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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 68: साम्ब का विवाह  » 
 
 
 
 
 
धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन की एक विवाह योग्य पुत्री थी, जिसका नाम लक्ष्मणा था । वह कुरुवंश की एक अत्यधिक योग्य कन्या थी और अनेक राजकुमार उससे विवाह करना चाहते थे । ऐसी दशा में स्वयंवर-संस्कार का समायोजन किया जाता है, जिससे कि कन्या अपनी रुचि के अनुसार वर का चुनाव कर सके । लक्ष्मणा स्वयंवर-सभा में जब वर चुनने वाली थी, तब साम्ब वहाँ उपस्थित हुए । भगवान् श्रीकृष्ण की प्रमुख रानियों में से एक श्रीमती जाम्बवती तथा श्रीकृष्ण के वे पुत्र थे । साम्ब को यह नाम इसलिए दिया गया था, क्योंकि वह एक अति दुष्ट बालक थे तथा सदैव अपनी माता के समीप रहते थे । साम्ब नाम ऐसे पुत्र की ओर संकेत करता है, जो अपनी माता का अत्यधिक दुलारा होता है । अम्बा का अर्थ है माता और स का अर्थ है साथ । अतएव साम्ब को यह विशेष नाम इसलिए दिया गया था, क्योंकि वह सदैव अपनी माता के साथ रहता था । इसी कारण वे जाम्बवतीसुत नाम से भी विख्यात थे । जैसाकि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है, श्रीकृष्ण के सभी पुत्र अपने महान् पिता भगवान् श्रीकृष्ण के समान ही योग्य थे । यद्यपि लक्ष्मणा साम्ब से विवाह करने को इच्छुक नहीं थी, तथापि साम्ब दुर्योधन–सुता लक्ष्मणा को प्राप्त करना चाहता था । अतएव साम्ब ने स्वयंवर-सभा से बलपूर्वक लक्ष्मणा का अपहरण कर लिया । चूँकि साम्ब सभा से लक्ष्मणा को बलपूर्वक ले गया, अतएव धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, उजहन तथा अर्जुन आदि कुरुवंश के सभी सदस्यों ने इसे अपनी पारिवारिक परम्परा का अपमान समझा कि किशोर साम्ब ने उनकी पुत्री का अपहरण कर लिया । उन सबको ज्ञात था कि साम्ब को वरण करने में लक्ष्मणा की तनिक भी अभिरुचि नहीं है । उसे अपने पति का स्वयं चुनाव करने का अवसर नहीं दिया गया, अपितु इसके स्थान पर यह किशोर उसे बलपूर्वक उठा ले गया । अतएव उन्होंने निश्चय किया कि उसे दण्ड देना चाहिए । उन्होंने एकमत होकर घोषणा की कि साम्ब अत्यन्त धृष्ट है और उसने कुरुओं की कुल परम्परा का अपमान किया है । अतएव कुरु परिवार के वयोवृद्धों के परामर्श के अधीन उन सबने उस किशोर का वध न करते हुए उसे बन्दी बनाने का निश्चय किया । उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि लक्ष्मणा का विवाह अब साम्ब के अतिरिक्त अन्य किसी युवक से नहीं किया जा सकता है, क्योंकि साम्ब ने पहले से उसका स्पर्श कर लिया है । (वैदिक प्रणाली के अनुसार किसी एक युवक के द्वारा उपभोग कर लिए जाने के पश्चात् कन्या का विवाह किसी अन्य युवक से नहीं किया जा सकता है । न ही कोई ऐसी कन्या से विवाह करने को सहमत होगा जिसका किसी अन्य युवक से इस प्रकार सम्बन्ध रहा हो ।) भीष्म जैसे वयोवृद्ध परिवार के सदस्य उसे बन्दी बनाना चाहते थे । साम्ब को पाठ पढ़ाने के लिए कुरुवंश के समस्त सदस्य, विशेष रूप से महान् योद्धागण, एक हो गए और इस छोटे से युद्ध के लिए कर्ण को सेनापति बनाया गया । जब साम्ब को बन्दी बनाने की योजना बनाई जा रही थी, तब कौरवों ने आपस में विचार किया कि उसके बन्दी होने पर यदुबंशी उनसे अत्यन्त क्रुद्ध हो जाएँगे । ऐसी सम्भावना भी थी कि यदुबंशी इस चुनौती को स्वीकार करके उनसे युद्ध छेड़ दें । किन्तु वे भी सोचने लगे, "यदि वे यहाँ युद्ध करने के लिए आएँ तो भी वे क्या कर सकेंगे ? यदुबंशी कुरुवंशियों की समता नहीं कर सकते हैं, क्योंकि कुरुवंश के राजा सम्राट् हैं जबकि यदुवंश के राजा केवल अपनी भू-सम्पत्ति का उपभोग कर सकते हैं ।"