जब नन्द महाराज घर लौट रहे थे, तो उन्होंने वसुदेव द्वारा दी गई इस चेतावनी पर कि गोकुल में कुछ उत्पात हो सकता है विचार किया । निश्चय ही यह सलाह मैत्रीपूर्ण थी और असत्य न थी । अतः नन्द ने सोचा, “इसमें अवश्य ही कुछ न कुछ सच्चाई है ।” अतः ड़र में मारे वे भगवान् की शरण लेने लगे । संकट आने पर भक्त के लिए स्वाभाविक है कि वह कृष्ण का चिन्तन करें क्योंकि उसके लिए अन्य कोई आश्रय नहीं होता । जब शिशु संकट में होता है, तो अपने माता-पिता का आश्रय लेता है । इसी प्रकार भक्त सदैव भगवान् की शरण में रहता है, किन्तु जब उसे कोई विशेष संकट दिखता है, तो वह तुरन्त ईश्वर का स्मरण करता है । अपने मंत्रियों से मंत्रणा करने के बाद कंस ने पूतना नामक डाइन को, जो छोटे-छोटे बच्चों को अत्यन्त नृशंसतापूर्वक मारने का इन्द्रजाल जानती थी । आदेश दिया कि वह शहरों, ग्रामों तथा चरागाहों में जाकर सारे बच्चों का वध कर दे । ऐसी डाइनें अपना इन्द्रजाल वहीं फैला सकती है जहाँ कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन या श्रवण न होता हो । कहा जाता है कि जहाँ कहीं कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन होता है, चाहे वह उपेक्षा से ही क्यों न हो, वहाँ सारे बुरे तत्त्व- डाइनें, भूत-प्रेत तथा संकट- तुरन्त भाग जाते हैं ।
और जहाँ कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन गम्भीरता से होता हो, विशेष रूप से वृन्दावन में जहाँ परमेश्वर स्वयं उपस्थित थे, वहाँ तो यह सर्वथा सत्य है । अतः नन्द महाराज के सारे सन्देह निश्चित रूप से कृष्ण-प्रेम पर ही आधारित थे । वास्तव में पूतना में शक्ति होते हुए भी उसकी गतिविधियों से कोई भय न था । डाइनें “खेचरी” कहलाती हैं जिसका अर्थ है वे जो आकाश में उड़ सकती हैं । इस तरह का इन्द्रजाल आज भी कुछ स्त्रियों द्वारा भारत के दूरस्थ उत्तर पश्चिमी भाग में किया जाता है । वे उखड़े वृक्ष की शाखाओं पर बैठकर एक स्थान से दूसरे तक आ जा सकती है । पूतना को यह इन्द्रजाल ज्ञात था इसलिए भागवत में उसे “खेचरी” कहा गया है ।
पूतना किसी प्रकार की अनुमति के बिना ही गोकुल में नन्द के आवास महल में घुस गई । सुन्दर वस्त्रों से आभूषित होकर वह परम सुन्दरी के रूप में माता यशोदा के घर में गई । अपने उठे हुए नितम्बों, उन्नत स्तनों, कान की बालियों तथा केश में लगे फूलों से वह अतीव सुन्दर लग रही थी । अपनी पतली कमर से वह और भी सुन्दर बन गई थी । उसकी आकर्षक चितवन तथा मन्द मुस्कान से वृन्दावन के सारे वासी मोहित हो गए । भोली-भाली गोपियों ने सोचा कि वह हाथ में कमल पुष्प धारण किए वृन्दावन में आई साक्षात् लक्ष्मी देवी है । उन्हें लगा कि वह अपने पति कृष्ण को देखने के लिए स्वयं आई है । उसकी अपूर्व सुन्दरता के कारण उसे किसी