देवर्षि नारद मुनि तथा श्रीकृष्ण के अन्य सभी साथियों की उपस्थिति में श्री उद्धवजी ने परिस्थिति को समझा तथा तत्पश्चात् वे इस प्रकार कहने लगे— "प्रिय भगवान् ! सर्वप्रथम मैं कहना चाहूँगा कि देवर्षि नारद मुनि ने आपसे निवेदन किया है कि आप भाई युधिष्ठिर के पास हस्तिनापुर जाकर उन्हें सन्तुष्ट करें, जो राजसूय यज्ञ को संपन्न करने का प्रबन्ध करने में लगे हैं । अतएव, मेरा विचार है कि आप श्रीमान् को इस भव्य कार्य में महाराज की सहायता हेतु वहाँ तत्काल जाना चाहिए । इसी के साथ, यद्यपि देवर्षि नारद मुनि के द्वारा प्रस्तुत किए गए निमंत्रण को मुख्य मानना उचित है, तथापि श्रीभगवान् ! यह आपका कर्तव्य है कि आप उन समर्पित आत्माओं की रक्षा करें । यदि हम स्थिति को समझने का प्रयत्न करें, तो दोनों लक्ष्यों को पूरा किया जा सकता है । जब तक हम सभी राजाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर लेते, कोई भी इस राजसूय यज्ञ को संपन्न नहीं कर सकता । दूसरे शब्दों में, यह समझना चाहिए कि युद्धरत जरासन्ध पर विजयी हुए बिना महाराज युधिष्ठिर इस महान् यज्ञ को संपन्न नहीं कर सकते । राजसूय यज्ञ केवल उसी व्यक्ति के द्वारा किया जा सकता है, जिसने प्रत्येक दिशा में विजय प्राप्त की हो । अतएव दोनों लक्ष्यों का पालन करने के हेतु हमें सर्वप्रथम जरासन्ध का वध करना होगा । मैं सोचता हूँ कि यदि हम किसी तरह जरासन्ध पर विजय प्राप्त कर लें, तो हमारे सभी लक्ष्यों का हल मिल जाएगा, बन्दी राजा मुक्त कर दिए जाएँगे और तब आपके द्वारा जरासन्ध के बन्दी राजाओं की मुक्ति के दिव्य समाचार के प्रसारित होने पर हम भव्य सुख का आनन्द उठायेंगे । "किन्तु राजा जरासन्ध कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है । वह बड़े से बड़े वीरों के लिए भी बाधा सिद्ध हुआ है, क्योंकि उसकी शारीरिक शक्ति दस हजार हाथियों की शक्ति के समान है । यदि ऐसा कोई व्यक्ति है, जो इस राजा को पराजित कर सके, तो वह भीमसेन के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं, क्योंकि वे भी 10,000 हाथियों की शक्ति धारण करते हैं । सर्वोत्तम यही होगा कि भीमसेन अकेले लड़ें । तब फिर सैकड़ों सैनिकों का अनावश्यक वध नहीं होगा । वास्तव में जरासन्ध के द्वारा सैनिकों की अक्षौहिणी सेना बनाकर खड़े होने पर उसे हराना अत्यन्त कठिन हो जाएगा । अतएव हमें ऐसी नीति ग्रहण करनी होगी, जो इस परिस्थिति के अनुकूल हो । हमें ज्ञात है कि राजा जरासन्ध ब्राह्मणों के प्रति समर्पित है । वह उनके प्रति बहुत परोपकारी है, वह ब्राह्मण के किसी भी निवेदन को इनकार नहीं करता । अतएव मेरा मत है कि भीमसेन को ब्राह्मण के वेश में जरासन्ध के पास जाकर भिक्षा माँगनी चाहिए और फिर व्यक्तिगत रूप से जरासन्ध के साथ युद्ध करने में लग जाना चाहिए । भीमसेन की विजय को निश्चित करने के लिए मेरे विचार से, आपको उनके साथ जाना चाहिए । यदि आपकी उपस्थिति में ही युद्ध घटित होगा, तो मुझे दृढ़ विश्वास है कि भीमसेन अवश्य ही विजयी होंगे, क्योंकि आपकी उपस्थितिमात्र से असम्भव सम्भव हो जाता है, ठीक उस प्रकार जैसे ब्रह्माजी इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं एवं आपके प्रभाव के द्वारा शिवजी उसका संहार कर देते हैं ।