कौरवों ने सोचा, "यदि अपने पुत्र के बन्दी होने के कारण वे हमें चुनौती देने यहाँ आएँ तो हम भी युद्ध की चुनौती स्वीकार कर लेंगे । हम सब उन्हें ऐसा पाठ पढ़ाएँगे कि दबाव में आकर अपने आप उनका दमन हो जाएगा, जैसे कि प्राणायाम की योगिक प्रक्रिया के द्वारा इन्द्रियों का दमन को जाता है ।" योग की यांत्रिक प्रणाली में शरीर के अन्दर की वायु का नियमन किया जाता है तथा इन्द्रियों का दमन करके उन्हें भगवान् विष्णु पर ध्यान करने के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में संलग्न होने से रोक दिया जाता है । भीष्म तथा धृतराष्ट्र जैसे कुरुवंश के वयोवृद्ध सदस्यों से परामर्श करने तथा उनकी अनुमति प्राप्त करने के उपरान्त कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु तथा कन्या के पिता दुर्योधन आदि महान् योद्धाओं ने, जो महारथी कहलाते थे, उन सबसे महान् योद्धा भीष्मदेव के मार्गदर्शन में किशोर साम्ब को बन्दी बनाने का प्रयास किया । उनकी युद्ध कुशलता के अनुसार योद्धाओं का विभिन्न स्तरों में वर्गीकरण किया जाता है । उनमें महारथी, एकरथी तथा रथी नामक वर्ग भी हैं । ये महारथी अकेले ही सहस्रों पुरुषों से युद्ध कर सकते थे । साम्ब को बन्दी बनाने के लिए वे सब एक हो गए । साम्ब भी एक महारथी था, किन्तु अकेला था और उसे छ: अन्य महारथियों से युद्ध करना था । फिर भी जब उसने कुरुवंश के समस्त महान् योद्धाओं को उसे बन्दी बनाने के लिए अपने पीछे आते हुए देखा, तो वह भयभीत नहीं हुआ । वह एकाकी ही उनकी ओर मुड़ा और अपना उत्तम धनुष लेकर उसी मुद्रा में खड़ा हो गया जैसे वन्य पशुओं के सम्मुख सिंह दृढ़तापूर्वक खड़ा रहता है । कर्ण उस टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे और उन्होंने साम्ब को चुनौती दी, "भाग क्यों रहे हो, खड़े रहो, तो हम तुम्हें पाठ पढ़ाएँ ।" जब एक क्षत्रिय दूसरे को खड़े रह कर युद्ध करने की चुनौती देता है, तब वह क्षत्रिय जा नहीं सकता है, उसे अवश्य ही युद्ध करना होता है । अतएव, जैसे ही साम्ब ने चुनौती स्वीकार की और अकेला ही उनके सम्मुख खड़ा हुआ, उन समस्त महान् योद्धाओं ने उस पर एकसाथ बाण-वर्षा आरम्भ कर दी । जिस प्रकार सिंह अनेक भेड़ियों तथा सियारों के द्वारा पीछा किए जाने पर भयभीत नहीं होता है, उसी भाँति यदुबंशी यशस्वी पुत्र साम्ब भी भयभीत नहीं हुआ । भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र के रूप में साम्ब अचिन्त्य शक्तियों से युक्त था । कुरुवंश के योद्धाओं ने अनुचित रूप से उसके विरुद्ध बाणों का प्रयोग किया था, अतएव साम्ब अत्यन्त क्रोधित हो गया । उसने अत्यन्त कौशलपूर्वक उनसे युद्ध किया । सर्वप्रथम उसने छहों सारथियों को छ: अलग-अलग बाण मारे । प्रत्येक रथ पर चार-चार बाण मार कर, चार