बहुत समय पूर्व एक बार ब्रह्मा से लेकर तुच्छ चींटी तक समस्त जीवों को ज्ञान प्रदान करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी के शयन-कक्ष में विराजमान थे । अपनी सहायिका दासियों सहित वे भगवान् की सेवा में संलग्न थीं । श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलंग पर बैठे हुए थे और दासियाँ उनको चामर डुला रही थीं । भगवान् श्रीकृष्ण का रुक्मिणीजी के साथ एक आदर्शपति की भाँति व्यवहार श्रीभगवान् की परम पूर्णता की आदर्श अभिव्यक्ति है । ऐसे अनेक दार्शनिक हैं, जो पूर्ण सत्य के ऐसे विचार को प्रतिपादित करते हैं जिसमें ईश्वर यह अथवा वह नहीं कर सकता । वे ईश्वर अथवा पूर्ण सत्य के मानव-रूप में अवतार को अस्वीकार करते हैं । किन्तु वास्तव में तथ्य भिन्न है । भगवान् हमारे अपूर्ण ऐन्द्रिय कार्यकलापों के भागी नहीं हो सकते हैं । वे सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक श्रीभगवान् हैं । वे अपनी इच्छा से न केवल समस्त सृष्टि की रचना, पालन एवं संहार कर सकते हैं, अपितु सर्वोच्च ध्येय की पूर्ति के हेतु वे साधारण मानव की भाँति अवतरित भी हो सकते हैं । जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है कि जब भी मानवों के वृत्तिपरक कार्यों की (धर्म की) पूर्ति में असामंजस्य (हास) होता है, वे अवतरित होते हैं । कोई बाह्य सत्ता उन्हें अवतरित होने के लिए बाध्य नहीं करती है । मानवों के कार्यकलापों के आदर्श को स्थापित करने के लिए तथा साथ ही साथ मानव-सभ्यता की प्रगति में बाधा डालने वाले तत्वों के विनाश के लिए वे स्वयं अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा अवतरित होते हैं । श्रीभगवान् की दिव्य लीलाओं के इस सिद्धान्त के अनुसार वे अपने शाश्वत श्रीकृष्ण रूप में यदुवंश में अवतरित हुए । रुक्मिणी जी के महल की साज-सज्जा अद्भुत थी । छत पर अनेक चन्दोवे लटके हुए थे, जिनमें मोतियों की मालाओं से सज्जित झालरें लगी हुई थीं । सम्पूर्ण महल मूल्यवान रत्नों की कान्ति से प्रकाशित था । भारत में सर्वाधिक सुगन्धित माने जाने वाले पुष्प बेला और चमेली की अनेक वाटिकाएँ महल में थीं । इन पौधों के कई समूह थे जिसमें खिलते हुए पुष्प महल के सौन्दर्य में वृद्धि कर रहे थे । पुष्पों की मधुर गन्ध के कारण वृक्षों के चारों ओर गुंजन करती हुई मधुमक्खियों के छोटे-छोटे समूह मंड़रा रहे थे । रात्रि में झरोखों की जाली से मुदित करने वाली चन्द्रिका छन-छन कर आती थी । वहाँ पुष्पों से लदे हुए अनेक पारिजात के वृक्ष थे और मन्द समीर पुष्पों की सुगन्ध को चारों ओर फैला रहा था । महल की चारदिवारी के अन्दर धूप जल रहा था और उसका सुगन्धित धुंआ झरोखों की जालियों में से बाहर निकल रहा था ।
कक्ष में दुग्ध फेन के समान धवल चादरों से ढँके गद्दे थे । शैय्या इतनी मृदु एवं धवल थी, जैसे दुग्ध फेन हो । इस स्थिति में भगवान् श्रीकृष्ण अत्यन्त सुखपूर्वक बैठे हुए थे और दासियों की सहायता से रुक्मिणी जी उनकी सेवा का आस्वादन कर रही थीं । भगवान् रुक्मिणी जी की सेवा का आनन्द उठा रहे थे ।
रुक्मिणी जी भी पति के रूप में श्रीभगवान् की सेवा का अवसर प्राप्त करने के लिए अतिशय उत्सुक थीं । अतएव वे स्वयं भगवान् की सेवा करना चाहती थीं अत: दासी के हाथ से चामर की मूठ ले कर वे स्वयं पंखा डुलाने लगीं । चामर की मूठ स्वर्णनिर्मित थी और उसमें अनेक मूल्यवान रत्न जड़े हुए थे । रुक्मिणी जी की सभी उँगलियाँ रत्नजटित अँगूठियों से सुशोभित थीं, अत: उनके करकमलों में आकर चामर की मूठ और भी अधिक शोभायमान् हो उठी । उनके पैरों में पायल थी और उसमें रत्न लगे हुए थे, उनकी साड़ी की चुन्नटों के मध्य पायल के घुंघरू मधुर स्वर में बज उठते थे । रुक्मिणीजी के उन्नत स्तन कुंकुम तथा केसर से मण्डित थे । इस प्रकार के वस्त्र से ढँके हुए स्तनों से निकलने वाले रक्तिम प्रतिबिम्ब के द्वारा उनके सौन्दर्य में वृद्धि हो रही थी । उनके नितम्बों का अतिशय उन्नत कटि-प्रदेश रत्नजटित मेखला से सज्जित था और उनके कंठ में अतिशय कान्ति वाला हार शोभायमान् था । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि, यद्यपि उनकी आयु इतनी हो चुकी थी कि उनके बड़े-बड़े पुत्र होते, तथापि भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में संलग्न होने के कारण उनका सुन्दर शरीर तीनों लोकों में अतुलनीय था । जब हम उनके सुन्दर मुख का ध्यान करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि उनके सिर के कुंचित केश, उनके कानों के सुन्दर कर्णफूल, उनका सस्मित मुख और उनकी स्वर्णमाला, सब मिल कर अमृत वर्षा कर रहे हों । यह निश्चित रूप से सिद्ध हो जाता है कि रुक्मिणी जी भगवान् श्रीनारायण के चरणकमलों की सेवा में सदैव संलग्न रहने वाली मूल लक्ष्मीजी के अतिरिक्त और कोई नहीं थीं ।
महाजनों ने श्रीकृष्ण तथा रुक्मिणीजी की द्वारका की लीलाओं को श्रीनारायण एवं लक्ष्मीजी की अभिव्यक्ति माना है, जो ऐश्वर्य से परिपूर्ण हैं । वृन्दावन में श्रीराधाकृष्ण लीलाएँ सरल तथा ग्राम्य हैं और द्वारका की लीलाओं की सुसंस्कृत विशेषताओं से भिन्न हैं । रुक्मिणीजी के विशिष्ट गुण असामान्य रूप से उज्ज्वल थे और श्रीकृष्ण उनके व्यवहार से अत्यधिक सन्तुष्ट थे ।
