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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 64: राजा नृग की कथा  » 
 
 
 
 
 
एक बार श्रीसाम्ब, श्री प्रद्युम्न, श्रीचारुभानु भगवान् श्रीकृष्ण के परिवार के सदस्य और यदुवंश के राजकुमार, श्रीगद आदि द्वारका के समीप वन में विहार के लिए गए । विहार करते हुए वे सब अत्यन्त प्यासे हो गए, अतएव वे वन में जल-प्राप्ति का स्थान ढूँढने लगे । जब वे एक कुएँ के समीप गए, तो उन्होंने देखा कि उसमें जल नहीं था, अपितु कुएँ में एक अद्भुत जीव था । यह एक विशालकाय छिपकली थी । इतने अद्भुत पशु को देख कर वे सब चकित रह गए । वे समझ गए कि वह छिपकली फँस गई थी और अपने प्रयास से वह बाहर नहीं निकल सकती थी, अत: सहानुभूतिवश उन्होंने उस विशाल छिपकली को कुएँ से निकालने का प्रयास किया । दुर्भाग्यवश छिपकली को तरह-तरह से निकालने का प्रयास करके भी वे उसे बाहर न निकाल सके । जब राजकुमार घर लौटे तब उन्होंने अपनी कथा भगवान् श्रीकृष्ण के समक्ष सुनाई । भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जीवों के सखा हैं, अतएव अपने पुत्रों का निवेदन सुन कर वे स्वयं उस कुएँ के समीप गए और केवल अपना वामहस्त फैलाने-मात्र से उस विशाल छिपकली को सरलता से बाहर निकाल दिया । भगवान् श्रीकृष्ण के हाथ का स्पर्श होते ही उस विशाल छिपकली ने अपनी पूर्व आकृति को त्याग दिया और वह स्वर्गलोकवासी एक देवता के रूप में प्रकट हुई । उसके शरीर का वर्ण पिघले हुए सोने के समान चमक रहा था । उसने उत्तम वस्त्र तथा कण्ठ में बहुमूल्य आभूषण धारण कर रखा था ।

उस देवता को छिपकली का शरीर क्यों धारण करना पड़ा, यह बात श्रीकृष्ण से छिपी नहीं थी, तथापि अन्य सबकी जानकारी के लिए भगवान् ने प्रश्न किया, "हे सौभाग्यवान् देवता ! अब मैं देखता हूँ कि तुम्हारा शरीर इतना सुन्दर तथा प्रभावान् है । तुम कौन हो ? हम अनुमान कर सकते हैं कि तुम स्वर्ग के श्रेष्ठ देवताओं में से एक हो । सौभाग्यवान् होओ । मेरे विचार में तुम ऐसी दशा में रहने के योग्य नहीं हो । अवश्य ही अपने पूर्वकर्मों के कारण तुम्हें छिपकली की योनि में जन्म मिला है । तो भी मैं तुमसे सुनना चाहता हूँ कि किस प्रकार तुम्हारी यह दशा हुई । यदि तुम यह भेद खोलना उचित समझो, तो हम सबको अपना परिचय दो ।" वास्तव में यह विशाल छिपकली राजा नृग थे । जब श्रीभगवान् ने उनसे प्रश्न किया तब तत्काल ही सूर्य के प्रकाश के समान चमकदार अपने मुकुट से धरती का स्पर्श करते हुए उन्होंने भगवान् को प्रणाम किया । इस प्रकार उन्होंने पहले परम भगवान् को अपना सादर प्रणाम अर्पित किया । तत्पश्चात् उन्होंने कहा, "प्रिय भगवन् ! मैं राजा इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूँ । यदि आपने दानी पुरुषों का परिचय जानना चाहा हो, तब निश्चय ही आपने मेरा नाम सुना होगा । प्रिय भगवन् आप साक्षी हैं । आप को जीवों के भूत, भविष्य तथा वर्तमान के समस्त कर्मों का ज्ञान है । आपके शाश्वत ज्ञान से कुछ भी गुप्त नहीं रह सकता है । फिर भी आपने मुझे अपना इतिहास