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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 72: राजा जरासन्ध की मुक्ति  » 
 
 
 
 
 
उस भव्य सभा में माननीय व्यक्ति, नागरिक, मित्रगण, सम्बन्धी, ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यगण उपस्थित थे । वहाँ अपने भ्राताओं एवं सभी की उपस्थिति में महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण को इस प्रकार सम्बोधित किया, “मेरे प्रिय श्रीकृष्ण ! राजसूय नामक यज्ञ सम्राट द्वारा संपन्न किया जाता है तथा इसे सभी यज्ञों का राजा माना जाता है । इस यज्ञ को सम्पन्न करके मैं सभी देवताओं को सन्तुष्ट करना चाहता हूँ, जो इस भौतिक विश्व के अन्दर आपके समर्थ प्रतिनिधि हैं । मैं यह भी चाहता हूँ कि आप कृपापूर्वक इस महान् कार्य में मेरी सहायता करें जिससे उसे सफलतापूर्वक संपन्न किया जा सके । जहाँ तक हम पाण्डवों का प्रश्न है, हमें देवताओं से माँगने के लिए कुछ नहीं है । हम व्यक्तिगत रूप से आपके भक्त बनकर पूर्णरूप से सन्तुष्ट हैं । जैसाकि आप भगवद्-गीता में कहते हैं, जो व्यक्ति भौतिक है । मैं इस राजसूय यज्ञ को सम्पादित करना चाहता हूँ और देवताओं को आमंत्रित करके यह दिखाना चाहता हूँ कि उनके पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो आपसे स्वतंत्र हो । वे सभी आपके दास हैं तथा आप श्रीभगवान् हैं । ज्ञान के अभाव वाले मूर्ख व्यक्ति आपको सामान्य मानव-मात्र मानते हैं । कभी-कभी वे आप में दोष निकालने का प्रयत्न करते हैं तथा कभी-कभी वे आपको बदनाम करना चाहते हैं । अतएव मैं यह राजसूय यज्ञ संपन्न करना चाहता हूँ । मैं श्री ब्रह्माजी, शिवजी, स्वर्ग लोकों के अन्य प्रमुख सभी देवताओं को आमंत्रित करना चाहता हूँ । उस सभा में, मैं यह प्रमाणित करना चाहता हूँ । कि आप श्रीभगवान् हैं और प्रत्येक व्यक्ति आपका दास हैं । "मेरे प्रिय भगवान्, जो व्यक्ति सदैव कृष्णभावनामृत में हैं और जो आपके चरणकमलों अथवा आपकी पादुकाओं का स्मरण करते हैं, वे भौतिक जीवन के प्रदूषण से मुक्त हो जाते हैं । जो व्यक्ति पूर्णरूपेण कृष्णभावनामृत में आपकी सेवा में संलग्न हैं, जो व्यक्ति केवल आपका चिन्तन करते हैं अथवा जो आपके सम्मुख प्रार्थनाएँ अर्पित करते हैं, वे विशुद्ध आत्माएँ हैं । सदैव कृष्णभावनामृत सेवा में संलग्न होने के कारण ऐसे व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं । वे भौतिक ऐश्वर्यों का भोग करने अथवा भौतिक जीवन के इस बन्धन से मुक्त होने की भी कामना नहीं रखते, उनकी कामनाएँ कृष्णभावनाभावित कार्यों से पूर्ण हो जाती हैं । जहाँ तक हमारा प्रश्न है, तो हम आपके चरणकमलों में पूर्णतया समर्पित हैं तथा आपकी कृपा से आपको व्यक्तिगत रूप से देख पाने के भाग्यशाली हैं । अत: स्वाभाविक रूप से भौतिक ऐश्वर्यों की इच्छा हममें नहीं है । वैदिक ज्ञान का निर्णय है कि आप श्रीभगवान् हैं । मैं इस तथ्य को स्थापित करना