श्रीकृष्ण ने अनुभव किया था कि जब नारद मुनि ने रुक्मिणी जी को एक पारिजात पुष्प अर्पित किया था, तब सत्यभामा अपनी सौत के प्रति विद्वेष से भर गई थीं और तत्काल उन्होंने श्रीकृष्ण से एक वैसे ही पुष्प की माँग की थी । वस्तुतः वे तब तक सन्तुष्ट नहीं हुई जब तक श्रीकृष्ण ने उन्हें पारिजात का एक पूर्ण वृक्ष देने का वचन नहीं दे दिया था । अन्तत: श्रीकृष्ण ने अपना वचन पूरा किया और स्वर्गलोक से वे एक वृक्ष पृथ्वी लोक पर ले आए । इस घटना के उपरान्त श्रीकृष्ण को आशा थी कि सत्यभामा को पारिजात का एक पूर्ण वृक्ष दिए जाने पर रुक्मिणी जी किसी न किसी वस्तु की माँग करेंगी । किन्तु रुक्मिणी जी ने उस घटना की कोई चर्चा ही नहीं की, क्योंकि वे स्वभावत: गम्भीर प्रकृति की थीं और अपनी सेवा में ही सन्तुष्ट थीं । श्रीकृष्ण उन्हें किंचित् रुष्ट देखना चाहते थे, अतएव उन्होंने रुक्मिणी जी के सुन्दर मुख को रुष्टावस्था में देखने के लिए चाल चली । यद्यपि श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ से भी अधिक रानियाँ थीं, वे प्रत्येक से कौटुम्बिक स्नेहपूर्वक व्यवहार करते थे । वे अपने तथा अपनी पत्नी के मध्य ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर देते थे जिसमें पत्नी मान-वश उनकी आलोचना करे और श्रीकृष्ण उसका आनन्द उठाते थे । इस मामले में श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी में कोई दोष न ढूँढ सके, क्योंकि वे महान् थीं और सदैव उनकी सेवा में संलग्न रहती थीं, अतएव अतिशय प्रेमपूर्वक मुस्कराते हुए वे उनसे कहने लगे । रुक्मिणी जी राजा भीष्मक की पुत्री थीं, जो कि एक बलवान राजा थे । अत: श्रीकृष्ण ने उन्हें रुक्मिणी न कह कर इस बार उन्हें राजकन्या कह कर सम्बोधित किया-"प्रिय राजकन्या ! यह कितने आश्चर्य की बात है कि राजवंशों के अनेक महान् सदस्य तुमसे विवाह करना चाहते थे । यद्यपि उनमें से सभी राजा नहीं थे तथापि सबके पास राजोचित ऐश्वर्य था । वे शिष्ट व्यवहार वाले, विद्वान राजाओं में विख्यात, शारीरिक रूप से सुन्दर और व्यक्तिगत रूप से योग्य थे । वे सभी उदार, बलवान् तथा प्रत्येक दृष्टि से प्रगतिशील थे । वे किसी भी प्रकार से अयोग्य नहीं थे और सबसे बड़ी बात यह कि तुम्हारे पिता तथा भाई को इन विवाहों पर कोई आपत्ति नहीं थी । इसके विपरीत उन्होंने शिशुपाल से तुम्हारा विवाह करने का वचन दिया था और इस विवाह को तुम्हारे माता-पिता की सहमति प्राप्त थी । शिशुपाल एक महान् राजा था और तुम्हारे सौन्दर्य के पीछे इतना कामुक तथा उन्मत था कि यदि तुमसे उसका विवाह हो जाता, तो मेरा विचार है कि वह सदैव तुम्हारा आज्ञाकारी दास बन कर रहता ।
“अनेक व्यक्तिगत गुणों से युक्त शिशुपाल की तुलना में मैं कुछ भी नहीं हूँ । तुम भी स्वयं यह तथ्य समझती होगी । मुझे आश्चर्य है कि तुमने शिशुपाल से विवाह न करके मुझे स्वीकार किया, जो तुलना में शिशुपाल से हीन है । मेरे विचार से मैं पूर्णरूप से तुम्हारा पति होने के अयोग्य हूँ, क्योंकि तुम इतनी सुन्दर, शान्त, गम्भीर तथा श्रेष्ठ हो । क्या मैं तुमसे वह कारण पूछ सकता हूँ जिसने तुमको मुझे स्वीकार करने को प्रेरित किया ? वस्तुत: अब मैं तुन्हें अपनी सुन्दरी पत्नी कह कर सम्बोधित कर सकता हूँ किन्तु फिर भी मैं तुम्हें अपने वास्तविक पद से अवगत करा दूँकि मैं तुमसे विवाह करने के लिए इच्छुक उन सभी राजाओं से हीन हूँ ।
"सर्वप्रथम तुम्हें ज्ञात है कि मैं जरासन्ध से इतना भयभीत था कि मुझे धरती पर निवास करने का साहस नहीं था और इस प्रकार मैंने सागर के भीतर इस भवन का निर्माण किया है । यह गुप्त तथ्य लोगों पर प्रकट करने का कार्य मेरा नहीं है, किन्तु तुम्हें अवश्य ज्ञात होना चाहिए कि मैं बहुत शूरवीर नहीं हूँ, मैं कायर हूँ और उन लोगों से ड़रता हूँ । फिर भी मैं सुरक्षित नहीं हूँ, क्योंकि धरती के सभी राजा मुझसे वैर रखते हैं । अनेक प्रकार से उनसे युद्ध करके मैंने स्वयं इस वैर को मोल लिया है । दूसरा दोष यह है कि यद्यपि मैं द्वारका के सिंहासन पर आसीन हूँ किन्तु मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं है । अपने मामा कंस को मार कर यद्यपि मुझे एक राज्य की प्राप्ति हुई थी, तथापि वह राज्य मेरे नाना का था, अतएव वास्तव में मेरा कोई राज्य नहीं है । इसके अतिरिक्त जीवन में मेरा कोई निश्चित लक्ष्य नहीं है । लोग मुझे भली-भाँति समझ नहीं पाते हैं । मेरे जीवन का चरम लक्ष्य क्या है ? उन्हें भलीभाँति ज्ञात है कि मैं वृन्दावन में एक गोप बालक था । लोगों को अपेक्षा थी कि मैं अपने पिता नन्द महाराज के चरणचिह्नों पर चलूँगा और श्रीमती राधारानी और वृन्दावन ग्राम की उनकी अन्य सखियों के प्रति सत्यनिष्ठ रहूँगा । किन्तु अचानक ही मैंने उन्हें छोड़ दिया । मैं एक प्रसिद्ध राजा बनना चाहता था । फिर भी मुझे न तो राज्य प्राप्त हुआ और न मैं राजा की भाँति शासन कर सका । लोगों को मेरे जीवन के चरम लक्ष्य के विषय में भ्रम उत्पन्न हो गया है । वे समझ नहीं पाते हैं कि मैं गोप बालक हूँ ।अथवा एक राजकुमार, मैं नन्द महाराज का पुत्र हूँ, अथवा वसुदेव जी का । जीवन में मेरा कोई निश्चित लक्ष्य न होने के कारण लोग मुझे घुमकड़ कह सकते हैं । अतएव मैं चकित हूँ कि तुमने एक ऐसा घुमक्कड़ पति किस प्रकार चुना ?