ने नहीं रोका, अतः वह बिना रोकटोक के नन्द महाराज के घर में प्रविष्ट हो गई । अनेकानेक बालकों का वध करने वाली पूतना ने कृष्ण को पालने में लेटा देखा । वह तुरन्त समझ गई कि इस नन्हे बालक में अद्वितीय शक्ति है, जो राख से ढकी अग्नि की तरह छिपी है । उसने सोचा “यह बालक तो इतना शक्तिशाली है कि क्षण भर में सारे ब्रह्माण्ड को नष्ट कर सकता है ।” पूतना की समझ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित हैं । भगवद्-गीता में कहा गया है कि वे मनुष्य को आवश्यक बुद्धि प्रदान करने वाले तथा विस्मृति उत्पन्न करने वाले हैं । पूतना को तुरन्त पता चल गया कि जिस बालक को वह नन्द के घर में देख रही है, वह साक्षात् श्रीभगवान् है । वे वहाँ नन्हे बालक के रूप में लेटे थे, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं था कि वे कम शक्तिशाली थे । यह भौतिकवादी सिद्धान्त, कि ईश्वर-पूजा विकासवादी है, ठीक नहीं है । कोई भी मनुष्य ध्यान या तपस्या द्वारा ईश्वर नहीं बन सकता । ईश्वर सदैव ईश्वर रहता है । कृष्ण बालक के रूप में उतना ही पूर्ण है जितना एक विकसित युवक । मायावादी सिद्धान्त के अनुसार जीवात्मा प्रारम्भ में ईश्वर था, किन्तु अब वह माया के प्रभाव से अभिभूत हो गया है । अतः मायावादी मानते हैं कि इस समय वह ईश्वर नहीं है, किन्तु माया का प्रभाव हटा लेने पर वह पुनः ईश्वर हो जाता है । यह सिद्धान्त सूक्ष्म जीवात्माओं पर लागू हो सकता । जीवात्माएँ श्रीभगवान् के क्षुद्र अंश हैं, वे मूल अग्नि के क्षुद्र अंश या चिनगारियाँ हैं । अतः वे माया के प्रभाव से ढ़के जा सकते हैं, किन्तु कृष्ण नहीं । कृष्ण तो श्रीभगवान् हैं, यहाँ तक कि वसुदेव तथा देवकी के घर में जन्म लेने के समय से ही कृष्ण श्रीभगवान् हैं ।
कृष्ण ने बाल-स्वभाव दिखाया और अपनी आँखें बन्द कर लीं मानो वे पूतना को न देखना चाह रहे हों । भक्तगण उनके नेत्रों के बन्द होने की तरह-तरह से व्याख्या करते हैं । कुछ का कहना है कि कृष्ण ने इसलिए अपनी आँखें बन्द कर लीं, क्योंकि वे उस पूतना का मुँह नहीं देखना चाहते थे, जिसने अनेक बालकों का वध कर दिया था और अब उन्हें भी मारने आई थी । अन्यों का कहना है कि उसे अन्दर से कुछ अद्वितीय बातें ज्ञात हो रही थीं और उसे विश्वास दिलाने के लिए उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं जिससे वह भयभीत न हो । इतने पर भी कुछ दूसरे लोग इस प्रकार व्याख्या करते हैं :- कृष्ण का अवतार असुरों का वध करने और भक्तों की रक्षा करने के लिए हुआ, जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है- परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । इस प्रकार उन्होंने जिस प्रथम असुर का वध करना था, वह एक स्त्री थी । वैदिक नियमों के