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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 69: महर्षि नारद का भगवान् श्रीकृष्ण के विभिन्न गृहों पर भेंट करने जाना  » 
 
 
 
 
 
महर्षि नारद ने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण ने नरकासुर को, जिसे कभी-कभी भौमासुर भी कहा जाता है, मारने के पश्चात् सोलह हजार पत्नियों से विवाह किया है । यह सुन कर कि सोलह हजार रूपों में विस्तार करके भगवान् श्रीकृष्ण ने विभिन्न महलों में एकसाथ इन रानियों के साथ विवाह किया है, नारद मुनि चकित थे । इतनी सारी पत्नियों के साथ श्रीकृष्ण अपनी गृहस्थी किस प्रकार चला रहे हैं, इस विषय में जिज्ञासु होने के कारण नारद जी को इन लीलाओं का दर्शन करने की इच्छा थी; अतएव उन्होंने श्रीकृष्ण के विभिन्न गृहों पर उनसे भेंट करने के लिए प्रस्थान किया । जब नारद जी द्वारका पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि वाटिकाएँ तथा उद्यान भिन्न-भिन्न रंगों के विभिन्न पुष्पों से पूर्ण हैं तथा फलों की वाटिकाएँ अनेक प्रकार के फलों से लदी हुई हैं । सुन्दर पक्षी चहचहा रहे थे तथा मयूर आनन्दपूर्वक शब्द कर रहे थे । ताल तथा जलाशय रक्तकमलों तथा नीलकमलों से परिपूर्ण थे तथा किसी-किसी जलाशय में विभिन्न प्रकार के कुमुदिनी-पुष्प खिल रहे थे । जलाशयों में श्रेष्ठ हंस तथा बगुले विहार कर रहे थे और उनकी ध्वनि चारों ओर गूँज रही थी । नगर में चाँदी से निर्मित द्वारों वाले उच्चकोटि के संगमरमर से बने हुए नौ लाख विशाल महल थे । गृहों तथा महलों के स्तम्भ पारस, नीलम तथा पन्ना जैसे रत्नों से सज्जित थे और फर्श से सुन्दर प्रभा निकलती थी । मुख्य पथ गलियाँ मार्ग, चौराहे तथा बाजार सभी सुन्दरता से सजाये हुए थे । सम्पूर्ण नगर को विभिन्न प्रकार के शिल्प-सौन्दर्य वाले गृहों, सभागृहों तथा देवालयों से परिपूर्ण था । ये सब मिलकर द्वारका को एक देदीप्यमान् नगर बना रहे थे । प्रशस्त पथ, चौराहे गलियों व मार्ग तथा प्रत्येक गृह के चौखट अत्यन्त स्वच्छ थे । प्रत्येक मार्ग के दोनों ओर झाड़ियाँ तथा समान अन्तर पर बड़े-बड़े वृक्ष थे, जो कि पथिकों की धूप से रक्षा करते थे । इस अत्यन्त सुन्दर द्वारका नगर में भगवान् श्रीकृष्ण के अनेक गृह थे । जगत् के महान् राजा तथा राजकुमार उनकी उपासना के निमित्त इन महलों में आया करते थे । इन महलों के शिल्प की योजना देवताओं के अभियंता स्वयं विश्वकर्मा ने बनाई थी तथा इनके निर्माण में उसने अपने सम्पूर्ण कौशल तथा प्रतिभा का प्रदर्शन किया था । इन निवासस्थानों की संख्या सोलह हजार से भी अधिक थी और उनमें से प्रत्येक में भगवान् श्रीकृष्ण की भिन्न-भिन्न रानियाँ निवास करती थीं । महर्षि नारद ने इन गृहों में से एक में प्रवेश किया और देखा कि घर के स्तम्भ मूंगों के बने थे तथा छतों पर रत्नों से सज्जा की गई थी । दीवारों तथा स्तम्भों के मध्य के वृत्तखण्ड़ (मेहराब) विभिन्न प्रकार के नीलमों के अलंकरण से जगमगा रहे थे । समस्त महल में विश्वकर्मा द्वारा निर्मित अनेक चँदोवे थे, जिन्हें मोतियों की लड़ियों से सजाया गया था । आसन तथा अन्य साज-सज्जा हाथी-दाँत से बनी थी, जिस पर सोने से अलंकरण किया गया था । महल