"वास्तव में आप सम्पूर्ण विराट जगत् का निर्माण तथा विनाश करते हैं । ब्रह्माजी एवं शिवजी सामान्य दृष्टिगोचर कारण हैं । निर्माण तथा विनाश वास्तव में अदृश्य कालचक्र के द्वारा सम्पन्न होता है, जो आपका निराकार प्रतिरूप है । सभी कुछ इस कालचक्र के नियंत्रण में है । यदि ब्रह्माजी एवं शिवजी के द्वारा आपका कालचक्र इतने अद्भुत कार्य कर सकता है, तो क्या आपकी व्यक्तिगत उपस्थिति जरासन्ध को हराने के लिए भीमसेन की रक्षा नहीं करेगी ? मेरे प्रिय भगवान् ! जब जरासन्ध का वध हो जाएगा, तब आपकी कृपा से सभी बन्दी राजाओं की पत्नियाँ अपनी मुक्ति से इतनी प्रसन्न होंगी कि वे आपकी महिमा को गाना आरम्भ कर देंगी । वे उसी प्रकार प्रसन्न होंगी जिस प्रकार शंखासुर के बन्धन से मुक्त होकर गोपियाँ प्रसन्न हुई थीं । सभी महर्षि, गजराज गजेन्द्र, भाग्य की देवी सीता तथा आपकी माता एवं पिता भी आपकी अहैतुकी कृपा से मुक्त हो गए । हमारा भी उसी प्रकार उद्धार हो गया और हम सदैव आपके कार्यों की महिमा का गान करते हैं ।
“अतएव, मेरा विचार है कि सर्वप्रथम यदि जरासन्ध के वध का कार्य कर लिया जाए, तो उससे अन्य सभी समस्यायें अपने-आप सुलझ जायेंगी । जहाँ तक हस्तिनापुर में आयोजित राजसूय यज्ञ का प्रश्न है, वह या तो बन्दी राजाओं के पुण्यकर्मों के द्वारा अथवा जरासन्ध के नास्तिक कर्मों के कारण सम्पन्न किया जाएगा ।
"प्रभु ! ऐसा प्रतीत होता है कि इस यज्ञ को पूरा करने के लिए आप व्यक्तिगत रूप से जाएँगे जिससे जरासन्ध एवं शिशुपाल जैसे दानवों को हराया जा सके, धार्मिक बन्दी राजाओं को मुक्त किया जा सके और साथ ही साथ महान् राजसूय यज्ञ को सम्पन्न किया जा सके । इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, मेरा विचार है कि आप श्रीमान् को तत्काल हस्तिनापुर जाना चाहिए ।"
श्री उद्धव के इस परामर्श की सभा में उपस्थित सभी लोगों ने प्रशंसा की एवं सभी ने मान लिया कि सभी दृष्टिकोणों से श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर जाना लाभदायक रहेगा । देवर्षि नारद मुनि, यदुवंश के वयोवृद्ध व्यक्ति स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण सब ने श्रीउद्धव के इस मत का समर्थन किया । तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने पिता वसुदेव एवं पितामह उग्रसेन से अनुमति ली और तत्काल ही हस्तिनापुर की यात्रा के लिए व्यवस्था करने के लिए अपने सेवकों, दारुक एवं जैत्र को आज्ञा दी । जब सब व्यवस्थित हो गया, तब श्रीकृष्ण ने विशेष रूप से श्रीबलराम और यदुराज उग्रसेन से विदाई ली । तदनन्तर रानियों और उनके बच्चों को तथा उनके सामान को आगे भेजकर वे रथ पर सवार हुए, जिसमें गरुड़ के चिह्न से अंकित एक झंडा था ।
