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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 70: भगवान् श्रीकृष्ण की दिनचर्या  » 
 
 
 
 
 
वैदिक मंत्रों से ज्ञात होता है कि श्रीभगवान् के पास करने के लिए कुछ भी नहीं है : न तस्य काय करण च विद्यते/यदि भगवान् के पास करने के लिए कुछ भी नहीं है, तब हम उनके कार्यकलापों के विषय में चर्चा ही कैसे कर सकते हैं ? पूर्व अध्याय से स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण के सदृश कोई व्यक्ति कार्य नहीं कर सकता । हमें इस तथ्य को स्पष्टतया समझना चाहिए-भगवान् के कार्यकलापों का अनुसरण करना आवश्यक है, किन्तु उनका अनुकरण नहीं किया जा सकता । उदाहरणार्थ, गृहस्थ के रूप में श्रीकृष्ण के आदर्श जीवन का अनुकरण किया जा सकता है, किन्तु कोई यदि अनेक रूपों में विस्तारित होकर उनका अनुकरण करना चाहे, तो यह सम्भव नहीं है । अतएव हमें यह सदैव स्मरण रहे कि यद्यपि श्रीकृष्ण मनुष्य का अभिनय अर्थात् नरवत् लीलाएँ करते हैं, तथापि अपनी श्रीभगवान् की स्थिति बनाये रखते हैं । एक साधारण मनुष्य के समान श्रीकृष्ण के उनकी पत्नियों के साथ व्यवहार का हम अनुसरण कर सकते हैं, किन्तु एक समय में सोलह हजार से भी अधिक पत्नियों के साथ उनके व्यवहार का हम अनुकरण नहीं कर सकते । निष्कर्षत: जिस प्रकार उन्होंने अपनी दिनचर्या का प्रदर्शन किया, आदर्श गृहस्थ बनने के हेतु हमें भगवान् श्रीकृष्ण के पद-चिह्नों का अनुसरण करना चाहिए, परन्तु जीवन की किसी भी अवस्था में हम उनका अनुकरण नहीं कर सकते । भगवान् श्रीकृष्ण अपनी सोलह हजार पत्नियों के साथ विश्राम करते थे, किन्तु प्रात:काल सूर्योदय से तीन घण्टे पूर्व वे उठ जाते थे । प्रकृति की व्यवस्था के अनुसार मुरगे का बोलना ब्रह्म-मुहूर्त के समय की सूचना देता है । घड़ियों की कोई आवश्यकता नहीं है । जैसे ही मुरगा प्रात:काल बोलता है, हमें समझ लेना चाहिए कि अब उठने का समय हो चुका है । उस ध्वनि को सुनकर श्रीकृष्ण शैया से उठ जाते थे, परन्तु उनका प्रात: उठना उनकी पत्नियों को रुचिकर नहीं था । श्रीकृष्ण की पत्नियाँ उनमें इतनी आसक्त थीं कि शैया में वे श्रीकृष्ण का आलिंगन किए रहतीं, परन्तु जैसे ही मुरगे बोलते, तो श्रीकृष्ण की पत्नियाँ उदास हो जातीं एवं मुरगे की ध्वनि की निन्दा करने लगतीं । प्रत्येक राजमहल के उद्यान में पारिजात पुष्प लगे हुए थे । पारिजात कोई कृत्रिम पुष्प नहीं । स्मरण रहे कि श्रीकृष्ण ने पारिजात वृक्षों को स्वर्ग से लाकर सभी महलों के उद्यानों में लगाया था । प्रात:कालीन मन्द वायु पारिजात पुष्प की सुगन्ध को प्रसारित करती तथा श्रीकृष्ण निद्रा से उठने के पश्चात् उसकी सुगंध का रसास्वादन करते । इस सुगंध के कारण मधुमक्खियाँ भिनभिनाना आरम्भ कर देतीं और पक्षी भी मधुर कलरव आरम्भ कर देते । सम्पूर्ण रूप से उस ध्वनि को सुनकर ऐसा प्रतीत होता कि वंदीजन एकत्र होकर भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करने में संलग्न हैं । यद्यपि श्रीकृष्ण की प्रथम पत्नी श्रीमती रुक्मिणी देवी को ज्ञात था कि ब्रह्म–मुहूर्त सम्पूर्ण दिवस का सर्वाधिक शुभ समय है, तथापि ब्रह्म–मुहूर्त के आगमन पर वे खिन्न हो उठतीं, क्योंकि वे श्रीकृष्ण के इस संग का त्याग नहीं करना चाहती थीं । श्रीमती रुक्मिणी देवी की खिन्नता के पश्चात् भी ब्रह्म-मुहूर्त का आगमन होते ही भगवान् श्रीकृष्ण उठ जाते । आदर्श गृहस्थ को भगवान् श्रीकृष्ण के इस आचरण से शिक्षा लेनी चाहिए कि किस प्रकार उसे प्रात:काल उठना चाहिए, चाहे वह कितनी ही सुविधाजनक स्थिति में क्यों न लेटा हो ।