के अन्दर रत्नदीप अंधकार को दूर कर रहे थे । इतना अधिक धूपदीप जलाया जा रहा था कि सुगंधित धुआँ खिड़कियों से बाहर आ रहा था । सीढ़ियों पर बैठे मयूरों को उस धुंएँ से भ्रम हो गया और उन्हें मेघ समझ कर वे हर्ष से नृत्य करने लगे । अनेक दास भी थे जिन्होंने उत्तम कुर्ते, पगड़ियाँ तथा रत्नजटित कुण्डल धारण किए हुए थे । वे समस्त दास अत्यन्त सुन्दर थे तथा वे सब गृह के भिन्न-भिन्न कार्यों में संलग्न थे । नारद जी ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण उस विशिष्ट महल की स्वामिनी रुक्मिणी जी के साथ बैठे हुए हैं और रुक्मिणी जी के हाथ में चामर की मूंठ थी । यद्यपि उनके समान ही आयु वाली, सुन्दर तथा गुणसम्पन्न हजारों दासियाँ वहाँ र्थी, तथापि रुक्मिणी देवी स्वयं ही भगवान् श्रीकृष्ण को पंखा झलने में संलग्न थीं । भगवान् की उपासना नारद मुनि भी करते हैं, किन्तु तो भी जब उन्होंने नारद जी को महल में प्रवेश करते हुए देखा, तो श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी के पलंग से उतर गए और इनका सम्मान करने के लिए खड़े हो गए । भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जगत् के गुरु हैं और सबको यह उपदेश देने के लिए कि नारद मुनि के समान सन्त-जनों का आदर किस प्रकार करना चाहिए, श्रीकृष्ण ने अपने मुकुट से धरती का स्पर्श करके उन्हें प्रणाम किया । न केवल श्रीकृष्ण ने नमन किया, अपितु उन्होंने नारद जी का चरणस्पर्श भी किया तथा हाथ जोड़ कर उनसे आसन ग्रहण करने की प्रार्थना की । भगवान् श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं तथा सभी भक्त उनकी उपासना करते हैं । वे प्रत्येक प्राणी के सर्वाधिक उपास्य गुरुदेव हैं । उनके चरणों से निकलने वाला गंगाजल तीनों लोकों को पावन करता है । समस्त योग्य ब्राह्मण उनकी उपासना करते हैं, अतएव उन्हें ब्राह्मण्य-देव कहा जाता है ।

ब्राह्मण्य का अर्थ वह व्यक्ति है, जिसमें समस्त ब्राह्मणोचित गुण होते हैं । ये गुण निम्नांकित हैं-सत्यवादिता, आत्मसंयम, शुचिता, इन्द्रियों पर प्रभुत्व, सरलता, व्यावहारिक उपभोग के द्वारा पूर्ण ज्ञान तथा भक्ति-सेवा में संलग्न होना । भगवान् श्रीकृष्ण में स्वयं ये समस्त गुण हैं तथा जिन लोगों में ये गुण होते हैं, वे उनकी उपासना करते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण के लाखों करोड़ों नाम हैं-विष्णु-सहस्त्र-नाम और ये सभी नाम उन्हें दिव्य गुणों के कारण दिए गए हैं । द्वारका में भगवान् श्रीकृष्ण एक आदर्श मानव की लीलाओं का आनन्दोपभोग कर रहे थे । अतएव जब श्रीकृष्ण ने नारद जी के चरण पखारे और उस जल को माथे पर चढ़ाया तब नारद मुनि ने कोई आपत्ति नहीं की, क्योंकि उन्हें भलीभाँति ज्ञात था कि भगवान् सबको सन्तजनों का आदर करने की विधिवत् शिक्षा दे रहे थे । आदि नारायण तथा प्राणिमात्र के शाश्वत सखा भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार वैदिक विधिविधानों के अनुसार नारद मुनि की पूजा की । मधुर शब्दों में उनका स्वागत करते हुए श्रीकृष्ण ने नारद जी को भगवान् कह कर सम्बोधित किया । भगवान् का अर्थ है, वह व्यक्ति जो स्वयंपूर्ण है, सर्वज्ञान, तप, बल, यश, सौन्दर्य और ऐसे ही अन्य ऐश्वर्यों