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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 66: पौण्ड्रक तथा काशीराज का उद्धार  » 
 
 
 
 
 
राजा पौण्ड्रक की कथा अत्यन्त रुचिकर है, क्योंकि पृथ्वी पर सदैव ही ऐसे अनेक दुष्ट तथा मूढ़ रहे हैं जिन्होंने स्वयं को भगवान् समझा है । भगवान् श्रीकृष्ण की उपस्थिति में भी ऐसा एक मूर्ख व्यक्ति था । उसका नाम पौण्ड्रक था और वह स्वयं को भगवान् घोषित करना चाहता था । जब भगवान् श्रीबलराम वृन्दावन गए हुए थे, तब करुष प्रदेश के राजा इस पौण्ड्रक ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजा । यह राजा अत्यन्त घमण्डी तथा मूर्ख था । भगवान् श्रीकृष्ण को श्रीभगवान् माना जाता है, किन्तु राजा पौण्ड्रक ने दूत के माध्यम से श्रीकृष्ण को प्रत्यक्ष चुनौती दी । दूत ने कहा कि कृष्ण नहीं अपितु पौण्ड्रक ही वासुदेव है । वर्तमान समय में भी ऐसे दुष्टों के अनेक मूर्ख अनुयायी हैं । उसी भाँति उस समय भी अनेक मूर्ख व्यक्तियों ने पौण्ड्रक को श्रीभगवान् के रूप में स्वीकार कर लिया था । पौण्ड्रक अपनी वस्तुस्थिति का अनुमान न लगा सका, अतएव उसने मिथ्या ही स्वयं को भगवान् वासुदेव समझ लिया । इस प्रकार दूत ने श्रीकृष्ण के समक्ष घोषणा की कि अपनी अहैतुकी दया के कारण भगवान् पौण्ड्रक समस्त दुखी मानवों के उद्धार के लिए ही धरती पर अवतीर्ण हुए हैं । अनेक मूर्खों से घिरे हुए इस दुष्ट पौण्ड्रक ने वास्तव में निर्णय कर लिया था कि वह भगवान् श्रीवासुदेव है । इस प्रकार का निर्णय निश्चित रूप से बचपना है । जब बालक खेल करते हैं, तब कभी-कभी वे अपने मध्य किसी बालक को राजा बना देते हैं और इस प्रकार राजा बनने के लिए चुना गया बालक सोचता है कि वह राजा ही है । उसी भाँति अपने अज्ञान के कारण अनेक मूर्ख व्यक्ति किसी अन्य मूर्ख को राजा के रूप में चुन लेते हैं और तब वह दुष्ट स्वयं को राजा मान लेता है, जैसे कि बचकाने खेल तथा लोगों के मतदान के द्वारा ही भगवान् की सृष्टि की जा सकती है । इस कुप्रभाव के अन्तर्गत स्वयं को परम भगवान् मानते हुए पौण्ड्रक ने श्रीकृष्ण के पद को चुनौती देने के लिए अपना दूत द्वारका भेजा । द्वारका में श्रीकृष्ण की राजसभा में पहुँच कर दूत ने अपने स्वामी पौण्ड्रक का सन्देश दिया । सन्देश में निम्नांकित कथन थे:–

"मैं एकमात्र भगवान् श्री वासुदेव हूँ । मेरी स्पर्धा कोई नहीं कर सकता है । अपनी अहैतुकी दया के कारण दुखी बद्धात्माओं के ऊपर करुणा करके मैं राजा पौण्ड्रक के रूप में अवतीर्ण हुआ हूँ । तुमने वासुदेव का पद अनधिकार ही ग्रहण कर लिया है, तुम्हें इस मिथ्या धारणा का प्रसार नहीं करना चाहिए, तुम्हें अपने पद को त्याग देना चाहिए । ओ यदुवंश की सन्तान ! जिन्हें तुमने झूठमूठ ही धारण कर लिया है, कृपया तुम वासुदेव के उन चिह्नों को त्याग दो । इस पद का त्याग करने के पश्चात् तुम मेरी शरण में आ जाओ । यदि अपनी धृष्टतावश तुम मेरे वचनों की चिन्ता नहीं करते हो तब मैं तुम्हें युद्ध की चुनौती देता हूँ । मैं तुम्हें एक निर्णायक युद्ध के लिए निमंत्रण देता हूँ ।"

