षत्रिय अपने भाई का भी वध करने में असमंजस नहीं करता है । दूसरे शब्दों में, भगवान् बलराम रुक्मिणी जी को निर्देश देना चाहते थे कि यद्यपि पारिवारिक सम्बन्ध से वे साले-बहनोई थे, तथापि युद्ध में एक दूसरे के प्रति दया का प्रदर्शन न करने में श्रीकृष्ण का व्यवहार क्षत्रियोचित था । श्रीबलराम जी ने रुक्मिणी जी को आगे बताया कि क्षत्रिय तो जीवन के भौतिकतावादी मार्ग के विशिष्ट प्रतीक हैं । जहाँ किसी भौतिक प्राप्ति का प्रश्न होता है, वे फूल जाते हैं । अतएव जब दो क्षत्रिय योद्धाओं में राज्य, भूमि, धन, स्त्री, सम्मान अथवा शक्ति के लिए युद्ध होता है, तब वे एक दूसरे को सर्वाधिक निन्दनीय दशा में पहुँचाने का प्रयास करते हैं । बलराम जी ने रुक्मिणी जी को निर्देश दिया कि इतने अधिक व्यक्तियों से शत्रुता करने वाले रुक्मी के प्रति उनका स्नेह एक भौतिकतावादी साधारण मनुष्य के योग्य विकृत विचार है । दूसरे मित्रों के प्रति उसके व्यवहार का विचार करें, तो रुक्मिणी के भाई का चरित्र प्रशंसनीय नहीं था, फिर भी एक साधारण स्त्री की भाँति वे उसके प्रति इतनी स्नेहपूर्ण थीं । वह उनका भाई होने के योग्य नहीं था, फिर भी रुक्मिणी जी उसके प्रति इतनी मृदु थीं । बलराम जी ने आगे कहा, "कोई तटस्थ है, अपना मित्र है अथवा शत्रु है-यह विचार उन व्यक्तियों के द्वारा किया जाता है, जो देहात्म-बुद्धि का जीवन व्यतीत कर रहे हैं । ऐसे मूढ़ मनुष्य भगवान् की भ्रामक शक्ति (माया) से भ्रमित हो जाते हैं । आत्मा भी किसी देहधारी पदार्थ में वही शुद्ध तत्त्व है । किन्तु जो पर्याप्त बुद्धिमान नहीं हैं, वे केवल पशु और मानव, शिक्षित और अशिक्षित, धनी और निर्धन आदि की शुद्ध आत्मा को ढँक लेने वाले शारीरिक भेदों को ही देखते हैं । केवल शरीर के आधार पर बनाए गए ये भेद ठीक उसी प्रकार हैं जैसे ईधन के प्रकार के अनुसार कोई अग्नियों में भेद करे । ईधन का चाहे जो आकार-प्रकार हो, उससे निकलने वाली अग्नि में इस प्रकार का आकार-प्रकार का भेद नहीं होता है । उसी भाँति आकाश में भी आकार-प्रकार का कोई भेद नहीं है ।" इस प्रकार बलराम जी ने अपनी नैतिक शिक्षा से दोनों को सन्तुष्ट कर दिया । उन्होंने आगे कहा, "यह शरीर सृष्टि का अंश है । जीव अथवा शुद्ध आत्मा पदार्थ से सम्पर्क के कारण देहान्तर कर रहा है । मायावी भोग के कारण जीव अथवा शुद्ध आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तर करता है और इसे ही भौतिक अस्तित्त्व कहा जाता है । सृष्टि से जीव के सम्पर्क में न तो संघटन होता है और न ही विघटन । हे साध्वी ! आत्मा इस भौतिक शरीर का उतना ही कारण है, जितना सूर्य सूर्य के प्रकाश और दृष्टि तथा सृष्टि के आकारों का कारण है । सूर्य के प्रकाश तथा सृष्टि का उदाहरण जीवों के इस भौतिक जगत् से सम्पर्क को समझने के लिए अत्यधिक उपयुक्त है । प्रात: काल सूर्योदय होता है और क्रमश: पूरे दिन ताप और प्रकाश में वृद्धि होती रहती है । समस्त भौतिक उत्पादनों, आकारों और रूपों का कारण सूर्य है । सूर्य के ही कारण भौतिक तत्वों का संघटन और विघटन होता है । किन्तु जैसे ही सूर्यास्त होता है, तो एक स्थान से दूसरे स्थान को चले गए सूर्य के साथ सृष्टि का कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता है । जब सूर्य पूर्वी गोलार्ध से पश्चिमी गोलार्ध में चला जाता है, तो सूर्य के प्रकाश के कारण हुई क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम पूर्वी गोलार्ध में रहता है, किन्तु सूर्य का प्रकाश स्वयं पुन: पश्चिमी गोलार्ध में दिखाई देता है । इसी