विश्राम करके उठने के पश्चात् श्रीकृष्ण अपने मुख, भुजाओं तथा चरणों को धोते एवं तत्काल बैठकर स्वयं का ध्यान करने लगते । इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें भी बैठकर स्वयं पर ही ध्यान करना चाहिए । हमें श्रीकृष्ण, श्री राधा-कृष्ण का ध्यान करना चाहिए । वही वास्तविक ध्यान है । श्रीकृष्ण स्वयं श्रीकृष्ण हैं, अतएव वे हमें शिक्षा दे रहे थे कि ब्रह्म-मुहूर्त का उपयोग श्रीराधा-कृष्ण का ध्यान करने के लिए करना चाहिए । ऐसा करने से भगवान् श्रीकृष्ण अत्यन्त संतोष का अनुभव करते । उसी प्रकार यदि हम ब्रह्म-मुहूर्त का उपयोग श्रीराधा तथा कृष्ण पर ध्यान करने के लिए करेंगे, तो हमें भी दिव्य आनन्द का अनुभव होगा और हम सन्तुष्ट हो जाएँगे । प्रात:काल हम यह भी चिन्तन करें कि किस प्रकार श्रीमती रुक्मिणी तथा श्रीकृष्ण ने आदर्श गृहस्थ के रूप में सम्पूर्ण मानव-समाज को यह शिक्षा दी है कि हमें ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर तत्काल कृष्णभावनामृत में संलग्न हो जाना चाहिए । श्रीराधा-कृष्ण के शाश्वत रूपों पर ध्यान करने तथा हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने में कोई अन्तर नहीं है । जहाँ तक श्रीकृष्ण के द्वारा ध्यान करने का प्रश्न है, तो उनके पास स्वयं पर ध्यान करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था । ध्यान का विषय ब्रह्म, परमात्मा अथवा श्रीभगवान् होते हैं, परन्तु श्रीकृष्ण स्वयं तीनों हैं : वे श्रीभगवान् हैं, अन्तर्यामी परमात्मा श्रीकृष्ण का एक स्वांश है तथा सर्वव्यापक ब्रह्मज्योति उनके दिव्य शरीर की अंग-कान्ति है । अत: श्रीकृष्ण सदैव एक हैं एवं उनके लिए कोई अन्तर नहीं है । सामान्य जीव तथा भगवान् श्रीकृष्ण में यही भेद है । जीव के लिए विभिन्नताएँ हैं । सामान्य जीव अपने शरीर से भिन्न है तथा वह जीवों की अन्य योनियों से भिन्न है । मानव अन्य मानवों से तथा पशुओं से भिन्न है । उसके स्वयं के शरीर में ही विभिन्न अंग-प्रत्यंग हैं । हमारे हाथ तथा पैर हैं, परन्तु हमारे हाथ पैरों से भिन्न हैं । पैर की भाँति हाथ कार्य नहीं कर सकते और न ही हाथ की भाँति पैर कर सकते हैं । नेत्र के समान कान नहीं देख सकते और न ही कान की भाँति नेत्र सुन सकते हैं । इन सभी भिन्नताओं को तकनीकी दृष्टि से स्वजातीय-विजातीय कहा जाता है ।

यह शारीरिक सीमा, जिससे शरीर का एक भाग दूसरे भाग की भाँति कार्य नहीं कर सकता, श्रीभगवान् में पूर्णतया अनुपस्थित है । उनके शरीर में तथा उनमें कोई अन्तर नहीं है । वे पूर्णरूपेण आध्यात्मिक हैं, अतएव उनके शरीर में तथा उनकी आत्मा में कोई भी भौतिक भेद नहीं है । उसी प्रकार, अपने लाखों अवतारों और अंशों से वे भिन्न नहीं हैं । श्रीबलदेव श्रीकृष्ण के प्रथम अंश हैं और श्रीबलदेव के द्वारा श्रीसंकर्षण, श्रीवासुदेव, श्रीप्रद्युम्न एवं श्रीअनिरुद्ध के रूपों का विस्तार होता है । श्रीसंकर्षण से पुन: श्री नारायण का विस्तार होता है एवं श्रीनारायण से श्रीसंकर्षण, श्रीवासुदेव, श्रीप्रद्युम्न तथा श्री अनिरुद्ध के द्वितीय चतुर्व्यूह का विस्तार होता है । इसी प्रकार श्रीकृष्ण के अगणित विस्तार हैं, परन्तु वे सभी एक हैं । श्रीकृष्ण के अनेक अवतार हैं जैसे कि श्रीनृसिंहदेव, वराह, मत्स्य एवं कच्छप-अवतार (कछुआ) । परन्तु श्रीकृष्ण के नराकार द्विभुजी आदि स्वरूप में तथा इन विशाल पशुओं के रूप के अवतारों में कोई भेद नहीं है और न ही उनके शरीर के विभिन्न अंगों के कार्यों में कोई भेद है । उनके करकमल चरणों के समान कार्य कर सकते हैं, उनके नेत्र कर्ण के समान कार्य कर सकते हैं, अथवा उनकी नासिका शरीर के किसी अन्य अंग की भाँति कार्य कर सकती है । भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुगन्धों को ग्रहण करना, भोजन एवं श्रवण करना एक ही है । हम जीव सीमित हैं, अतएव शरीर के विशेष अंग का उपयोग विशेष उद्देश्य के लिए ही किया जा सकता है, परन्तु श्रीकृष्ण के लिए इस प्रकार का कोई भेद नहीं है । ब्रह्म-संहिता में कहा गया है, अंगानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्ति -वे अपने शरीर के एक अंग के कार्य को किसी भी अंग के द्वारा सम्पादित कर सकते हैं । अतएव श्रीकृष्ण एवं उनके व्यक्तित्व के विश्लेषणात्मक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि वे समग्र रूप से परिपूर्ण हैं । अतएव जब वे ध्यान करते हैं, तो वे स्वयं का ही ध्यान करते हैं । साधारण मनुष्यों के द्वारा सोऽहम् ब्रह्म के रूप में किया जाने वाला आत्म-ध्यान केवल अनुकरण है । भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं का ध्यान कर सकते हैं, क्योंकि वे परिपूर्ण हैं, किन्तु हम उनका अनुकरण करते हुए स्वयं का ही ध्यान नहीं कर सकते । हमारा शरीर एक उपाधि है, श्रीकृष्ण का शरीर उपाधि नहीं है । श्रीकृष्ण का शरीर भी श्रीकृष्ण है । श्रीकृष्ण में किसी भी विजातीय वस्तु का अस्तित्त्व नहीं है ।