जब राजा उग्रसेन सहित राजसभा के समस्त सदस्यों ने पौण्ड्रक के द्वारा प्रेषित इस सन्देश को सुना, तब वे काफी समय तक उच्च स्वर से हँसते रहे । सभा के समस्त सदस्यों के उच्चस्वर में हँसने का आनन्द लेने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने दूत को इस प्रकार से उत्तर दिया-"हे पौण्ड्रक के दूत ! तुम अपने स्वामी के समीप मेरा सन्देश ले जाओ । वह एक मूर्ख तथा दुष्ट व्यक्ति है । मैं प्रत्यक्ष रूप से उसे दुष्ट कहता हूँ और उसके उपदेशों का अनुसरण करना अस्वीकार करता हूँ । मैं वासुदेव के चिह्नों, और विशेष रूप से अपने चक्र का कभी त्याग नहीं करूंगा । मैं न केवल राजा पौण्ड्रक, अपितु उसके समस्त अनुयायियों, का भी वध करने के लिए इस चक्र का उपयोग करूंगा । मैं इस पौण्ड्रक तथा उसके सहयोगियों का सर्वनाश कर दूँगा, क्योंकि वे मात्र ठगों तथा ठगे जाने वाले के समाज के अंग हैं । मूर्ख राजा ! जब यह कार्यवाही की जाएगी तब तुम्हें अपमान से अपना मुख छुपाना पड़ेगा । जब मेरा चक्र तुम्हारे शीश को तुम्हारे धड़ से अलग कर देगा तब इसे गिद्ध, बाज, चील आदि मांस-भक्षी पक्षी घेर लेंगे । उस समय अपनी माँग के अनुसार मेरा शरणस्थल बनने के स्थान पर तुम स्वयं नीच जाति के पक्षियों की दया के भागी होगे । उस समय तुम्हारे शरीर को कुत्तों के समक्ष डाल दिया जाएगा, जो इसे अत्यन्त आनन्दपूर्वक खाएँगे ।"