भाँति जीव विभिन्न शरीरों और विभिन्न सम्बन्धों को किसी विशेष परिस्थिति में स्वीकार करता है, अथवा उत्पन्न करता है, किन्तु जैसे ही वह वर्तमान शरीर को त्याग कर दूसरा ग्रहण करता है, वैसे ही भूतपूर्व शरीर से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता । वह सदैव ही इस शारीरिक दूषण के सम्पर्क से मुक्त रहता है । अतएव निष्कर्ष यह निकलता है कि शरीर की उत्पति अथवा विनाश का जीव से वैसे ही कोई सम्बन्ध नहीं है जैसे चन्द्रमा के घटने अथवा बढ़ने का चन्द्रमा से कोई सम्बन्ध नहीं है । जब चन्द्रमा बढ़ता है, तब हम भ्रामक विचार करते हैं कि चन्द्रमा विकसित हो रहा है और जब चन्द्रमा का क्षय होता है, तब हम विचार करते हैं कि चन्द्रमा घट रहा है । तथ्य तो यह है कि चन्द्रमा सदैव जैसा है वैसा ही रहता है । हमें दिखाई देने वाली घट-बढ़ की गतिविधियों से चन्द्रमा का कोई सम्बन्ध नहीं है ।” "भौतिक अस्तित्त्व की चेतना की तुलना निद्रा तथा स्वप्न से की जा सकती है । निद्रावस्था में मनुष्य अनेक यथार्थ घटनाओं का स्वप्न देखता है और उस स्वप्न के परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के सुखों व दुखों का भागी होता है । उसी भाँति जब व्यक्ति भौतिक चेतना की स्वप्नावस्था में होता है, तब उसे भौतिक अस्तित्त्व में एक शरीर को स्वीकारने तथा पुन: उसे त्यागने का परिणाम भोगना पड़ता है । उस भौतिक चेतना के विपरीत कृष्णभावनामृत है । दूसरे शब्दों में, जब किसी व्यक्ति की श्रीकृष्ण-भक्ति के स्तर पर उन्नति हो जाती है, तब वह जीवन की इस दोषपूर्ण धारणा से मुक्त हो जाता है ।" इस प्रकार श्रीबलराम ने उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश दिया । उन्होंने रुक्मिणी जी को इस प्रकार सम्बोधित किया, "हे मधुर, प्रसन्नमुखी रुक्मिणी ! अङ्गान से उत्पन्न मिथ्या कारणों से दुखी न होना । मिथ्या धारणाओं के कारण ही व्यक्ति दुखी होता है, किन्तु वास्तविक जीवन के दर्शन की विवेचना करने से यह दुःख तत्काल समाप्त हो जाता है । केवल उसी स्तर पर प्रसन्न रहो ।” श्रीबलराम के इस ज्ञानप्रद उपदेश को सुनने के पश्चात् रुक्मिणी जी तत्काल शान्त एवं प्रसन्न हो गई । अपने भाई रुक्मी की दुर्दशा देख कर उनका मन अत्यन्त विचलित हो गया था, किन्तु अब उन्होंने अपनी मानसिक स्थिति को परिवर्तित कर लिया । जहाँ तक रुक्मी का सम्बन्ध था, उसका न तो वचन पूर्ण हुआ, न ही वह अपने ध्येय में सफल हुआ । वह अपनी बहन को छुड़ाने तथा श्रीकृष्ण को पराजित करने के लिए अपने सैनिकों एवं सेना सहित अपने घर से आया था, किन्तु वह अपने समस्त सैनिकों तथा सैन्य शक्ति को खो बैठा । व्यक्तिगत रूप से वह अत्यधिक अपमानित हुआ था और उस दशा में वह अत्यन्त दुखी था, किन्तु भगवान् की कृपा से वह अपने निश्चित गन्तव्य तक जीवन-यापन कर सकता था । रुक्मी एक क्षत्रिय था, अत: उसे अपना यह वचन स्मरण था कि श्रीकृष्ण का वध तथा रुक्मिणी को छुड़ाए बिना वह अपनी राजधानी कुण्डिन नहीं लौटेगा । वह अपना वचन पूर्ण करने में असफल रहा, अतएव क्रोध में उसने निश्चय किया कि वह अपनी राजधानी नहीं लौटेगा । अत: भोजकट नामक ग्राम में उसने एक छोटा-सा घर बनाया और शेष जीवन वहीं बिताया । । समस्त विरोधियों को परास्त करने तथा रुक्मिणी जी का बलात् हरण करने के पश्चात् श्रीकृष्ण उन्हें अपनी राजधानी द्वारका ले आए और वैदिक विधि-विधान के अनुसार उनसे विवाह किया । इस विवाह के पश्चात् श्रीकृष्ण द्वारका में यादवों के राजा बन गए । रुक्मिणी से उनके विवाह के अवसर पर सभी निवासी प्रसन्न थे