अनुसार, स्त्री, ब्रह्मण, गाय या बालक का वध करना वर्जित है । किन्तु कृष्ण को बाध्य होकर पूतना का वध करना पड़ा और चूँकि स्त्री-वध शास्त्रोचित नहीं है इसीलिए श्रीकृष्ण के पास आँखें बन्द करने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा न था । एक दूसरी व्याख्या यह है कि कृष्ण ने इसलिए आँखें बन्द कर लीं, क्योंकि वे पूतना को मात्र अपनी धाय के रूप में मान रहे थे । पूतना कृष्ण के पास स्तनपान कराने आई थी । कृष्ण इतने कृपालु हैं कि यह जानते हुए भी कि पूतना उन्हें मारने आई है उन्होंने उसे अपनी धाय या माता के रूप में देखा ।
वैदिक मान्यता है कि माताएँ सात प्रकार की होती है-सगी माता, गुरु-पत्नी, रानी, ब्रह्मणी, गाय, धाय तथा पृथ्वी । चूँकि पूतना कृष्ण को अपनी गोद में लेकर स्तनपान कराने आई थी, अतः कृष्ण ने उसे अपनी माता के रूप में स्वीकार किया । यह एक अन्य कारण समझा जाता है । कि कृष्ण ने अपनी आँखें बन्द कर लीं । अब उन्हें धाय या माता का वध करना था, इसीलिए उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं । किन्तु उन्होंने अपनी माता या धाय के वध करने तथा अपनी सगी माता या धर्ममाता यशोदा के प्रति प्यार करने में कोई अन्तर नहीं रखा । हमें वेदों से यह भी जानकारी मिलती है कि पूतना के साथ भी मातृवत व्यवहार किया गया और यशोदा के साथ ही इस संसार से मुक्ति प्राप्त हुई । जब बालक कृष्ण ने आँखें बन्द कर लीं, तो पूतना ने उन्हें अपनी गोद में उठा लिया । उसे यह ज्ञात न था कि वह साक्षात् मृत्यु को पकड़े हुए है । यदि मनुष्य धोखे से रस्सी को सर्प मान बैठता है, तो उसकी मृत्यु हो जाती है इसी प्रकार कृष्ण से भेंट होने के पूर्व पूतना अनेक बालकों का वध कर चुकी थी, और उसने कृष्ण को भी उन जैसा ही समझा; किन्तु अब वह एक साँप को पकड़ने जा रही थी , जो उसे तुरन्त मार देगा ।
जब पूतना बालक कृष्ण को गोद में ले रही थी, तो यशोदा तथा रोहिणी दोनों ही वहाँ उपस्थित थीं, किन्तु उन्होंने उसे मना नहीं किया, क्योंकि वह सुन्दर वस्त्रों से आभूषित थी और कृष्ण के प्रति मातृ-प्रेम प्रदर्शित कर रही थीं । वे यह न समझ पाईं कि वह एक अलंकृत म्यान के भीतर छिपी तलवार की भाँति है । पूतना ने अपने स्तनों में घातक विष लगा रखा था और गोद लेते ही उसने अपने चुचूक कृष्ण के मुख में लगा दिये । उसे आशा थी कि ज्योंही वह उसके स्तनों का पान करेगा त्योंही वह मर जाएगा । किन्तु कृष्ण ने क्रुद्ध होकर तुरन्त मुँह में चूचुक लगा लिया । उन्होंने विषयुक्त दूध के साथ उस असुरनी के प्राण भी चूस लिये । दूसरे शब्दों में, दूध पीने के साथ ही उन्होंने पूतना के प्राण भी चूस लिये । कृष्ण इतने दयालु हैं कि जब पूतना अपना पय-पान कराने आई तो उन्होंने उसकी मनोकामना पूरी की और उसके इस कार्य को