अन्य बाणों का उपयोग उसने सारथियों के घोड़ों का वध करने के लिए किया । एक बाण का उपयोग रथवान के लिए तथा एक-एक बाण कर्ण तथा अन्य प्रसिद्ध योद्धाओं के लिए उसने चलाए । जब साम्ब इस प्रकार परिश्रमपूर्वक अकेले ही छहों महान् योद्धाओं से युद्ध कर रहा था तब उन योद्धाओं ने साम्ब की अचिन्त्य शक्ति की सराहना की । युद्ध के मध्य भी उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि वह किशोर साम्ब अद्भुत था । किन्तु क्षत्रियोचित रीति से युद्ध चलता रहा और यद्यपि यह अनुचित था, तथापि उन सबने मिलकर साम्ब के रथ को खण्ड़-खण्ड़ करके उसे रथ से उतरने के लिए बाध्य कर दिया । छ: योद्धाओं में से चार ने साम्ब के चारों घोड़ों को मार दिया और एक ने साम्ब के धनुष की डोरी काट दी जिससे कि वह अब उनसे युद्ध करने में असमर्थ हो गया । इस प्रकार घोर युद्ध के पश्चात् तथा अत्यन्त कठिनाई से वे साम्ब को रथविहीन करके उसे बन्दी बनाने में सफल हुए । इस तरह कुरु वंश के योद्धा विजयी होकर अपनी पुत्री लक्ष्मणा को उससे छीन ले गए । इसके उपरान्त अपनी विजय पर उल्लसित होते हुए उन्होंने हस्तिनापुर में प्रवेश किया । महर्षि नारद ने तत्काल ही यदुवंश को यह सूचना पहुँचाई कि साम्ब बन्दी बना लिया गया है । उन्होंने यदुवंशियों को समस्त कथा सुनाई । साम्ब के बन्दी बनाए जाने पर तथा विशेष रूप से छ: योद्धाओं द्वारा अनुचित रीति से उसके बन्दी बनाए जाने पर यदुबंशी अत्यधिक कृद्ध हो गए । अत: यदुवंश के राजा उग्रसेन की अनुमति प्राप्त करके वे कुरुवंश की राजधानी पर आक्रमण करने को तत्पर हुए । यद्यपि भगवान् श्रीबलराम को भलीभाँति ज्ञात था कि कलियुग में लोग छोटीसी बात पर युद्ध करने को तत्पर रहते हैं, फिर भी उन्हें यह विचार रुचिकर नहीं लगा कि कलियुग से प्रभावित होने पर भी दो महान् वंश, कुरुवंश तथा यदुवंश, परस्पर युद्ध करें । उन्होंने बुद्धिमतापूर्वक विचार किया, "उनसे युद्ध करने के स्थान पर मुझे वहाँ जाकर स्थिति का निरीक्षण करने की अनुमति दीजिए । मुझे प्रयास करने दीजिए कि यह विवाद परस्पर समझौते के द्वारा समाप्त कर दिया जाए ।" बलराम जी का विचार था कि यदि कुरुवंश साम्ब को उसकी पत्नी लक्ष्मणा सहित मुक्त करने पर सहमत हो जाए, तो युद्ध से बचा जा सकता है । अतएव उन्होंने विद्वान पुरोहित तथा ब्राह्मणों और साथ ही साथ यदुवंश के कुछ वयोवृद्ध सदस्यों सहित हस्तिनापुर जाने के लिए तत्काल ही एक उत्तम रथ का प्रबन्ध किया । उन्हें विश्वास था कि कुरुबंशी इस विवाह के लिए सहमत हो जाएँगे और आपस में युद्ध की सम्भावना टल जाएगी । विद्वान ब्राह्मणों तथा यदुवंश के वयोवृद्धों सहित रथ पर हस्तिनापुर जाते हुए भगवान् श्रीबलराम ऐसे प्रतीत होते थे जैसे शुभ्र आकाश में जगमगाते हुए नक्षत्रों के मध्य चन्द्रमा चमकता है । जब भगवान् श्रीबलराम हस्तिनापुर की सीमा पर पहुँचे तब उन्होंने नगर में प्रवेश नहीं किया, अपितु वे एक छोटे से उद्यानगृह में ठहरे । तत्पश्चात् उन्होंने उद्धवजी से कहा कि वे कुरुवंश के प्रमुखों से भेंट करके उनसे पूछे कि वे यदुवंश से युद्ध करना चाहते हैं अथवा समझौता करना चाहते हैं । उद्धव जी कुरुवंश के प्रमुखों से भेंट करने गए और उन्होंने श्री