शोभायात्रा को आरम्भ करने से पहले, पूजा योग्य वस्तुओं को देवर्षि नारदजी के प्रति अर्पित करके उन्हें सन्तुष्ट किया गया । नारदजी श्रीकृष्ण के चरणकमलों पर गिर जाना चाहते थे, किन्तु क्योंकि श्रीभगवान् एक साधारण मनुष्य का अभिनय कर रहे थे, इसलिए नारदजी ने मन ही मन में अपनी वन्दना अर्पित की तथा श्रीभगवान् के दिव्य स्वरूप को अपने हृदय में स्थित करके उन्होंने वायुमार्ग के द्वारा सभा-भवन से प्रस्थान किया । सामान्य रूप से नारदजी पृथ्वी के धरातल पर कभी नहीं चलते, वरन् बाह्य अन्तरिक्ष में भ्रमण करते हैं । नारदजी के प्रस्थान के पश्चात् श्रीकृष्ण ने उस प्रतिनिधि को सम्बोधित किया, जो बन्दी राजाओं के पास से आया था । उन्होंने उससे कहा कि उसे चिन्ता नहीं करनी चाहिए । श्रीकृष्ण से यह आश्वासन प्राप्त करने के पश्चात् वह प्रतिनिधि बन्दी राजाओं के पास लौट गया और भगवान् के आगामी मिलन के शुभ समाचार की सूचना दी । सभी राजागण उस समाचार को सुनकर प्रसन्न हो गए और भगवान् के आगमन की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करने लगे ।
भगवान् श्रीकृष्ण का रथ अनेक रथों, हाथियों, अश्वारोही सेनाओं, पैदल सेनाओं तथा इस प्रकार के अन्य उपकरणों के साथ आगे बढ़ने लगा । बिगुल, ढोल, तुरही, शंख तथा घोड़ों के शिरोबन्धों के द्वारा भव्य शुभ ध्वनि उत्पन्न होने लगी, जो चारों दिशाओं में कम्पन उत्पन्न करने लगी । भगवान् श्रीकृष्ण की आदर्श पत्नी भाग्यलक्ष्मी रुक्मिणी के नेतृत्व में 16,000 रानियाँ तथा उनके निजी पुत्र सभी श्रीभगवान् का अनुगमन कर रहे थे । वे सभी आभूषणों से सजे हुए बहुमूल्य वस्त्र धारण किए हुए थे तथा उनका शरीर चन्दन से लिप्त था एवं गले में सुगन्धित वस्त्रों की माला थी । रेशम, झण्डों तथा स्वर्ण डोरियों से सुसज्जित पालकियों में बैठकर उन्होंने श्रीकृष्ण का अनुगमन किया । पैदल सैनिक कवच, तलवार तथा बल्लम धारण किए हुए थे तथा रानियों के शाही रक्षक का कार्य कर रहे थे । शोभायात्रा के पृष्ठभाग में उनके अनुयायियों की पत्नियाँ एवं बच्चे थे । उनके पीछे अनेक युवतियाँ थीं । अनेक भारवाही जानवर जैसे-बैल, भैंसा, खच्चर तथा गधे शिविर का सामान यथा दरी-बिस्तर तथा कालीन लादे थे । जो स्त्रियाँ उनके पीछे थीं, वे ऊँट की पीठ पर विभिन्न पालकियों पर बैठी हुई थी । इस विशालदर्शी शोभायात्रा के साथ लोगों की आवाजें उठ रही थीं तथा इसमें विभिन्न प्रकार के रंगीन झण्डे, छाते, चंवर तथा शस्त्र, वस्त्र, आभूषण, शिरस्त्राण तथा विभिन्न प्रकार की युद्ध सामग्री सम्मिलित थी । सूर्य किरणों में प्रतिबिम्बित होने पर वह शोभायात्रा शार्क मछली के साथ ऊँची लहरों से युक्त सागर के समान लग रही थी ।
इस प्रकार भगवान् श्राकृष्ण के दल की शोभायात्रा हस्तिनापुर (नई दिल्ली) की तरफ बढ़ी । वह क्रमश: आनर्त (गुजरात प्रदेश), सौवीर (सूरत), राजस्थान का विशाल रेगिस्तान एवं तत्पश्चात् कुरुक्षेत्र से गुजरती हुई बढ़ रही थी । उन राज्यों के बीच में अनेक पर्वत, नदियाँ, शहर, गाँव, गोचर-भूमियाँ और खनन-क्षेत्र थे । शोभायात्रा आगे बढ़ते हुए इन सभी स्थानों से होकर गुजरी । हस्तिनापुर जाते हुए मार्ग में श्रीभगवान् दो विशाल नदियों दृष्वती तथा सरस्वती से गुजरे । तत्पश्चात् उन्होंने पांचाल-प्रदेश तथा मत्स्य-प्रदेश को पार किया । इस प्रकार, अंत में वे इन्द्रप्रस्थ पहुँचे । भगवान् श्री कृष्ण का दर्शन हम