से युक्त है । श्रीकृष्ण ने नारदमुनि से विशेष रूप से प्रश्न किया, "मैं आपकी किस प्रकार सेवा कर सकता हूँ ?" नारद जी ने उत्तर दिया, "प्रिय भगवन् ! आपका ऐसा व्यवहार तनिक भी चकित करने वाला नहीं है, क्योंकि आप श्रीभगवान् हैं तथा समस्त जीव-योनियों के स्वामी हैं । आप समस्त प्राणियों के परम मित्र हैं, किन्तु उसके साथ ही आप दुष्कर्मियों तथा विद्वेषी व्यक्तियों के परम दण्ड-दाता भी हैं । मुझे ज्ञात है कि आप समस्त ब्रह्माण्ड के उचित पोषण के लिए इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं । आप किसी अन्य सत्ता द्वारा प्रकट होने के लिए बाध्य नहीं किए गए हैं । अपनी इच्छा से ही आप प्रकट अथवा तिरोहित होते हैं । यह मेरा महान् सौभाग्य है कि आज मैं आपके पदारविन्दों के दर्शन करने में समर्थ हुआ । आपके चरणकमलों से जिसका प्रेम हो जाता है, उसकी उन्नति तटस्थता की श्रेष्ठ स्थिति तक हो जाती है और वह प्रकृति के त्रिगुणों से दूषित नहीं होता है । प्रिय भगवन् ! आप असीम हैं; आपके ऐश्वर्यों की कोई सीमा नहीं है । ब्रह्मा तथा शिवादि महान् देवता सदैव आपको अपने हृदय में स्थापित करने तथा आपका ध्यान करने में व्यस्त रहते हैं । भौतिक जगत् के इस अन्धकूप में पड़ी हुई बद्धात्माएँ इस शाश्वत कारावास से केवल आपके चरणकमलों को स्वीकार करके ही मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं । इस प्रकार आप बद्धात्माओं के एकमात्र आश्रय हैं । प्रिय भगवन् ! आपने अत्यन्त कृपापूर्वक मुझसे प्रश्न किया है कि आप मेरे लिए क्या कर सकते हैं । इसके उत्तर में मेरी आपसे केवल यही प्रार्थना है कि मैं आपके चरणकमलों को कभी-भी विस्मृत न करूं । किसी भी स्थान पर रहने से मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता है, किन्तु मेरी मात्र यही विनती है कि मैं सदैव आपके चरणकमलों का स्मरण कर सकूं ।" नारद मुनि ने भगवान् से जो वरदान माँगा, वही समस्त शुद्ध भक्तों की आदर्श प्रार्थना है । एक शुद्ध भक्त कभी भी भगवान् से किसी भी प्रकार का भौतिक अथवा आध्यात्मिक वरदान नहीं माँगता है, अपितु उसकी एकमात्र प्रार्थना यही होती है कि जीवन की किसी-भी स्थिति में वह भगवान् के पाद-पद्मों को विस्मृत न कर पावे । शुद्ध भक्त को चाहे नरक में स्थान मिले अथवा स्वर्ग में, उसे इसकी चिन्ता नहीं रहती । यदि वह सतत रूप से भगवान् के चरणकमलों का स्मरण कर सकता है, तो वह कहीं भी सन्तुष्ट रहता है । भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी अपने शिक्षाष्टक में स्तुति की इसी विधि की शिक्षा दी है । इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि वे जन्म-जन्मांतर तक केवल भक्ति की ही कामना करते हैं । एक शुद्ध भक्त जन्म-मरण के चक्र को भी रोकना नहीं चाहता है । यदि उसे पुन: विभिन्न योनियों में जन्म लेना पड़े तो भी शुद्ध भक्त को कोई अन्तर नहीं पड़ता है । उसकी एकमात्र आकांक्षा यही होती है कि जीवन की किसी भी दशा में वह भगवान् के चरणकमलों का विस्मरण न करे । रुक्मिणी जी के महल से प्रस्थान करने के पश्चात् नारद जी भगवान् श्रीकृष्ण की अन्तरंगा शक्ति, योगमाया, की गतिविधि देखना चाहते थे; अतएव उन्होंने एक अन्य रानी के महल में