और प्रत्येक घर में उत्सव मनाया गया । द्वारकावासी इतने प्रसन्न हुए कि सर्वोत्तम वस्त्राभूषण धारण करके और अपने साधनों के अनुसार उपहार लेकर, नवविवाहित दम्पति श्रीकृष्ण और रुक्मिणी जी के समीप गए । यदुपुरी (द्वारका) के सभी घर पताकाओं, रंगीन कागज की झण्डियों तथा पुष्पों से सजाए गए थे । प्रत्येक घर में इस अवसर के लिए एक अतिरिक्त द्वार का निर्माण किया गया था । इन द्वारों के दोनों ओर जल से भरे कलश रखे गए थे । समस्त नगर उच्च कोटि के धूप की सुगन्ध से सुगन्धित हो रहा था और रात्रि में प्रत्येक भवन को सजाने वाले सहस्रों दीपकों का प्रकाश नगर को आलोकित कर रहा था । रुक्मिणी के साथ श्रीकृष्ण के विवाह के अवसर पर समस्त नगर हर्षित प्रतीत हो रहा था । नगर में सब ओर केले के वृक्षों तथा सुपारी के वृक्षों की सजा थी । शुभ संस्कारों में इन दोनों वृक्षों को अत्यन्त शुभ माना जाता है । उसी समय विभिन्न मित्र राज्यों के राजाओं को लाने वाले अनेक हाथी भी वहाँ एकत्र थे । हाथी की आदत होती है कि जब कभी वह छोटे पेड़-पौधे देखता है, तब अपने खिलाड़ी व चंचल स्वभाववश वह वृक्षों को उखाड़ कर इधर-उधर फेंक देता है । द्वारका में इस अवसर पर एकत्र हाथियों ने भी केले तथा सुपारी के वृक्षों को छितरा दिया, किन्तु इस उन्मत्त कार्य के होने पर भी इधर-उधर बिखरे वृक्षों सहित समस्त नगर अत्यन्त शोभायमान हो रहा था । कौरवों तथा पाण्डवों के मित्र-राजाओं के प्रतिनिधि वहाँ उपस्थित थे । उनमें से कुछ राजा धृतराष्ट्र, पाँचों पाण्डव भाई, राजा द्रुपद, राजा सन्तर्दन और साथ ही साथ रुक्मिणी के पिता भीष्मक थे । श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी-हरण किए जाने के कारण दोनों परिवारों में प्रारम्भ में कुछ मतभेद था । किन्तु श्रीबलराम विदर्भ के राजा भीष्मक के पास गए और साथ ही अनेक सन्तों ने भी उन्हें समझाया । तब वे श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में सम्मिलित होने के लिए तैयार हो गए । यद्यपि श्रीकृष्ण के द्वारा हरण करने की घटना विदर्भ राज्य के लिए प्रिय घटना नहीं थी, तथापि क्षत्रियों में हरण करना असामान्य घटना नहीं थी । वस्तुत: लगभग सभी विवाहों में हरण प्रचलित था । राजा भीष्मक का झुकाव पहले से ही श्रीकृष्ण को अपनी सुन्दरी पुत्री देने की ओर था । किसी न किसी प्रकार से उनका प्रयोजन सिद्ध हो गया था, अत: यद्यपि उनका सबसे बड़ा पुत्र युद्ध में अपमानित हुआ था, तथापि वे विवाह संस्कार में प्रसन्नता से सम्मिलित हुए । पद्म-पुराण में उल्लेख है कि महाराज नन्द तथा गोप भी विवाह संस्कार में सम्मिलित हुए थे । कुरु, सृञ्जय, केकय, विदर्भ और कुन्ति राज्यों के राजा भी अपनी राजसी सामग्री के साथ इस अवसर पर द्वारका आए । श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी-हरण की कथा को पद्य में लिखा गया और चारणों ने सर्वत्र उसका गान किया । सभी एकत्रित राजा और विशेष रूप से उनकी पुत्रियाँ श्रीकृष्ण के पराक्रम का श्रवण करके चकित तथा प्रसन्न हो गईं । इस भाँति समस्त अतिथि तथा द्वारकावासी श्रीकृष्ण तथा रुक्मिणी को साथ देखकर हर्षित हो उठे । दूसरे शब्दों में, सबके पालक भगवान् और श्रीदेवी लक्ष्मी जी का विवाह हो गया और सभी द्वारकावासियों को परम हर्ष का अनुभव हुआ ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “श्रीकृष्ण द्वारा समस्त राजाओं को हरा कर रुक्मिणी जी का हरण” नामक चौवनवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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