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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 57: सत्राजित एवं शतधन्वा का उद्धार  » 
 
 
 
 
 
अक्रूर जी ने हस्तिनापुर की यात्रा की और वापस आ कर श्रीकृष्ण को पाण्डवों की दशा के विषय में जानकारी दी, उसके उपरान्त और भी घटनाएँ घटित हुई । पाण्डवों को लाख के बने हुए घर में स्थानान्तरित कर दिया गया और बाद में उसमें आग लगा दी गई । सबने सोचा कि अपनी माता सहित पाण्डवों की मृत्यु हो गई । भगवान् कृष्ण तथा बलराम जी के पास भी यह जानकारी भेज दी गई । परस्पर मंत्रणा करके अपने सम्बन्धियों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने हस्तिनापुर जाने का निश्चय किया । श्रीकृष्ण तथा बलराम जी को निश्चित रूप से ज्ञात था कि उस भयंकर अग्नि में पाण्डवों की मृत्यु नहीं हुई होगी । किन्तु फिर भी वे प्रियजनों की मृत्यु के शोक में सम्मिलित होने के लिए हस्तिनापुर जाना चाहते थे । हस्तिनापुर पहुँचने पर श्रीकृष्ण और बलराम भीष्मदेव से भेंट करने गए, क्योंकि वे कुरुवंश के प्रमुख थे । तदनन्तर उन्होंने विदुर, गान्धारी तथा द्रोण से भेंट की । कुरुवंश के अन्य सदस्य दुखी नहीं थे, क्योंकि वे स्वयं चाहते थे कि पाण्डवों तथा उनकी माता की मृत्यु हो जाए । किन्तु भीष्म सहित परिवार के कुछ अन्य सदस्य इस घटना से वास्तव में अत्यधिक दुखी थे । वास्तविक स्थिति को प्रकट न करते हुए, श्रीकृष्ण तथा बलराम जी ने उन्हीं के समान शोक व्यक्त किया ।

जब श्रीकृष्ण तथा बलराम जी द्वारका नगर से दूर थे, तब सत्राजित से स्यमन्तक मणि हरण करने का एक षड़यंत्र रचा गया । शतधन्वा मुख्य षड़यंत्रकारी था । अन्य राजाओं सहित शतधन्वा सत्राजित की सुन्दरी कन्या सत्यभामा से विवाह करना चाहता था । सत्राजित ने विभिन्न राजाओं को यह वचन दिया था कि वह अपनी सुन्दरी पुत्री का कन्यादान उन्हें करेगा । किन्तु बाद में निर्णय परिवर्तित हो गया और स्यमन्तक मणि सहित सत्यभामा श्रीकृष्ण को समर्पित कर दी गई । अपनी पुत्री के साथ मणि भी दान करने की सत्राजित की कोई इच्छा नहीं थी । श्रीकृष्ण को उसकी मानसिक स्थिति का ज्ञान था, अतएव उन्होंने उसकी पुत्री को स्वीकार कर लिया, किन्तु मणि लौटा दी । श्रीकृष्ण से मणि वापस प्राप्त करने के उपरान्त वह सन्तुष्ट था और सदैव उसे अपने साथ रखता था । किन्तु श्रीकृष्ण तथा बलराम जी की अनुपस्थिति में अनेक लोगों ने सत्राजित से मणि छीनने का षड़यंत्र रचा । उन षड़यंत्र करने वालों में भगवान् कृष्ण के भक्त अक्रूर जी तथा कृतवर्मा भी सम्मिलित थे । अक्रूर जी तथा कृतवर्मा मणि को श्रीकृष्ण के लिए प्राप्त करना चाहते थे और इसी कारण वे षड़यंत्र में सम्मिलित हुए । उन्हें ज्ञात था कि श्रीकृष्ण वह मणि प्राप्त करना चाहते हैं, किन्तु सत्राजित ने उसे उचित रीति से नहीं दिया था । अन्य लोग षड़यंत्र में