बताने का आदेश दिया है, अतएव मैं पूरी कथा कहूँगा ।" राजा नृग ने अपने कर्म-काण्ड के कर्मों के कारण हुए अपने पतन का इतिहास बताना प्रारम्भ किया । वे अत्यन्त दानी थे और उन्होंने इतनी गाएँ दान की थीं कि उनकी संख्या पृथ्वी पर की धूलि, आकाश के नक्षत्रों एवं वर्षा की बूंदों के बराबर थी । वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार दान में रुचि रखने वाले मानव को ब्राह्मणों को गोदान करने का आदेश है । राजा नृग के कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि वह इस सिद्धान्त का गम्भीरता से पालन करता था, किन्तु फिर भी उसके कर्म में तनिक त्रुटि के कारण उसे छिपकली के रूप में जन्म लेना पड़ा । अतएव भगवद्-गीता में भगवान् ने कहा है कि जो दानी व्यक्ति अपने दान से लाभान्वित होना चाहता है उसे अपने उपहार श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए देने चाहिए । दान देने का अर्थ है पुण्यकर्म करना । पुण्यकर्मों के फलस्वरूप व्यक्ति की उन्नति ऊध्रव लोकों तक हो सकती है, किन्तु स्वर्गलोक तक उन्नति होने से ही यह निश्चित नहीं होता है कि व्यक्ति का कभी पतन नहीं होगा । अपितु राजा नृग के उदाहरण से निश्चित रूप से यह सिद्ध हो जाता है कि सकाम कर्म, चाहे पुण्यकर्म ही क्यों न हों, हमें शाश्वत आनन्दमय जीवन प्रदान नहीं कर सकते हैं । जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है, पुण्यकर्म अथवा पापकर्म किसी भी कर्म का फल मानव को बन्धन में बाँधता है । कर्मफल के बन्धन से व्यक्ति तभी मुक्त हो सकता है जब कर्म को श्रीभगवान् के यज्ञ की भाँति सम्पादित किया जाए ।

राजा नृग ने आगे कहा कि दान में दी गई गाएँ सामान्य गाएँ नहीं थीं । प्रत्येक गाय कम आयु की थी और केवल एक बछड़े की माँ थी । वे सभी अत्यन्त शान्त, स्वस्थ तथा दुधारू गाएँ थीं । प्रत्येक गाय वैध रूप से उपार्जित धन से खरीदी गई थी । इसके अतिरिक्त उनके सींग स्वर्णमण्डित थे, उनके खुरों पर चाँदी मढ़ी हुई थी और उनके ऊपर मोती तथा स्वर्णहारों से कढ़ाई किए हुए रेशमी दुशाले डाले गए थे । राजा ने कहा कि बहूमूल्य वस्तुओं से अलंकृत ये गाएँ किसी ऐरे-गैंरे को नहीं दी गई थीं, अपितु इन्हें प्रथम कोटि के ब्राह्मणों में वितरित किया गया था । इन ब्राह्मणों को राजा पहले से ही उत्तम वस्त्रों तथा स्वर्णालंकारों से विभूषित करते थे । वे ब्राह्मण अत्यन्त योग्य थे । वे सम्पन्न नहीं थे और उनके परिवार के सदस्य सदैव जीवन की आवश्यकताओं से वंचित रहते थे । एक सच्चा ब्राह्मण क्षत्रियों अथवा वैश्यों के समान विलासी जीवन के लिए धन संग्रह नहीं करता है । उसे ज्ञात रहता है कि धन मन को जीवन के भौतिकतावादी पथ की ओर मोड़ देता है, अतएव वह सदैव स्वयं को दरिद्रावस्था में रखता है । इस प्रकार से जीवन व्यतीत करना प्रत्येक योग्य ब्राह्मण का प्रण होता है और ये सभी ब्राह्मण भलीभाँति इस प्रण का पालन कर रहे थे । वे वैदिक ज्ञान के विद्वान थे । वे जीवन के आवश्यक तप व व्रतों का सम्पादन करते थे और उदार थे । वे योग्य ब्राह्मणों के मानदण्ड