चाहता हूँ तथा मैं विश्व को यह दिखाना चाहता हूँ कि आपको श्रीभगवान् के रूप में स्वीकार करने और साधारण व्यक्ति के रूप में स्वीकार करने में कितना अन्तर है । मैं विश्व को दिखाना चाहता हूँ कि कोई व्यक्ति आपके चरणकमलों की शरण लेने मात्र से जीवन की सर्वोच्च पूर्णता प्राप्त कर सकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे जड़ों में पानी देने से वह एक वृक्ष की शाखाओं, टहनियों, पत्तियों और फूलों को सन्तुष्ट कर सकता है । अतएव, यदि कोई व्यक्ति कृष्णभावनामृत को ग्रहण कर ले, तो उसका जीवन भौतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण हो जाता है । "इसका यह अर्थ नहीं है कि आप कृष्ण-भक्त के पक्षपाती हैं तथा अभक्त के प्रति उदासीन हैं । आप सभी के लिए एक समान हैं, यह आपकी घोषणा है । आप एक व्यक्ति का पक्षपात करके दूसरों से उदासीन नहीं हो सकते, क्योंकि परमात्मा के रूप में आप सभी में विद्यमान हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति को उसके सकाम कर्मों का फल देते हैं । आप प्रत्येक जीवात्मा को उसकी इच्छानुसार इस भौतिक जगत् का रसास्वादन करने का अवसर देते हैं । परमात्मा होने की वजह से आप जीवात्मा के साथ शरीर में विद्यमान हैं तथा जीवात्मा को उसके अपने कार्यों का फल देते हैं और साथ ही कृष्णभावनामृत को विकसित करके अपनी भक्ति करने का सुअवसर भी देते हैं । आप स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि सभी अन्य धर्मों को त्यागकर हमें आपके प्रति समर्पित होना चाहिए । आप आगे घोषणा करते हैं कि जो कोई सभी अन्य कर्मों का त्याग करके आपके प्रति समर्पित होता है आप उसका उत्तरदायित्व लेंगे तथा सभी पाप-कर्मों के परिणामों से उसे मुक्त कर देंगे । आप कल्पवृक्ष की भाँति हैं, जो मनवांछित वर देता है । हर व्यक्ति सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र है, परन्तु यदि कोई इसकी इच्छा न करे, तो आपके द्वारा उसे कोई छोटा वर प्रदान करना पक्षपात नहीं है ।"

महाराज युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार उत्तर दिया, "मेरे प्रिय महाराज युधिष्ठिर, हे शत्रुओं के हन्ता, हे आदर्श न्याय के प्रतिरूप । राजसूय यज्ञ को संपन्न करने के आपके निर्णय का मैं पूर्ण रूप से समर्थन करता हूँ । इस महायज्ञ का सम्पादन करके मानव-सभ्यता के इतिहास में आपका शुभ नाम सदैव स्थापित रहेगा । मेरे प्रिय राजा ! मैं आपको सूचित करता हूँ कि मुझ सहित, आपके रिश्तेदारों एवं मित्रों, सभी महर्षियों, आपके पूर्वजों एवं देवताओं की यह इच्छा है कि आप इस यज्ञ को संपन्न करें तथा मेरा विचार है कि उससे प्रत्येक जीवात्मा को सन्तोष प्राप्त होगा । चूँकि यह आवश्यक है, अत: मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि सर्वप्रथम आप विश्व के सभी राजाओं पर विजय प्राप्त करें और इस महायज्ञ को सम्पन्न करने के लिए सभी आवश्यक सामग्री एकत्रित कर लें । मेरे प्रिय महाराज युधिष्ठिर! आपके चरों भ्राता वायु, इंद्र इत्यादि जैसे महत्त्वपूर्ण देवताओं के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि हैं । (ऐसा कहा जाता है कि भीम वरुण के द्वारा उत्पन्न हुए थे, अर्जुन इन्द्रदेव के द्वारा उत्पन्न हुए थे, जबकि महाराज युधिष्ठिर यमराज के द्वारा उत्पन्न हुए थे ।) आपके भ्राता महान् वीर हैं तथा आप अत्यन्त पुण्यवान् एवं आत्म-संयमित राजा हैं, इसीलिए धर्मराज के नाम से जाने जाते हैं । मेरे प्रति भक्ति में आप सब इतने योग्य हैं कि अपने-आप ही आप मेरे प्रतिद्वंद्वी बन गए हैं ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर को बताया कि वह उस व्यक्ति के प्रेम से पराजित हो जाते हैं जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है । जिसने इन्द्रियों को नहीं जीता है, वह श्रीभगवान् पर कैसे विजयी हो सकता है ? भक्ति का यही रहस्य है । इन्द्रियों को जीतने का अर्थ है कि उनको भगवान् की सेवा में निरन्तर लगा देना । सभी पाण्डव भाइयों का विशेष गुण था कि वे सदैव अपनी इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाये रखते थे । जो व्यक्ति इस प्रकार अपनी इन्द्रियों को लगाये रखता है वह विशुद्ध हो जाता है तथा विशुद्ध इन्द्रियों से भगवान् की वास्तविक सेवा करता है । अत: प्रेममयी दिव्य सेवा के द्वारा भक्त भगवान् पर विजय प्राप्त कर सकता है । भगवान् श्रीकृष्ण ने आगे कहा, "ब्रह्माण्ड के तीनों लोकों में शक्तिशाली देवताओं सहित ऐसा कोई नहीं है, जो मेरे भक्तों को इन छ: ऐश्वर्यों में पराजित कर दे । ये ऐश्वर्य इस प्रकार हैं-धन, शक्ति, प्रतिष्ठा, सौन्दर्य, ज्ञान तथा वैराग्य । अतएव, यदि तुम्हें सांसारिक महाराजाओं को जीतना है, तो उनके द्वारा विजयी होने की तनिक भी सम्भावना नहीं है ।"

जब इस प्रकार श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर को प्रोत्साहित किया, तो महाराज का चेहरा दिव्य आनन्द से खिलते हुए फूल की भाँति चमक उठा और उन्होंने अपने छोटे भाइयों को प्रत्येक दिशा में सभी राजाओं को पराजित करने का आदेश दिया । भगवान् श्रीकृष्ण ने विश्व के नास्तिक दुष्टों को दण्ड देने एवं अपने निष्ठावान् भक्तों की रक्षा करने के उनके महान् कार्य का पालन करने की शक्ति प्रदान की । अपने विष्णु-रूप में, भगवान् अपने चार हाथों में चार प्रकार के शस्त्र धारण करते हैं । दो हाथों में वे कमल पुष्प और शंख धारण करते हैं तथा अन्य दो हाथों में वे गदा और चक्र धारण करते हैं । गदा एवं चक्र अभक्तों के हेतु हैं, परन्तु श्रीभगवान् परम सत्य हैं, अतएव उनके सभी शस्त्रों का फल एक ही होता है । गदा एवं चक्र से वे नास्तिकों को दण्ड देते हैं, जिससे वे होश में आकर यह समझ जाँए कि वे ही सब कुछ नहीं हैं-उनके ऊपर श्रीभगवान् हैं । शंख को बजाकर एवं कमल पुष्प से आशीर्वाद देकर वे सदैव भक्तों को विश्वास दिलाते हैं कि उन्हें कोई भी पराजित नहीं