हर स्थान पर नहीं प्राप्त कर सकते । अतएव जब महाराज युधिष्ठिर ने सुना कि भगवान् श्री कृष्ण उनकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में आ चुके हैं, तब वे इतना आनन्दित हो उठे कि उल्लास में उनके रोंगटे खड़े हो गए तथा उनका स्वागत करने के लिए महाराज युधिष्ठिर राजधानी से बाहर आ गए । उन्होंने गायकों को विभिन्न वाद्य उपकरणों से संगीत प्रारम्भ करने का आदेश दिया । राजधानी के विद्वान ब्राह्मण वेदों के मंत्रों का जोर-जोर से उच्चारण करने लगे । श्रीकृष्ण को हृषीकेश या इन्द्रियों का स्वामी कहा जाता है तथा महाराज युधिष्ठिर उनका स्वागत करने ठीक उसी प्रकार गए जैसे इन्द्रियों का मिलन जीवन की चेतना से होता है । महाराज युधिष्ठिर श्रीकृष्ण के वयोवृद्ध भाई थे । स्वभावत: उन्हें श्रीभगवान् के प्रति गहरी अनुरक्ति थी तथा जैसे ही उन्होंने श्रीकृष्ण को देखा, तो उनका हृदय महान् प्रेम तथा स्नेह से भर गया । उन्होंने भगवान् को बहुत दिनों से नहीं देखा था, अतएव उन्होंने श्रीकृष्ण को अपने सम्मुख देखकर स्वयं को अत्यन्त सौभाग्यशाली माना । अतएव महाराज युधिष्ठिर स्नेह से उनका बार-बार आलिंगन करने लगे । श्रीकृष्ण का शाश्वत रूप भाग्य-देवी लक्ष्मी जी का सनातन वास है । जैसे ही महाराज युधिष्ठिर ने उनका आलिंगन किया, वे भौतिक जगत् के प्रत्येक संदूषण से मुक्त हो गए । उन्होंने तत्काल ही दिव्य आनन्द का अनुभव किया तथा उल्लास और रोमांच के कारण उनका शरीर काँपने लगा । वे पूर्णतया भूल गए कि वे इस भौतिक जगत् में रह रहे हैं । तत्पश्चात् पाण्डवों के दूसरे भाई, भीमसेन ने मुस्कराते हुए यह सोचकर श्रीकृष्ण का आलिंगन किया कि वे अपने स्वयं के भाई हैं तथा वे भी अत्यन्त हर्षोंन्माद में लिप्त हो गए । भीमसेन भी इतने उल्लसित हो उठे कि कुछ क्षण के लिए वे भौतिक अस्तित्त्व को भूल गए । तदुपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं अन्य तीन पाण्डवों अर्जुन, नकुल एवं सहदेव का आलिंगन किया । तीनों भाइयों के नेत्र अश्रुओं से आप्लावित थे तथा अर्जुन भी कृष्ण का बारम्बार आलिंगन करने लगे, क्योंकि वे घनिष्ठ मित्र थे । श्रीकृष्ण द्वारा आलिंगन-बद्ध होने के पश्चात् वे दोनों कनिष्ठ पाण्डव उनकी सादर वन्दना करने के हेतु उनके चरणकमलों पर गिर गए । तत्पश्चात् उपस्थित ब्राह्मणों और साथ ही साथ भीष्म, द्रोण एवं धृतराष्ट्र जैसे कुरुवंश के सदस्यों की श्रीकृष्ण ने सादर वन्दना की । वहाँ कुरु, सृंजय एवं केकय जैसे अनेक प्रदेशों के अनेक राजा थे तथा श्रीकृष्ण ने उनके साथ वन्दना एवं अभिवादन का यथोचित आदान-प्रदान किया । सूत, मागध एवं वन्दीगण के समान सुनिपुण गायक तथा ब्राह्मणों ने श्रीभगवान् को अपनी सादर वन्दना अर्पित करनी आरम्भ कर दी । गन्धर्व के समान संगीतकारों एवं कलाकारों के साथ ही शाही विदूषकों ने अपने-अपने बिगुल, ढोल, मृदंग, वीणा, शंख बजाने आरम्भ कर दिए तथा श्रीकृष्ण को आनन्दित करने के लिए अपनी नृत्य-कला का प्रदर्शन करने लगे । अत: सर्वप्रख्यात भगवान् श्रीकृष्ण ने महान्गर हस्तिनापुर में प्रवेश किया, जो हर प्रकार से ऐश्वर्यवान् था । जब