माता का-सा आचरण माना । किन्तु वह और अधिक दुष्ट कार्य न करें, इसलिए उन्होंने तुरन्त ही उसे मार डाला । चूँकि यह असुरनी कृष्ण द्वारा मारी गई, अतः उसे मोक्ष प्राप्त हुआ । जब कृष्ण ने उसकी छाती को अत्यन्त बलपूर्वक दबाया और उसके प्राण हर लिए तो वह भूमि पर गिर पड़ी और अपने हाथ-पैर फैलाकर चिल्लाने लगी, “मुझे छोड़ दो ! मुझे छोड़ दो !” वह जोर से चिल्ला रही थी और उसका सारा शरीर पसीने से तर था ।
जब रुदन करती पूतना मर गई, तो चारों ओर पृथ्वी तथा आकाश में उच्च तथा निम्न लोकों में तथा सभी दिशाओं में भयानक कम्पन हुआ और लोगों ने सोचा कि कोई वज्रपात हुआ है । इस प्रकार पूतना के इन्द्र जाल का दुःस्वप्न दूर हुआ और उसने एक विराट असुरनी जैसा अपना वास्तविक स्वरूप धारण कर लिया । उसने अपना भयानक मुँह खोल दिया और अपने हाथ पैर फैला दिये । वह उसी प्रकार गिर पड़ी जिस प्रकार इन्द्र के वज्र-प्रहार से वृत्रासुर गिर पड़ा था । उसके सिर के लम्बे-लम्बे केश उसके पूरे शरीर पर बिखर गए । उसका गिरा हुआ शरीर बारह मील तक फैला था जिसके गिरने से सभी वृक्ष चूर-चूर हो गए थे । जिस किसी ने उसके विशाल शरीर को देखा वह आश्चर्यचकित था । उसके दाँत खुदी हुई सड़कें लग रहे थे और उसके नथुने पर्वत-कन्दराओं के समान प्रतीत हो रहे थे । उसके स्तन छोटी-छोटी पहाड़ियों जैसे लग रहे थे और उसके केश विशाल लाल रंग झाड़ी के समान थे । उसकी आँख के गड्ढे अंधकूपों के तुल्य, दोनों जाँघें नदी के दोनों किनारों के सदृश, उसके दोनों हाथ दृढ़ निर्मित सेतुओं के समान तथा उसका उदर सूखें सरोवर की तरह लग रहा था । इसे देखकर सारे ग्वाले तथा गोपियाँ आश्चर्य एवं भय से चकित थीं । उसके गिरने से जो घोर शोर हुआ उससे उनके मस्तिष्क तथा कानों पर आघात लगा और उनके हृदय तेजी से धड़कने लगें ।
जब गोपियों ने नन्हे कृष्ण को पूतना की गोदी में निर्भय खेलते पाया, तो वे तुरन्त आ गईं और उन्हें उठा लिया । माता यशोदा, रोहिणी तथा अन्य वृद्धा गोपियों ने तुरन्त ही चँवर लेकर उनके शरीर की परिक्रमा करते हुए शुभ अनुष्ठान सम्पन्न किए । बालक को गोमूत्र से पूरी तरह नहलाया गया तथा पूरे शरीर में गोखुर से उठी धूलि लगाई गई । इसका उद्देश्य नन्हे कृष्ण को भविष्य की अशुभ घटनाओं से बचाना था । इस घटना से पता चलता है कि परिवार, समाज तथा प्राणी मात्र के लिए गाय की कितनी महत्ता है । कृष्ण के दिव्य शरीर के लिए किसी संरक्षण आवश्यकता नहीं थी, किन्तु हमें गऊ की महत्ता का उपदेश देने के लिए भगवान् के ऊपर गोबर का लेप किया गया, गोमूत्र से उन्हें नहलाया गया और गायों के चलने से उठी धूलि उनपर छिड़की गई ।