इसलिए सम्मिलित हुए, क्योंकि वे सत्यभामा का हाथ न मिलने के कारण निराश थे । उनमें से कुछ लोगों ने सत्राजित का वध करके मणि हर लेने के लिए शतधन्वा को उकसाया ।

साधारणतया यह प्रश्न उठाया जाता है कि अक्रूर जी जैसे महान् भक्त इस षड़यंत्र में क्यों सम्मिलित हुए ? यद्यपि कृतवर्मा भगवान् के भक्त थे, तो भी वे क्यों षड़यंत्र में सम्मिलित हुए ? जीव गोस्वामी तथा उन जैसे अन्य महाजनों ने उत्तर दिया है कि यद्यपि अक्रूर जी महान् भक्त थे, तथापि वृन्दावन के निवासियों ने उन्हें शाप दिया था । अक्रूर जी ने उनकी भावनाओं को चोट पहुँचाई थी, अतएव पापियों द्वारा घोषित षड़यंत्र में सम्मिलित होने के लिए उन्हें बाध्य होना पड़ा । उसी तरह कृतवर्मा एक भक्त थे, किन्तु कंस से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण वे भी पाप से दूषित थे और इसी कारण वे भी षड़यंत्र में सम्मिलित हुए ।

सभी षड़यंत्रकारियों के उकसाने पर एक रात्रि शतधन्वा ने सत्राजित के घर में प्रवेश किया और सोते हुए सत्राजित का वध कर दिया । शतधन्वा निन्दनीय पापी था । यद्यपि अपने पापों के कारण उसका जीवन अधिक दिनों का नहीं था, तथापि उसने घर पर सोते हुए सत्राजित का वध करने का निश्चय किया । जब सत्राजित का वध करने के लिए उसने घर में प्रवेश किया तब समस्त स्त्रियाँ उच्च स्वर से क्रन्दन करने लगीं । किन्तु उनके प्रबल विरोध करने पर भी शतधन्वा ने बिना असमंजस के । सत्राजित की उसी भाँति निर्दयता से हत्या कर दी, जिस प्रकार बधिक (कसाई)

वधशाला में पुश की हत्या करता है । श्रीकृष्ण घर से अनुपस्थित थे, अत: सत्राजित के वध की रात्रि उनकी पत्नी सत्यभामा पितृगृह में

उपस्थित थीं । सत्राजित के मृत शरीर को तत्काल श्मशान नहीं ले जाया गया, क्योंकि सत्यभामा श्रीकृष्ण से मिलने हस्तिनापुर जाना चाहती थीं । अतएव सत्राजित के शरीर को तेल के पात्र में सुरक्षित रखा गया, जिससे श्रीकृष्ण आकर सत्राजित के मृत शरीर को देख सकें और शतधन्वा के विरुद्ध उचित कार्यवाही करें । सत्यभामा ने अपने पिता की भयंकर मृत्यु के विषय में श्रीकृष्ण को जानकारी देने के लिए तत्काल हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया ।