कर सकता, चाहे कितना भी बड़ा संकट क्यों न हो । अतएव भगवान् श्रीकृष्ण के संकेत से आश्वस्त होकर युधिष्ठिर महाराज ने अपने सबसे छोटे भ्राता सहदेव सहित सृंजय वंश के सैनिकों को आदेश दिया कि वे दक्षिणी देशों को पराजित करें । उसी प्रकार उन्होंने नकुल सहित मत्स्य देश के सैनिकों को पश्चिमी दिशा के राजाओं को पराजित करने का आदेश दिया । उन्होंने केकय देश के सैनिकों को अर्जुन के साथ उत्तरी दिशा के राजाओं को हराने का आदेश दिया तथा भीमसेन सहित मद्रदेश (मद्रास) के सैनिकों को आदेश दिया गया कि वे पूर्वी दिशा के राजाओं पर विजय प्राप्त करें । यह ध्यान रखने योग्य बात है कि अपने भ्राताओं को विभिन्न दिशाओं में विजय प्राप्त करने के लिए भेजने के पीछे महाराज युधिष्ठिर का वस्तुत: यह उद्देश्य नहीं था कि वे राजाओं पर हमला बोल दें । वास्तव में, उनके भ्राता विभिन्न दिशाओं में राजाओं को महाराज युधिष्ठिर के द्वारा राजसूय यज्ञ को सम्पन्न करने के इरादे का समाचार देने गए । इस प्रकार राजाओं को यह सूचित किया गया कि यज्ञ को पूरा करने के लिए उन्हें कर देना पड़ेगा । राजा युधिष्ठिर को कर देने का यह अर्थ होता था कि उस राजा ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली है । इस प्रकार का कार्य करने के लिए किसी राजा द्वारा अस्वीकृति की स्थिति में युद्ध अवश्यम्भावी होता था । अत: उनकी शक्ति एवं प्रभाव के द्वारा उनके भ्राताओं ने विभिन्न दिशाओं के राजाओं को पराजित कर दिया तथा उन्होंने पर्याप्त धन एवं उपहार एकत्रित कर लिए जिन्हें लाकर महाराज युधिष्ठिर के सम्मुख प्रस्तुत किया गया ।

तथापि, जब महाराज युधिष्ठिर ने सुना कि मगध के राजा जरासन्ध ने उनके प्रभुत्व को स्वीकार नहीं किया है, तो वे अत्यन्त उद्विग्न हो उठे । महाराज युधिष्ठिर की उद्विग्नता देखकर भगवान् श्रीकृष्ण ने राजा जरासन्ध को पराजित करने के लिए उद्धव द्वारा निर्मित योजना की जानकारी दी । भीमसेन, अर्जुन तथा भगवान् श्रीकृष्ण जरासन्ध की राजधानी गिरिव्रज के लिए ब्राह्मणों की वेशभूषा में एकसाथ निकल पड़े । श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर जाने के पूर्व उद्धव ने यह योजना बनाई थी और अब उसे व्यावहारिक रूप दिया गया ।

राजा जरासन्ध एक कर्तव्यपरायण गृहस्थ था तथा वह ब्राह्मणों का अत्यन्त आदर करता था । वह एक महान् योद्धा, क्षत्रिय राजा था, किन्तु वैदिक आदेशों की कभी-भी उपेक्षा नहीं करता था । वैदिक आदेशों के अनुसार, ब्राह्मणों को अन्य सभी जातियों का गुरु माना जाता है । श्रीकृष्ण, श्रीअर्जुन एवं श्रीभीमसेन वास्तव में क्षत्रिय थे, परन्तु उन्होंने स्वयं ब्राह्मण का रूप धारण किया और वे उस राजा जरासन्ध के पास गए, जो ब्राह्मणों का आदर-सत्कार करने वाला एवं दान देने वाला था । ब्राह्मणों की वेशभूषा में भगवान् श्रीकृष्ण ने राजा से कहा, "हम आप श्रीमान् की महिमा की जयजयकार करते हैं । हम आपके शाही महल के तीन अतिथि