भीष्मदेव, श्रीधृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, श्रीबलि, श्रीदुर्योधन तथा श्रीबाहीक सहित समस्त प्रमुख सदस्यों से भेंट की । उन्हें यथोचित प्रणाम करने के उपरान्त उद्धव जी ने उन्हें बताया कि भगवान् श्रीबलराम नगरद्वार के बाहर उद्यान में आ चुके हैं । कुरुवंश के प्रमुख, विशेष रूप से धृतराष्ट्र व दुर्योधन अत्यन्त हर्षित हो गए क्योंकि उन्हें भलीभाँति ज्ञात था कि भगवान् श्रीबलराम उनके परिवार के एक महान् शुभचिन्तक हैं । यह समाचार सुनकर उनके हर्ष की सीमा न रही, अतएव उन्होंने तत्काल ही उद्धव जी का स्वागत किया । भगवान् श्रीबलराम का उचित रूप से स्वागत करने के लिए उन्होंने अपने हाथों में उनके स्वागतार्थ शुभ सामग्री ली और उनसे भेंट करने नगर-द्वार के बाहर गए । अपने-अपने पद के अनुसार उन्होंने भगवान् श्रीबलराम को उतम गाएँ तथा अर्घ देकर उनका स्वागत किया । (आरात्रिक जल, मधु, मक्खन आदि की बनी मीठी वस्तुएँ पुष्प तथा चन्दन के आलेप से सुगंधित माला आदि पदार्थों को अर्घ कहा जाता है ।) उन सबको ज्ञात था कि भगवान् श्रीबलराम ही श्रीभगवान् हैं, अतएव उन्होंने भगवान् के सम्मुख अत्यन्त आदरपूर्वक सिर झुका कर प्रणाम किया । परस्पर एक दूसरे का सुख-समाचार पूछकर उन्होंने एक दूसरे का स्वागत किया और जब यह औपचारिकता पूर्ण हो गई, तब भगवान् श्रीबलराम ने गम्भीर स्वर में तथा अत्यन्त धैर्यपूर्वक उनके सम्मुख निम्नांकित शब्द विचारार्थ प्रस्तुत किए-"प्रिय मित्रों ! इस समय मैं सर्वशक्तिमान राजा उग्रसेन का आदेश लेकर एक दूत के रूप में आपके समीप आया हूँ । अतएव, कृपया आप ध्यानपूर्वक सावधानी से यह आदेश सुनिए । कृपया एक क्षण भी नष्ट न करके तत्काल आदेश को पूर्ण करने का प्रयास कीजिए । राजा उग्रसेन को भलीभाँति ज्ञात है कि कुरुवंश के आप योद्धाओं ने अकेले साम्ब से अनुचित रूप से युद्ध करके उसे बन्दी बना लिया है । उसे बन्दी बनाने में आपको अत्यन्त कठिनाई उठानी पड़ी तथा व्यूह रचना करनी पड़ी । हम सबने यह समाचार सुना है, किन्तु हम अधिक उद्विग्न नहीं हुए, क्योंकि हम परस्पर अत्यन्त घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । मेरे विचार में हमें अपने अच्छे सम्बन्धों को बिगाड़ना नहीं चाहिए, हमें अनावश्यक युद्ध न करके अपनी मैत्री स्थिर रखनी चाहिए । अतएव कृपया साम्ब को तत्काल मुक्त कर दीजिए तथा उसकी पत्नी लक्ष्मणा सहित उसे मेरे समक्ष ले आइए ।" जब भगवान् श्रीबलराम ने शौर्यपूर्ण अधिकार, श्रेष्ठता तथा वीरतायुक्त आदेशपूर्ण स्वर में ये शब्द कहे, तब उनके कथन कुरुवंश के प्रमुखों को रुचिकर नहीं प्रतीत हुए । इसके विपरीत वे सब उद्वेलित हो उठे और अत्यन्त क्रोध से उन्होंने कहा, "अहो ! ये शब्द चकित करने वाले हैं, किन्तु कलियुग के अनुकूल ही हैं, अन्यथा बलराम इस प्रकार निन्दनीय रीति से कैसे बोल सकते थे ? बलराम जी के द्वारा प्रयुक्त भाषा तथा शैली अपमानजनक है और ऐसा प्रतीत होता है कि इस युग के प्रभाव के कारण पैरों के लिए उपयुक्त पादुका सिर पर चढ़ना चाहती है, जहाँ मुकुट धारण किया जाता है । यदुवंश से हमारा सम्बन्ध विवाह के कारण है और इसी कारण उन्हें हमारे साथ निवास करने, भोजन करने तथा शयन करने का अवसर दिया गया है । अब वे इन विशेषाधिकारों