"इसके अतिरिक्त, सामाजिक शिष्टाचार में भी मैं पटु नहीं हूँ । एक व्यक्ति को एक पत्नी से सन्तुष्ट रहना चाहिए, किन्तु तुम देख ही रही हो कि मैंने अनेक विवाह किए हैं और मेरी सोलह हजार से भी अधिक पत्नियाँ हैं । एक निपुण पति की भाँति मैं उन सबको प्रसन्न नहीं रख सकता हूँ । उनके साथ मेरा व्यवहार बहुत अच्छा नहीं है और तुम्हें इस बात का भली-भाँति ज्ञान है । कभी-कभी मैं अपनी पत्नियों के साथ ऐसी स्थिति ला देता हूँ, जो सुखदायक नहीं होती है । बचपन में मेरी शिक्षा एक गाँव में होने के कारण मैं नगरीय जीवन के शिष्टाचारों से भली-भाँति परिचित नहीं हूँ । सुन्दर शब्दों तथा व्यवहार से पत्नी को प्रसन्न करने की कला मुझे ज्ञात नहीं है । व्यावहारिक अनुभव से ज्ञात होता है कि मेरे मार्ग का अनुसरण करने वाली अथवा मुझ पर अनुरक्त होने वाली किसी भी स्त्री को अन्तत: जीवन भर रोना पड़ता है । वृन्दावन में अनेक गोपियाँ मेरे वियोग में केवल रोती रहती हैं । मैंने अक्रूर जी तथा उद्धव जी से सुना है कि मेरे वृन्दावन छोड़ने के बाद से मेरे सभी ग्वालबाल सखा, गोपियाँ और राधारानी और मेरे पिता नन्द महाराज निरन्तर मेरे लिए रो रहे हैं । मैंने वृन्दावन को सदैव के लिए त्याग दिया है और अब द्वारका में रानियों के साथ व्यस्त हूँ किन्तु तुममें से किसी के साथ भी मेरा व्यवहार अच्छा नहीं है । अतएव तुम अच्छी तरह समझ सकती हो कि मेरे चरित्र में कोई दृढ़ता नहीं है, मैं एक अति विश्वासयोग्य पति नहीं हूँ । मेरी ओर आकर्षित होने वाले को अन्तत: मात्र विछोह का जीवन प्राप्त होता है ।
“प्रिय सुन्दरी ! हे राजकुमारी ! तुम्हें यह भी ज्ञात होना चाहिए कि मैं सदैव से धन-हीन हूँ । मेरे जन्म के तत्काल बाद मुझ निर्धन को नन्द महाराज के घर ले जाया गया और वहाँ एक गोप बालक के समान मेरा पालन-पोषण हुआ । यद्यपि मेरे पोषक पिता के पास हजारों गाएँ थीं, किन्तु उनमें से एक भी मेरी सम्पत्ति नहीं थी । मुझे केवल उनकी देखभाल और सेवा करने का कार्य दिया गया था, किन्तु मैं उनका स्वामी नहीं था । यहाँ भी मैं किसी वस्तु का स्वामी नहीं हूँ, अपितु सदैव निर्धन हूँ । इस प्रकार की निर्धन स्थिति पर शोक करने का कोई कारण नहीं है । भूतकाल में मेरे पास कुछ नहीं था, अतएव वर्तमान में भी यदि मेरे पास कुछ नहीं है, तो मैं शोक क्यों करूं ? तुम यह भी ध्यान दो कि मेरे भक्त भी अतिशय ऐश्वर्यवान् व्यक्ति नहीं हैं, भौतिक धन-सम्पत्ति में वे भी निर्धन ही हैं । भौतिक सम्पत्ति से युक्त जो धनी व्यक्ति हैं, मेरी भक्ति अथवा कृष्णभावनामृत में उनकी रुचि नहीं है । इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति बलात् अथवा परिस्थितिवश निर्धन हो जाता है, तब यदि उसे उचित अवसर प्राप्त हो, तो उसकी रुचि मुझमें हो सकती है । सम्पत्ति का जिन्हें गर्व है, ऐसे व्यक्तियों को मेरे भक्तों का संग दिया भी जाए, तो वे संग का लाभ नहीं उठाते हैं । दूसरे शब्दों में, निर्धन वर्ग के लोगों की मुझमें रुचि हो सकती है, किन्तु सम्पन्न वर्ग के लोगों को कोई रुचि नहीं है । अतएव मेरा विचार है कि तुमने जो मुझे चुना था, वह बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय नहीं था । अपने पिता व भाई से शिक्षा प्राप्त करके तुम अत्यन्त बुद्धिमती प्रतीत होती हो, किन्तु अन्ततः जीवन-साथी के चुनाव में तुमने एक महान् भूल कर दी है । किन्तु अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है । ऐश्वर्य, पारिवारिक परम्परा, सम्पत्ति, सौन्दर्य, शिक्षा आदि सभी दृष्टियों से जो वास्तव में तुम्हारे समान हो, ऐसे एक योग्य पति का चुनाव करने को तुम स्वतंत्र हो । तुमने जो भी भूलें की होंगी वे विस्मृत कर दी जाएँगी । अब तुम अपना फलदायक जीवन-मार्ग स्वयं निर्धारित कर सकती हो । सामान्यतया अपने पद से उच्च अथवा निम्न पद वालों के साथ विवाह-सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जाता है । प्रिय विदर्भराज-कन्ये ! मेरा विचार है कि तुमने विवाह से पूर्व गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया था । अतएव तुमने पति के रूप में मेरा गलत चुनाव कर लिया । तुमने गलत रूप से यह सुन लिया कि मैं अत्यन्त श्रेष्ठ चरित्र वाला हूँ, जबकि वास्तव में मैं एक भिक्षुक से अधिक कुछ नहीं था । मुझे अथवा मेरी वास्तविक स्थिति को देखे बिना, केवल मेरे विषय में सुन कर ही तुमने मुझे पति रूप में चुन लिया । ऐसा करना उचित नहीं था । अतएव मेरा तुमको परामर्श है कि अब तुम किसी महान् क्षत्रिय राजा को चुन कर उसे अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार कर सकती हो और मुझे त्याग सकती हो ।"
श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी जी के समक्ष विवाह-विच्छेद का प्रस्ताव तब रखा, जब पहले से ही रुक्मिणी जी अनेक युवा पुत्रों की माता बन चुकी थीं ।
अतएव रुक्मिणीजी के सम्मुख रखा गया श्रीकृष्ण का प्रस्ताव अनपेक्षित था, क्योंकि वैदिक सभ्यता में पति-पत्नी को विलग करने के लिए विवाह-विच्छेद जैसी कोई चीज नहीं है । न ही रुक्मिणीजी के लिए प्रौढ़ावस्था में ऐसा करना सम्भव था, जबकि उनके कई विवाहित पुत्र भी थे । श्रीकृष्ण का प्रत्येक प्रस्ताव रुक्मिणी जी को पागलपन के समान प्रतीत हुआ और श्रीकृष्ण ऐसी बातें कह सकते हैं, इस पर उन्हें अत्यन्त आश्चर्य हुआ । यद्यपि वे अत्यन्त सरल स्वभाव की थीं, किन्तु श्रीकृष्ण से वियोग के विचार से उनकी व्याकुलता पल-पल बढ़ रही थी ।
श्रीकृष्ण ने आगे कहा, "तुम्हें अपना परलोक भी बनाना है । अतएव तुमको परामर्श है कि तुम किसी ऐसे व्यक्ति को चुनो जो तुम्हारे इस जीवन तथा अगले जीवन दोनों में सहायक हो सके, क्योंकि मैं तुम्हारी सहायता करने में पूर्णरूप से असमर्थ हूँ । हे सुन्दर राजकुमारी ! तुम जानती हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र और तुम्हारे भाई रुक्मी सहित समस्त राजा मेरे शत्रु हैं । वे मुझे पसन्द नहीं करते हैं । अपने अन्तर्मन से वे मुझसे घृणा करते हैं । वे सभी राजा अपनी भौतिक सम्पत्ति पर अत्यन्त गर्व करते थे और वे अपने समक्ष आने वाले किसी भी व्यक्ति की चिन्ता नहीं करते थे । उनको पाठ पढ़ाने के उद्देश्य से तुम्हारे इच्छानुसार मैं तुम्हारा हरण करने के लिए सहमत हो गया था । यद्यपि तुम विवाह से पूर्व भी मुझसे प्रेम करती थीं, किन्तु वास्तव में मुझे तुमसे कोई प्रेम नहीं है ।