हैं तथा हम बहुत दूर से आ रहे हैं । हम आपसे दान माँगने आए हैं तथा हमें आशा है कि आप हमें वह सब कुछ देंगे, जो हम आपसे माँगेंगे । हमें आपके अच्छे गुणों के विषय में ज्ञान है । वह व्यक्ति जो सहनशील होता है, वह कुछ भी सहने के लिए तत्पर रहता है, चाहे वह कितनी भी दुःखद स्थिति में क्यों न हो । जिस प्रकार अपराधी कितने भी निकृष्ट कार्य कर सकता है, उसी प्रकार आपके समान दानी पुरुष किसी के द्वारा माँगने पर कुछ भी दे सकता है । आपके जैसे महान् व्यक्ति के लिए रिश्तेदारों एवं परायों में कोई अन्तर नहीं । एक सुप्रसिद्ध व्यक्ति अपनी मृत्यु के पश्चात् भी सदैव जीवित रहता है । अतएव, कोई व्यक्ति जो ऐसे कार्यों को करने के लिए पूर्णरूपेण उपयुक्त और सुयोग्य है, जो उसके अच्छे नाम को अमर कर सकते हैं, किन्तु तिस पर भी वह ऐसा नहीं करता, तो महान् व्यक्तियों की दृष्टि में वह निकृष्ट बन जाता है । ऐसे व्यक्ति की उपयुक्त निन्दा नहीं की जा सकती तथा दान देने में उसकी अस्वीकृति जीवन-भर के लिए शोचनीय है । आप श्रीमान् ने हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव तथा मुद्गल के जो धान के खेतों से चुने गए अन्न खाकर जीवित रहते थे तथा महाराज शिबि, जिन्होंने अपने शरीर से मांस देकर एक कबूतर के प्राणों की रक्षा की थी जैसे दानियों के, विषय में सुना होगा । इन महान् व्यक्तियों ने इस अस्थायी और नाशवान शरीर को मात्र त्यागकर अमर प्रसिद्धि प्राप्त कर ली है ।" इस प्रकार ब्राह्मण के वेश में श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को सूचित किया कि कीर्ति अविनाशी है, परन्तु यह शरीर नाशवान् है । यदि कोई व्यक्ति अपने नाशवान् शरीर को त्याग कर अविनाशी नाम और कीर्ति प्राप्त कर लेता है, तो मानव सभ्यता के इतिहास में वह सम्मानित व्यक्ति बन जाता है । जब ब्राह्मण के वेश में श्री अर्जुन एवं श्री भीम के साथ श्रीकृष्ण बोल रहे थे, तब जरासन्ध ने ध्यान दिया कि वे दोनों ब्राह्मण नहीं लग रहे हैं । धनुष उठाने की वजह से उनके कन्धों पर दबाव के निशान थे, उनके शरीर सुडौल थे तथा उनकी वाणी गम्भीर एवं प्रभावशाली थी । अत: उसने दृढ़तापूर्वक निष्कर्ष निकाला कि वे ब्राह्मण नहीं अपितु क्षत्रिय थे, किन्तु वे ब्राह्मणों की भाँति भिक्षा माँगने उसके द्वार पर आए थे । अत: उसने निश्चय किया कि उनके क्षत्रिय होते हुए भी वह उनकी इच्छाओं की पूर्ति करेगा । उसने ऐसा इसलिए सोचा, क्योंकि इस प्रकार उसके सम्मुख प्रकट होकर भिक्षा माँगने से ही उनकी स्थिति नष्ट हो चुकी थी । इन परिस्थितियों में, उसने सोचा, "मैं उन्हें कुछ भी देने के लिए तैयार हूँ । यदि वे मेरे शरीर को भी मुझसे माँगे, तो उन्हें उसे दे देने में मैं जरा भी नहीं हिचकूंगा ।" इस सन्दर्भ में, वह बलि महाराज के विषय में सोचने लगा । ब्राह्मण के वेश में विष्णुजी बलि के सम्मुख प्रकट हुए और उसका सारा ऐश्वर्य तथा राज्य छीन लिया । उन्होंने इन्द्र के