श्रीकृष्ण में जो कुछ है, वह श्रीकृष्ण ही है । अत: वे परम अविनाशी, पूर्ण अस्तित्त्व, अर्थात् परम सत्य हैं ।

भगवान् श्रीकृष्ण का अस्तित्त्व सापेक्ष नहीं है । भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु सापेक्ष सत्य है, परन्तु श्रीकृष्ण परम सत्य हैं । अपने अस्तित्त्व के लिए श्रीकृष्ण केवल स्वयं पर निर्भर करते हैं । किन्तु हमारा अस्तित्त्व सापेक्ष है । उदाहरणार्थ, सूर्य, चन्द्रमा अथवा विद्युत् के प्रकाश होने पर ही हम देखने में समर्थ होते हैं । अत: हमारी दृष्टि सापेक्ष है एवं सूर्य, चन्द्रमा और विद्युत् के प्रकाश भी सापेक्ष हैं । उन्हें प्रकाशित केवल इसलिए कहा जाता है, क्योंकि हम उन्हे ऐसा ही देखते हैं । निर्भरता तथा सापेक्षता का अस्तित्त्व श्रीकृष्ण में नहीं है । उनके कार्य कलाप किसी की प्रशंसा पर निर्भर नहीं करते और न ही वे किसी अन्य की सहायता पर निर्भर करते हैं । वे सीमित काल एवं देश के अस्तित्त्व से परे हैं । वे काल तथा देश से अतीत हैं । अतएव उनको सीमित कार्य-कलापों वाली माया के भ्रम से ढँका नहीं जा सकता । वैदिक साहित्य से हमें ज्ञात होता है कि श्रीभगवान् में विविध शक्तियाँ विद्यमान हैं । सभी शक्तियों का उद्गम उन्हीं से हुआ है, अतएव उनमें तथा उनकी शक्तियों में कोई अन्तर नहीं है । यद्यपि कुछ दार्शनिक कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं, तो वे भौतिक शरीर ग्रहण करते हैं । परन्तु यदि हम यह स्वीकार भी कर लें कि इस भौतिक जगत् में प्रकट होने पर वे भौतिक शरीर को ग्रहण करते हैं, तो भी यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि भौतिक शक्ति उनसे भिन्न नहीं है, इसलिए भगवान् का शरीर भौतिक दृष्टिकोण से कार्य नहीं करता । अतएव भगवद्-गीता में कहा गया है कि श्रीभगवान् अपनी अंतरंगा शक्ति, आत्म-माया के द्वारा प्रकट होते हैं ।

श्रीकृष्ण को परम-ब्रह्म कहा गया है, क्योंकि वे सृष्टि के कारण हैं, पालन के कारण हैं तथा संहार के कारण हैं । श्री ब्रह्माजी, श्री विष्णुजी और श्री शिवजी इन भौतिक गुणों के विभिन्न विस्तार हैं । यह सभी भौतिक गुण बद्ध जीवात्माओं पर कार्य कर सकते हैं, परन्तु इससे श्रीकृष्ण पर कोई क्रिया अथवा प्रतिक्रिया नहीं होती, क्योंकि ये गुण एक ही समय में उनसे एकरूप तथा भिन्न हैं । भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं सच्चिदानन्द विग्रह हैं, आनन्द और ज्ञान के शाश्वत रूप हैं तथा उनकी कल्पनातीत विशालता के कारण उन्हें परब्रह्म कहा जाता है । उनका ब्रह्म, परमात्मा अथवा श्रीभगवान् पर ध्यान वास्तव में केवल स्वयं पर है । इनके अतिरिक्त अन्य किसी पर नहीं । इस ध्यान का अनुकरण साधारण जीव के द्वारा नहीं किया जा सकता ।

ध्यान के पश्चात् श्रीभगवान् प्रात:काल नियमित रूप से स्वच्छ, शुद्ध जल में स्नान करते । तत्पश्चात् वे स्वच्छ वस्त्र धारण करते, स्वयं को चादर से ढँकते और फिर वैदिक धार्मिक कार्यों में स्वयं को संलग्न करते । उनके अनेक धार्मिक कार्यों में प्रथम कार्य यज्ञ-अग्नि में नैवेद्य अर्पित करना तथा चुपचाप गायत्री मंत्र का जाप करना होता । आदर्श गृहस्थ के रूप में श्रीकृष्ण ने गृहस्थ के सभी धार्मिक कार्यों का यथारूप में पालन किया । जब सूर्योदय दृष्टिगोचर होता, तब श्रीभगवान् सूर्यदेव को विशेष प्रार्थनाएँ अर्पित करते । वैदिक साहित्य में कथित सूर्यदेव तथा अन्य देवताओं को भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर के विभिन्न अंगों के रूप में वर्णित किया गया है और गृहस्थ का यह कर्तव्य है, वह देवताओं एवं महर्षियों तथा पूर्वजों के प्रति सम्मान रखे ।

जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है, इस विश्व में पालन करने के हेतु श्रीभगवान् के पास कोई विशेष कर्तव्य नहीं है फिर भी वे इस प्राकृत जगत् में आदर्श जीवन व्यतीत करने वाले साधारण व्यक्ति की भाँति कार्य करते हैं । वैदिक कर्मकाण्डी नियमों के अनुरूप श्रीभगवान् देवताओं को सम्मान अर्पित करते । वह नियम जिसके द्वारा देवताओं एवं पूर्वजों को पूजा जाता है, उसे तर्पण कहते हैं । तर्पण का अर्थ है प्रसन्न करना । किसी व्यक्ति के पूर्वज को भले ही किसी अन्य ग्रह पर शरीर ग्रहण करना पड़े, परन्तु इस तर्पण-प्रणाली का पालन करने से वे अत्यन्त प्रसन्न हो जाते हैं । गृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह अपने परिवार के सदस्यों को सुखी रखे एवं इस तर्पण-प्रणाली का पालन करने से वह अपने पूर्वजों को भी सुखी रख सकता है । पूर्ण अनुकरणीय गृहस्थ होने के रूप में भगवान् श्रीकृष्ण इस तर्पण प्रणाली का पालन करते तथा अपने परिवार के ज्येष्ठ सदस्यों की सादर वन्दना करते ।

दान में उनका अगला कर्तव्य ब्रह्मणों को गायों का दान करना था । भगवान् श्रीकृष्ण कम से कम 13,084 गायें देते थे । सारी गाएँ रेशमी चादर और मोतियों की मालाओं से सुसज्जित होती, उनके सींग स्वर्ण-पत्र से ढँके हुए होते तथा उनके खुर चाँदी के बने होते । उनसे प्रथम-जन्मे बछड़ों के उनके समीप होने के कारण वे दूध से परिपूर्ण थीं तथा वे बहुत ही शान्त एवं सौम्य थीं । जब गाएँ ब्रह्मणों को दान में दी जाती, तब ब्रह्मणों को सुन्दर रेशमी वस्त्र दिए जाते । इसके अतिरिक्त, प्रत्येक ब्रह्मण को एक मृग-चर्म एवं तिल के पर्याप्त दाने दिए जाते । श्रीभगवान् को सामान्यत: गोब्रह्मण हिताय च कहते हैं, जिसका अर्थ है कि उनका पहला कर्तव्य ब्रह्मणों एवं गउओं के कल्याण का ध्यान रखना । अत: श्रीकृष्ण गायों को भरपूर अलंकारों एवं उपकरणों सहित ब्रह्मणों को दान में दिया करते थे । तत्पश्चात् सभी जीवों के कल्याण की आकांक्षा करते हुए वे दूध, अग्नि, मधु, घी, स्वर्ण एवं रत्नों जैसे सौभाग्यशाली वस्तुओं का स्पर्श करते । यद्यपि अपने दिव्य शरीर की पूर्ण आकृति के कारण श्रीकृष्ण प्रकृति से अति-सुन्दर हैं, तथापि वे स्वयं पीले रंग के वस्त्रों को धारण कर लेते तथा कौस्तुभ-मणियों की कण्ठी पहन लेते । वे फूलों की माला पहनते, अपने शरीर पर चन्दन का लेप करते और स्वयं को सौन्दर्य-वर्धक सामग्री एवं आभूषणों से सुसज्जित करते । ऐसा कहा जाता है कि श्रीभगवान् के दिव्य शरीर का स्पर्श पाते ही सभी आभूषण स्वयं सुन्दर बन जाते । इस प्रकार स्वयं को सुसज्जित करने के पश्चात्, श्रीभगवान् गाय-बछड़ों की संगमरमर की मूर्तियों को देखते और श्रीशिवजी तथा अन्य देवताओं के मंदिरों के दर्शन करते । ऐसे अनेक ब्रह्मण थे, जो उपाहार करने से पूर्व श्रीभगवान् के दर्शन करने के लिए नित्य आते । ब्रह्मण उनको देखने के लिए उत्सुक थे एवं श्रीभगवान् उनका स्वागत करते । उनका अगला कर्तव्य नगर और राजमहल में स्थित विभिन्न जाति के लोगों को सुखी करना था। श्रीभगवान् उनकी विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति करके उन्हें प्रसन्न करते एवं जब वे उन्हें प्रसन्न देखते, तो वे स्वयं प्रसन्न हो जाते। फूलों की मालाएँ, सुपारियाँ, चन्दन और अन्य सुगन्धमय सौंदर्य-वर्धक वस्तुएँ, जिन्हें श्रीभगवान् के प्रति अर्पित किया जाता था, सर्वप्रथम ब्राह्मणों एवं परिवार के ज्येष्ठ सदस्यों के पश्चात् रानियों तथा मंत्रियों को प्रस्तुत की जाती थीं। उसके बाद यदि कुछ शेष बच जाता, तो वे उसे अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए रख लेते। जब तक श्रीभगवान् अपनी दिनचर्या को समाप्त करते, तब तक उनका सारथी दारूक अपने अद्भुत रथ को लेकर आता एवं श्रीभगवान् के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता। इससे श्रीभगवान् को संकेत मिल जाता कि रथ तैयार है एवं यात्रा करने के लिए वे अपने राजमहल से बाहर निकल आते। तत्पश्चात उद्धव जी एवं सात्यकि के साथ श्रीकृष्ण रथ पर चढ़कर सवारी करते, ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्यदेव अपनी चमकीली किरणों को विष्व के धरातल पर डालते हुए प्रातः काल अपने रथ पर चढ़कर सवारी करते हैं। जब श्रीभगवान् राजमहलों से जाने लगते, तो सभी रानियाँ उनकी ओर स्त्रियोचित चेष्टाओं से देखतीं।