"जैसा मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है, पारिवारिक जीवन अथवा पति-पत्नी के मध्य प्रेम में मेरी कोई विशेष रुचि नहीं है । पारिवारिक जीवन, पत्नी, सन्तान, घर अथवा ऐश्वर्य के प्रति स्वभाव से ही मेरी विशेष रुचि नहीं है । जिस प्रकार मेरे भक्त सदैव इन भौतिक सम्पत्तियों के प्रति उदासीन रहते हैं, मैं भी वैसा ही हूँ । वास्तव में मुझे आत्म-साक्षात्कार में रुचि है, क्योंकि वही मुझे सुख देता है, पारिवारिक जीवन नहीं ।” इस प्रकार कहने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण अचानक मौन हो गए ।
महान् अधिकारी शुकदेव गोस्वामी कहते हैं कि लगभग सदैव ही श्रीकृष्ण अपना समय रुक्मिणी जी के साथ व्यतीत करते थे । रुक्मिणी जी को इस बात का किंचित् गर्व था कि वे इतनी भाग्यशालिनी हैं कि श्रीकृष्ण क्षण-भर भी उनसे दूर नहीं रहते हैं । किन्तु श्रीकृष्ण को अपने किसी भी भक्त का गर्वित होना अच्छा नहीं लगता है । जैसे ही कोई भक्त गर्वित हो जाता है वैसे ही भगवान् किसी-न-किसी विधि से उसका गर्व खण्डित कर देते हैं । इस उदाहरण में भी श्रीकृष्ण ने बहुत-सी ऐसी बातें कहीं जिनका सुनना रुक्मिणी जी को अप्रिय लगा । वे केवल यही निष्कर्ष निकाल सकीं कि यद्यपि उन्हें अपने पद पर गर्व है, तथापि श्रीकृष्ण किसी भी क्षण उनसे वियुक्त हो सकते हैं ।
रुक्मिणी जी को ज्ञात था कि उनके पति सामान्य मानव नहीं थे । वे तीनों लोकों के स्वामी श्रीभगवान् थे । वे जिस भाँति बोल रहे थे, उससे रुक्मिणी जी को भगवान् के वियोग का भय होने लगा था, क्योंकि इससे पूर्व उन्होंने श्रीकृष्ण से ऐसे कठोर वचन कभी नहीं सुने थे । इस प्रकार वे वियोग के भय से चिन्तित हो उठीं और उनकी हृदयगति तीव्र हो उठी । श्रीकृष्ण के एक भी शब्द का उत्तर दिए बिना, वे अत्यन्त दुःख से केवल रोने लगीं, जैसे कि वे दुःख के सागर में डूब रही हों । वे नि:शब्द अपने पैर के नाखूनों से धरती कुरेदने लगीं । उनके पैर के नाखूनों का रक्तिम प्रतिबिम्ब धरती पर पड़ रहा था । उनके नयनों से बहने वाले अश्रु गुलाबी थे और उनसे उनकी पलकों का अंजन धुल गया था । अश्रु उनके स्तनों के कुमकुम व केसर को बहाते हुए नीचे गिर रहे थे । अत्यन्त दुःख से उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया था और एक भी शब्द कहने में असमर्थ वे सिर झुका कर छड़ी की भाँति खड़ी की खड़ी रह गई । अत्यन्त दुःखद भय तथा शोक के कारण उनकी समस्त तर्कशक्ति लुप्त हो गई । वे इतनी शक्तिहीन हो गई, तत्काल इतना भार कम हो गया कि उनकी कलाई की चूड़ियाँ ढीली हो गई । जिस चामर से वे श्रीकृष्ण को हवा कर रही थीं, वह तत्काल उनके हाथ से गिर पड़ा । उनका मस्तिष्क एवं स्मृति भ्रमित हो गई और वे चेतनाहीन हो गई । उनके सिर की सुन्दर केशसज्जा खुल गई और उनके केश इधर-उधर बिखर गए । आँधी से कटे हुए केले के वृक्ष की भाँति वे सीधे गिर पड़ीं ।
भगवान् श्रीकृष्ण तत्काल समझ गए कि रुक्मिणी जी ने उनके शब्दों को विनोद के रूप में नहीं ग्रहण किया है । रुक्मिणी जी ने श्रीकृष्ण के शब्दों को अत्यन्त गम्भीरता से लिया था और उनके आसन्न वियोग के अतीव दुःख में वे इस तरह गिर पड़ी थीं । भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्तों के प्रति स्वाभाविक रूप से अत्यधिक स्नेह रखते हैं । रुक्मिणी जी की इस दशा को देख कर उनका हृदय तत्क्षण द्रवित हो गया । वे तत्क्षण रुक्मिणी जी पर दयालु हो गए । श्रीकृष्ण तथा रुक्मिणी जी का सम्बन्ध लक्ष्मी-नारायण के सम्बन्ध जैसा था, अतएव श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी के सम्मुख अपने चतुर्भुज नारायण के रूप में प्रकट हुए । वे पलंग से उतर आए और रुक्मिणी जी का हाथ पकड़ कर उन्हें उठाया । अपने शीतल हाथों को उनके भीगे मुख पर रख कर उनके बिखरे हुए केश सँवार दिये । रुक्मिणी जी के भीगे स्तन को भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने हाथ से सुखाया । अपने प्रति रुक्मिणी जी के प्रेम की गम्भीरता को समझते हुए श्रीकृष्ण ने उन्हें अपनी छाती से लगा लिया ।
किसी को समझाने के लिए किसी बात को भक्तिपूर्वक प्रस्तुत करने में श्रीभगवान् अत्यन्त कुशल हैं । इस प्रकार उन्होंने पहले जो कुछ भी कहा था, उससे मुकरने का प्रयास किया । भक्तों के वे एकमात्र आश्रय हैं, अतएव अपने शुद्ध भक्तों को सन्तुष्ट करने की कला उन्हें भली-भाँति ज्ञात है । श्रीकृष्ण समझ गए कि विनोदपूर्ण ढंग से उन्होंने जो कहा था, उसे रुक्मिणी जी समझ नहीं सकी थीं । उनके भ्रम का निवारण करने के लिए श्रीकृष्ण ने पुन: निम्न प्रकार से कहना प्रारम्भ किया । "हे विदर्भराज पुत्री ! प्रिय रुक्मिणी ! तुम मेरे कहने का गलत अर्थ न लगाओ । मेरे प्रति इस प्रकार अकृपालु न बनो । मुझे ज्ञात है कि तुम सच्चे रूप में और गम्भीरता से मुझ पर आसक्त हो । तुम्हीं मेरी शाश्वत संगिनी हो । जिन बातों से तुम इतनी प्रभावित हो गई हो, वे वास्तव में तथ्य नहीं हैं । मैं तुम्हें किंचित् रुष्ट करना चाहता था और मुझे अपेक्षा थी कि तुम इन विनोदपूर्ण शब्दों का प्रत्युतर दोगी । दुर्भाग्यवश तुमने उन्हें गम्भीरता से ले लिया है । मुझे इस बात का अत्यन्त खेद है । मुझे आशा थी कि मेरा कथन सुन कर क्रोध से तुम्हारे लाल अधर फड़क उठेंगे और तुम अनेक शब्दों से मेरी भत्सना करोगी । हे प्रेम की पूर्णता ! मुझे यह आशा नहीं थी कि तुम्हारी ऐसी दशा हो जाएगी । मुझे आशा थी कि तुम प्रतिक्रिया-स्वरूप अपने मुलमुलाते नेत्र मुझ पर डालोगी और इस प्रकार मैं तुम्हारे सुन्दर मुख की क्रोधपूर्ण मुद्रा के दर्शन कर सकूंगा । "प्रिय सुन्दरी भार्या ! तुम्हें ज्ञात है कि हम गृहस्थ हैं । हम सदैव गृहस्थी के नानाविध कार्यों में व्यस्त रहते हैं, अतएव हमें