लाभ के लिए ऐसा किया, क्योंकि बलि महाराज द्वारा परास्त होने पर वह राज्यविहीन हो गया था । यद्यपि बलि महाराज को धोखा दिया गया था, तथापि जो सर्वस्व दान में दे सकता था, ऐसे महान् भक्त के रूप में आज उनकी ख्याति का यशगान तीनों लोकों में किया जाता है । बलि महाराज ने अंदाज लगा लिया था कि वह ब्राह्मण स्वयं श्रीविष्णु हैं और इन्द्रदेव की ओर से उसके ऐश्वर्य को ले लेने मात्र के लिए आए हैं । बलि के गुरु महाराज और परिवारिक पुजारी शुक्राचार्य ने अनेकानेक बार इस विषय में चेतावनी दी, तो भी ब्राह्मण ने जो कुछ माँगा, बलि ने वह सब दान में दे दिया और अन्त में उसने उस ब्राह्मण को अपना सर्वस्व दे दिया । जरासन्ध ने सोचा, "यह मेरा दृढ़ संकल्प है, कि यदि इस नाशवान् शरीर को त्यागकर मैं अमर प्रसिद्धि प्राप्त कर सकता हूँ, तो मुझे उस उद्देश्य के लिए कार्य करना चाहिए । उस क्षत्रिय के जीवन की अवश्य निन्दा की जाती है, जो ब्राह्मण के कल्याण के लिए नहीं जीता ।" वास्तव में, ब्राह्मणों को दान देने में जरासन्ध अत्यन्त उदार था । अतएव उसने श्रीकृष्ण, श्रीभीम एवं श्रीअर्जुन को सूचित किया: "मेरे प्रिय ब्राह्मणो ! तुम मेरे पास से जो चाहो, वह माँग सकते हो । यदि तुम चाहो, तो तुम मेरा सिर भी ले सकते हो । मैं उसे देने के लिए तैयार हूँ ।" इसके पश्चात् श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को इस प्रकार सम्बोधन किया: ““प्रिय राजन् ! कृपया ध्यान दीजिए कि हम वास्तव में ब्राह्मण नहीं हैं, न ही हम धन-

धान्य माँगने आए हैं । हम क्षत्रिय हैं तथा हम आपसे एक द्वंद्व युद्ध की माँग करने आए हैं । हमें आशा है कि आप हमारे प्रस्ताव को स्वीकार करेंगे । आप ध्यान कर सकते हैं कि यहाँ पर पाण्डु के द्वितीय पुत्र भीमसेन एवं तृतीय पुत्र अर्जुन भी उपस्थित हैं । जहाँ तक मेरा प्रश्न है, तो तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि मैं तुम्हारा पुराना शत्रु एवं पांडवों का भाई कृष्ण हूँ ।

जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी वास्तविकता बतलाई, तो राजा जरासन्ध जोर-जोर से हँसने लगा और फिर अत्यन्त क्रोध एवं गम्भीर ध्वनि में उसने चिल्लाकर कहा, "मूर्खों ! यदि तुम मुझसे लड़ना चाहते हो, तो मैं तुम्हारा निवेदन स्वीकार करता हूँ । परन्तु कृष्ण ! मैं जानता हूँ कि तुम कायर हो । मैं तुमसे युद्ध करने से इनकार करता हूँ, क्योंकि तुम मुझसे लड़ते समय घबड़ा जाते हो । मेरे ड़र से तुमने अपने शहर मथुरा को भी छोड़ दिया तथा अब तुमने सागर के भीतर शरण ली है । अतएव मैं तुमसे युद्ध करने से इनकार करता हूँ । जहाँ तक भीमसेन का प्रश्न उठता है, मैं सोचता हूँ कि मुझसे लड़ने के लिए वह उपयुक्त प्रतिस्पर्धा है ।" इस प्रकार बोलने के बाद राजा जरासन्ध ने तत्काल ही एक बहुत भारी गदा भीमसेन को दी तथा स्वयं एक दूसरी गदा ले ली तथा वे सभी लोग युद्ध करने के हेतु शहर की सीमा से बाहर गए ।