का लाभ उठा रहे हैं । जब हमनें उन्हें राज्य करने के लिए अपने राज्य का एक भाग दिया, उससे पूर्व उनका कोई स्थान नहीं था और अब वे हमें ही आदेश देने का प्रयास कर रहे हैं । हमने यदुवंश को चँवर, पंखा, शंख, श्वेत छत्र, राजमुकुट, राजसिंहासन, आसन, पलंग तथा राजवंशों के लिए उपयुक्त प्रत्येक राजचिह्नों का उपयोग करने दिया । उन्हें ऐसी राजसी सामग्री का प्रयोग हमारी उपस्थिति में नहीं करना चाहिए था, किन्तु हमने अपने पारिवारिक सम्बन्ध का ध्यान करके उन्हें नहीं रोका । अब वे हमें ही आदेश देने की धृष्टता कर रहे हैं

। उनकी धृष्टता की सीमा समाप्त हो गई । अब हम उन्हें आगे इस प्रकार कार्य करने की अनुमति नहीं दे सकते हैं, न ही अब हम उन्हें इन राजचिह्नों का उपयोग करने देंगे । इन सब वस्तुओं को उनसे छीन लेना ही सर्वोत्तम होगा । सर्प को दूध पिलाना अनुचित है, क्योंकि ऐसा दयापूर्ण कार्य उसके विष में वृद्धि ही करता है । यदुवंशियों ने जिस थाली में खाया अब वे उसी में छेद करने का प्रयास कर रहे हैं । उनकी सम्पन्न स्थिति हमारे उपहारों तथा सदय व्यवहार के कारण ही है, फिर भी वे इतने निर्लज्ज हैं कि वे हमें ही आदेश देने का प्रयास कर रहे हैं । ये सब कार्यकलाप कितने खेदपूर्ण हैं । यदि भीष्म, द्रोणाचार्य और अर्जुन जैसे कुरुवंश के सदस्य अनुमति न दें, तो इस विश्व में कोई भी किसी वस्तु का उपभोग नहीं कर सकता है । जैसे कि सिंह की उपस्थिति में मेमना जीवन का उपभोग नहीं कर सकता है, उसी भाँति हमारी इच्छा के बिना स्वर्ग के राजा इन्द्र आदि देवताओं के लिए भी जीवन में आनन्द उठाना सम्भव नहीं है, फिर साधारण मानवों का तो कहना ही क्या !" वस्तुतः कुरुवंश के सदस्य अपने ऐश्वर्य, राज्य, कुलीनता, पारिवारिक परम्परा, महान् योद्धाओं, परिवार के सदस्यों तथा विशाल साम्राज्य के कारण अत्यन्त गर्वोन्मत्त हो गए थे । उन्होंने सभ्य समाज की सामान्य औपचारिकता का भी पालन नहीं किया और भगवान् श्रीबलराम की उपस्थिति में यदुवंश के लिए अपमानजनक शब्द कहे । इस प्रकार शिष्टाचार-विहीन रीति से वार्तालाप करते हुए वे अपने नगर हस्तिनापुर लौट गए ।

यद्यपि भगवान् श्रीबलराम ने उनके अपमानजनक शब्दों को धैर्यपूर्वक सुना तथा उनके असभ्य व्यवहार को चुपचाप देखा, तथापि उनकी आकृति से यह स्पष्ट हो गया कि वे क्रोध से जल रहे हैं तथा अत्यन्त प्रतिहिंसापूर्वक प्रतिशोध लेने का विचार कर रहे हैं । उनके शरीर की आकृति इतनी उद्विग्न हो गई कि किसी के लिए भी उनकी ओर देख सकना कठिन था । वे उच्च स्वर से हँसे और बोले, "यह सत्य है कि यदि कोई व्यक्ति अपने परिवार, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और भौतिक प्रगति के कारण अत्यन्त गर्वोन्मत्त हो जाता है, तब उसे शान्तिपूर्ण जीवन की इच्छा नहीं रहती है । वह अन्य सबके प्रति वैर-भाव रखता है । ऐसे व्यक्ति को मृदु व्यवहार तथा शान्तिपूर्ण जीवन के लिए सदुपदेश देना व्यर्थ है । इसके विपरीत उसे दण्ड देने के लिए मार्ग तथा साधनों की खोज करनी चाहिए । सामान्यतया भौतिक ऐश्वर्य के कारण मनुष्य पशु के समान बन जाता है । पशु को शान्तिपूर्ण रहने का उपदेश देना व्यर्थ है । दूसरे शब्दों में, पशुओं को ठीक राह पर चलाने का एकमात्र साधन डंडा