प्रवेश किया । वहाँ उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को अपनी प्रिय पत्नी तथा उद्धव जी सहित चौपड़ खेलते हुए देखा । भगवान् तत्काल अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्होंने नारद मुनि को अपने व्यक्तिगत आसन पर बैठने का निमंत्रण दिया । भगवान् ने पुन: सत्कार की उतनी ही सामग्री से उनकी पूजा की, जितनी से उन्होंने रुक्मिणी जी के महल में पूजा की थी । उनकी उचित पूजा के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा अभिनय किया मानो उन्हें ज्ञात ही नहीं कि रुक्मिणी के महल में क्या हुआ था । अतएव उन्होंने नारद जी से कहा, "प्रिय मुनिवर ! जब आप यहाँ आते हैं, आप स्वयं में पूर्ण होते हैं । यद्यपि हम गृहस्थ हैं और सदैव ही हमें किसी-न- किसी वस्तु की आवश्यकता रहती है, किन्तु आपको किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आप आत्म-सन्तुष्ट हैं । इस दशा में हम आपका क्या स्वागत कर सकते हैं तथा हम आपको क्या दे सकते हैं ? किन्तु फिर भी आप एक ब्राह्मण हैं, अतएव यह हमारा कर्तव्य है कि जहाँ तक हो सके हम आपको कुछ दें । अतएव मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हमें आज्ञा दें कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ?" भगवान् की लीलाओं के विषय में नारद जी को सभी कुछ ज्ञात था, अतएव भगवान् के कार्यों से अत्यन्त चकित होते हुए, बिना किसी विचार-विमर्श के उन्होंने चुपचाप महल से प्रस्थान कर दिया । तत्पश्चात् उन्होंने एक अन्य महल में प्रवेश किया । इस बार नारद जी ने भगवान् श्रीकृष्ण को एक स्नेहमय पिता की भाँति अपने अल्पायु बालकों को प्यार करते हुए देखा । वहाँ से उन्होंने एक अन्य महल में प्रवेश किया, जहाँ उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को स्नान करने की तैयारी करते हुए देखा । इस प्रकार नारद मुनि ने भगवान् श्रीकृष्ण की रानियों के सोलह हजार महलों में से प्रत्येक में प्रवेश किया और प्रत्येक में उन्होंने श्रीकृष्ण को विभिन्न प्रकार से व्यस्त पाया । एक स्थान पर, उन्होंने श्रीकृष्ण को यज्ञ की अग्नि में आहुति देते हुए पाया । श्रीकृष्ण वहाँ गृहस्थों के लिए निश्चित किए गए शास्त्रोक्त वैदिक संस्कारों को सम्पादित कर रहे थे । अन्य महल में श्रीकृष्ण गृहस्थों के लिए आवश्यक पंच-यज्ञ नामक यज्ञ को करते हुए पाए गए । इस यज्ञ को पंचशून के नाम से जाना जाता है । ज्ञात अथवा अज्ञात रूप से प्रत्येक व्यक्ति, विशेषरूप से गृहस्थ पाँच प्रकार के पाप कर रहा है । जब हम घड़े से जल लेते हैं, तब हम उसमें रहने वाले अनेक कीटाणुओं का वध करते हैं । झाडू लगाते समय अथवा आग जलाते समय भी हम अनेक कीटाणुओं का वध करते हैं । जब हम पथ पर चलते हैं तब हम अनेक चींटियों तथा अन्य कीड़े-मकोड़ों का वध करते हैं । चेतन अथवा अचेतन रूप से अपनी समस्त गतिविधियों में हम हत्या करते हैं । अतएव इन पापकर्मों के फल से मुक्ति पाने के लिए पंचशून यज्ञ करना प्रत्येक गृहस्थ के लिए आवश्यक है । एक महल में भगवान् श्रीकृष्ण शास्त्रोक्त यज्ञों को करने के उपरान्त ब्राह्मणों को भोजन कराने में संलग्न पाए गए । एक अन्य महल में नारद मुनि ने श्रीकृष्ण को मौन