जब सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को उनके श्वसुर की मृत्यु की विषय में सूचित किया तब वे सामान्य मानव के समान विलाप करने लगे । फिर उनका गहन दुःख एक अद्भुत वस्तु है । कर्म और कर्म के फल से भगवान् श्रीकृष्ण का कोई प्रयोजन नहीं है, किन्तु वे एक मानव का अभिनय कर रहे थे, अतएव उन्होंने सत्यभामा के पिता की मृत्यु पर अपनी पूर्ण सहानुभूति अभिव्यक्त की । अपने श्वसुर की मृत्यु के विषय में सुन कर उनके नयन अश्रुओं से पूर्ण हो गए । वे इस प्रकार विलाप करने लगे, "ओह ! कितनी दुःखद घटना हो गई" इस प्रकार अपनी पत्नी सत्यभामा सहित श्रीकृष्ण तथा बलराम जी तत्काल द्वारका लौट आए और शतधन्वा का वध करने तथा मणि को हर लेने की योजना बनाने लगे । यद्यपि शतधन्वा नगर का एक शक्तिशाली व्यक्ति था, तथापि वह श्रीकृष्ण से अत्यधिक भयभीत था । इस प्रकार श्रीकृष्ण के आगमन से उसके भय में और वृद्धि हो गई । अपने वध की श्रीकृष्ण की योजना को समझ कर वह तत्काल कृतवर्मा का आश्रय लेने गया । किन्तु जब उसने कृतवर्मा से आश्रय देने की प्रार्थना की तब उन्होंने कहा, "मैं श्रीकृष्ण तथा बलराम जी को कभी-भी अप्रसन्न नहीं कर सकूँगा, क्योंकि वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं । वे श्रीभगवान् हैं । जिसने श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के प्रति अपराध किया हो, मृत्यु से उसकी रक्षा कौन कर सकता है ? उनके क्रोध से किसी की रक्षा नहीं की जा सकती है ।" कृतवर्मा ने आगे कहा कि यद्यपि कंस शक्तिशाली था तथा अनेक असुर उसके सहायक थे, तथापि श्रीकृष्ण के कोप से उसकी रक्षा नहीं हो सकी । जरासन्ध के विषय में क्या कहें, जिसे श्रीकृष्ण ने अट्ठारह बार पराजित किया था और प्रत्येक बार उसे युद्ध से निराश लौटना पड़ा था । जब कृतवर्मा ने सहायता करना अस्वीकार कर दिया तब शतधन्वा अक्रूर जी के पास गया और उनसे सहायता की याचना की । अक्रूर जी ने भी उत्तर दिया "श्रीकृष्ण तथा बलराम जी दोनों ही स्वयं भगवान् हैं और जिसे भी उनकी असीम शक्ति का ज्ञान है, वह कभी उन्हें अप्रसन्न करने अथवा उनसे युद्ध करने का साहस नहीं करेगा ।" उन्होंने शतधन्वा को आगे सूचित किया, "श्रीकृष्ण और बलराम जी इतने शक्तिशाली हैं कि इच्छा-मात्र से वे समस्त सृष्टि की रचना कर रहे हैं, उसका पालन और संहार कर रहे हैं । यद्यपि समस्त सृष्टि पूर्णरूपेण श्रीकृष्ण के नियंत्रण में है, तथापि दुर्भाग्यवश जो व्यक्ति भ्रम से भ्रमित हो गए हैं, वे उनकी शक्ति को नहीं समझ सकते हैं ।" उन्होंने उदाहरण दिया कि सात वर्ष की आयु में भी श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठा लिया था और जिस प्रकार कोई बालक छोटी सी छतरी लिए रहता है, वैसे ही उन्होंने इस पर्वत को सात दिन तक उठाए रखा । अक्रूर जी ने शतधन्वा को स्पष्ट रूप से सूचित किया कि वे सदैव श्रीकृष्ण को सादर प्रणाम करेंगे । श्रीकृष्ण समस्त निर्मित वस्तुओं के परमात्मा हैं और समस्त कारणों के आदि कारण हैं । जब अक्रूर जी ने भी शतधन्वा को आश्रय देना अस्वीकार कर दिया तब उसने स्यमन्तक मणि अक्रूर जी के हाथों में देने का निश्चय किया । तदनन्तर तीव्र गति से निरन्तर चार सौ मील तक दौड़ सकने वाले एक घोड़े पर सवार हो कर वह नगर से भाग गया ।