को पूरा करते थे । गायों के अतिरिक्त उन्हें भूमि, स्वर्ण, गृह, घोड़े तथा हाथी भी प्रदान किए गए । अविवाहित ब्राह्मणों को पत्नियाँ दासियाँ अन्न, चाँदी—पात्र, वस्त्र, रत्न, गृहोपयोगी सज्जा तथा रथ आदि प्रदान किए गए । यह दान वैदिक विधि के अनुसार एक यज्ञ के रूप में दिया गया । राजा ने यह भी कहा कि उन्होंने न केवल ब्राह्मणों को उपहार दिए थे, अपितु उन्होंने कुएँ खुदवाने, मार्गों के किनारे वृक्षारोपण करवाने तथा राजमार्गों पर जलाशय बनवाने जैसे पुण्यकर्म भी किए थे ।

राजा ने आगे कहा, "इतना सब करने पर भी दुर्भाग्यवश एक ब्राह्मण की गाय मेरी अन्य गायों में सम्मिलित हो गई । इस बात का ज्ञान न होने के कारण मैंने उसे पुनः एक अन्य ब्राह्मण को दान में दे दिया । जब वह ब्राह्मण गाय को ले जा रहा था, तब उसका पूर्व स्वामी उसे अपनी बताने लगा । उसने कहा, "यह गाय पहले मुझे दी गई थी, तो तुम इसे कैसे ले जा रहे हो ?" इस प्रकार दोनों ब्राह्मणों के मध्य वाद-विवाद एवं झगड़ा हुआ और उन्होंने मेरे सम्मुख आकर मेरे ऊपर आरोप लगाया कि मैंने पहले दान में दी गई एक गाय वापस ले ली है । किसी भी व्यक्ति को और विशेष रूप से किसी ब्राह्मण को कुछ दे कर उसे वापस लेना महापाप माना जाता है । जब दोनों ब्राह्मणों ने राजा पर एक ही आरोप लगाया, तो राजा की समझ में न आया कि ऐसा किस प्रकार हुआ । तत्पश्चात् राजा ने अतिशय विनयपूर्वक उस एक झगड़ा कराने वाली गाय के बदले में प्रत्येक को एक-एक लाख गाएँ देने का प्रस्ताव किया । उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि वे उन ब्राह्मणों के सेवक थे और उनसे कोई भूल हो गई है । इस प्रकार उस भूल को सुधारने के हेतु उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि वे राजा पर दया करें और एक गाय के बदले में एक लाख गाएँ दिए जाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लें । राजा ने बारम्बार ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि वे इस दोष के कारण उसको नरक में गिरने से रोक लें । ब्राह्मण का धन ब्राह्मस्व कहलाता है और मनु के नियम के अनुसार इसे सरकार भी नहीं ले सकती है । दोनों ब्राह्मण यही कहते थे कि गाय उनकी है और किसी भी दशा में वापस नहीं ली जा सकती है । दोनों में से कोई भी एक लाख गायों से अपनी गाय बदलने को सहमत नहीं था । इस प्रकार राजा के प्रस्ताव से असहमत होकर दोनों ही ब्राह्मण क्रोध में भर कर महल से चले गए । दोनों ही सोचते थे कि उनके वैधानिक पद का बलपूर्वक हनन हुआ है । इस घटना के पश्चात् जब राजा के शरीर त्यागने का समय आया तब उन्हें यमराज के समक्ष ले जाया गया । यमराज ने उनसे पूछा, "तुम पहले अपने पुण्यकर्मों के फल का उपभोग करना चाहते हो अथवा पापकर्मों का फल भोगना चाहते हो ।" यमराज ने यह भी संकेत दिया कि राजा इतने पुण्यकर्म एवं दान किए हैं कि नृग के सुखोपभोग की सीमा उन्हें ज्ञात नहीं थी । राजा के भौतिक सुख की कोई सीमा नहीं थी । किन्तु इस संकेत के प्राप्त होने पर भी वे चकित थे । उन्होंने प्रथम अपने पापों का फल भोगने