इस शुद्धिकरण (संस्कार) के बाद यशोदा, रोहिणी समेत गोपियों ने विष्णु के नामों का उच्चारण किया जिससे कृष्ण के शरीर को समस्त कुप्रभावों से पूरी-पूरी सुरक्षा प्राप्त हो सके । उन्होंने अपने हाथ-पैर धोये और तीन बार जल का आचमन किया जैसाकि मंत्रोच्चार के पूर्व करने का रिवाज है । उन्होंने इस प्रकार मंत्रोच्चार किया, “हे कृष्ण ! मणिमान भगवान् आपके घुटनों की और भगवान् यज्ञ आपकी जाँघों की रक्षा करें; अज नाम से विख्यात भगवान् विष्णु आपके पाँवों की रक्षा करें । भगवान् अच्युत आप की कमर के ऊपर भाग की और भगवान् हयग्रीव आपके उदर की रक्षा करें । केशव आपके हृदय की रक्षा करें; भगवान् ईश आपके वक्षस्थल की रक्षा करें; भगवान् सूर्य आपकी गर्दन की और भगवान् विष्णु आपकी भुजाओं की रक्षा करें । भगवान् उरुक्रम आपके मुख की रक्षा करें; भगवान् ईश्वर आपके सिर की रक्षा करें; भगवान् चक्रधर आपके आगे से तथा भगवान् गदाधर आपके पीछे से रक्षा करें । धनुषधारी भगवान् मधुसूदन आपकी दाईं ओर से और भगवान् अजन आपकी बाईं ओर की रक्षा करें; भगवान् उरुगाय अपने शंख से आप की सभी ओर से रक्षा करे; भगवान् उपेन्द्र आपकी ऊपर से रक्षा करें; भगवान् तार्क्ष्य पृथ्वी पर आपकी रक्षा करें; भगवान् हलधर आपकी चारों ओर से रक्षा करें; भगवान् हृषीकेश आपकी समस्त इन्द्रियों की रक्षा करें; भगवान् नारायण आपके श्वास की और श्वेतद्वीप के स्वामी नारायण आपके हृदय की और योगेश्वर मन की रक्षा करें; पृश्निगर्भ आपकी बुद्धि की रक्षा करे और श्रीभगवान् आपकी आत्मा की रक्षा करें । आपके खेलते समय भगवान् गोविन्द आपकी चारों दिशाओं से रक्षा करें और जब आप सो रहे हों, तो भगवान् माधव आपकी सारे संकटों से रक्षा करें; जब आप चल-फिर रहे हों, तो वैकुण्ठ के स्वामी आपको नीचे गिरने से बचाएँ; जब आप बैठे हों, तो भगवान् नारायण आपको सारी सुरक्षा प्रदान करें और जब आप खा रहे हों, तो समस्त यज्ञों के स्वामी आपकी सभी प्रकार से रक्षा करें ।” इस तरह माता यशोदा बालक के शरीर के विभिन्न अंगों की रक्षा के लिए विष्णु के विविध नामों का उच्चारण करने लगीं । माता यशोदा का दृढ़ विश्वास था कि वे अपने पुत्र की रक्षा डाकिनियों, यातुधानियों, कुष्मांडों, यक्षों, राक्षसों, विनायकों, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृकाओं, उन्मादों तथा इसी प्रकार के अन्य भूत-प्रेतों से कर सकेंगी, जो मनुष्यों को उनके निजी अस्तित्त्व के बारे में भुला देते हैं तथा प्राणों एवं इन्द्रियों को कष्ट पहुँचाते हैं । ये कभी-कभी स्वप्न में आते हैं और उत्पात मचाते हैं, तो कभी ये वृद्धा स्त्रियों के रूप में प्रकट होकर नन्हे-मुन्ने बालकों का रक्त चूसते हैं । किन्तु जहाँ भगवन्नाम का कीर्तन होता रहता है, वहाँ पर ये भूत-प्रेत ठहर नहीं पाते । माता यशोदा को गायों तथा विष्णु के पवित्र नाम की वैदिक आदेशों के विषय में दृढ़ विश्वास था, अतः उन्होंने अपने पुत्र कृष्ण की