जब श्रीकृष्ण और बलराम जी को शतधन्वा के पलायन की जानकारी दी गई, तब वे गरुड़ के चित्र से अंकित ध्वज वाले अपने रथ पर सवार हो गए और तत्काल उसका पीछा किया । श्रीकृष्ण शतधन्वा से विशेषरूप से कुद्ध थे और उसका वध करना चाहते थे, क्योंकि उसने एक श्रेष्ठ पुरुष सत्राजित का वध किया था । सत्राजित श्रीकृष्ण के श्वसुर थे और शास्त्रों का आदेश है कि जो कोई भी गुरुजनों के प्रति द्रोह करता है, अर्थात् गुरुद्रोही व्यक्ति को उसके अपराध के अनुरूप अवश्य ही दण्ड दिया जाना चाहिए । शतधन्वा ने श्रीकृष्ण के श्वसुर का वध किया था, अतएव श्रीकृष्ण ने किसी भी भाँति उसका वध करने का दृढ़ निश्चय किया था । शतधन्वा का अश्व हाँफ उठा और मिथिला में एक उपवन के समीप मर गया । घोड़े की सहायता न मिलने से शतधन्वा तीव्रगति से दौड़ने लगा । शतधन्वा के प्रति यायोचित व्यवहार करने के लिए श्रीकृष्ण तथा बलराम जी भी रथ से उतर गए और दिल ही शतधन्वा का पीछा करने लगे । जब शतधन्वा तथा श्रीकृष्ण दोनों ही पैदल भाग रहे थे, तभी श्रीकृष्ण ने अपने चक्र से शतधन्वा का शीश काट दिया । शतधन्वा का वध होने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने उसके वस्त्रों में स्यमन्तक मणि ढूँढ़ी, किन्तु मणि उन्हें नहीं मिली । तब वे बलरामजी के समीप लौट गए और कहा, "हमने इस व्यक्ति का व्यर्थ में ही वध किया, क्योंकि मणि उसके पास नहीं मिली ।" श्रीबलराम ने सुझाव दिया, "हो सकता है कि मणि द्वारका में किसी और व्यक्ति के संरक्षण में रखी गई हो । अतएव यही श्रेष्ठ होगा कि तुम द्वारका लौट जाओ और मणि को ढूँढ़ निकालो ।" श्रीबलराम ने कुछ दिन तक मिथिला नगर में रहने की इच्छा व्यक्त की, क्योंकि मिथिला के राजा उनके घनिष्ठ मित्र थे । अतएव श्रीकृष्ण द्वारका लौट गए और बलराम जी ने मिथिला नगर के लिए प्रस्थान किया । जब मिथिला के राजा ने अपने नगर में श्रीबलराम का आगमन सुना, तो वह अत्यन्त प्रसन्न हो गए और अत्यधिक आदर-सत्कारपूर्वक उन्होंने भगवान् का स्वागत किया । बलराम जी को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने उन्हें अनेक मूल्यवान उपहार अर्पित किए । इस समय मिथिला के राजा महाराज जनक के सम्मानित अतिथि के रूप में बलराम जी ने अनेक वर्षों तक नगर में निवास किया । इसी अवधि में धृतराष्ट्र के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन को अवसर प्राप्त हुआ और उसने बलराम जी के पास आकर उनसे गदायुद्ध की कला की शिक्षा प्राप्त की । शतधन्वा का वध करने के पश्चात् श्रीकृष्ण द्वारका लौट गए और अपनी पत्नी सत्यभामा को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने उनके पिता के हत्यारे शतधन्वा की मृत्यु की जानकारी दी, किन्तु उन्होंने सत्यभामा को यह भी बताया कि मणि उसके पास नहीं मिली । तदनन्तर धार्मिक विधि-विधानों के