गायत्री मंत्र का जप करते हुए पाया और तीसरे महल में उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण घोड़ों, हाथियों अथवा रथों पर सवारी कर रहे थे और इधर-उधर विचरण कर रहे थे । दूसरे स्थान पर उन्हें अपने पलंग पर विश्राम करते हुए पाया गया और अन्य स्थान पर उन्हें अपने आसन पर आसीन पाया गया जहाँ उनके विभिन्न भक्त उनकी प्रार्थना एवं स्तुति कर रहे थे । कुछ महलों में देखा गया कि वे व्यापार के महत्त्वपूर्ण मामलों पर उद्धव जी जैसे मंत्रियों तथा अन्य व्यक्तियों से परामर्श ले रहे थे । एक महल में वे किशोरी गणिकाओं से घिरे हुए एक जलाशय में विहार करते हुए पाए गए । एक अन्य महल में नारद जी ने उन्हें ब्राह्मणों को सुसज्जित गाएँ दान में देते हुए देखा । एक अन्य महल में वे पुराण अथवा महाभारत जैसे इतिहासों की कथाओं का श्रवण करते हुए पाए गए । पुराण तथा महाभारत ब्रह्माण्ड के इतिहास के महत्त्वपूर्ण दृष्टान्तों के कथन के द्वारा सामान्य मानवों में वैदिक ज्ञान का प्रसार करने वाले सहायक ग्रन्थ हैं । कहीं पर पाया गया कि भगवान् श्रीकृष्ण विनोदपूर्ण वचनों के आदान-प्रदान के द्वारा किसी विशेष पत्नी के सान्निध्य का आनन्द उठा रहे थे । किसी अन्य स्थान पर वे अपनी पत्नी सहित शास्त्रोक्त धार्मिक उत्सव में संलग्न दिखाई दिए । विभिन्न प्रकार के खर्चों के लिए गृहस्थ व्यक्ति के लिए आवश्यक होता है कि वह अपनी आर्थिक सम्पत्ति में वृद्धि करे, अतएव कहीं पर श्रीकृष्ण को आर्थिक विकास के मामलों में संलग्न पाया गया । किसी अन्य स्थान पर उन्हें शास्त्रों के विधि-विधानों के अनुरूप पारिवारिक जीवन का आनन्द उपभोग करते हुए पाया गया । एक महल में उन्हें ध्यानावस्थित पाया गया; मानो वे अपना मन इन भौतिक ब्रहमाण्डों से परे श्रीभगवान् पर एकाग्र कर रहे हों । जैसे प्रामाणिक ग्रन्थों में कहा गया है, भगवान् श्रीविष्णु पर चित्त एकाग्र करने के लिए ही ध्यान है । भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही आदि विष्णु हैं, किन्तु वे एक मानव का अभिनय कर रहे थे, अतएव उन्होंने अपने व्यक्तिगत व्यवहार द्वारा हमें निश्चित रूप से यह शिक्षा दी कि ध्यान का अर्थ क्या है । कहीं पर भगवान् श्रीकृष्ण वयोवृद्ध व्यक्तियों को उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ दे कर सन्तुष्ट कर रहे थे, कहीं पर नारद जी ने उन्हें युद्ध के विषयों पर वार्तालाप करते देखा, तो कहीं और श्रीकृष्ण दो विरोधियों में समझौता करा रहे थे । कहीं पर नारद जी को श्रीकृष्ण ज्येष्ठ भ्राता श्रीबलराम के साथ सम्पूर्ण मानव-समाज के लिए परम मांगलिक कार्य पर विचार-विनिमय करते हुए उनके दर्शन हुए । नारद जी ने श्रीकृष्ण को उचित समय पर अपने पुत्रों व पुत्रियों का योग्य वधुओं व वरों के साथ विवाह कराने में संलग्न देखा । विवाह संस्कार अत्यन्त धूम-धाम से सम्पादित किए जा रहे थे । एक महल में वे अपनी पुत्रियों को विदा कर रहे थे, तो दूसरे में वे अपनी पुत्रवधू का स्वागत कर रहे थे । समस्त नगर में लोग इतनी धूमधाम और उत्सव देख कर चकित थे । यद्यपि देवता उनके गुणात्मक विस्तार मात्र हैं, तथापि कहीं पर भगवान् देवताओं को सन्तुष्ट करने के लिए विभिन्न प्रकार के यज्ञ करने