और तदुपरान्त अपने पुण्यकर्मों का फल स्वीकार करने का निश्चय किया, अतएव यमराज ने तत्काल उन्हें एक छिपकली बना दिया । राजा नृग एक विशाल छिपकली के रूप में दीर्घकाल तक एक कुएँ में पड़े रहे । उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा, "जीवन की उस निकृष्ट अवस्था में रहने पर भी मेरी स्मरण शक्ति का कभी नाश नहीं हुआ और हे भगवन् ! मैं केवल आपका स्मरण करता रहा ।" राजा नृग के इन कथनों से प्रतीत होता है कि जो लोग सकाम कर्म के नियम का अनुसरण करते हैं और भौतिक लाभ प्राप्त करते हैं, वे बुद्धिमान नहीं

होते हैं । यमराज के द्वारा एक चीज चुनने का अवसर दिए जाने पर राजा नृग प्रथम अपने पुण्यकर्मों का फल स्वीकार कर सकते थे । किन्तु इसके स्थान पर उन्होंने सोचा कि पापों का फल पहले भोग कर बाद में अपने पुण्यकर्मों के फल का निर्बाध आनन्द प्राप्त करना अधिक उत्तम होगा । कुल मिला कर उनमें श्रीकृष्ण-भक्ति का विकास नहीं हुआ था । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम विकसित हो जाता है । उसे पुण्य अथवा पापकर्मों से कोई प्रेम नहीं होता है । अतएव वह ऐसे कर्मों के फल का भागी नहीं होता है । जैसाकि ब्राह्म-संहिता में कहा गया है कि भगवान् की कृपा से भक्त सकाम कर्मों के फल का भागी नहीं होता है । अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप किसी-न-किसी प्रकार राजा नृग ने भगवान् के दर्शन की अभिलाषा की थी । उन्होंने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! मेरी तीव्र अभिलाषा थी कि किसी दिन मैं स्वयं आपके दर्शन कर सकूं । मेरे विचार में शास्त्रोक्त एवं दान कर्मों के सम्पादन में मेरी अभिरुचि तथा आपके दर्शन करने की मेरी तीव्र अभिलाषा, इन दोनों के संयोग के कारण ही मैं अपने पूर्वजन्म का स्मरण रख सका हूँ । यद्यपि मैं एक छिलकली बन गया हूँ तथापि मुझे स्मरण है कि पूर्वजन्म में मैं कौन था ।" (पूर्वजन्म का स्मरण रखने वाला व्यक्ति जाति-स्मर कहलाता है) प्रिय भगवन् ! आप प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में असीन परमात्मा हैं । अनेक महान् योगी ऐसे हैं जिसके पास वेदों तथा उपनिषदों के माध्यम से आपके दर्शन करने वाली दृष्टि है । गुणों में आपके समान होने की उनत अवस्था को प्राप्त करने के लिए वे सदैव अपने हृदय में आपका ध्यान करते रहते हैं । यद्यपि ऐसे श्रेष्ठ सन्त अपने हृदय में निरन्तर आपके दर्शन कर सकते हैं, तथापि वे आपको अपने नेत्रों से नहीं देख सकते हैं । अतएव मैं व्यक्तिगत रूप से आपके दर्शन करने में समर्थ हूँ, इस बात का मुझे अतिशय आश्चर्य है । मुझे ज्ञात है कि मैं एक राजा के रूप में अनेक कार्यों में संलग्न था । यद्यपि मैं विलास एवं ऐश्वर्य के बीच था तथा भौतिक शरीर के इतने दुःख तथा सुख का भागी हुआ था, तथापि मैं इतना भाग्यवान् हूँ कि मुझे व्यक्तिगत रूप से आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । जहाँ तक मुझे ज्ञात है, जब व्यक्ति भौतिक शरीर से मुक्त हो जाता है, तब वह इस प्रकार आपके दर्शन कर सकता है ।" जब