दूत ने भगवान् श्रीकृष्ण का सन्देश अपने स्वामी पौण्ड्रक को दिया, जिसने धैर्यपूर्वक इन अपशब्दों का श्रवण किया । अधिक प्रतीक्षा न करके इस दुष्ट पौण्ड्रक को दण्ड देने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण अपने रथ पर आरूढ़ होकर तत्काल रवाना हो गए । उस समय करुष का राजा अपने मित्र काशीराज के साथ निवास कर रहा था, अतएव श्रीकृष्ण ने समस्त काशी नगरी को घेर लिया । राजा पौण्ड्रक एक महान् योद्धा था और जैसे ही उसने श्रीकृष्ण के आक्रमण के विषय में सुना, वह दो अक्षौहिणी सैन्य के साथ नगर से बाहर आया । काशीराज, जो राजा पौण्ड्रक का मित्र था, तीन अक्षौहिणी सेना के साथ बाहर आया । जब भगवान् श्रीकृष्ण का सामना करने के लिए वे दोनों राजा भगवान् के सामने आए, तब श्रीकृष्ण ने प्रथम बार पौण्ड्रक को प्रत्यक्ष देखा । श्रीकृष्ण ने देखा कि पौण्ड्रक ने स्वयं को शंख, चक्र, गदा तथा पद्म के चिह्नों से विभूषित कर रखा था । वह शाङ्ग धनुष लिये था और उसके वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न था । उसके कण्ठ में एक नकली कौस्तुभमणि शोभायमान थी और भगवान् श्रीवासुदेव का पूर्ण रूप से अनुकरण करते हुए उसने एक पुष्पमाला धारण की हुई थी । उसने रेशमी पीताम्बर पहना था और श्रीकृष्ण का पूर्णत: अनुकरण करने से उसके रथ के ध्वज पर भी गरुड़ का चिह्न था । वह अपने सिर पर एक अत्यन्त मूल्यवान मुकुट धारण किए था और तेगामछली के समान उसके कुण्डल जगमगा रहे थे । किन्तु समस्त वस्तुओं पर ध्यान देने पर उसके वस्त्र तथा अलंकार स्पष्ट रूप से अनुकरण-मात्र दिखाई देते थे । कोई भी समझ सकता था कि वह झूठा वेश धारण करके मंच पर वासुदेव का अभिनय करने वाले किसी अभिनेता की भाँति ही था । जब भगवान् श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक को अपनी मुद्रा एवं वेशभूषा का अनुकरण करते देखा, तो वे अपनी हँसी न रोक सके और इस प्रकार वे अत्यन्त सन्तोषपूर्वक हँसने लगे । राजा पौण्ड्रक के पक्ष के सैनिक श्रीकृष्ण पर अपने शस्त्रास्त्रों की वर्षा करने लगे । विभिन्न प्रकार के त्रिशूल, गदा, लाठियाँ, भाले, कटार, तलवार एवं बाण सहित समस्त अस्त्र लहर की भाँति भागते हुए आते थे और श्रीकृष्ण उन सबको काट देते थे । उन्होंने न केवल शस्त्रास्त्रों को अपितु पौण्ड्रक के सहायकों तथा सैनिकों को भी उसी भाँति छिन्न-भिन्न कर दिया, जिस प्रकार प्रलय के समय विनाश की अग्नि प्रत्येक वस्तु को जला कर भस्म कर देती है । श्रीकृष्ण ने शस्त्रों के प्रहार से विपक्ष के हाथियों, रथों, घोड़ों एवं पैदल सैनिकों को इधर-उधर बिखरा दिया । रणभूमि में चारों ओर पशुओं के शरीर और रथ बिखर गए । युद्ध भूमि में घोड़े, हाथी, मनुष्य, गधे तथा ऊँट गिरे पड़े थे । यद्यपि विनष्ट रणक्षेत्र प्रलय के समय शिवजी के ताण्डव नृत्य के स्थान की भाँति दिखाई दे रहा था, तथापि श्रीकृष्ण के पक्ष के योद्धा यह देख कर अत्यन्त प्रोत्साहित हुए और वे और भी शक्तिपूर्वक युद्ध करने लगे । इस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा, "पौण्ड्रक !

तुमने मुझसे भगवान् श्रीविष्णु के चिह्नों और विशेष रूप से चक्र को त्यागने की विनती की थी । अब मैं इसे तुमको दूँगा । सावधान ! मेरा अनुकरण करते हुए तुम मिथ्या ही स्वयं को वासुदेव घोषित करते हो, अतएव तुमसे बढ़कर मूर्ख और कोई नहीं है ।" श्रीकृष्ण के इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी दुष्ट, जो स्वयं को भगवान् कह कर विज्ञापित करता है, मानव समाज का सबसे बड़ा मूर्ख है । श्रीकृष्ण ने आगे कहा, "पौण्ड्रक ! अब मैं तुमको इस मिथ्या प्रतिनिधित्व का त्याग करने को बाध्य कर दूँगा । तुम चाहते थे कि मैं तुम्हारी शरण में आ जाऊँ, अब तुम्हारे लिए यही अवसर है । अब हम युद्ध करेंगे और यदि मैं परास्त हो गया और तुम विजयी हो गए तब निश्चय ही मैं तुम्हारी शरण में आ जाऊँगा ।" इस प्रकार कठोरतापूर्वक पौण्ड्रक की निन्दा करने के पश्चात् उन्होंने एक बाण मार कर उसके रथ को छिन्न-भिन्न कर दिया । जिस प्रकार इन्द्र अपने वज्र के आघात से पर्वतों के शिखर काट देता है, उसी भाँति श्रीकृष्ण ने अपने चक्र की सहायता से पौण्ड्रक का शीश उसके शरीर से अलग कर दिया । उन्होंने अपने बाणों से काशीराज का भी वध कर दिया । भगवान् श्रीकृष्ण ने काशीराज के सिर को विशेष रूप से काशी नगरी में ही फेंकने का प्रबन्ध किया जिससे उसके सम्बन्धी तथा मित्र उस सिर को देख सकें । श्रीकृष्ण ने उस सिर को उसी भाँति काशी नगरी में फेंक दिया, जैसे झंझावात एक कमलपत्र को इधर-उधर उड़ा ले जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण ने रणक्षेत्र में पौण्ड्रक तथा उसके मित्र काशीराज का उद्धार किया और उसके पश्चात् वे अपनी राजधनी द्वारका लौट गए ।