में संलग्न दृष्टिगोचर हुए । कहीं पर वे जलपूर्ति के लिए कुएँ बनवाने, अज्ञात अतिथियों के लिए विश्रामालय तथा उद्यान बनवाने तथा सन्त-जनों के लिए विशाल आश्रम तथा मन्दिर बनवाने जैसे जनकल्याण कार्यों में संलग्न थे । उनकी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के हेतु वेदों ने जिन कर्तव्यों का गृहस्थों को आदेश दिया है, उनमें से कुछ कर्तव्य ये हैं । कहीं पर श्रीकृष्ण क्षत्रिय राजा के रूप में वन में पशुओं का आखेट करते तथा अति सुन्दर सिन्धी घोड़ों पर सवारी करते हुए पाए गए । वैदिक नियम के अनुसार क्षत्रियों को वन में शान्ति बनाए रखने के लिए अथवा यज्ञ में भेंट देने के लिए निश्चित अवसरों पर निश्चित पशुओं का शिकार करने की अनुमति है । क्षत्रियों को वध करने की इस कला का अभ्यास करने की अनुमति है, क्योंकि उन्हें समाज में शान्ति बनाए रखने के लिए अपने पशुओं का निर्दयता से वध करना होता है । एक स्थिति में महर्षि नारद ने समस्त सिद्धियों के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण को नगर तथा महलों में विभिन्न नागरिकों के मन्तव्य को समझने के लिए अपनी नित्य वेषभूषा को परिवर्तित करके एक गुप्तचर की भाँति कार्य करते हुए देखा । नारदमुनि ने जीवों के परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के इन सारे कार्यकलापों को देखा । अपनी अन्तरंगा शक्ति के कार्यों को प्रकट करने के लिए उन्होंने एक साधारण मानव का अभिनय किया था । नारद जी मन ही मन मुस्करा रहे थे और उन्होंने भगवान् को इस प्रकार सम्बोधित किया, "समस्त सिद्धियों के स्वामी, हे महान् योगियों के ध्यान के केन्द्र ! ब्रह्मा, शिवादि योगियों के लिए भी आपकी सिद्धियों की सीमा अचिन्त्य है । किन्तु अपनी दया से, अपने चरणकमलों की दिव्य प्रेमा-सेवा में सदैव संलग्न रहने वाले मुझको आपने कृपा करके अपनी अन्तरंगा शक्ति के कार्यों के दर्शन कराए हैं । प्रिय भगवन् ! आप सबके आराध्य हैं तथा चौदहों लोकों के देवताओं तथा प्रमुख देवों को आपके दिव्य यश का पूर्ण रूप से ज्ञान है । कृपया अब आप मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए जिससे कि मैं समस्त ब्रह्माण्ड में आपके दिव्य कार्यकलापों का यशगान करते हुए यात्रा करने में समर्थ होऊँ ।" भगवान् श्रीकृष्ण ने नारदमुनि को इस प्रकार उत्तर दिया, "प्रिय नारद, हे देवर्षि ! तुमको ज्ञात है कि मैं समस्त धार्मिक सिद्धान्तों का परम शिक्षक, उनका आदर्श पालन करने वाला तथा साथ ही ऐसे सिद्धान्तों का परम कार्यान्वयन-कर्ता हूँ । अतएव मैं स्वयं इन धार्मिक सिद्धान्तों का सम्पादन कर रहा हूँ जिससे कि समस्त जगत् को यह शिक्षा मिल सके कि किस प्रकार कार्य करना चाहिए । प्रिय पुत्र ! मेरी इच्छा है कि तुम अन्तरंगा शक्ति के ऐसे प्रदर्शनों से भ्रमित न हो ।" लोगों को यह शिक्षा देने के लिए किस प्रकार भौतिक जगत् के बन्धनों में बद्ध हो कर भी मानव अपने गृहस्थ जीवन को पावन कर सकता है, श्रीभगवान् तथाकथित गृहस्थी के मामलों में संलग्न थे । वास्तव में गृहस्थ जीवन के कारण मानव भौतिक जीवन की कालावधि को चलाते रहने को बाध्य होता है । किन्तु गृहस्थो पर अत्यन्त कृपालु होने के कारण भगवान् ने साधारण गृहस्थ जीवन