ऐसे समय की प्रतीक्षा रहती है, जब हम परस्पर विनोदपूर्ण शब्दों का आनन्द उठा सकें । गृहस्थ जीवन में वही हमारा परम आमोद-प्रमोद है । वास्तव में गृहस्थ समस्त दिन-रात कठोर श्रम करते हैं, किन्तु जैसे ही पति-पत्नी एकसाथ मिलते हैं उनके पूरे दिन के श्रम की थकान दूर हो जाती है और वे अनेक प्रकार से जीवन का आनन्द उठाते हैं ।” भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं को एक सामान्य गृहस्थ की भाँति प्रदर्शित करना चाहते थे, जो पत्नी से विनोदपूर्ण वार्तालाप करके प्रसन्न होता है । अतएव उन्होंने बारम्बार रुक्मिणी से विनती की कि वे उन शब्दों को गम्भीरता से न लें । इस रीति से भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने मधुर वचनों से रुक्मिणी जी को शान्त कर दिया । इसके पश्चात् वे समझ गई कि श्रीकृष्ण ने पहले जो कुछ कहा था, उसका तात्पर्य वह नहीं था । वे शब्द श्रीकृष्ण और रुक्मिणी जी के मध्य कुछ विनोदपूर्ण आनन्द लाने के लिए कहे गए थे, अतएव वे श्रीकृष्ण के शब्दों को सुन कर शान्त हो गई । धीरे-धीरे भगवान् से वियोग के समस्त भय से वे मुक्त हो गई और उनके मुख पर स्वाभाविक मुस्कान आ गई । वे भगवान् के मुख को और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक देखने लगीं । उन्होंने कहा, "प्रिय कमललोचन भगवन् ! आपका यह कथन कि हमारी जोड़ी उपयुक्त नहीं है पूर्ण रूप से सत्य है । आपके बराबर के स्तर तक पहुँचना सम्भव नहीं है, क्योंकि आप समस्त गुणों के सागर, अनन्त श्रीभगवान् हैं । मैं आपके योग्य जीवनसंगिनी किस प्रकार से हो सकती हूँ ? आप समस्त महान्ता के स्वामी हैं; तीनों गुणों के नियन्ता तथा ब्रह्माएवं शिवजी जैसे महान् देवताओं के उपास्य हैं, आपके साथ मेरी तुलना की तो कोई सम्भावना ही नहीं है । जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों की उपज हूँ । भौतिक प्रकृति के तीनों गुण भक्ति की प्रगति के मार्ग में बाधक हैं । मैं कब और कहाँ आपके योग्य पत्नी हो सकती हूँ ? प्रिय पतिदेव ! आपने यह भी सत्य ही कहा है कि अन्य राजाओं से भयभीत होकर आपने सागर के जल में आश्रय लिया है । किन्तु इस भौतिक जगत् का राजा कौन है ? मेरे विचार में तथाकथित राजपरिवार भौतिक जगत् के राजा नहीं हैं । प्रकृति के तीनों गुण ही भौतिक जगत् के राजा हैं । इस भौतिक जगत् के वास्तविक शासक वही हैं । आप प्रत्येक प्राणी के हृदय के अन्त:स्थल में निवास करते हैं, जहाँ प्रकृति के तीनों गुणों के स्पर्श से आप पूर्णतया उदासीन रहते हैं और इस विषय में लेशमात्र भी संदेह नहीं है ।
"आपका कहना है कि आप जगत् के राजाओं से सदैव ही शत्रुता रखते हैं । किन्तु वे राजा कौन हैं ? मेरे विचार से ये राजा इन्द्रियाँ हैं । वे अत्यन्त भयानक हैं और सब पर शासन करती हैं । निश्चय ही आप इन भौतिक इन्द्रियों से शत्रुता रखते हैं । आप कभी-भी इन्द्रियों के वश में नहीं रहते हैं, अपितु आप इन्द्रियों का नियमन करने वाले हृषीकेश हैं । प्रिय भगवन् ! आपने कहा है कि आप समस्त राजसी शक्तियों से हीन हैं, तो वह भी सत्य है । न केवल आप भौतिक जगत् की प्रभुता से हीन हैं, अपितु आपके चरणकमलों पर प्रेम रखने वाले आपके दास भी भौतिक जगत् की प्रभुता को त्याग देते हैं । इसका कारण यह है कि वे भौतिक पद को घोर अंधकार का क्षेत्र समझते हैं, जो आध्यात्मिक ज्ञान की प्रगति में बाधा डालता है । आपके दास तक भौतिक प्रभुता में रुचि नहीं रखते हैं, तो फिर आपका कहना ही क्या ? प्रिय भगवन् ! आप जीवन में एक विशेष ध्येय लेकर चलने वाले सामान्य मानव की भाँति कार्य नहीं करते हैं, आपका यह कथन भी पूर्णतया सत्य है । आपके महान् भक्त तथा सेवक भी, जो महान् साधु व सन्तों के रूप में प्रसिद्ध हैं, ऐसी दशा में रहते हैं कि कोई उनके जीवन के ध्येय को नहीं जान पाता है । मानव समाज उन्हें पागल तथा सनकी समझता है । साधारण मानवों के लिए उनके जीवन का उद्देश्य एक रहस्य रहता है । निम्नतम मानववर्ग न तो आपको समझ सकता है, न ही आपके दास को । दूषित मनुष्य आपकी तथा आपके भक्तों की लीलाओं की कल्पना भी नहीं कर सकता है । हे अनन्त ! जब आपके भक्तों के कार्य एवं प्रयास सामान्य मानव के लिए एक रहस्य बने रहते हैं, तब वे आपके उद्देश्य और प्रयास को किस प्रकार समझ सकते हैं ? सभी प्रकार की शक्तियाँ और ऐश्वर्य आपकी सेवा में संलग्न रहते हैं, किन्तु फिर भी वे आपकी ही शरण में आश्रय पाते हैं । "आपने स्यवं को धनहीन कहा है, किन्तु यह दशा दरिद्रता नहीं है । चूँकि वास्तव में आपके अतिरिक्त और किसी वस्तु का अस्तित्त्व नहीं है, अतएव आपको किसी वस्तु पर अधिकार करने की आवश्यकता नहीं होती है । आप स्वयं ही प्रत्येक वस्तु हैं । दूसरों को बाह्य रूप से वस्तुओं के क्रय करने की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु आपकी ऐसा नहीं करना पड़ता है । आपके पास कोई सम्पत्ति नहीं है, किन्तु आपसे बढ़कर कोई सम्पन्न नहीं है । इस भौतिक जगत् में सम्पत्ति के बिना कोई सम्पन्न नहीं हो सकता है । हे भगवन् ! आप पूर्ण हैं, अतएव आप किसी भी वस्तु पर कुछ न होने तथा सम्पन्न होने के विपरीत तथ्यों का सामंजस्य कर सकते हैं । वेदों में कहा गया है कि यद्यपि आपके भौतिक हाथ, पैर नहीं हैं तथापि भक्तिपूर्वक भक्तों द्वारा अर्पित की गई प्रत्येक वस्तु आप स्वीकार करते हैं । आपके भौतिक चक्षु तथा कान नहीं हैं, किन्तु फिर भी आप सर्वत्र सब कुछ देख सकते हैं और सर्वत्र सब कुछ सुन सकते हैं । यद्यपि आपकी कोई सम्पत्ति नहीं है, फिर भी अन्य लोगों की उपासना को स्वीकार करने वाले महान् देवता आपकी दया प्राप्त करने की इच्छा से आपकी उपासना करते हैं । तो फिर आपका वर्गीकरण निर्धनों के मध्य किस प्रकार किया जा सकता है ? "प्रिय भगवन् ! आपने यह भी कहा है कि मानव-समाज का सम्पन्न वर्ग आपकी