श्रीभगवान् उनके अभिवादनों का मुस्कराहटों से उत्तर देते। श्रीकृष्ण के द्वारा ऐसा करने से उनके हृदय में इतना आकर्षण उत्पन्न हो जाता कि वे श्रीभगवान् से तीव्र वियोग का अनुभव करतीं। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण सुधर्मा नामक सभा-भवन में आते। हमें यह स्मरण रहे कि सुधर्मा सभा-भवन को वैकुण्ठ लोक से लाकर द्वारका में पुनस्र्थापित किया गया था। सभा-भवन का विषिष्ट महत्व यह था कि जो भी उसमें प्रवेश करता था, वह भूख, प्यास, शोक, मोह जरा एवं मृत्यु इन छः भौतिक जालों से पीड़ित नहीं होता था। श्रीकृष्ण सभी सोलह हजार महलों से विदाई लेते थे तथा पुनः वे एक होकर सुधर्मा सभा-भवन में यदुवंष के अन्य सदस्यों के साथ जुलूस में प्रवेश करते। सभा-भवन में प्रवेश करने के पश्चात् वे उच्च शानदार सिंहासन पर बैठ जाते और उनसे दिव्य ज्योति की चमकती किरणें निकलती दिखायी देतीं। यदुवंष के महान् वीरों के समक्ष श्रीकृष्ण आकाष में अनेकानेक ग्रहों से घिरे हुए पूर्ण चन्द्रमा के सष लगते। सभा-भवन में सुनिपुण विदूषक, नर्तक, संगीतकार एवं नर्तकियाँ थीं तथा जैसे ही श्रीभगवान् सिंहासन पर बैठते, वे उन्हें आनंदित करने और प्रसन्नचित्त करने के लिए अपने-अपने कार्यों को आरम्भ कर देते। सर्वप्रथम विदूषक कुछ इस प्रकार बात करते कि श्रीभगवान् एवं उनके सहयोगी उस परिहास का आनन्द लेते, जिससे चित्त प्रसन्न हो उठता। तत्पश्चात् प्रभावषाली नट अपना अभिनय करते एवं नर्तकियाँ अपनी कलात्मक क्रिया का प्रदर्षन करतीं। इन सभी कार्यों के साथ-साथ मृदंग, ढोल, वीणा, बाँसुरी, घंटियों एवं पखावज (एक विशेष प्रकार का ढोल) का वादन होता। इन संगीतमय तरंगों के साथ-साथ शंख की शुभ ध्वनि को भी संलग्न कर दिया जाता। सूत एवं मागध कहलाने वाले सुनिपुण गायक गीत गाते और दूसरे अपनी नृत्य-कला का प्रदर्षन करते। इस प्रकार भक्त होने के रूप में वे श्रीभगवान् की सादर वन्दना करते। कभी-कभी सभा में उपस्थित सुशिक्षित ब्राह्मण वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते और दर्षकों को अपने ज्ञान के अनुसार उन्हें समझाते तथा कभी-कभी सुप्रसिद्ध महाराजाओं की गतिविधियों के प्राचीन ऐतिहासिक वर्णन का पाठ करते। श्रीभगवान् तथा उनके सहयोगी उन्हें सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होते। एक समय की बात है, एक अज्ञात व्यक्ति सभा-भवन के प्रवेशद्वार पर पहुँचा तथा श्रीकृष्ण की अनुमति से द्वारपाल ने उसे सभा में प्रवेश दिया। द्वारपाल को आदेष दिया गया कि वह उस व्यक्ति को श्रीभगवान् के सम्मुख प्रस्तुत करे, तत्पश्चात वह व्यक्ति प्रकट हुआ और हाथ जोड़कर उसने श्रीभगवान् की सादर वन्दना की। एक बार ऐसा हुआ था कि जब राजा जरासन्ध अन्य सभी राज्यों पर वियजी हुए थे, तब अनेक राजाओं ने जरासन्ध के सम्मुख सिर नहीं झुकाया था। फलस्वरूप सभी राजाओं को (लगभग बीस हजार) बन्दी बना लिया गया था। जो व्यक्ति द्वारपाल द्वारा श्रीकृष्ण के सामने लाया गया था वह इन राजाओं का प्रतिनिधि था।

श्रीभगवान् के सम्मुख प्रस्तुत होने के पश्चात्, वह व्यक्ति इस प्रकार स्थिति की सूचना देने लगा। “प्रिय भगवन् ! आप दिव्य आनन्द और ज्ञान के शाश्वत् रूप हैं। आप इस विष्व के किसी भी मायावादी की मानसिक कल्पना तथा वाचिक वर्णन की पहुँच से परे हैं। आपकी कीर्ति के एक छोटे से अंष को वे ही व्यक्ति समझ सकते हैं, जो आपके चरणकमलों में पूर्णतया समर्पित हैं और आपकी कृपा से केवल ऐसे व्यक्ति ही सभी भौतिक लालसाओं से मुक्त हो जाते हैं। मेरे प्रिय भगवन्! मैं उन समर्पित आत्माओं में से नहीं हूँ, मैं अभी भी इस भौतिक अस्तित्व के भ्रम एवं द्वन्द्व के अधीन हूँ। अतः मैं आकपे चरणकमलों की शरण लेने के हेतु आया हूँ, क्योंकि मैं जन्म और मृत्यु के चक्र से भयभीत हूँ। प्रिय भगवान्! मेरा विचार है कि मेरे समान ऐसे अनेक जीव हैं, जो शाष्वत् रूप से सकाम कर्मों एवं उनके फलों में संलग्न हैं। वे भक्ति करके आपके उपदेषों का पालन करने में प्रवृत्त नहीं हैं, यद्यपि हृदय के लिए वह बहुत ही सन्तोषजनक और व्यक्ति के अस्तित्व के लिए अत्यन्त शुभ होता है। इसके विपरीत, वे कृष्णभावनाभावित जीवन के मार्ग के विरूद्ध हैं तथा तीनों लोकों में भौतिक जगत् की भ्रामक शक्ति के अधीन भटक रहे हैं।