को पावन करने का मार्ग दिखाया । श्रीकृष्ण समस्त गतिविधियों के केन्द्र हैं, अतएव एक कृष्णभावनाभावित गृहस्थ का जीवन वैदिक आदेशों से ऊपर होता है और वह स्वयमेव पावन हो जाता है । इस प्रकार स्वांशों के द्वारा एक श्रीकृष्ण को नारद जी ने सोलह हजार महलों में निवास करते हुए देखा । अपनी अचिन्त्य शक्ति के कारण वे प्रत्येक रानी के महल में दिखाई पड़े । भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति असीम है और भगवान् श्रीकृष्ण की अन्तरंगा शक्ति के प्रदर्शन का बारम्बार दर्शन करके नारद मुनि के आश्चर्य की सीमा न रही । भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने व्यक्तिगत उदाहरण के द्वारा ऐसा व्यवहार किया मानो उन्हें सभ्य जीवन के चारों सिद्धान्तों से अत्यधिक लगाव हो । वे सिद्धान्त हैं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष । मानव-समाज की आध्यात्मिक प्रगति के लिए भौतिक जीवन के ये चारों सिद्धान्त आवश्यक हैं । यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण को ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि उन्होंने अपने गृहस्थ कार्यों का प्रदर्शन किया जिससे कि लोग अपने हित के लिए उनके चरणचिह्नों का अनुसरण कर सकें । भगवान् श्रीकृष्ण ने नारद मुनि को हर प्रकार से सन्तुष्ट कर दिया । द्वारका में भगवान् श्रीकृष्ण की गतिविधियों का दर्शन करके नारद जी अत्यन्त प्रसन्न हुए और इस प्रकार उन्होंने वहाँ से प्रस्थान किया । द्वारका में भगवान् श्रीकृष्ण के कार्यकलापों का वर्णन करके श्रीशुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित के समक्ष यह स्पष्ट किया कि किस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अन्तरंगा शक्ति के माध्यम से इस भौतिक ब्रह्माण्ड में अवतीर्ण होते हैं । उन्होंने यह भी बताया कि किस प्रकार वे स्वयं उन सिद्धान्तों का प्रदर्शन करते हैं, जिनका पालन करने से व्यक्ति जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त कर सकता है । द्वारका में सोलह हजार से भी अधिक रानियाँ मुस्कान तथा सेवा द्वारा अपने आकर्षक स्त्रियोचित लक्षणों का उपयोग भगवान् की दिव्य सेवा करने के लिए करती थीं । भगवान् भी प्रसन्न होकर उनके साथ गृहस्थ जीवन का आनन्द उठाने वाले एक आदर्श पति की भाँति व्यवहार करते थे । सबको यह निश्चित रूप से ज्ञात होना चाहिए कि ऐसी लीलाएँ भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता है । भगवान् श्रीकृष्ण समस्त सृष्टि की रचना, पालन तथा प्रलय के आदि कारण हैं । जो कोई द्वारका में भगवान् की लीलाओं की कथा का श्रवण करता है अथवा कृष्णभावनामृत आन्दोलन के किसी उपदेशक का अनुसरण करता है, उसके लिए मुक्ति के मार्ग पर चलना तथा श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अमृत का रसास्वादन करना निश्चय ही अत्यन्त सरल होगा । इस प्रकार वह उनकी भक्ति में संलग्न होगा ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “महर्षि नारद का भगवान् श्रीकृष्ण के विभिन्न गृहों पर भेंट करने जाना” नामक उनहत्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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