उपासना नहीं करता है । यह भी सत्य है, क्योंकि भौतिक धन-सम्पत्ति के गर्व में फूले हुए लोग अपने धन का उपयोग इन्द्रिय-तृप्ति के लिए करने का विचार रखते हैं । जब कोई दरिद्र व्यक्ति सम्पन्न बन जाता है, तो वह इन्द्रियतृप्ति के लिए एक कार्यक्रम बनाता है । ऐसा करने का कारण यह है कि उसे अपने कठोर श्रम से अर्जित किए गए धन का उचित उपयोग ज्ञात नहीं है । बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से वह सोचता है कि उसके धन का इन्द्रियतृप्ति के हेतु उपयोग ही उचित है । इस प्रकार वह दिव्य सेवा की उपेक्षा करता है । प्रिय भगवन् ! आपने कहा है जिनके पास कुछ नहीं होता है ऐसे व्यक्ति आपको अतिशय प्रिय हैं । आपके भक्त सब कुछ त्याग कर केवल आपको ही प्राप्त करना चाहते हैं । अतएव मैं देखती हूँ कि देवर्षि नारद मुनि, जिनके पास कोई भी भौतिक सम्पत्ति नहीं है, आपको इसीलिए अत्यन्त प्रिय हैं । ऐसे व्यक्ति आपके अतिरिक्त और किसी की परवाह नहीं करते । "प्रिय भगवन् ! आपने कहा है कि सामाजिक पद व प्रतिष्ठा में, सौन्दर्य, धन, बल, प्रभाव तथा त्याग में समान व्यक्तियों के मध्य विवाह-सम्बन्ध ही उपयुक्त सम्बन्ध हो सकता है । किन्तु जीवन की यह सामाजिक स्थिति केवल आपके अनुग्रह के द्वारा ही सम्भव हो सकती है । आप समस्त ऐश्वर्यों के परम पूर्ण स्रोत हैं । जीवन में किसी की कोई भी ऐश्वर्यशाली सामाजिक स्थिति क्यों न हो, वह आप से प्राप्त होती है । जैसाकि वेदान्त सूत्र में वर्णन किया गया है जन्माद्यस्य यत:। आप वह परम स्रोत हैं, जिसमें प्रत्येक वस्तु का उद्गम होता है । आप समस्त सुखों के सागर हैं । अतएव ज्ञानीजन केवल आपको ही प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं और किसी वस्तु की नहीं । आपका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए वे प्रत्येक वस्तु को, यहाँ तक कि ब्रह्मा के दिव्य साक्षात्कार को भी, त्याग देते हैं । आप जीवन के परम लक्ष्य हैं । आप जीवों के सभी सुखों के सागर हैं । वास्तव में सत्प्रेरित व्यक्ति केवल आपकी ही कामना करते हैं और इस कारण वे सफलता प्राप्त करने के लिए सब कुछ त्याग देते हैं । अत: वे आपकी संगति प्राप्त करने के योग्य हैं । कृष्ण-भक्ति में सेवक-सेव्य के समाज में व्यक्ति को भौतिक समाज के दुःख-सुख का भागी नहीं होना पड़ता है । भौतिक समाज यौन-आकर्षण के आधार पर कार्य करता है । अतएव प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष को आपके सेवक-सेव्य समाज का एक सदस्य होने की कामना करनी चाहिए । आप श्रीभगवान् हैं-न कोई आपसे श्रेष्ठ हो सकता है न ही कोई आपके बराबर हो सकता है । पूर्ण सामाजिक प्रणाली वह है, जिसमें आप केन्द्र में रहते हैं और भगवान् के रूप में सबकी सेवा स्वीकार करते हैं और अन्य सभी आपके सेवक के रूप में संलग्न रहते हैं । इस प्रकार की पूर्णता से निर्मित समाज में प्रत्येक व्यक्ति नित्यरूप से प्रसन्न तथा आनन्दित रह सकता है ।
"प्रिय भगवन् ! आपने कहा है कि केवल भिक्षुक ही आपका यशगान करते हैं । यह भी पूर्ण रूप से सत्य है । किन्तु वे भिक्षुक कौन हैं ? वे सभी भिक्षुक श्रेष्ठ भक्त मुक्त व्यक्ति तथा संन्यासी हैं । वे सभी महात्मा एवं भक्त हैं जिनके आपके यशगान के अतिरिक्त और कोई कार्य नहीं है । ऐसे महात्मा बड़े से बड़े अपराधी को क्षमा कर देते हैं । ये तथाकथित भिक्षुक भौतिक जगत् के सर्व प्रकार के कष्टों को सहन करते हुए अपने जीवन की आध्यात्मिक प्रगति करते हैं । मेरे प्रिय पति ! आप यह मत सोचिए कि मैंने अपनी अनुभवहीनता के कारण आपको अपना पति स्वीकार किया, वस्तुत: मैंने इन महान् भिक्षुकों के मार्ग का अनुसरण किया और अपना जीवन आपके चरणकमलों में समर्पित करने का निश्चय किया ।
"आपने कहा है कि आप धनहीन हैं, तो यह सत्य है । आप स्वयं को पूर्ण रूप से इन महात्माओं तथा भक्तों में बाँट देते हैं । इस तथ्य का मुझे पूर्ण ज्ञान था और इसी कारण मैंने ब्रह्माजी तथा देवराज इन्द्र जैसे व्यक्तियों को भी अस्वीकार कर दिया । प्रिय भगवन् ! महाकाल केवल आपके निर्देश में कार्य करता है । काल इतना महान् एवं शक्तिशाली है कि क्षण-भर में ही वह सृष्टि के किसी भी भाग में विनाश कर सकता है । इन सब तथ्यों पर विचार करते हुए जरासन्ध, शिशुपाल और उन्हीं के समान मुझसे विवाह करने के इच्छुक अन्य सभी राजाओं को मैंने साधारण कीड़े-मकोड़ों से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं समझा । हे वसुदेव जी के सर्व शक्तिमान पुत्र ! आपका यह कथन कि समस्त महान् राजाओं से भयभीत हो कर आपने सागर के मध्य आश्रय लिया है, उपयुक्त है । किन्तु आपके साथ मेरा अनुभव इस कथन का खंड़न करता है । वास्तव में मैंने देखा कि इन सब राजाओं की उपस्थिति में आप मुझे बलात् हर लाए थे । मेरे विवाह-समारोह के अवसर पर, केवल अपने धनुष की प्रत्यंचा (डोरी) की एक टंकार मात्र से आपने अन्य सब को अत्यन्त सरलता से भगा दिया और कृपा करके मुझे अपने चरणकमलों में शरण दी । मुझे अभी भी भली-भाँति स्मरण है कि आपने उसी प्रकार मेरा हरण किया था, जिस प्रकार सिंह अन्य छोटे पशुओं को निमिष मात्र में भगा कर, किसी शिकार में से अपना भाग बलपूर्वक ले आता है ।
"हे कमलनयन प्रभु ! मैं आपके इस कथन को नहीं समझ सकती हूँ कि जिन स्त्रियों तथा व्यक्तियों ने आपके चरणकमलों में शरण ली है, उनके दिवस केवल शोक में व्यतीत होते हैं । जगत् के इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि अंग, पृथु, भरत, ययाति और गय जैसे समस्त राजा जगत् के महान् सम्राट् थे । उनके श्रेष्ठ पदों की स्पर्धा करने वाला कोई नहीं था । किन्तु आपके चरणकमलों का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने श्रेष्ठ पदों को त्याग दिया और तपस्या के लिए वन में प्रवेश किया । आपके चरणकमलों को सब कुछ मान कर जब उन्होंने स्वेच्छापूर्वक यह स्थिति स्वीकार की, तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि वे शोकाकुल अथवा दुखी थे?
