भगवान् श्रीकृष्ण की विशिष्टताओं तथा उनकी दिव्य लीलाओं के विषय में जब श्री शुकदेव गोस्वामी इस प्रकार कथन कर रहे थे, तब उनका श्रवण करके राजा परीक्षित और अधिक उत्साहित हो उठे । राजा परीक्षित भगवान् श्रीकृष्ण के लीलामृत का और अधिक पान करना चाहते थे । तदुपरान्त श्री शुकदेव गोस्वामी ने उस द्विविद नामक वानर की कथा कही, जिसका वध भगवान् श्रीबलराम ने किया था । यह वानर भौमासुर अथवा नरकासुर का घनिष्ठ मित्र था । भौमासुर ने समस्त विश्व से सोलह हजार राजकुमारियों का अपहरण किया था और इसी कारण श्रीकृष्ण ने उसका वध किया था । द्विविद राजा सुग्रीव का मंत्री था । उसका भाई मैन्द भी एक शक्तिशाली वानर-राजा था । जब वानर द्विविद ने भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा अपने मित्र भौमासुर के वध का बदला लेने की योजना बनाई तो ग्रामों, नगरों तथा औद्योगिक स्थानों एवं खदानों के साथ ही साथ दुग्ध-उद्योग एवं गोरक्षा में व्यस्त व्यवसायियों के निवास स्थानों को आग लगा देना द्विविद का प्रथम कार्य था । कभी-कभी वह एक बड़े पर्वत को उखाड़ कर उसे छिन्न-भिन्न कर देता था । इस प्रकार उसने सम्पूर्ण देश में और विशेष रूप से कठवर के प्रदेश में भयंकर अव्यवस्था उत्पन्न कर दी । द्वारका नगरी कठवर प्रदेश में स्थित है, एवं भगवान् श्रीकृष्ण इस नगरी में निवास करते थे । अतएव द्विविद ने इसे विशेष रूप से अपने उपद्रव का लक्ष्य बनाया । द्विविद दस हजार हाथियों जितना बलवान् था । कभी-कभी वह सागर-तट पर जाता था और अपने सशक्त हाथों से वह सागर में इतनी हलचल उत्पन्न कर देता था कि समीपस्थ नगरों एवं ग्रामों में बाढ़ आ जाती थी । बहुधा वह साधु-सन्तों के आश्रमों में जाकर उनकी सुन्दर वाटिकाओं तथा उद्यानों को तहसनहस करके अत्यन्त उपद्रव करता था । वह न केवल इस प्रकार उपद्रव करता था, अपितु कभी-कभी वह उनकी पवित्र यज्ञभूमि में मल-मूत्र त्याग देता था । इस प्रकार वह समस्त वातावरण को दूषित कर देता था । वह स्त्रियों तथा पुरुषों का अपहरण भी करता था और उन्हें उनके निवासस्थान से ले जाकर पर्वतों की गुफाओं में रख देता था । जिस प्रकार भृंगी कीट मक्खियों एवं अन्य कीटों को बन्दी बना कर ले जाता है और उन्हें पेड़ों के उन छिद्रों में रख देता है जहाँ वह स्वयं निवास करता है, उसी प्रकार द्विविद अपहृत व्यक्तियों को गुफाओं में रख कर विशाल पाषाण-खण्डों से गुफा का द्वार बन्द कर देता था । इस प्रकार वह नियमित रूप से देश की शान्तिव्यवस्था की अवहेलना कर रहा था । न केवल इतना ही, अपितु कभी-कभी वह कुलीन परिवारों की स्त्रियों पर बलात्कार करके उन्हें भी दूषित कर देता था ।