जब भगवान् श्रीकृष्ण नगरी वापस लौटे तब स्वर्गलोक के समस्त सिद्ध उनका यश-गान कर रहे थे । जहाँ तक पौण्ड्रक का सम्बन्ध था, वह मिथ्या ही भगवान् वासुदेव की भाँति वेश धारण करके किसी-न-किसी भाँति सदैव उनका चिन्तन करता रहता था । अतएव पौण्ड्रक को पाँच प्रकार की मुक्तियों में से सारूप्य मुक्ति का लाभ हुआ । उसे वैकुण्ठ लोक में स्थान मिला जहाँ चारों हाथों में चारों चिह्नों को धारण किए हुए श्रीविष्णु के समान शारीरिक आकृति वाले भक्त निवास करते हैं । वास्तव में पौण्ड्रक का ध्यान विष्णु रूप पर केन्द्रित था, किन्तु वह स्वयं को ही भगवान् विष्णु समझता था, जो वस्तुत: अपराध था । किन्तु तो भी श्रीकृष्ण ने उसका वध किया । अतएव उसका वह अपराध भी शान्त हो गया था । इस प्रकार उसे सारूप्य मुक्ति प्राप्त हुई और उसे भगवान् के समान रूप प्राप्त हुआ ।

जब काशीराज का शीश नगर द्वार के अन्दर गिरा, तो लोग वहाँ एकत्र हो गए और वह अद्भुत वस्तु देखकर चकित हो गए । जब उन्होंने देखा कि उस पर कुण्डल भी थे तब वे समझ गए कि वह वस्तु किसी का सिर था । वे अनुमान लगाने लगे कि वह किसका सिर हो सकता था । कुछ लोगों ने सोचा कि वह श्रीकृष्ण का सिर था, क्योंकि श्रीकृष्ण काशीराज के शत्रु थे और उन्होंने सोचा कि श्रीकृष्ण का सिर नगर में इसलिए फेंका गया होगा जिससे कि लोग शत्रु के वध पर प्रसन्न हो सकें । किन्तु अन्त में यह ज्ञात हुआ कि वह सिर श्रीकृष्ण का नहीं, अपितु स्वयं काशीराज का ही था । जब इस तथ्य की पुष्टि हो गई तब काशीराज की रानियाँ तत्काल वहाँ आ गई और अपने पति की मृत्यु पर शोक करने लगीं । वे क्रन्दन करने लगीं, “हे स्वामी ! आपकी मृत्यु से हम शव की भाँति हो गई हैं ।" काशीराज का एक पुत्र था जिसका नाम सुदक्षिण था । शास्त्रोक्त मृतक संस्कारों का पालन करने के उपरान्त उसने प्रण किया कि चूँकि कृष्ण उसके पिता का शत्रु है, अतएव वह कृष्ण का वध करेगा और इस प्रकार पितृ-ऋण से उऋण होगा । अतएव अपनी सहायता करने के लिए उपयुक्त एक विद्वान पुरोहित के साथ वह महादेव शिवजी की उपासना करने लगा । काशी राज्य के स्वामी विश्वनाथ भगवान् शिव हैं । भगवान् विश्वनाथ का मन्दिर अभी-भी काशी में है और प्रतिदिन हजारों तीर्थयात्री अभी-भी मन्दिर में एकत्र होते हैं । सुदक्षिण की उपासना से शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हो गए तथा वे अपने भक्त को वरदान देना चाहते थे । सुदक्षिण का उद्देश्य श्रीकृष्ण का वध करना था, अतएव उसने एक विशेष शक्ति के हेतु प्रार्थना की जिससे कि वह उनका वध कर सके । शिवजी ने उसे ब्राह्मणों की सहायता से अपने शत्रु को मारने के लिए किए जाने वाले एक विशेष शास्त्रोत -संस्कार करने का परामर्श दिया । कुछ तंत्रों में भी इस संस्कार का उल्लेख है । शिवजी ने सुदक्षिण को सूचना दी कि यदि उचित रूप से इस संस्कार का सम्पादन किया जाए तब दक्षिणाग्नि नामक दुष्टात्मा प्रकट होगी और उसे जो भी आदेश दिया जाएगा वह पूरा करेगी । किन्तु योग्य ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य किसी के वध के लिए ही उसका प्रयोग किया जा सकता है । ऐसी दशा में उसके साथ शिवजी के प्रेतगण भी रहेंगे और शत्रु पक्ष का वध करने की सुदक्षिण की इच्छा पूर्ण होगी ।