रक्षा के लिए इन दोनों की शरण ग्रहण कीं । उन्होंने विष्णु के समस्त नामों का उच्चारण किया जिससे वे अपने पुत्र की रक्षा करें । वैदिक संस्कृति में आदि काल से गोपालन तथा विष्णु नाम के कीर्तन पर बल दिया गया है और आज भी ऐसे व्यक्ति, जो वैदिक प्रणाली का अनुगमन करते हैं, विशेषतया गृहस्थ लोग, कम से कम एक दर्जन गायें पालते हैं और अपने घर में स्थापित भगवान् विष्णु के अर्चाविग्रह की पूजा करते हैं । जो लोग कृष्णभावनामृत में उन्नति कर रहे हैं, उन्हें इस कार्यकलाप से पाठ सीखना चाहिए और गायों तथा विष्णु के शुभ नाम में रुचि लेनी चाहिए ।
वृन्दावन की वयस्क गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में इतनी लीन थीं कि वे कृष्ण को हर तरह से बचाना चाहती थीं, यद्यपि उन्हें इसकी आवश्यकता न थी क्योंकि उन्होंने अपने को पहले से सुरक्षित कर रखा था । वे यह नहीं समझ पाईं कि कृष्ण श्रीभगवान् थे, जो बालक रूप धारण किए क्रीड़ा कर रहे थे । बच्चों के रक्षा सम्बन्धी अनेक औपचारिकताओं के बाद माता यशोदा ने कृष्ण को अपनी गोद में लेकर अपना दूध पिलाया । जब बालक की विष्णु-मंत्र से रक्षा कर ली गयी, तो माता यशोदा को लगा कि वह सुरक्षित है । इसी बीच, सारे ग्वाले, जो कर जमा करने मथुरा गए थे लौट कर घर आए, तो वे सब पूतना के विशाल मृत शरीर को देखकर स्तम्भित रह गए ।
नन्द महाराज को वसुदेव की भविष्यवाणी स्मरण हो आईं और वे उन्हें एक ॠषि तथा योगी मानने लगे, अन्यथा वे यह कैसे बता सकते थे कि वृन्दावन से मेरी अनुपस्थिति की अवधि में कोई घटना होने वाली है । इसके बाद व्रज के समस्त वासियों ने पूतना के विशाल शरीर के खण्ड़-खण्ड़ कर डाले और उसे जलाने के उद्देश्य से लकड़ी की चिता बना दी । जब पूतना के शरीर के अंग जल रहे थे, तो अग्नि से उठे धुएँ से अगुरु की सुगन्ध छा रही थी । यह सुगन्ध कृष्ण द्वारा वध किए जाने के कारण थी । इसका अर्थ यह हुआ कि असुरनी पूतना के सारे पाप धुल गए थे और उसे स्वर्गिक शरीर प्राप्त हो गया था । यहाँ ऐसा उदाहरण प्राप्त होता है कि भगवान् कितने सर्वकल्याणकारी हैं- पूतना कृष्ण को मारने आई थी, किन्तु चूँकि उन्होंने उसका दुग्धपान किया था, अतः वह तुरन्त पवित्र हो गई और उसके मृत शरीर को दिव्य गुण प्राप्त हुआ । उसका एकमात्र कार्य छोटे-छोटे बालकों को मारना था; उसे केवल रक्त प्रिय था । किन्तु कृष्ण के प्रति द्वेष रखते हुए भी उसे मोक्ष प्राप्त हुआ क्योंकि उसने कृष्ण को अपना दूध पिलाया था । अतः उन लोगों के विषय में क्या कहा जाये जो माता के रूप में कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं और जो अत्यन्त प्रेमपूर्वक सदा उनकी सेवा करते हैं, जो हर जीव के परमात्मा हैं और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं ?