जब वह इस प्रकार समस्त देश में अव्यवस्था फैला रहा था, तब कभी-कभी वह रैवतक पर्वत से आती हुई मधुर संगीत की ध्वनि सुनता था । अतएव उसने उस पर्वत प्रदेश में प्रवेश किया । वहाँ उसने अनेक रूपवती किशोरियों के मध्य नृत्य एवं गान में संलग्न एवं उनके सानिध्य का आनन्द उठाते हुए भगवान् श्रीबलराम को देखा । भगवान् श्रीबलराम के शरीर का अंग-प्रत्यंग सुन्दर था और उन्होंने कमल-पुष्पों की माला धारण की हुई थी । द्विविद भगवान् श्रीबलराम के शरीर की सुन्दर आकृति पर मुग्ध हो गया । बलराम जी की भाँति वहाँ उपस्थित सभी किशोरियाँ भी अत्यन्त रूपवती थीं और उन्होंने भी पुष्पों की मालाएँ धारण की थीं । भगवान् श्रीबलराम वारुणी का पान कर के पूर्णत:मत्त प्रतीत होते थे एवं उनके नेत्र नशे में घूम से रहे थे । भगवान् श्रीबलराम अनेक हथिनियों के मध्य गजराज की भाँति प्रतीत होते थे । द्विविद नामक यह वानर वृक्षों पर चढ़कर एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूद सकता था । कभी-कभी वह शाखाएँ हिला कर एक विशेष प्रकार की किलकिल ध्वनि करता जिससे कि भगवान् श्रीबलराम का ध्यान मन प्रसन्न करने वाले वातावरण की ओर से विचलित हो गया । कभी-कभी द्विविद स्त्रियों के सम्मुख आकर विभिन्न प्रकार की हास्योत्पादक मुख-मुद्राओं का प्रदर्शन करता था । स्वभावत: स्त्रियाँ किसी भी वस्तु का हास्य तथा विनोदपूर्वक आनन्द उठाती हैं और जब वानर उनके सम्मुख आया तब उन्होंने उसे गम्भीरता से नहीं लिया, अपितु उसके ऊपर हँस पड़ीं । किन्तु वह वानर इतना उद्दण्ड था कि बलराम जी की उपस्थिति में भी वह अपने शरीर के निम्न अंगों को स्त्रियों के समक्ष प्रदर्शित करने लगा । कभी-कभी वह अपनी भौंहें चलाते हुए अपने दाँत दिखाने के लिए आगे आता था । बलराम जी की उपस्थिति में भी उसने स्त्रियों का अनादर किया । भगवान् श्रीबलराम का नाम ही संकेत करता है कि वे न केवल अत्यन्त बलशाली हैं, अपितु वे असाधारण बल का प्रदर्शन करने में आनन्दित होते हैं । अतएव उन्होंने एक पत्थर उठाकर उससे द्विविद को मारा । किन्तु वानर ने कुशलतापूर्वक पत्थर का वार बचा लिया । बलराम जी का अपमान करने के लिए वानर वारुणी का घड़ा उठा कर ले गया । इस प्रकार द्विविद वारुणी पी कर मत्त हो गया और अपनी सीमित शक्ति से बलराम जी तथा उनके साथ की किशोरियों के मूल्यवान वस्त्रों को फाड़ने लगा । वह गर्व से इतना फूल गया था कि सोचने लगा कि बलराम जी उसे कोई दण्ड नहीं दे सकते और वह बलराम जी तथा उनके साथियों को कष्ट देता रहा । जब भगवान् श्रीबलराम ने स्वयं उस वानर द्वारा किए गए उपद्रव को देखा तथा यह सुना कि उसने पहले ही सम्पूर्ण देश में अनेक उपद्रव किए हैं, तब वे अत्यन्त क्रुद्ध हो गए और उन्होंने उसका वध करने का निश्चय किया । तत्काल ही बलराम जी ने अपनी गदा उठा ली । वानर समझ गया कि अब बलराम जी उस पर आक्रमण करने जा रहे हैं । बलराम जी का सामना करने के लिए उसने तत्काल एक विशाल वृक्ष उखाड़ लिया और अत्यन्त तीव्रता से आकर उसने भगवान् बलराम के सिर पर आघात किया । भगवान् श्रीबलराम ने तत्काल उस विशाल वृक्ष को पकड़ लिया और स्वयं एक महान् पर्वत की भाँति अविचलित खड़े रहे । प्रतिकार के हेतु उन्होंने अपनी सुनन्द नामक गदा लेकर उससे वानर पर प्रहार करना प्रारम्भ किया । वानर के सिर पर गम्भीर चोट पहुँची । उसके सिर से रक्त-धारा अत्यन्त तीव्रता से प्रवाहित होने लगी, किन्तु रक्त की धार से उसके सौन्दर्य में उसी प्रकार वृद्धि हो रही थी जिस प्रकार किसी विशाल पर्वत से प्रवाहित होती हुई तरल लौह-धारा से पर्वत का सौन्दर्य बढ़ जाता है । बलराम जी की गदा के आघात ने उसे तनिक भी विचलित नहीं किया ।