जब शिवजी ने इस प्रकार सुदक्षिण को प्रोत्साहित किया तब उसे विश्वास हो गया कि वह श्रीकृष्ण का वध करने में समर्थ होगा । तपस्या का दृढ़ व्रत लेकर वह पुरोहितों की सहायता से मंत्रों का जप करने लगा । इसके पश्चात् अग्नि में से एक विशाल दैत्याकृति बाहर आई । उसके बाल, दाढ़ी और मूंछे तप्त ताँबे के रंग की थीं । यह आकृति अत्यन्त विशाल व भयंकर थी । जब वह दैत्य अग्नि से निकला तब उसके नयन-कोटरों में से अग्नि की चिनगारियाँ निकल रही थीं । अपने भ्रू-चालन के कारण वह आग्नेय दैत्य और भी अधिक भयंकर प्रतीत होता था । उसने अपने तीक्ष्ण दाँतों का प्रदर्शन किया और अपनी लम्बी जिह्वा बाहर निकाल कर उसने अपने ओष्ठों के दोनों किनारों को चाटा । वह नग्न था तथा उसके पास अग्नि की भाँति प्रज्ज्वलित एक त्रिशूल था । यज्ञ की अग्नि में से प्रकट होने के पश्चात् वह अपने हाथ में त्रिशूल को घुमाते हुए खड़ा हो गया । सुदक्षिण द्वारा उत्तेजित किए जाने पर अपने सैकड़ों प्रेत साथियों सहित वह दैत्य राजधानी द्वारका की ओर बढ़ने लगा । ऐसा प्रतीत होता था कि वह समस्त अन्तरिक्ष को जला कर भस्म कर देगा । उसके पद-प्रहार से समस्त धरातल प्रकम्पित हो उठा । जब उसने द्वारका नगरी में प्रवेश किया, तो समस्त निवासी उसी भाँति भयभीत हो गए जैसे दावाग्नि के समय पशु भयभीत हो जाते हैं । उस समय श्रीकृष्ण राजसभा भवन में चौपड़ खेलने में व्यस्त थे । समस्त द्वारकावासियों ने उनके समीप आकर उन्हें सम्बोधित किया, "हे त्रिभुवन के स्वामी ! एक विशाल आग्नेय दैत्य समस्त द्वारका नगरी को जलाने को तत्पर है । कृपया हमारी रक्षा कीजिए ।" इस प्रकार समस्त द्वारकावासी भगवान् श्रीकृष्ण के समीप आकर उनसे प्रार्थना करने लगे कि समस्त नगर का विनाश करने के लिए द्वारका में प्रकट हुए उस आग्नेय दैत्य से वे उनकी रक्षा करें । अपने भक्तों की विशेष रूप से रक्षा करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि उस विशाल आग्नेय दैत्य की उपस्थिति से द्वारका की समस्त जनता अत्यधिक व्यग्र थी । वे तत्काल मुस्कराने लगे और उन्हें समझाया, "चिन्ता मत करो । मैं तुम्हारी समस्त प्रकार से रक्षा करूंगा ।" भगवान् श्रीकृष्ण सर्वव्यापी हैं । वे सबके हृदय में और सृष्टि के रूप में वे बाहर भी हैं । वे समझ सकते थे कि वह आग्नेय दैत्य शिवजी की करतूत था और उसका नाश करने के लिए उन्होंने सुदर्शन चक्र को उचित कार्यवाही करने का आदेश दिया । करोड़ों सूर्यों की प्रभा के साथ सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ । उसका तापमान इतना प्रखर था जैसे कि प्रलय के समय निर्मित अग्नि का होता है । सुदर्शन चक्र अपनी कान्ति से शिवजी द्वारा निर्मित उस