भीमसेन और राजा जरासन्ध युद्ध करने में संलग्न हो गए तथा शक्तिशाली गदाओं से बिजली के समान वे जोर-जोर से एक दूसरे पर वार करने लगे । वे दोनों ही युद्ध के लिए उत्सुक थे । वे दोनों ही गदाओं से युद्ध करने की कला में सुनिपुण थे । एक दूसरे पर वार करने की उनकी तकनीक इतनी सुन्दर थी कि उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता कि दो नट मंच पर नृत्य कर रहे हैं । जब जरासन्ध और भीमसेन की गदाएँ जोर से टकरातीं, तो उसके द्वारा उत्पन्न ध्वनि दो योद्धा हाथियों के विशाल दाँतों की टक्कर के समान अथवा तूफान में चमकती हुई बिजली के समान प्रतीत होती । जब गन्ने के खेत में दो हाथी युद्ध करते हैं, तो प्रत्येक हाथी गन्ने के तने को ले लेता है और अपनी सूंड़ में उसे पकड़कर एक दूसरे पर आक्रमण करता है । प्रत्येक हाथी अपने शत्रु के कंधों, भुजाओं, हँसलियों, छाती, जंघाओं, कमर तथा पैरों पर प्रहार करता है तथा इस प्रकार गन्ने के तने चकनाचूर हो जाते हैं । उसी प्रकार जरासन्ध तथा भीमसेन के द्वारा प्रयुक्त गदाएँ टूट चुकी थीं, अत: दोनों शत्रु अपनी शक्तिशाली भुजाओं से युद्ध करने के लिए तैयार हो गए । जरासन्ध एवं भीमसेन दोनों क्रोधित थे और अपनी मुट्ठियों से एक दूसरे पर प्रहार करने लगे । उनकी मुट्ठियों का टकराव लोहे की सलाखों के भिड़ने अथवा बिजली की कड़कड़ाहट के समान प्रतीत होता था । उनको देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि दो हाथी युद्ध कर रहे हैं । दुर्भाग्य से वे आपस में किसी को भी पराजित नहीं कर पाये, क्योंकि दोनों युद्धकला में निपुण थे, दोनों की शक्तियाँ एकसमान थीं तथा युद्ध की उनकी तकनीक भी एकसमान थी । न तो जरासन्ध न ही भीमसेन युद्ध में पराजित हुए और न ही उन्होंने किसी थकावट का अनुभव किया, यद्यपि वे निरन्तर एक दूसरे पर प्रहार करते रहे । दिवस की समाप्ति होने पर दोनों जरासन्ध के महल में मित्र बनकर रहते तथा अगले दिन वे फिर युद्ध करने लगते । इस प्रकार लड़ते-लड़ते उन्होंने सत्ताइस दिन व्यतीत किए ।

अट्ठाइसवें दिन भीमसेन ने श्रीकृष्ण से कहा, "मेरे प्रिय कृष्ण ! मुझे निस्संकोच स्वीकार करना चाहिए कि मैं जरासन्ध को पराजित नहीं कर सकता ।" किन्तु श्रीकृष्ण जरासन्ध के जन्म के रहस्य के विषय में जानते थे । जरासन्ध दो भागों में एवं दो माताओं से उत्पन्न हुआ था । जब उसके पिता ने देखा कि वह शिशु बेकार है, तो उसने दोनों भागों को जंगल में फेंक दिया, जिन्हें बाद में जरा नामक डाइन ने खोज निकाला । ऊपर से नीचे तक उस शिशु के दोनों भागों को जोड़ने में वह सफल हो गयी । श्रीकृष्ण को यह भी ज्ञात था कि उसे किस प्रकार मारा जा सकता है । उन्होंने भीमसेन को संकेत किया, क्योंकि जरासन्ध को उसके शरीर के दो भागों को जोड़कर जीवित किया गया था, इसलिए उसे इन दो भागों को अलग करके मारा जा सकता है । अतएव श्रीकृष्ण ने अपनी शक्ति को भीम के शरीर में स्थानान्तरित कर दिया तथा उन्हें उस विधि के विषय में सूचित किया जिसके द्वारा जरासन्ध को मारा जा सकता है । तुरन्त ही श्रीकृष्ण ने वृक्ष से एक टहनी तोड़ी और उसे हाथ में पकड़कर दो हिस्से कर दिये । इस प्रकार श्रीकृष्ण ने भीमसेन को संकेत किया कि किस प्रकार जरासन्ध को मारा जा सकता है ।