श्रीकृष्ण शहर में प्रवेश कर रहे थे, तब सारे व्यक्ति आपस में श्रीकृष्ण की महिमा के विषय में वार्तालाप कर रहे थे तथा उनके दिव्य नाम, गुण, रूप आदि की प्रशंसा कर रहे थे । हस्तिनापुर की सड़कों, रास्तों एवं गलियों में मदमस्त हाथियों की सूंड़ों से सुगन्धित जल छिड़का गया था । नगर के विभिन्न स्थानों पर घरों एवं रास्तों को सुसज्जित करने वाले झंडे एवं तोरण लगाये गए थे । मुख्य चौराहों पर स्वर्ण-अलंकृत द्वार थे तथा द्वारों के दोनों कोनों में स्वर्ण के कलश थे । इन अद्भुत विभूषणों ने नगर के ऐश्वर्य को और भी महिमान्वित कर दिया था । इस भव्य समारोह में हिस्सा लेने वाले नगर के सभी नागरिक यहाँ-वहाँ एकत्रित हो गए । वे आभूषणों, फूलमालाओं एवं सुगन्धित इत्र से सुवासित रंगीन वस्त्र धारण किए हुए थे । प्रत्येक घर सहस्त्रों दीपकों से प्रदीप्त था, जो दीवारों, खम्भों, तलों तथा प्रस्तरपादों के विभिन्न कोनों में रखे हुए थे तथा दूर से इन दीपकों की किरणों को देखकर ऐसा प्रतीत होता मानो दीपावली महोत्सव मनाया जा रहा है । घरों के अन्दर सुगन्धित अगरबत्तियाँ जल रही थीं तथा उनका धुआँ खिड़िकियों से बाहर निकलकर सम्पूर्ण वातावरण को अत्यन्त सुखद बना रहा था । घर के ऊपर झण्डे लहरा रहे थे तथा छतों पर रखे हुए स्वर्ण कलश चमक रहे थे ।
अत: श्रीकृष्ण ने वातावरण का आनन्द उठाते हुए पाण्डवों के शहर में प्रवेश किया तथा धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे । प्रत्येक घर में जब नव-युवतियों ने सुना कि देखने योग्य एकमात्र वस्तु श्रीकृष्ण रास्ते से गुजर रहे हैं, तो वे इस सर्व-प्रख्यात व्यक्ति को देखने के लिए अत्यन्त व्याकुल हो उठीं । उनके केश ढीले पड़ गए तथा उनकी चुस्त साड़ियाँ श्रीकृष्ण को देखने की जल्दबाजी में अस्तव्यस्त हो गई । उन्होंने अपने गृह-कार्यों को त्याग दिया और जो अपने पतियों के साथ शैय्या पर विश्राम कर रही थीं, उन्होंने तत्काल ही अपने पतियों को छोड़ दिया तथा श्रीकृष्ण को देखने के लिए पथ पर आ गयीं । हाथियों, घोड़ों, रथों तथा पैदल सेना की उस शोभायात्रा में बहुत भीड़ थी, कुछ लोग भीड़-भाड़ में ठीक से देख नहीं पा रहे थे, अतएव वे घर की छतों पर चढ़कर बैठ गए । भगवान् श्रीकृष्ण को सोलह हजार पत्नियों के साथ जाते हुए देखकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए । वे शोभायात्रा पर फूल बरसाने लगे तथा उन्होंने श्रीकृष्ण का मन ही मन में आलिंगन कर लिया तथा उनका हार्दिक स्वागत किया । जब नव-युवतियों नें उन्हें अपनी पत्नियों के बीच देखा, तो उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि अनेक नक्षत्रों के बीच पूर्ण चन्द्रमा विद्यमान है तथा वे आपस में बात-चीत करने लगीं । एक युवती ने दूसरी से कहा, "प्रिय सखी ! यह अनुमान लगाना अत्यन्त कठिन है कि इन रानियों ने किस प्रकार के पुण्यकर्म किए होंगे, क्योंकि वे सदैव ही श्रीकृष्ण के हँसमुख चेहरे तथा श्रीकृष्ण की प्रेममयी झलकों का आनन्द उठाती हैं ।" जब उस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण मार्ग से गुजर रहे थे, तो शहर के कुछ धनी, प्रतिष्ठित