इससे यह निष्कर्ष निकला कि भगवान् की सेवा में लगाई गई अल्प शक्ति भी अपार दिव्य लाभ प्रदान करने वाली है । इसकी व्याख्या भगवद्-गीता में की गई है- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् । कृष्णचेतना में की गई भक्ति इतनी दिव्य है कि जाने-अनजाने कृष्ण की थोड़ी सी भी सेवा से बड़ा लाभ प्राप्त होता है । किसी वृक्ष के पुष्प अर्पित करके कृष्ण की पूजा करना भी उस जीवात्मा के लिए लाभप्रद है, जो वृक्ष के अस्तित्त्व तक सीमित है । जब कृष्ण को फूल और फल अर्पित किए जाते हैं, तो अप्रत्यक्ष रूप से उस वृक्ष को भी लाभ पहुँचता है, जिसमें वे फल-फूल लगे थे । अतः अर्चना विधि हर एक के लिए लाभप्रद हैं कृष्ण ब्रह्मातथा शिव जैसे महान् देवों द्वारा पूज्य हैं और पूतना इतनी भाग्यशालिनी थी कि वही कृष्ण बालक रूप में उसकी गोदी में खेले । श्रीकृष्ण के वे ही चरणकमल जो ॠषियों तथा भक्तों द्वारा आराध्य हैं पूतना के शरीर पर पड़े । लोग कृष्ण की पूजा करके भोजन की भेंट चढ़ाते हैं, किन्तु उन्होंने तो पूतना के शरीर से स्वतः दुग्धपान किया । इसीलिए भक्तगण प्रार्थना करते हैं कि यदि पूतना जैसी शत्रुणी केवल दूध पिला करके इतना लाभ प्राप्त कर सकती हैं, तो फिर प्यार तथा स्नेह से कृष्ण की पूजा से प्राप्त होने वाले लाभ का अनुमान भला कौन लगा सकता है ।
यदि पूजा करने वाले को इतना लाभ हो सकता है, तो फिर मनुष्य को चाहिए कि केवल कृष्ण की ही पूजा करें । यद्यपि पूतना दुष्टात्मा थी, किन्तु उसे भगवान की माता के समान उच्च पद प्राप्त हुआ । अतः यह स्पष्ट है कि गायें तथा वयस्क गोपियाँ भी जो कृष्ण को दूध देती थीं दिव्य पद को प्राप्त हुईं । कृष्ण किसी को भी कुछ भी, मुक्ति से लेकर कोई भी कल्पनीय भौतिक वस्तु दे सकते हैं । अतः वे जिस पूतना के शरीर का दुग्धपान करते रहे, उसके मोक्ष के सम्बन्ध में कोई सन्देह नहीं हो सकता । और उन गोपियों के मोक्ष के सम्बन्ध में क्या सन्देह हो सकता है जिन्हें कृष्ण इतने प्रिय थे ? निस्सन्देह जिन समस्त गोपियों तथा ग्वालों एवं गायों ने वृन्दावन में अत्यन्त प्रेम तथा स्नेह से कृष्ण की सेवा की वे सब इस भौतिक संसार की दयनीय दशा से मुक्त हो गए ।
जब समस्त वृन्दावनवासियों की नाकों में पूतना के जलने से उत्पन्न धुएँ की सुगन्ध गई, तो वे एक दूसरे से पूछने लगे, यह सुगन्ध कहाँ से आ रही है ? और बातचीत के दौरान ही उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह सुगन्ध पूतना के जलने से उठे धुएँ की है । कृष्ण उन्हें प्राणों से प्रिय थे और जैसे ही उन्होंने सुना कि कृष्ण द्वारा पूतना का वध हुआ हैं, तो सब ने प्रेमवश उस बालक को आशीष दिया । पूतना के जल जाने के पश्चात् नन्द महाराज घर आए और तुरन्त ही बच्चे को गोद में उठाकर उसका सिर चूमा । इस प्रकार वे परम सन्तुष्ट हुए कि उनका नन्हा-सा बालक इस महान् विपदा से बच गया । श्री शुकदेव गोस्वामी उन समस्त व्यक्तियों को आशीर्वाद देते हैं, जो कृष्ण द्वारा पूतना वध के इस वृतान्त को सुनते हैं, क्योंकि उन्हें निश्चय ही गोविन्द के वरदान की प्राप्ति होगी ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “पूतना वध” नामक छठे अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ है ।
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