भगवान् श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान हैं तथा यदि वे किसी व्यक्ति को मारना चाहते हैं, तो कोई भी उस व्यक्ति को नहीं बचा सकता । उसी प्रकार, यदि वे किसी की रक्षा करना चाहते हैं, तो कोई भी उस व्यक्ति को नहीं मार सकता । भगवान् श्रीकृष्ण के संकेतों के अनुसार भीमसेन ने तत्काल ही जरासन्ध के पैरों को पकड़ा तथा उसे धरती पर जोर से पटक दिया । जब जरासन्ध धरती पर गिर गया, तो भीमसेन ने तत्काल ही जरासन्ध के एक पैर को धरती पर दबाया तथा दूसरे पैर को अपने दोनों हाथों से उठाया । जरासन्ध को इस प्रकार पकड़ कर उसने गुदा से लेकर सिर तक उसके शरीर के दो टुकड़े कर दिए । जिस प्रकार हाथी एक वृक्ष की टहनियों के दो टुकड़े करता है, उसी प्रकार भीमसेन ने जरासन्ध के शरीर को दो खण्डों में अलग कर दिया । समीप खड़े हुए प्रेक्षकों ने देखा कि जरासन्ध का शरीर अब दो भागों में विभाजित हो गया है, जिसकी वजह से प्रत्येक भाग में एक पैर, एक जाँघ, एक अण्ड, एक वक्ष, आधी रीढ़ की हड़ी, आधी छाती, एक हॅसली, एक भुजा, एक आँख, एक कान तथा आधा चेहरा था ।

जैसे ही जरासन्ध की मृत्यु के समाचार की घोषणा हुई, वैसे ही मगध के सभी नागरिक हाय-हाय करके चिल्लाने लगे जबकि भगवान् श्रीकृष्ण एवं अर्जुन भीम को बधाई देने के लिए उनका आलिंगन करने लगे । यद्यपि जरासन्ध की मृत्यु हो चुकी थी, किन्तु न तो श्रीकृष्ण ने और न दोनों पाण्डव भ्राताओं ने सिंहासन की माँग की । जरासन्ध को मारने का उनका उद्देश्य सांसारिक शान्ति में उत्पन्न बाधा को रोकना था । असुर सदैव ही बाधा उत्पन्न करते हैं, जबकि देवता सदैव जगत् में शान्ति बनाए रखने का प्रत्यन्न करते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण का उद्देश्य धर्मपरायण लोगों की रक्षा करना तथा उन दानवों का वध करना है, जो शांतिमय स्थिति को भंग करते हैं ।

अतएव भगवान् श्रकृष्ण ने तुरन्त जरासन्ध के पुत्र सहदेव को बुलाया और उचित धर्मक्रियाओं को सम्पन्न करके उससे अपने पिता की गद्दी पर बैठकर अपने राज्य पर शान्तिपूर्वक शासन करने के लिए कहा । भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी हैं तथा वे चाहते हैं कि सभी सूखपूर्वक रहें और कृष्णभावनामृत का पालन करें । सहदेव को सिंहासन पर बिठाने के पश्चात्, उन्होंने उन सभी राजाओं एवं राजकुमारों को मुक्त कर दिया, जिन्हें जरासन्ध ने अकारण ही बन्दी बनाकर रखा था ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “राजा जरासन्ध की मुक्ति” नामक बहत्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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