आग्नेय दैत्य को शीतल करने लगा । इस भाँति भगवान् श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र ने उस आग्नेय दैत्य को रोक दिया और द्वारका नगरी के विनाश के अपने प्रयास में विफल होकर वह वापस लौट गया । द्वारका में आग लगाने में असमर्थ होकर वह काशीराज की राजधानी वाराणसी लौट गया । उसकी वापसी के परिणामस्वरूप मंत्रों के आदेश में सहायक सभी पुरोहित अपने स्वामी सुदक्षिण सहित उस आग्नेय दैत्य की जाज्वल्यमान् कान्ति से जल कर भस्म हो गए । तंत्र में निर्देशित मंत्रों की विधि के अनुसार यदि मंत्र शत्रु का वध नहीं कर पाता है, तब वह अपने मूल निर्माता का ही वध कर देता है, क्योंकि किसी-न-किसी का वध करना उसके लिए आवश्यक होता है । सुदक्षिण ने मंत्र का आवाहन किया था और पुरोहितों ने उसकी सहायता की थी, अतएव वे सभी जला कर भस्म कर दिए गए । असुरों की यही रीति है । ईश्वर का वध करने के लिए असुर किसी वस्तु का निर्माण करते हैं और उसी अस्त्र से स्वयं असुरों का ही वध कर दिया जाता है । इस आग्नेय दैत्य के ठीक पीछे उसका अनुसरण करते हुए सुदर्शन चक्र ने भी वाराणसी में प्रवेश किया । दीर्घ काल से वाराणसी नगरी अत्यन्त ऐश्वर्यपूर्ण तथा महान् बनी हुई थी । आज भी वाराणसी नगरी अत्यन्त ऐश्वर्यपूर्ण व प्रसिद्ध है और यह भारत के प्रमुख नगरों में से एक है । उस समय वाराणसी में अनेक विशाल महल, सभागृह, बाजार और गोपुर थे । महलों तथा गोपुरों के समीप अनेक भव्य स्मारक थे । प्रत्येक चौराहे पर उपदेश-मंच थे । एक कोषगृह था । अनेक हाथी, घोड़े तथा रथ थे । वहाँ पर अन्नागार तथा अन्न-वितरण के हेतु स्थान भी थे । दीर्घ काल से वाराणसी नगरी इन समस्त भौतिक ऐश्वर्य से परिपूर्ण रही थी, किन्तु काशीराज तथा उसके पुत्र के श्रीकृष्ण-विरोधी होने के कारण विष्णुचक्र सुदर्शन ने इन समस्त प्रमुख स्थानों को जलाकर समस्त नगर का विनाश कर दिया । यह साहसिक कार्य आधुनिक बमविस्फोट से भी अधिक विनाशकारी था । इस प्रकार अपना कर्तव्य समाप्त करके सुदर्शन चक्र अपने स्वामी श्रीकृष्ण के समीप द्वारका लौट आया ।

श्रीकृष्ण के चक्रास्त्र, सुदर्शन चक्र, के द्वारा वाराणसी नगरी के विनाश की यह कथा दिव्य व शुभ है । जो कोई इस कथा को कहता है अथवा जो कोई श्रद्धा व ध्यानपूर्वक इस कथा का श्रवण करता है उसे समस्त पापों के फल से मुक्ति मिल जाती है । यह श्रीशुकेदव गोस्वामी का विश्वास है, जिन्होंने यह कथा परीक्षित महाराज को सुनाई थी ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “पौण्ड्रक तथा काशिराज का उद्धार” नामक छाछठवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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