"प्रिय भगवन् ! आपने मुझे परामर्श दिया है कि मैं अभी भी अन्य राजाओं में से अन्य किसी को चुन सकती हूँ और स्वयं को आपके सान्निध्य से वियुक्त कर सकती हूँ । किन्तु प्रिय भगवन् ! मुझे यह भलीभाँति ज्ञात है कि आप समस्त सद्गुणों के सागर हैं । नारद मुनि जैसे महान् संत सदैव केवल आपके दिव्य प्राकृत गुणों का यशगान करने में ही संलग्न रहते हैं । यदि कोई व्यक्ति ऐसे महान् संत का आश्रय लेता है, तो वह भी तत्काल समस्त भौतिक दूषणों से मुक्त हो जाता है । आपकी सेवा के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने वाले पर श्रीदेवी अपनी पूर्ण कृपा करती हैं । इस परिस्थिति में ऐसी कौन सी स्त्री होगी जो महाजनों से आपका यशगान एक बार सुनने तथा किसी न किसी प्रकार से आपके चरणारविन्दों के सुधारस का रसास्वादन करने के पश्चात् इस भौतिक जगत् के किसी प्राणी से विवाह करने की मूर्खता करने को सहमत होगी ? भौतिक जगत् के प्राणी सदैव जरा, मृत्यु, व्याधि तथा पुनर्जन्म से भयभीत रहते हैं । अतएव मैंने आपके चरणकमलों को बिना विचारे स्वीकार नहीं किया है, अपितु परिपक्व, विचारपूर्ण निर्णय के पश्चात् स्वीकार किया है । प्रिय प्रभु ! आप तीनों लोकों के स्वामी हैं । आप अपने समस्त भक्तों की इहलौकिक तथा पारलौकिक समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर सकते हैं, क्योंकि आप सबके परमात्मा हैं । अतएव आपको एकमात्र योग्य पुरुष मान कर ही मैंने आपका वरण किया है । मेरे सकाम कर्म के फल के अनुसार आप मुझे किसी भी योनि में डाल सकते हैं और मैं इस विषय में तनिक भी चिन्तित नहीं हूँ । मेरी एकमात्र आकांक्षा यह है कि मैं सदैव आपके चरणों की शरण में रहूँ, क्योंकि आप अपने भक्तों को माया के भौतिक जगत् से मुक्त कर सकते हैं और आप सदैव स्वयं को अपने भक्तों को प्रदान करने हेतु तत्पर रहते हैं ।
"प्रिय भगवन् ! आपने मुझे शिशुपाल, जरासन्ध अथवा दन्तवक्र जैसे राजाओं में से किसी एक को चुनने का परामर्श दिया है, किन्तु इस जगत् में उनकी स्थिति कैसी है ? अपने गृहस्थ जीवन को चलाने के लिए वे सदा उसी प्रकार कठोर श्रम में संलग्न रहते हैं जैसे कोल्हू का बैल दिन रात कार्य करता रहता है । उनकी तुलना भार ढोने वाले गधों
से की जा सकती है । कुत्तों की भाँति सदा उनका निरादर होता है और वे बिल्लियों की भाँति कृपण हैं । उन्होंने अपनी पत्नियों के हाथों स्वयं को दासों की भाँति बेच दिया है । ऐसी कोई अभागिन स्त्री ही, जिसने कभी आपका यश नहीं सुना है, ऐसे पुरुष को पति स्वीकार कर सकती है । किन्तु जिस स्त्री ने आपके विषय में ज्ञान प्राप्त कर लिया है कि आपकी स्तुति न केवल इस जगत् में होती है, अपितु महान् देवताओं जैसे, ब्रह्माजी तथा शिवजी, के घरों में भी होती है, वह आपके अतिरिक्त और किसी को पति स्वीकार नहीं करेगी । इस भौतिक जगत् में कोई भी पुरुष वास्तव में एक मृत देह मात्र है । वास्तव में बाह्य रूप से देखें, तो जीव इस शरीर से ढँका रहता है और यह शरीर दाढ़ी, मूंछ, शरीर के रोमों, उँगली पर के नाखूनों और सिर के बालों से सज्जित चमड़े के थैले के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इस सज्जित चमड़े के थैले के अन्दर मांसपेशियों के समूह हैं, अस्थियों के ढेर हैं तथा रक्त के तालाब हैं । चमड़े के थैले के अन्दर ये सदैव मल, मूत्र, श्लेष्मा, पित्र और दूषित वायु से मिश्रित रहते हैं और विभिन्न प्रकार के कीड़े-मकोड़े और कीटाणु इसका भोग करते हैं । एक मूढ़ स्त्री ऐसे शव को पति स्वीकार करती है और अपने भ्रमवश उससे अपने प्रिय जीवनसाथी की भाँति प्रेम करती है । ऐसा केवल इसलिए सम्भव होता है, क्योंकि ऐसी स्त्री ने आपके चरणकमलों के सर्वदा आनन्दमय रस का कभी रसास्वादन नहीं किया है ।
"प्रिय पति ! हे कमलाक्ष ! आप आत्म-संतुष्ट हैं । मैं सुन्दरी एवं गुणी हूँ अथवा नहीं इसकी आपको कोई चिन्ता नहीं है । आप इसके सम्बन्ध में लेशमात्र भी चिन्तित नहीं हैं । अतएव मेरे प्रति आपकी अनासक्ति कोई आश्चर्य की बात नहीं है-यह बिल्कुल स्वाभाविक है । कोई युवती कितने भी श्रेष्ठ पद तथा सौन्दर्य वाली क्यों न हो, आप किसी स्त्री पर आसक्त नहीं हो सकते हैं । चाहे आप मुझ पर आसक्त हों अथवा न हों, किन्तु मेरी कामना है कि मेरी भक्ति और मेरा ध्यान सदैव आपके चरणों में लगा रहे । भौतिक रजोगुण भी आप ही की सृष्टि है, अतएव जब आप मुझ पर कामुक दृष्टि डालते हैं, तो मैं उसे अपने जीवन का महान्तम वरदान समझती हूँ । मुझे केवल ऐसे ही शुभ क्षणों की आकांक्षा है ।
" श्रीकृष्ण ने अपने प्रति रुक्मिणी जी के मान को जाग्रत करने के उद्देश्य से जिन शब्दों का प्रयोग किया था, उन सबका स्पष्टीकरण तथा रुक्मिणी जी का कथन सुन कर श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी जी को इस प्रकार से सम्बोधित किया-”हे सती पत्नी ! प्रिय रानी ! मैं तुमसे ऐसे ही स्पष्टीकरण की अपेक्षा कर रहा था । केवल इसी प्रयोजन से मैंने इन विनोदपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया था, जिससे कि हो सकता है तुम वास्तविक अर्थ न समझ सको । तुम्हारा कथन तथ्यपूर्ण है और मैं उसका अनुमोदन करता हूँ । हे सर्वसुन्दरी रुक्मिणी ! तुम मेरी प्रियतमा पत्नी हो । तुम यह समझ लो कि चाहे कोई भी इच्छा अथवा आकांक्षा हो और तुम मुझसे चाहे किसी भी वस्तु की अपेक्षा करो, मैं सदैव तुम्हारी इच्छा पूरी करने को तत्पर हूँ । यह भी एक तथ्य है कि मेरे भक्त, मेरे प्रिय सखा और सेवक इस प्रकार की मुक्ति की याचना नहीं करते हैं, इसलिए वे सदैव भौतिक दूषणों से मुक्त रहते हैं । मेरे भक्त मेरी सेवा में संलग्न रहने के अतिरिक्त मुझसे और कुछ नहीं चाहते हैं । वे मुझ पर पूर्णरूपेण निर्भर रहते हैं, अतएव यदि वे कुछ माँगने को बाध्य होते हैं, तो वह भी भौतिक नहीं होता है । ऐसी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ भौतिक बंधन का कारण बनने के स्थान पर इस भौतिक जगत् से मुक्ति का स्रोत बन जाती हैं । "प्रिय सती तथा शुद्धात्मा पत्नी ! कठोर सतीत्व के आधार पर तुम्हारे पतिप्रेम की मैंने परीक्षा ली है और तुम इस परीक्षा में अत्यन्त सफलतापूर्वक उतीर्ण हुई हो । मैंने सोद्देश्य ऐसे शब्द, जो तुम्हारे चरित्र पर लागू नहीं होते हैं, कहकर तुम्हें उद्विग्न किया है, किन्तु मुझे यह देख कर आश्चर्य है कि मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति अपनी दृढ़तापूर्ण स्थिति से रंचमात्र भी च्युत नहीं हुई है । प्रिये ! मैं ही सभी वरदानों का दाता हूँ । इस भौतिक जगत् से मुक्ति प्रदान करने वाला भी मैं ही हूँ । केवल मैं ही भौतिक अस्तित्त्व की श्रृंखला को रोक सकता हूँ और प्राणी को अपने घर, भगवान् के धाम, वापस बुला सकता हूँ । जिसकी मेरे प्रति भक्ति दूषित है, वह किसी भौतिक लाभ के लिए मेरी