है । "देखो तो कि कुरुवंश के सदस्य कितने धृष्ट हैं । स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण सहित यदुवंश के समस्त सदस्यों के अत्यन्त कृद्ध होने पर भी मैं शान्तिपूर्ण समझौता करना चाहता था । वे कुरुवंश के समस्त राज्य पर आक्रमण करने को तत्पर थे, किन्तु मैंने उन्हें शान्त किया और यहाँ आकर बिना युद्ध के मामले का समझौता कराने का कष्ट किया । इस पर भी वे दुष्ट ऐसा व्यवहार करते हैं । यह स्पष्ट है कि वे शान्तिपूर्ण समझौते के इच्छुक नहीं हैं, अपितु तथ्य यह है कि वे युद्ध के इच्छुक हैं । उन्होंने यदुवंश को गाली देते हुए अत्यन्त घमण्ड से मेरा अपमान किया है । "स्वर्ग का राजा इन्द्र भी यदुवंश के आदेश का पालन करता है और तुम भोज, वृष्णि, अन्धक तथा यदुवंश के प्रमुख राजा उग्रसेन को एक छोटी सी टुकड़ी का नायक कहते हो ! तुम्हारा निष्कर्ष अद्भुत है ! तुम्हें राजा उग्रसेन की परवाह नहीं है, जिनके आदेश का पालन राजा इन्द्र भी करता है । यदुवंश के श्रेष्ठ पद पर विचार करो । उन्होंने बलपूर्वक स्वर्गलोक के सभागृह तथा पारिजात वृक्ष दोनों का उपयोग किया है और फिर भी तुम सोचते हो कि वे तुम्हें आदेश नहीं दे सकते हैं । क्या तुम यह भी विचार नहीं करते कि भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ राजसिंहासन पर बैठ सकते हैं और प्रत्येक व्यक्ति को आदेश दे सकते हैं । ठीक है ! यदि तुम्हारा ऐसा ही विचार है, तब तुम इसी बात के अधिकारी हो कि तुम्हें एक अच्छा पाठ पढ़ाया जाए । चँवर, पंखा, श्वेत छत्र, राज सिंहासन आदि अन्य राजसी सामग्री जैसे राजसी चिहों का उपयोग यदुवंश न करे यह सोचने में तुमने अपनी बुद्धिमानी समझी है । क्या इसका यह अर्थ है कि समस्त सृष्टि के भगवान्, श्रीदेवी लक्ष्मी के पति भगवान् श्रीकृष्ण भी इस राजसी सामग्री का उपयोग नहीं कर सकते हैं ? श्रीकृष्ण के चरणकमलों की धूलि की उपासना समस्त महान् देवता भी करते हैं । गंगाजल समस्त जगत् को जल प्रदान कर रहा है और यह जल श्रीकृष्ण के चरणकमलों से निकल रहा है । अतएव गंगा के तट महान् तीर्थस्थान बन गए हैं । समस्त ग्रहों के प्रमुख देवता उनकी सेवा में संलग्न हैं और श्रीकृष्ण के कमल-चरणों की धूलि को अपने सिर पर धारण करने में वे अपना सौभाग्य मानते हैं । ब्रह्माजी, शिवजी जैसे महान् देवता, श्रीदेवी लक्ष्मी तथा मैं भी श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक स्वरूप का एक आंशिक अंग हैं । फिर भी क्या तुम सोचते हो कि वे राजसी चिह्नों को धारण करने तथा राजसिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हैं ? अरे ! यह कितने दुःख की बात है कि ये मूर्ख यदुवंश के लोग हम सदस्यों को पादुका के समान समझते हैं और स्वयं को मुकुट के समान । अब यह स्पष्ट हो गया है कि कुरुवंश के ये नेता अपनी लौकिक सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य के गर्व में उन्मत्त हो गए हैं । उनका प्रत्येक कथन उन्मत्त प्रस्तावों से पूर्ण था । मैं तत्काल उन्हें प्रताड़ित करूंगा और उनकी बुद्धि ठिकाने लगा दूँगा । यदि मैं उनके विरुद्ध कदम न उठाऊँ, तो यह मेरे लिए अनुचित होगा । अतएव मैं आज ही समस्त जगत् से कुरुवंश का चिह्न ही मिटा डालूँगा । मैं