इसके विपरीत उसने तत्काल एक और विशाल वृक्ष उखाड़ लिया और उसके सभी पत्रों को तोड़ने के उपरान्त उससे बलराम जी के सिर पर प्रहार करना प्रारम्भ किया । किन्तु अपनी गदा की सहायता से बलराम जी ने वृक्ष के टुकड़े-टुकड़े कर दिए । वानर अत्यन्त क्रोधित था, अत: उसने अपने हाथों में एक अन्य वृक्ष लेकर उससे भगवान् श्रीबलराम जी के शरीर पर आघात करना प्रारम्भ किया । भगवान् श्रीबलराम ने पुन: उस वृक्ष के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और इस प्रकार युद्ध चलता रहा । प्रत्येक बार जब वानर बलराम जी पर आघात करने के लिए एक विशाल वृक्ष लाता तो भगवान् श्रीबलराम अपनी गदा से प्रहार से वृक्ष के टुकड़े-टुकड़े कर देते । वानर द्विविद दूसरी दिशा से एक और पेड़ लाकर पुन: बलराम जी पर उसी भाँति आक्रमण करता रहा । इस सतत युद्ध के परिणामस्वरूप समस्त वन वृक्षविहीन हो गया । जब और वृक्ष नहीं बचे तब द्विविद ने पर्वतों की सहायता ली और बलराम जी के शरीर पर विशाल पाषाण-खण्डों की वर्षा करने लगा । क्रीड़ापूर्ण मन:स्थिति में भगवान् श्रीबलराम भी उन विशाल पाषाणों को तोड़ कर छोटे-छोटे कंकड़ों में परिवर्तित करने लगे । अन्तत: समस्त वृक्षों तथा शिलाओं से वंचित हो कर वह वानर बलराम जी के सम्मुख खड़ा हो गया एवं अपने शक्तिशाली घूंसे दिखाने लगा । तदुपरान्त वह अपनी मुट्ठी से बलराम जी के वक्ष पर प्रबल प्रहार करने लगा । इस बार भगवान् श्रीबलराम अत्यन्त क्रोधित हो उठे । वानर उन पर अपने हाथों से प्रहार कर रहा था, अतएव बलराम जी ने भी उस पर अपने अस्त्र गदा अथवा हल से प्रहार नहीं किया । बलराम जी केवल अपनी मुट्ठी से वानर के कण्ठ की हड्ड़ी पर प्रहार करने लगे । यह आघात द्विविद के लिए प्राणान्तक सिद्ध हुआ, उसने तत्काल रक्त वमन कर दिया और अचेत हो कर धरती पर गिर पड़ा । जब वह वानर गिरा तब ऐसा प्रतीत हुआ कि सभी पर्वत एवं वन हिल उठे हों । इस भयंकर घटना के उपरान्त समस्त सिद्ध, साधु एवं सन्त जन स्वर्गलोक से भगवान् श्रीबलराम पर पुष्पवर्षा करने लगे । भगवान् श्रीबलराम की श्रेष्ठता के यशगान की ध्वनि गूँज उठी । वे सब उच्चारण करने लगे, "भगवान् श्रीबलराम यशस्वी हों, हम आपके चरणकमलों में सादर प्रणाम करते हैं । इस असुर द्विविद का वध करके आपने विश्व में एक शुभ युग का शुभारम्भ किया है ।" विजय की ऐसी हर्षध्वनियाँ अन्तरिक्ष में से सुनाई पड़ीं । असुर द्विविद का वध करने तथा विजय की यशस्वी ध्वनियों तथा पुष्पों के द्वारा पूजित होने के पश्चात् बलराम जी अपनी राजधनी द्वारका लौट आए ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “वानर द्विविद का उद्धार” नामक अध्याय सरसठवें का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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