"प्रिय भगवान् ! आपकी कृपा एवं आपके शक्तिशाली कार्यों का मूल्यांकन कौन कर सकता है ? शाश्वत काल की अलन्घ्य शक्ति के रूप में आप सदैव विद्यमान हैं एवं उन भौतिकवादियों की अश्रान्त कामनाओं को निष्फल करने में संलग्न हैं, जो इस प्रकार पुनः पुन: दिग्भ्रमित एवं निराश हो रहे हैं । अतएव शाश्वत काल स्वरूप आपकी मैं वन्दना करता हूँ । मेरे प्रिय भगवान् ! आप सभी विश्वों के स्वामी हैं और आपने स्वयं को अपने स्वांश श्रीबलराम जी के साथ अवतरित किया है । ऐसा कहा जाता है कि इस अवतरण में आपके आविर्भाव का लक्ष्य भक्तों की रक्षा करना और दुष्टों का विनाश करना है । इन परिस्थितियों के पश्चात् भी, यह कैसे सम्भव है कि जरासंध जैसे बदमाश दुष्ट आपके अधिकार के विरुद्ध हमें ऐसी दुःखद स्थिति में डाल सकते हैं ? हम इस परिस्थिति से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए हैं तथा समझ नहीं पा रहे कि यह कैसे सम्भव है । हो सकता है कि हमारे पूर्व दुष्कर्मों के कारण हमें कष्ट देने के लिए जरासन्ध को नियुक्त किया गया हो । किन्तु प्रामाणिक धर्मग्रन्थों से हमने सुना है कि जो व्यक्ति आपके चरणकमलों के प्रति समर्पित हो जाता है, वह व्यक्ति तुरन्त ही पापपूर्ण जीवन के फलों से उन्मुक्त हो जाता है । आपकी शरण में हम सबको पूरे मन से समर्पित करने के लिए सभी कैदी राजाओं द्वारा मुझे नियुक्त किया गया है और हम आशा करते हैं कि श्रीमान् अब हमें पूर्ण संरक्षण देंगे । हम अपने जीवन के वास्तविक निष्कर्ष पर पहुँच गए हैं । हमारी राजसी स्थितियाँ और कुछ नहीं बल्कि हमारे पूर्व पुण्यकर्मों का पुरस्कार-मात्र हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे जरासन्ध द्वारा हमारा कैद किया जाना हमारे पूर्व पापपूर्ण कर्मों का परिणाम है । हमने अब अनुभव कर लिया है कि हमारे पुण्य और पापकर्मों के परिणामस्वरूप प्रतिक्रियाएँ अस्थायी हैं और हम इस बद्ध जीवन में कभी-भी प्रसन्न नहीं हो सकते । ये भौतिक शरीर हमें भौतिक गुणों के अनुसार प्रदान किए जाते हैं । इसके कारण हम अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं । जीवन की भौतिक स्थिति में हमें केवल इस मृत शरीर के बोझ को ढोना पड़ता है । अतः सकाम कर्मों के परिणामस्वरूप हम इन शरीरों में भार ढोने वाले पशु बनने के लिए बाध्य किए गए है तथा बद्ध जीवन के द्वारा बाध्य किए जाने पर हमने कृष्णभावनामृत के सुखी जीवन को त्याग दिया है । अब हमें अनुभव हुआ है कि हम सबसे अधिक मूर्ख हैं । अपनी अज्ञानता के कारण हम भौतिक प्रतिक्रियाओं के जाल में फँस गए हैं । अतएव हम आपके चरणकमलों की शरण में आए हैं, जो फलदायक कार्यकलापों के परिणामों को तुरन्त ही उन्मूलित कर सकती है और हमें भौतिक सुख एवं दुःख के दोष से मुक्त कर सकती है ।

"प्रिय भगवान् ! क्योंकि अब हम आपके चरणकमलों में समर्पित आत्माएँ हैं, अतएव जरासन्ध के रूप में उद्धृत हमारे सकाम कर्मों के बन्धनों से अब आप हमें मुक्त कर सकते हैं । प्रिय प्रभु ! यह आपको ज्ञात है कि जरासन्ध दस हजार हाथियों की शक्ति धारण करता है तथा इसी शक्ति के द्वारा उसने हमें अपना बन्दी बना लिया है, ठीक उसी प्रकार जैसे एक सिंह मेमनों के पूर्ण झुण्ड को सम्मोहित कर लेता है । प्रिय भगवान् ! आप अब तक क्रमश: अठारह बार लड़ चुके हैं, जिसमें से उसकी असाधारण शक्तिशाली स्थिति पर विजयी होकर आपने सत्रह बार उसे हराया है । परन्तु अपने अठारहवें युद्ध में आपने मानवता प्रदर्शित की, इसलिए ऐसा प्रतीत हुआ कि आप पराजित हो गए हैं । प्रिय प्रभु ! हम पूर्णरूपेण जानते हैं कि जरासन्ध आपको कभी-भी नहीं हरा सकता, क्योंकि आपकी शक्ति, क्षमता, सम्पत्ति और अधिकार सभी अनन्त हैं । कोई भी व्यक्ति तुलना में न तो आपके समान है, न आपसे बढ़कर हो सकता है । अठारहवें युद्ध में जरासन्ध के द्वारा आपकी पराजय की प्रतीति मानवता का एक प्रदर्शन-मात्र है । दुर्भाग्यवश, मूर्ख जरासन्ध आपके चातुर्य को नहीं समझ पाया और तब से वह अपनी भौतिक शक्ति एवं प्रतिष्ठा पर गर्व करता है । विशेष रूप से, यह जानते हुए कि आपके भक्त होने से हम आपके प्रभुत्व के अधीन हैं, उसने हमें पकड़ कर बन्दी बना लिया है ।