राजा नृग ने अपने पापों का फल स्वीकार करने का निश्चय किया, तब सके पुण्यकर्म में हुए दोष के कारण उसे छिपकली का शरीर दिया गया । इस प्रकार उसे प्रत्यक्ष रूप से किसी देवता के समान जीवन के उच्च स्तर की प्राप्ति न हो सकी । किन्तु अपने पुण्यकर्मों के साथ-साथ वह श्रीकृष्ण का चिन्तन करता रहा, अतएव उसे शीघ्र ही छिपकली के शरीर से मुक्ति मिल गई और उसे देवता का शरीर दिया गया । परम भगवान् की उपासना के द्वारा जो लोग भौतिक ऐश्वर्य की इच्छा करते हैं, उन्हें शक्तिशाली देवताओं का शरीर दिया जाता है । कभी-कभी ये देवता श्रीभगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं, किन्तु फिर भी वे आध्यात्मिक राज्य वैकुण्ठ लोक में प्रवेश करने के अधिकारी नहीं होते हैं । किन्तु यदि देवता आगे भी भगवान् के भक्त बने रहें तो, जब उन्हें अगला अवसर प्राप्त होगा, तो वे वैकुण्ठ लोक में प्रवेश करेंगे । देवता का शरीर प्राप्त करके राजा नृग ने आगे स्मरण करते हुए कहा, "प्रिय भगवन् ! आप परम भगवान् हैं और समस्त देवता आपकी उपासना करते हैं । आप जीव नहीं हैं, किन्तु आप सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति अर्थात् पुरुषोत्तम हैं । आप समस्त जीवों के समस्त सुखों के स्रोत हैं, अतएव आप गोविन्द के नाम से विख्यात हैं । जिन्होंने भौतिक शरीर स्वीकार कर लिया है एवं जिन्होंने अभी तक भौतिक शरीर स्वीकार नहीं किया है, उन सब जीवों के आप भगवान् हैं ।" (भौतिक शरीर स्वीकार नहीं करने वाले ही जीवों में वे हैं, जो भौतिक जगत् में दृष्ट आत्माओं के रूप में हवा में भ्रमण कर रहे हैं अथवा प्रेत जगत् में रह रहे हैं । किन्तु जो आध्यात्मिक राज्य अर्थात् वैकुण्ठ लोक में निवास करते हैं, उनके शरीर भौतिक तत्वों से निर्मित नहीं होते हैं ।) "हे भगवन् ! आप अच्युत है । आप सर्वश्रेष्ठ हैं तथा समस्त जीवों में शुद्धतम हैं । आप सबके हृदयों में निवास करते हैं । आप समस्त जीवों के आश्रय श्रीनारायण हैं । समस्त जीवों के हृदय में निवास करने के कारण आप प्रत्येक व्यक्ति के ऐन्द्रियकार्यों के परम निर्देशक हैं, अतएव आपको हृषीकेश कहा जाता है । "हे परम भगवान् श्रीकृष्ण ! आपने मुझे देवता का यह शरीर प्रदान किया है, अतएव मुझे स्वर्गलोक जाना पड़ेगा । मैं इस सुअवसर का लाभ उठा कर आपकी दया की भिक्षा माँगता हूँ जिससे मुझे ऐसा वरदान प्राप्त हो कि मैं आपके चरणकमलों को कभी भी विस्मृत न करूं । चाहे मुझे कोई भी योनि क्यों न मिले, अथवा चाहे किसी भी लोक में मुझे भेज दिया जाए, किन्तु मुझे आप ऐसा वर दीजिए कि मैं कभी भी आपके चरणकमलों को विस्मरण न करूं । कार्य-कारण के रूप में आप सर्वत्र उपस्थित हैं, आप सर्वव्यापी हैं । आप समस्त कारणों के कारण हैं एवं आपकी शक्तियाँ असीम हैं । आप परम सत्य हैं, आप श्रीभगवान् हैं तथा आप ही परम ब्राह्म हैं । अतएव मैं आपको बारम्बार प्रणाम करता हूँ । प्रिय भगवन् ! आपका शरीर दिव्य आनन्द एवं ज्ञान से पूर्ण है और आप शाश्वत हैं । आप समस्त सिद्धियों के स्वामी हैं, अतएव आप योगेश्वर नाम से विख्यात हैं । कृपया मुझे अपने चरणकमलों की नगण्य धूलि के रूप में स्वीकार कीजिए ।" स्वर्गलोक में प्रवेश करने के पूर्व राजा नृग ने भगवान् की प्रदक्षिणा की । उसने अपने मुकुटधारी सिर को भगवान् के चरणकमलों में रख कर उनको प्रणाम किया । स्वर्गलोक से आए हुए विमान को सम्मुख आया देख कर भगवान् ने राजा को उस पर सवार होने की अनुमति दी । राजा नृग के प्रस्थान के उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण ने राजा की ब्राह्मण भक्ति, दानशीलता एवं उसके द्वारा वैदिक अनुष्ठानों के सम्पादन की प्रशंसा की । अतएव कहा जाता है कि यदि कोई प्रत्यक्ष रूप से भगवान् का भक्त नहीं बन सकता है, तब उसे जीवन के वैदिक सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए । इससे वह या तो सीधे आध्यात्मिक लोक में उन्नति करके भगवदलन का लाभ प्राप्त करने में समर्थ होगा अथवा पहले स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त करके, जहाँ से उसे आध्यात्मलोक में स्थानान्तरण की आशा रहेगी, वह भगवान् के दर्शन करने में समर्थ होगा ।"

इस समय भगवान् श्रीकृष्ण अपने क्षत्रिय वर्ग के सदस्य अपने सम्बन्धियों के मध्य विराजमान थे । राजा नृग के आदर्श व्यवहार के माध्यम से उनको उपदेश देने के लिए भगवान् ने कहा, "यद्यपि कोई क्षत्रिय राजा अग्नि के समान बलशाली हो सकता है, तथापि किसी ब्राह्मण की सम्पत्ति पर बलपूर्वक अधिकार कर लेना और उसे अपने प्रयोजन के लिए उपयोग करना उसके लिए सम्भव नहीं है । यदि ऐसा है, तब मिथ्या ही स्वयं को इस भौतिक जगत् में सर्वाधिक शक्तिमान समझने वाले साधारण राजा किस प्रकार ब्राह्मण की सम्पत्ति पर बलपूर्वक अधिकार कर सकते हैं ? मेरे विचार में विषपान भी उतना संकटपूर्ण नहीं है जितना ब्राह्मण की सम्पत्ति लेना । साधारण विष का उपचार हो सकता है, व्यक्ति को इसके प्रभाव से मुक्ति मिल सकती है, किन्तु यदि कोई ब्राह्मण की सम्पत्ति हरने का विषपान करता है, तो उस दोष के लिए कोई उपचार नहीं है । इस तथ्य के आदर्श उदाहरण राजा नृग थे । वे अत्यन्त शक्तिशाली एवं पुण्यात्मा थे, किन्तु अनजाने में एक ब्राह्मण की गाय पर अधिकार कर लेने की छोटी-सी भूल के परिणामस्वरूप उन्हें छिपकली के निन्दनीय जीवन का दण्ड मिला । साधारण विष केवल उसे प्रभावित करता है, जो उसका पान करता है और साधारण अग्नि को जल डालकर बुझाया जा सकता है, किन्तु किसी ब्राह्मण की आध्यात्मिक शक्ति से जलाई गई अरणि-अग्नि ऐसे ब्राह्मण को कुद्ध करने वाले व्यक्ति के समस्त परिवार को जलाकर भस्म कर सकती है ।" (प्राचीन काल में ब्राह्मण यज्ञ की अग्नि को दियासलाई से अथवा किसी अन्य बाह्य अग्नि से नहीं, अपितु अपने अरणि नामक शक्तिशाली मंत्रों से जलाते थे ।) "यदि कोई व्यक्ति ब्राह्मण की सम्पत्ति का स्पर्श भी करता है, तो उसकी तीन पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं । किन्तु यदि कोई ब्राह्मण की सम्पत्ति को बलपूर्वक छीन ले जाता है, तो छीनने वाले की अगली व पिछली दस पीढ़ियाँ सर्वनाश की भागी होती हैं । दूसरी ओर यदि कोई वैष्णव अथवा भगवान् का भक्त बन जाता है, तो उसके परिवार की, उसके जन्म से पूर्व तथा पश्चात् की दस पीढ़ियाँ मुक्त हो जाती हैं ।"