अनुसार सत्यभामा सहित श्रीकृष्ण ने अपने श्वसुर की मृत्यु के सम्मान में अनेक प्रकार के संस्कार सम्पन्न किए । उस संस्कार में परिवार के सभी मित्र और सम्बन्धी सम्मिलित हुए । सत्राजित के वध के षड़यंत्र के प्रमुख सदस्य अक्रूर जी तथा कृतवर्मा थे और उन्होंने ही शतधन्वा को उसके वध के लिए प्रेरणा दी थी । किन्तु जब उन्हें श्रीकृष्ण के हाथों शतधन्वा के वध की जानकारी प्राप्त हुई और जब उन्होंने सुना कि श्रीकृष्ण द्वारका लौट आए हैं, तब दोनों ने तत्काल द्वारका त्याग दिया । नगर से अक्रूर जी के अनुपस्थित होने के कारण द्वारका के नागरिकों को आशंका होने लगी कि अब महामारी फैलेगी और प्राकृतिक प्रकोप होगे । यह एक प्रकार का अन्धविश्वास था, क्योंकि जब भगवान् श्रीकृष्ण उपस्थित हों तो महामारी, दुर्भिक्ष अथवा प्राकृतिक उपद्रव नहीं हो सकते थे । किन्तु अक्रूर जी की अनुपस्थिति में द्वारका में कुछ उपद्रव हुए । एक बार वाराणसी की सीमा में काशी के प्रदेश में भयानक सूखा पड़ा और एकदम वर्षा नहीं हुई । उस समय काशी के राजा ने गादिनी नामक अपनी पुत्री का विवाह अक्रूर जी के पिता श्वफल्क के साथ निश्चित किया । काशी के राजा ने एक ज्योतिषी की सलाह पर ऐसा किया था । वास्तव में ऐसा हुआ कि श्वफल्क के साथ राजकन्या का विवाह होने के पश्चात् उस प्रदेश में पर्याप्त वर्षा हुई । श्वफल्क की इस शक्ति के कारण उनके पुत्र अक्रूर जी भी उन्हीं के समान शक्तिशाली समझे जाते थे । लोगों का ऐसा विश्वास था कि जहाँ कहीं भी अक्रूर जी अथवा उनके पिता रहेंगे, वहाँ पर अकाल अथवा सूखा आदि कोई भी प्राकृतिक उपद्रव नहीं होंगे । जहाँ पर अकाल, महामारी अथवा अत्यधिक शीत अथवा गर्मी नहीं होती है और जहाँ प्रजा मानसिक, आध्यात्मिक तथा शारीरिक रूप से सुखी समझी जाती है, वहाँ जैसे ही कोई उपद्रव होता है, लोग उसका कारण नगर से किसी मांगलिक व्यक्ति की अनुपस्थिति को समझते हैं । अतएव एक जनश्रुति फैली हुई थी कि अक्रूर जी की अनुपस्थिति के कारण अशुभ घटनाएँ हो रही हैं । अक्रूर जी के प्रस्थान के पश्चात् नगर के कुछ वयोवृद्ध सदस्यों ने यह भी देखा कि स्यमन्तक मणि की अनुपस्थिति के कारण भी अशुभ लक्षण दीख रहे हैं । जब भगवान् श्रीकृष्ण ने लोगों की फैलाई हुई यह जुनश्रुति सुनी, तब उन्होंने काशी राज्य से अक्रूर जी को बुलवाने का निश्चय किया । अक्रूर जी श्रीकृष्ण के चाचा थे, अतएव जब वे द्वारका लौटे तब भगवान् श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम गुरुजन के योग्य रीति से उनका स्वागत किया । श्रीकृष्ण सबके हृदय में निवास करने वाले परमात्मा हैं, उन्हें सबके मन की बात ज्ञात रहती है । उन्हें शतधन्वा के साथ अक्रूर जी के द्वारा किए गए षड़यंत्र से सम्बन्धित प्रत्येक घटना का ज्ञान था, अतएव मुस्कुराते हुए उन्होंने अक्रूर जी को सम्बोधित किया ।