तत्काल ही उनका विनाश कर दूँगा ।" इस प्रकार कहते हुए भगवान् श्रीबलराम अत्यन्त क्रुद्ध थे । उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि वे समस्त सृष्टि को जला कर भस्म कर सकते हैं । वे दृढ़तापूर्वक खड़े हो गए और अपना हल अपने हाथ में पकड़ कर उससे भूमि पर प्रहार करने लगे । इस प्रकार हस्तिनापुर का पूर्ण नगर पृथ्वी से विलग हो गया । तत्पश्चात् भगवान् श्रीबलराम इस नगर को गंगा नदी की जलधारा की ओर घसीटने लगे । इस कारण पूरे हस्तिनापुर में ऐसा कम्पन्न हुआ जैसे कि भूकम्प आ गया हो और ऐसा प्रतीत हुआ कि समस्त नगर छिन्न-भिन्न हो जाएगा । जब कुरुवंश के समस्त सदस्यों ने देखा कि उनका नगर गंगा के जल में गिरने वाला है और जब उन्होंने अपने नागरिकों का आर्तनाद सुना, तो तत्काल ही उनकी बुद्धि ठिकाने आ गई और वे समझ गए कि क्या हो रहा है । इस प्रकार एक क्षण का भी विलम्ब किए बिना वे अपनी पुत्री लक्ष्मणा को आगे ले आए । साम्ब ने लक्ष्मणा को हर ले जाने का प्रयास किया था । वे साम्ब को आगे करके उसके पीछे लक्ष्मणा को रख कर साम्ब को भी ले आए । श्रीभगवान् से क्षमा माँगने के लिए कुरुवंश के समस्त सदस्य भगवान् श्रीबलराम के समक्ष हाथ जोड़ कर उपस्थित हुए । अब सद्बुद्धि का उपयोग करते हुए उन्होंने कहा, "हे भगवान् श्रीबलराम ! आप समस्त सुखों के सागर हैं । आप समस्त सृष्टि के पालक व अवलम्ब हैं । दुर्भाग्यवश हमें आपकी अचिन्त्य शक्तियों का ज्ञान नहीं था । प्रिय भगवन् ! कृपया हमें महामूढ़ समझ कर क्षमा कर दीजिए । हमारी बुद्धि भ्रमित व भ्रष्ट हो गई थी । अतएव हम अब आपके सम्मुख आपसे क्षमा माँगने के लिए आए हैं । कृपया हमें क्षमा कीजिए । आप समस्त सृष्टि के आदि स्रष्टा, पालक तथा संहारकर्ता हैं, तत्पश्चात् भी आपकी स्थिति सदैव ही दिव्य है । हे सर्व-शक्तिमान भगवान् ! महान् सन्त आपके विषय में चर्चा करते हैं । आप आदि हैं और जगत् की प्रत्येक वस्तु आपके खिलौने जैसी है । हे अनन्त ! प्रत्येक वस्तु पर आपका अधिकार है और बाल-क्रीड़ा की भाँति आपने समस्त लोकों को अपने सिर पर धारण कर रखा है । प्रलय के समय आप समस्त सृष्टि को अपने में बन्द कर लेते हैं । उस समय कारण-समुद्र में महाविष्णु के रूप में शयन करते हुए आपके अतिरिक्त और कुछ भी शेष नहीं रहता है । प्रिय भगवन् ! आप अपने अप्राकृत शरीर में, इस पृथ्वी पर केवल सृष्टि को बनाए रखने के लिए ही प्रकट हुए हैं । आप समस्त क्रोध, द्वेष तथा वैर से ऊपर हैं । दण्ड के रूप में भी आप जो कुछ भी करते हैं वह समस्त भौतिक जगत् के लिए मांगलिक है । आप अविनाशी श्रीभगवान् हैं, अतएव हम आपको सादर प्रणाम करते हैं । आप समस्त ऐश्वर्यों तथा शक्तियों के सागर हैं । हे असंख्य ब्रह्मांडों के रचयिता ! हम बारम्बार आपके चरणों में गिर कर आपको प्रणाम करते हैं । हम अब पूर्णरूपेण आपके शरणागत हैं । अतएव कृपया आप हम पर दयालु होकर हमें अभयदान दीजिए ।" जब पितामह भीष्मदेव से लेकर अर्जुन तथा दुर्योधन तक कुरुवंश के समस्त प्रमुख सदस्यों ने इस प्रकार आदरपूर्वक स्तुति कर ली, तब भगवान् श्रीबलराम मृदुल हो गए और उन्होंने उन सबको विश्वास दिलाया कि भय का कोई कारण नहीं है तथा उन्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं रही । क्षत्रिय राजाओं में अधिकतर यह परम्परा थी कि विवाह के पूर्व वर तथा वधू पक्ष के लोगों के मध्य किसी प्रकार का युद्ध हो जाए । जब साम्ब ने बलात् लक्ष्मणा का हरण किया था, तब कुरुवंश के सदस्य यह देख कर प्रसन्न हुए थे कि वह वास्तव में उसके लिए एक योग्य वर था । फिर भी उसकी व्यक्तिगत शक्ति को परखने के लिए उन्होंने उससे युद्ध किया और युद्ध के नियमों का आदर न करते हुए उन्होंने उसे बन्दी बनाया था । जब यदुवंश ने साम्ब को कौरवों के बन्धन से मुक्त करने का निश्चय किया, तब भगवान् श्रीबलराम स्वयं ही समझौता करने के लिए आए । वे एक बलशाली क्षत्रिय थे, अतएव उन्होंने कौरवों को तत्काल ही साम्ब को मुक्त करने का आदेश दिया । इस आदेश से कौरव अपनी अल्पज्ञता के कारण स्वयं को अपमानित समझने लगे, अतएव उन्होंने भगवान् श्रीबलराम की शक्ति को चुनौती दी । वे केवल यह चाहते थे कि श्रीबलराम अपनी अचिन्त्य शक्ति का प्रदर्शन करें । इस प्रकार अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने अपनी कन्या साम्ब को दी तथा सारा मामला सुलझ गया । दुर्योधन को अपनी पुत्री लक्ष्मणा से अत्यधिक स्नेह था । अतएव उसने साम्ब से उसका विवाह अत्यन्त धूमधाम से किया । उसके दहेज में उसने सर्वप्रथम एक हजार दो सौ हाथी दिए जिनमें से प्रत्येक कम से कम साठ वर्ष का था । इसके अतिरिक्त उसने दस हजार उत्तम घोड़े, सूर्यरश्मियों के समान जगमगाते हुए छ: हजार रथ तथा स्वर्णाभूषणों से अलंकृत एक हजार दासियाँ भी दीं । यदुवंश के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सदस्य भगवान् श्रीबलराम ने वर साम्ब के अभिभावक के रूप में कार्य किया तथा अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक इस दहेज को स्वीकार किया । कौरव पक्ष की ओर से अपने भव्य स्वागत के उपरान्त बलराम जी अत्यन्त सन्तुष्ट हो गए और नवविवाहित दंपत्ति के साथ उन्होंने अपनी राजधानी द्वारका की ओर प्रस्थान किया । विजयी भाव से भगवान् श्रीबलराम द्वारका पहुँचे जहाँ उन्होंने अनेक नागरिकों से, जो कि सभी उनके भक्त व मित्र थे, भेंट की । जब वे सब एकत्र हो गए तब भगवान् श्रीबलराम जी ने विवाह की समस्त कथा सुनाई । बलराम जी ने जिस प्रकार हस्तिनापुर नगर को कंपा दिया था, उसे सुनकर वे चकित हो गए । श्रीशुकदेव गोस्वामी ने इस तथ्य की पुष्टि की है कि हस्तिनापुर का स्थान अब नई दिल्ली के नाम से प्रसिद्ध है और नगर में से प्रवाहित होने वाली नदी अब यमुना कहलाती है, यद्यपि उस समय इसे गंगा कहते थे । जीव गोस्वामी के समान महाजनों ने इस तथ्य की भी पुष्टि की है कि विभिन्न धाराओं में प्रवाहित होने वाली गंगा तथा यमुना वस्तुत: एक ही नदी है । गंगा के इस भाग को जो हस्तिनापुर से वृन्दावन के क्षेत्र तक लीलाओं के द्वारा पवित्रीकृत है । हस्तिनापुर का वह भाग जिसका ढाल यमुना की ओर है, वर्षा ऋतु में जलप्लावित हो जाता है और वह सबको भगवान् श्रीबलराम द्वारा नगर को गंगा में फेंक दिए जाने की धमकी का स्मरण कराता है इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “साम्ब का विवाह” नामक अड़सठवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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