भगवान् श्रीकृष्ण ने आगे कहा, "यदि अपने धन, बल तथा प्रतिष्ठा पर अभिमान करने वाला कोई राजा ब्राह्मण की सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहता है, तो समझना चाहिए कि वह अपने लिए नरक का मार्ग प्रशस्त कर रहा है । उसे ज्ञात नहीं रहता कि इस मूर्खतापूर्ण कार्य के लिए उसे कितना कष्ट सहन करना पड़ेगा । यदि कोई किसी ऐसे उदार ब्राह्मण की सम्पत्ति छीन लेता है, जिस पर एक विशाल परिवार आश्रित हो तब ऐसा छीनने वाला व्यक्ति कुम्भीपाक नामक नरक में डाल दिया जाता है । न केवल वह इस नरक में डाला जाता है, अपितु उसके परिवार के सदस्यों को भी वही जीवन की दशा स्वीकार करनी पड़ती है, अर्थात् उन्हें भी कुम्भीपाक नरक में जाना पड़ता है । यदि कोई व्यक्ति ब्राह्मण को पुरस्कार स्वरूप दी गई सम्पत्ति अथवा उसके द्वारा दान की गई सम्पत्ति को छीनता है, तब उसे कम से कम साठ हजार वर्ष तक मल में रहने वाले कृमि की भाँति घृणित जीवन व्यतीत करने का दण्ड प्राप्त होता है । अतएव, हे मेरे पुत्रो तथा उपस्थित बन्धु-बान्धवो ! मैं तुमको उपदेश देता हूँ कि भूल से भी किसी ब्राह्मण की सम्पत्ति न लो और इस प्रकार अपने सम्पूर्ण परिवार को दूषित न करो । यदि कोई ब्राह्मण की सम्पत्ति को बलपूर्वक लेने का प्रयास न करे, अपितु केवल ऐसा विचार भी करे तो उसकी आयु कम हो जाएगी, वह अपने शत्रुओं के हाथों परास्त हो जाएगा और अपने राजसी पद से वंचित होकर, देहत्याग करने पर वह एक सर्प बन जाएगा । एक सर्प अन्य सब जीवों को कष्ट देता है । हे पुत्रो एवं बन्धु-बान्धवो ! मैं तुमको परामर्श देता हूँ कि यदि कोई ब्राह्मण तुमसे क्रुद्ध हो जाता है और गाली देता है अथवा कोई मर्मभेदी बात कहता है, तब भी तुमको उसका प्रतिकार नहीं करना चाहिए । इसके विपरीत तुम्हें मुस्कराना चाहिए, उसकी बात सहन करनी चाहिए तथा ब्राह्मण को प्रणाम करना चाहिए । तुमको भलीभाँति ज्ञात है कि मैं भी दिन में तीन बार अत्यन्त आदरपूर्वक ब्राह्मणों को प्रणाम करता हूँ । अतएव तुमको मेरे उपदेश तथा उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए । जो इनका अनुसरण नहीं करता उसे मैं कभी क्षमा नहीं करूंगा, अपितु उसे दण्ड दूँगा । तुमको राजा नृग के उदाहरण से सीखना चाहिए कि यदि कोई अनजाने में भी ब्राह्मण की सम्पत्ति पर अधिकार कर लेता है, तो उसे जीवन की कष्टप्रद स्थिति में डाल दिया जाता है ।"

इस प्रकार बद्धजीवों के शुद्धिकरण में निरन्तर संलग्न रहने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने न केवल अपने परिवार के सदस्यों तथा द्वारकावासियों को उपदेश दिया, अपितु मानव-समाज के समस्त सदस्यों को उपदेश दिया । इसके उपरान्त भगवान् ने अपने महल में प्रवेश किया ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “राजा नृग की कथा” नामक चौंसठवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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