"अब मैंने अपनी दुःखद स्थिति का वर्णन कर दिया है और अब श्रीमान् निर्णय लेकर अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं । सभी बन्दी राजाओं का प्रतिनिधि होने की वजह से मैंने अपने शब्दों को श्रीमान् के प्रति समर्पित कर दिया है और अपनी प्रार्थनाओं को आपके समक्ष प्रस्तुत कर दिया है । सभी राजा आपके दर्शन करने के हेतु बहुत आतुर हैं जिससे व्यक्तिगत रूप से वे स्वयं को आपके चरणकमलों में समर्पित कर सकें । प्रिय भगवान् ! उनपर कृपा कीजिए एवं उनके भले के लिए कार्य कीजिए ।" जिस समय बन्दी राजाओं का प्रतिनिधि श्रीभगवान् के सम्मुख निवेदन कर रहा था, उसी समय देवर्षि नारदजी भी वहाँ पहुँच गए । चूँकि वे एक महान् ऋषि थे, अतएव उनके केश स्वर्ण के समान चमक रहे थे तथा जब उन्होंने सभा-भवन में प्रवेश किया तब ऐसा प्रतीत हुआ कि सूर्यदेव व्यक्तिगत रूप से सभा के बीच उपस्थित हैं । भगवान् श्रीकृष्ण श्रीब्रह्माजी और शिवजी के लिए भी पूजनीय गुरु हैं, तो भी जैसे ही श्रीकृष्ण ने देखा कि देवर्षि नारद मुनि पधारे हैं, तो वे देवर्षि का स्वागत करने के लिए और झुककर सादर वन्दना करने के लिए अपने मंत्रियों एवं सचिवों के साथ तुरन्त उठ खड़े हुए । देवर्षि नारद मुनि एक सुखद स्थान पर विराजमान हुए तथा भगवान् श्रीकृष्ण ने संत-पुरुष की आवभगत के नियमानुसार सभी प्रकार से उनकी उपासना की । नारदजी को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते हुए उन्होंने अपनी मधुर तथा स्वभाविक ध्वनि में निम्नलिखित वचन कहे ।

"हे प्रिय देवर्षि ! अब मैं सोचता हूँ कि तीनों लोकों में सब कुछ ठीक है । आप इस ब्रह्माण्ड के उच्च, मध्य एवं निम्न लोकों में भ्रमण करने के लिए पूर्णरूपेण सुयोग्य हैं । सौभाग्य से, जब हमारा आपसे मिलन होता है, तब आपके द्वारा हम तीनों लोकों के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । परम ईश्वर के इस विराट जगत् में ऐसा कुछ नहीं है, जो आपके ज्ञान से परे हो । आप सब कुछ जानते हैं, अतएव मैं आपसे प्रश्न पूछना चाहता हूँ । क्या पाण्डवों में सभी कुछ यथावत् चल रहा है, एवं महाराज युधिष्ठिर की वर्तमान में क्या योजना है ? क्या आप कृपा करके मुझे बताएँगे कि वर्तमान में वे क्या करना चाहते हैं ?"