अक्रूर जी को तेजस्वी नरों में प्रमुख कह कर सम्बोधित करते हुए श्रीकृष्ण ने कहा, "प्रिय चाचा ! मुझे पहले से ही ज्ञात है कि शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि आपके पास छोड़ी थी । सम्प्रति स्यमन्तक मणि का कोई उत्तराधिकारी नहीं है, क्योंकि राजा सत्राजित का कोई पुत्र नहीं है । उसकी पुत्री सत्यभामा इस मणि के लिए उत्सुक नहीं है, किन्तु उसका होने वाला पुत्र, सत्राजित का दौहित्र (नाती) होगा । उत्तराधिकार के विधि-विधानों के सम्पादन के पश्चात् वही इस मणि का नियमानुकूल उत्तराधिकारी होगा ।” भगवान् कृष्ण ने इस कथन से संकेत किया कि सत्यभामा उस समय गर्भवती थीं और उनका पुत्र ही मणि का वास्तविक अधिकारी होगा और वह निश्चय ही मणि को अक्रूर जी से ले लेगा ।

श्रीकृष्ण ने आगे कहा, "यह मणि इतनी शक्तिशाली है कि कोई सामान्य मानव इसे रखने में सफल नहीं होता है । मुझे ज्ञात है कि आप अत्यन्त पुण्यात्मा हैं, अतएव मणि को आपके पास रखे जाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है । केवल एक कठिनाई है और वह यह है कि मेरे ज्येष्ठ भ्राता श्रीबलराम को मेरी इस बात पर विश्वास नहीं है कि मणि आपके पास है । अतएव हे विशाल हृदय ! मेरी आपसे विनती है कि आप मेरे अन्य सम्बन्धियों के समक्ष वह मणि मुझे दिखा दें जिससे कि उन्हें शान्ति मिल जाए । आप यह अस्वीकार नहीं कर सकते हैं कि मणि आपके पास नहीं है, क्योंकि विभिन्न प्रकार की जनश्रुतियों से हमें ज्ञात हुआ है कि आपके ऐश्वर्य में वृद्धि हुई है और आप ठोस स्वर्ण से निर्मित वेदी पर यज्ञ करते हैं ।" उस मणि के गुण सर्वविदित थे-जहाँ कहीं भी वह मणि रहती थी, वह अपने रखने वाले के लिए प्रतिदिन लगभग नौ मन सोना उत्पन्न करती थी । अक्रूर जी को उसी अनुपात में स्वर्ण प्राप्त हो रहा था और वह यज्ञों के सम्पादन के समय अत्यन्त उदारता से स्वर्ण वितरित कर रहे थे । भगवान् श्रीकृष्ण ने अक्रूर जी के पास स्यमन्तक मणि होने के पक्ष में प्रमाण के रूप में उनके मुक्तहस्त से स्वर्ण खर्च करने का उदाहरण दिया ।

जब भगवान् श्रीकृष्ण ने मैत्रीपूर्ण शब्दों तथा मधुर भाषा में अक्रूर जी को वास्तविक तथ्य समझा दिया तथा अक्रूर जी समझ गए कि श्रीकृष्ण से कुछ भी गुप्त नहीं रखा जा सकता है, तब वे बहुमूल्य मणि ले आए । एक वस्त्र से आच्छादित तथा सूर्य के समान चमकती हुई मणि लाकर अक्रूर जी ने उसे श्रीकृष्ण के समक्ष प्रस्तुत किया । भगवान् कृष्ण ने स्यमन्तक मणि को अपने हाथ में ले लिया और वहाँ उपस्थित अपने सभी सम्बन्धियों तथा मित्रों को वह मणि दिखाई । तत्पश्चात् उन्होंने वह मणि उनकी उपस्थिति में ही पुन: अक्रूर जी को लौटा दी जिससे कि उन्हें ज्ञात रहे कि वास्तव में अकूर जी द्वारा वह मणि द्वारका नगर में ही रखी जा रही है स्यमन्तक मणि की यह कथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।

श्रीमद्-भागवत में कहा गया है कि स्यमन्तक मणि की इस कथा का जो श्रवण करता है, इसका वर्णन करता है, अथवा केवल स्मरण करता है, वह सभी प्रकार के कलंक तथा पापों से मुक्त हो जाएगा और इस प्रकार शान्ति की सर्वोच्च पूर्णता की स्थिति को प्राप्त करेगा ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “सत्राजित और शतधन्वा का उद्धार” नामक सत्तावनवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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