और पापपूर्ण कर्मों से मुक्त नागरिकों ने अवकाश के समय में शुभ वस्तुएँ श्रीकृष्ण को भेंट में दीं । ऐसा उन्होंने उनके स्वागत के लिए किया । इस प्रकार नम्र सेवक के रूप में उन्होंने श्रीकृष्ण की उपासना की । जब श्रीकृष्ण ने महल में प्रवेश किया, तो श्रीकृष्ण को देखने-मात्र से वहाँ पर उपस्थित सभी युवतियाँ स्नेह से अभिभूत हो गई । उन्होंने तत्काल ही चमकती आँखों से श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम और स्नेह को व्यक्त करते हुए उनका स्वागत किया तथा उनके सत्कार के कार्य एवं मनोभावों को मुस्कराते हुए स्वीकृत किया । जब पाण्डवों की जननी कुन्ती ने अपने भतीजे भगवान् श्रीकृष्ण को देखा, तो वे प्रेम और स्नेह से अभिभूत हो गयीं । वे तत्काल ही अपनी शैय्या से उठीं एवं अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ श्रीकृष्ण के सम्मुख प्रकट हुई और मातृ प्रेम तथा स्नेह में श्रीकृष्ण को उन्होंने आलिंगन-बद्ध कर लिया । जैसे ही कृष्ण को महल के भीतर ले आए, राजा युधिष्ठिर प्रसन्नता के मारे इतने उद्विग्न हो उठे कि व्यावहारिक रूप से भूल ही गए । उस समय उचित रीति से श्रीकृष्ण ने आनन्दपूर्वक कुन्ती बुआ एवं महल की अन्य वयोवृद्ध स्त्रियों को सादर वन्दना अर्पित की । उनकी छोटी बहन सुभद्रा भी द्रौपदी के साथ खड़ी थीं तथा दोनों ने श्रीभगवान् के चरणकमलों में सादर वन्दना अर्पित की । अपनी सास के इशारे पर द्रौपदी वस्त्र, आभूषण तथा मालाएँ ले मित्रविन्दा, लक्ष्मणा तथा सेवानिष्ठ सत्या का स्वागत किया । भगवान् श्रीकृष्ण की इन प्रमुख रानियों का सर्वप्रथम स्वागत किया गया । तत्पश्चात् शेष रानियों की भी उचित रीति से आवभगत की गई । महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के विश्राम का प्रबन्ध किया तथा इस बात का ध्यान रखा कि जो लोग उनके साथ आए थे उनकी रानियाँ उनके सैनिक, उनके मंत्री तथा उनके सचिव सबको सुनिधाजनक स्थान मिले । उन्होंने व्यवस्था की थी कि पाण्डवों के आतिथ्य में निवास करते हुए उन्हें प्रत्येक दिन नए प्रकार के आदर-सत्कार का अनुभव हो ।
इस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन की सहायता से, अग्निदेव की सन्तुष्टि के लिए, अग्निदेव को खाण्डव वन को निगलने की अनुमति दी । वन में प्रज्ज्वलित अग्नि के मध्य श्रीकृष्ण ने राक्षस मयासुर की रक्षा की, जो वन में छिपा हुआ था । अपने बचाए जाने पर, मयासुर ने स्वयं को पाण्डवों एवं भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति आभारी माना तथा उसने हस्तिनापुर में एक अद्भुत सभा-भवन का निर्माण किया । इस प्रकार युधिष्ठिर को प्रसन्न करने के लिए वे अनेक महीनों तक हस्तिनापुर में रहे । अपने निवास के बीच श्रीकृष्ण को यहाँ भ्रमण में बड़ा आनन्द आया । वे रथ में अर्जुन के साथ चला करते थे तथा अनेकानेक वीर और सैनिक उनका अनुगमन करते थे ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “इन्द्रप्रस्थ नगर में श्रीकृष्ण” नामक इकहत्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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