उपासना करता है । जिसकी परिणति यौन जीवन के सुख में होती हो ऐसे भौतिक सुख के जगत् में स्वयम् को बनाए रखने के लिए वह मेरी उपासना करता है । जो व्यक्ति केवल इस भौतिक सुख को प्राप्त करने के लिए कठोर तप व संयम का पालन करता है, वह निश्चय ही मेरी बहिरंगा शक्ति (माया) के प्रभाव के अन्तर्गत है । जो व्यक्ति केवल भौतिक लाभ तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए मेरी भक्तिसेवा में संलग्न हैं, वे निश्चय ही अत्यन्त मूर्ख हैं । यौन जीवन पर आधारित भौतिक सुख तो सर्वाधिक निन्दनीय योनियों, जैसे सुअर तथा कुत्ते की योनियों, में भी प्राप्य है । अतएव जो लोग केवल भौतिक सुख के पीछे रहते हैं और मुझे प्राप्त करना जिनका उद्देश्य नहीं है, उनके लिए नरक में रहना ही उत्तम है ।" भौतिक दूषण इतना प्रबल होता है कि प्रत्येक व्यक्ति भौतिक सुख के लिए दिन-रात श्रम करता है । धार्मिकता, संयम, तप, मानवतावाद, विश्वप्रेम, राजनीति, विज्ञान आदि प्रत्येक वस्तु के प्रदर्शन का उद्देश्य किसी न किसी भौतिक लाभ की सिद्धि ही होता है । भौतिक लाभ की तत्काल सफलता के लिए व्यक्ति साधारणतया विभिन्न देवताओं की उपासना करते हैं । कभी-कभी भौतिक प्रवृत्तियों के वश में वे भगवान् की भक्ति में भी प्रवृत होते हैं । कभी-कभी ऐसा होता है कि यदि कोई व्यक्ति निष्ठापूर्वक भगवान् की सेवा करता है और साथ ही साथ भौतिक आकांक्षा भी बनाए रखता है, तब भगवान् कृपा करके भौतिक सुख के स्रोतों को हटा देते हैं । भौतिक सुखों में आश्रय न पा कर भक्त तब स्वयं को पूर्ण रूप से भक्ति में संलग्न कर देता है । भगवान् श्रीकृष्ण ने आगे कहा, "हे रानियों में श्रेष्ठतम ! मैं स्पष्टरूप से समझ गया हूँ कि तुम्हें कोई भौतिक आकांक्षा नहीं है, तुम्हारा एकमात्र प्रयोजन मेरी सेवा करना है और तुम दीर्घकाल से मेरी विशुद्ध सेवा में संलग्न हो । आदर्श व शुद्ध भक्ति-सेवा न केवल भक्त को इस भौतिक जगत् से मुक्ति प्रदान कर सकती है, अपितु मेरी सेवा में नित्य संलग्न रहने वाले भक्त की आध्यात्मिक जगत् में उन्नति भी करती है । जिन व्यक्तियों को भौतिक सुख का अत्यधिक नशा है, वे ऐसी सेवा नहीं कर सकते हैं । जिनके हृदय दूषित तथा भौतिक इच्छाओं से पूर्ण हैं, वे स्त्रियाँ बाह्य रूप से महान् भक्त होने का प्रदर्शन करते हुए भी अपनी इन्द्रिय-तृप्ति के साधनों का निर्माण कर लेती हैं । "हे साध्वी भार्या ! यद्यपि मेरी हजारों पत्नियाँ हैं, किन्तु मेरे विचार में उनमें से कोई भी तुमसे अधिक प्रेम नहीं करती है । तुम्हारे असामान्य पद का व्यावहारिक उदाहरण यह है कि तुमने विवाह से पूर्व मुझे कभी नहीं देखा था, तुमने केवल एक तीसरे व्यक्ति से मेरे विषय में केवल सुना था, फिर भी तुम्हारा विश्वास मुझमें केन्द्रित हो गया था । मुझमें तुम्हारा विश्वास इतना दृढ़ था कि अनेक गुणी, सम्पन्न और सुन्दर राजपुरुषों की उपस्थिति में भी तुमने उनमें से किसी का वरण नहीं किया, अपितु मुझे ही वरण किया । तुमने सभी उपस्थित राजाओं की उपेक्षा की और अत्यन्त विनयपूर्वक मुझे एक गुप्त पत्र भेज कर मुझे अपना हरण करने को निमंत्रित किया । जब मैं तुम्हारा हरण कर रहा था, तब तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता रुक्मी ने घोर आपत्ति की और मुझसे युद्ध किया । उस युद्ध के परिणामस्वरूप मैंने निर्दयता से उसे परास्त करके उसके शरीर को विरूप कर दिया । अनिरुद्ध के विवाह के अवसर पर जब हम सब चौपड़ खेलने में व्यस्त थे, तब एक विवादग्रस्त विषय पर पुन: तुम्हारे भाई रुक्मी से युद्ध हो गया और अन्तत: मेरे ज्येष्ठ भ्राता बलराम जी ने उसका वध कर दिया । मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि तुमने इस घटना पर आपत्ति का एक शब्द भी नहीं कहा । कहीं तुम्हारा मुझसे वियोग न हो जाए, इस सम्बन्ध में तुम अत्यन्त उद्विग्न थीं, इस कारण तुमने एक भी शब्द कहे बिना सभी परिणाम सहन किए । हे प्रिये ! इस महान् मौन के परिणामस्वरूप तुमने मुझे सदा के लिए खरीद लिया है । मैं सदा के लिए तुम्हारे वश में हो गया हूँ । तुमने मुझे अपना हरण करने के लिए निमंत्रित करते हुए एक दूत को मेरे समीप भेजा था और जब तुमने देखा कि मेरे वहाँ आने में कुछ विलम्ब हो गया, तो तुम्हें समस्त विश्व सूना लगने लगा । उस समय तुमने निष्कर्ष निकाला कि तुम्हारी सुन्दर देह और किसी के स्पर्श के योग्य नहीं है, अतएव यह सोच कर कि मैं नहीं आ रहा हूँ तुमने आत्महत्या करके तत्काल अपनी देह को समाप्त करने का निर्णय किया ।
प्रिय रुक्मिणी ! मेरे प्रति तुम्हारा ऐसा महान् और श्रेष्ठ प्रेम सदैव मेरी आत्मा में रहेगा । जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मेरे प्रति तुम्हारी विशुद्ध भक्ति का बदला चुकाना मेरी सामथ्रय के बाहर की बात है ।" भगवान् श्रीकृष्ण को किसी का पति, पुत्र अथवा पिता होने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु उनकी ही है और प्रत्येक व्यक्ति उनके वश में है । अपनी सन्तुष्टि के लिए उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं होती है । वे आत्माराम हैं, आत्म-सन्तुष्ट हैं, वे बिना किसी की सहायता के स्वयं समस्त सुख प्राप्त कर सकते हैं । जब भगवान् एक मानव का अभिनय करने के लिए अवतीर्ण होते हैं, तब वे पति अथवा पुत्र, शत्रु अथवा मित्र का अभिनय आदर्श रूप से करते हैं । इसी भाँति जब वे रानियों के, विशेष रूप से रुक्मिणी जी के, आदर्श पति की भाँति अभिनय कर रहे थे, तब वे पूर्णता से दाम्पत्य प्रेम का आनन्द उठा रहे थे । वैदिक सभ्यता के अनुसार यद्यपि बहुपत्नीत्व की अनुमति प्राप्त है, तथापि किसी भी पत्नी के साथ दुव्र्यवहार नहीं होना चाहिए । दूसरे शब्दों में, यदि कोई सभी पत्नियों को समान रूप से एक आदर्श गृहस्थ रूप में सन्तुष्ट कर सके । तभी वह अनेक पत्नियों से विवाह कर सकता है, अन्यथा इसकी अनुमति नहीं है । भगवान श्रीकृष्ण जगद्गुरु हैं, अतएव यद्यपि उन्हें पत्नी की आवश्यकता नहीं थी, तथापि उन्होंने अपना उतने ही रूपों में विस्तार किया जितनी उनकी पत्नियाँ थीं । विधिविधानों, नियमों और कर्तव्यों का पालन वैदिक निर्देशों, सामाजिक नियमों तथा समाज की रीतियों के अनुरूप करते हुए श्रीकृष्ण ने आदर्श पति के रूप में उनके साथ जीवन-यापन किया । अपनी सोलह हजार एक सौ आठ रानियों में से प्रत्येक के लिए उन्होंने एकसाथ भिन्न-भिन्न महल, नौकर-चाकर और वातावरण रखे । इस प्रकार, यद्यपि भगवान् एक हैं, उन्होंने स्वयं को सोलह हजार एक सौ आठ आदर्श गृहस्थों के रूप में प्रदर्शित किया ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “श्री कृष्ण एवं रुक्मिणी जी के मध्य वार्तालाप” नामक साठवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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