देवर्षि नारद मुनि ने इस प्रकार कहा, "मेरे प्रभु ! आपने परम-ईश्वर द्वारा निर्मित इस विराट जगत् के विषय में कहा है, परन्तु मुझे ज्ञात है कि आप ही सर्वव्यापक स्रष्टा हैं । आपकी शक्तियाँ इतनी विस्तृत और अचिन्त्य हैं कि इस विशेष ब्रह्माण्ड के स्वामी श्री ब्रह्मा जैसे महान् पुरुष भी आपकी अचिन्त्य शक्ति को नहीं माप सकते । प्रिय भगवन् ! अपनी अचिन्त्य शक्ति के द्वारा आप परम-आत्मा के रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यामान हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे प्रत्येक जीव में अग्नि विद्यमान है, परन्तु प्रत्यक्ष रूप से कोई उसे देख नहीं सकता । जीवन की बद्धावस्था में प्रत्येक जीवात्मा भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के अधिकार-क्षेत्र में है । तथापि अपने भौतिक नेत्रों से वे हर जगह आपकी उपस्थिति को देखने में असमर्थ हैं, फिर भी आपकी कृपा से मैंने अनेक बार आपकी अचिन्त्य शक्ति की क्रियाओं को देखा है अज्ञात नहीं हैं, तो मुझे आपकी जिज्ञासा पर तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ । प्रिय प्रभु ! आप अचिन्त्य शक्तियों के द्वारा विराट जगत् की सृष्टि करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं और फिर उसका विनाश कर देते हैं । ऐसा आपकी अचिन्त्य शक्ति के बल से ही होता है कि यद्यपि यह भौतिक जगत् वैकुण्ठ जगत् का छाया-निरूपण है, तथापि वह वास्तविक प्रतीत होता है । कोई समझ नहीं पाता कि आप भविष्य में क्या करने वाले हैं । आपकी दिव्य इन्द्रियातीत स्थिति सबके लिए सदैव अचिन्त्य है । जहाँ तक मेरी बात है, मैं आपकी सादर वन्दना अनेकानेक बार कर सकता हूँ । ज्ञान की शारीरिक धारणा में, प्रत्येक व्यक्ति भौतिक इच्छाओं से प्रेरित होता है, अतएव प्रत्येक व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र में एक के बाद एक नवीन भौतिक शरीर धारण करता रहता है । अस्तित्त्व की ऐसी धारणा में लीन होकर व्यक्ति यह नहीं जानता कि भौतिक शरीर के इस बन्धन से किस प्रकार छुटकारा पाया जाए । अपनी अहैतुकी कृपा से, हे भगवान् ! आप अपनी विभिन्न दिव्य लीलाओं का प्रदर्शन करने के लिए अवतरित होते हैं, जो प्रदीप्त एवं महिमामण्डित हैं । अतएव आपकी सादर वन्दना करने के अतिरिक्त मेरे पास अन्य कोई विकल्प नहीं है । प्रभु ! आप परम परब्रह्म हैं और साधारण जीव के रूप में आपके कार्य एक और कुशल साधन हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे मंच पर नाटक खेला जाता है, जिसमें नट ऐसे अभिनय करता है, जो उसके वास्तविक स्वरूप से भिन्न होते हैं । आपने पाण्डवों का शुभचिन्तक बनकर उनके विषय में जिज्ञासा की है, अतएव मैं आपको उनके उद्देश्य के विषय में बताता हूँ । अब कृपया ध्यान से सुनिए । सर्वप्रथम आपको मालूम होना चाहिए कि महाराज युधिष्ठिर के पास वे सभी ऐश्वर्य हैं, जो सर्वोच्च लोक, ब्रह्मालोक, में पाए जा सकते हैं । उनके पास किसी भी भौतिक ऐश्वर्य की कमी नहीं है, तो भी वे राजसूय यज्ञ का सम्पादन केवल इसलिए कर रहे हैं कि वे आपका संग प्राप्त करके आपको प्रसन्न कर सकें ।" श्रीनारद ने श्रीकृष्ण को सूचित किया, "महाराज युधिष्ठिर इतने ऐश्वर्यवान् हैं कि उन्होंने इस भूलोक पर भी ब्रह्मलोक के सभी ऐश्वर्य प्राप्त कर लिए हैं । वे पूर्णतया सन्तुष्ट हैं एवं उन्हें किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । वे प्रत्येक वस्तु से परिपूर्ण हैं, परन्तु अब वे आपकी स्तुति कर आपकी अहैतुकी कृपा प्राप्त करना चाहते हैं । मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप उनकी इच्छाओं को पूर्ण करें । प्रिय भगवान् ! महाराज युधिष्ठिर द्वारा आयोजित इस भव्य यज्ञ में देवता गण एवं विश्व के सभी सुप्रसिद्ध राजा-महाराज उपस्थित होगे । "प्रिय प्रभु ! आप परब्रह्म श्रीभगवान् हैं । जो व्यक्ति श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करने की निर्धारित विधि से आपकी भक्ति में संलग्न होता है, वह व्यक्ति भौतिक प्रकृति के गुणों के संदूषण से मुक्त हो जाता है । उन व्यक्तियों का क्या कहना जो आपको प्रत्यक्ष रूप से देखने का और स्पर्श करने का सुअवसर प्राप्त करते हैं ? प्रिय भगवान् ! आप सभी शुभ विषयों के प्रतीक हैं । आपका दिव्य नाम तथा प्रसिद्धि उच्च, मध्य और निम्नलोक सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैली हुई है । वह दिव्य जल जो आपके चरणकमलों को धोता है, उच्चलोकों में मन्दाकिनी, निम्नलोकों में भोगवती, एवं इस पृथ्वी पर गंगा के नाम से जाना जाता है । यह पवित्र, आध्यात्मिक जल सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में बहता है तथा जहाँ भी बहता है उस स्थान को पवित्र बना देता है ।” देवर्षि नारद मुनि के द्वारा द्वारका के सुधर्मा सभा-भवन में प्रवेश करने से पूर्व श्रीकृष्ण भगवान् एवं उनके मंत्री तथा सचिव गण इस विषय पर चर्चा कर रहे थे कि किस प्रकार जरासन्ध के राज्य पर आक्रमण किया जाए । क्योंकि वे इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन कर रहे थे, इसलिए नारद जी का यह प्रस्ताव कि वे हस्तिनापुर जाकर महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपस्थित हों, उन्हें अधिक आकर्षक नहीं लगा । भगवान् श्रीकृष्ण अपने साथियों के अभिप्राय को समझ गए थे, क्योंकि वे श्री ब्रह्मा के भी शासक हैं । अतएव उन्हें सन्तुष्ट करने के लिए उन्होंने मुस्कराकर उद्धव से कहा, "प्रिय उद्धव ! तुम मेरे सदैव ही शुभ-चिन्तक विश्वसनीय मित्र हो । अत: मैं सब कुछ तुम्हारे माध्यम से देखना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे विश्वास है कि तुम्हारा परामर्श सदैव उपयुक्त होता है । मुझे विश्वास है कि तुम स्थिति को यथार्थ रूप में समझते हो, अतएव मैं तुम्हारी राय पूछ रहा हूँ । मुझे क्या करना चाहिए ? मुझे तुममें विश्वास है, अतएव जो तुम कहोगे मैं वही करूंगा ।" उद्धव को यह ज्ञात था कि यद्यपि श्रीकृष्ण साधारण मनुष्य की भाँति कार्य कर रहे हैं, तथापि उन्हें सब कुछ-भूत, वर्तमान एवं भविष्य-ज्ञात है । तत्पश्चात् भी, क्योंकि भगवान् उनसे परामर्श करने का प्रयास कर रहे थे, इसलिए श्रीभगवान् को सेवा अर्पित करने के लिए उद्धव ने बोलना आरम्भ किया ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भगवान् श्रीकृष्ण की दिनचर्या” नामक सत्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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